रविवार, अप्रैल 26, 2009

वह नभ कंपनकारी समीर / हरिवंशराय बच्चन

वह नभ कंपनकारी समीर,

जिसने बादल की चादर को

दो झटके में तार-तार,

दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,

डाले अनगिन तरूवर उखाड़;

होता समाप्‍त अब वह समीर

कलि की मुसकानों पर मलीन!

वह नभ कंपनकारी समीर।


वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर,

जिसने क्षिति के वक्षस्‍थल को

निज तेतधार से दिया चिर,

कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-

घर बेनिशान कर मग्‍न-नीर,

होता समाप्‍त अब वह प्रबाह

तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!

वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर।


मेरे मानस की महा पीर,

जो चली विधाता के सिर पर

गिरने को बनकर वज्र शाप,

जो चलीभस्‍म कर देने को

यक निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;

होती समाप्‍त अब वही पीर,

लघु-लघु गीतों में शक्तिहीन!

मेरे मानस की महा पीर।

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