शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

कैफी आजमी की मकान और दूसरा वनवास

@@@@@@@मकान@@@@@@@@@@@
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने ।
इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने ।

हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने ।
कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने ।

आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने ।
बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये ।

अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान
बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये ।
दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक
रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये ।

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

@@@@@@@दूसरा वनवास@@@@@@@@@@@


राम बनवास से जब लौटके घर में आये

याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये

रक़्सेदीवानगी आँगन में जो देखा होगा

छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा

इतने दीवाने कहाँ से मेरे घर में आये


जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशां

प्यार की कहकशां लेती थी अँगडाई जहाँ

मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र से आये


धर्म क्या उनका है क्या ज़ात है यह जानता कौन

घर न जलता तो उन्हें रात मे पहचानता कौन

घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आये


शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा ख़ंजर

तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर

है मेरे सर की ख़ता ज़ख़्म जो सर में आये


पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे

कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे

पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे

राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे

छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे !

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