सोमवार, मई 11, 2009

दिन सलीक़े से उगा, रात ठिकाने से रही

दिन सलीक़े से उगा, रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही


चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही


इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही


फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही


शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही

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