शनिवार, मई 02, 2009

पत्थर के ख़ुदा

पत्‍थर के ख़ुदा पत्‍थर के सनम पत्‍थर के ही इंसां पाए हैं
तुम शहरे मुहब्‍बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं ।।



बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो ना वहां क्‍या हालत हैं
हम लोग वहीं से गुज़रे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं ।।



हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहां
सहरा में खु़शी के फूल नहीं, शहरों में ग़मों के साए हैं ।।



होठों पे तबस्‍सुम हल्‍का-सा आंखों में नमी से है 'फाकिर'
हम अहले-मुहब्‍बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं ।।

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