शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

मुझे सहल हो गईं मंज़िलें / मजरूह सुल्तानपुरी

मुझे सहल हो गईं मंजिलें वो हवा के रुख भी बदल गये ।

तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गये ।


वो लजाये मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर,

उड़ी जुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज मचल गये ।


वही बात जो न वो कह सके मिरे शेर-ओ-नज़्मे आ गई,

वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दहे-शराब में ढ़ल गये ।


तुझे चश्मे-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज्म है,

तुझे तश्मे-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गये ।


उन्हें कब के रास भी आ चुके तिरी बज्मे-नाज़े के हादिसे,

अब उठे कि तेरी नज़र फिरे जो गिरे थे गर के संभल गये ।


मिरे काम आ गई आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें,

बढी इस क़दर मिरी मंजिलें कि क़दम के खार निकल गये ।

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