शुक्रवार, मई 01, 2009

मैं कब से गोश बर-आवाज़ हूँ पुकारो भी

मैं कब से गोश बर-आवाज़ हूँ पुकारो भी
ज़मीं पर यह सितारे कभी उतारो भी



मेरी गय्यूर उमंगो, शबाब फानी है
गुरूर-ए-इश्क़ का देरीना खेल हारो भी



भटक रहा है धुन्धल्कों में कारवान-ए-ख़याल
बस अब खुदा के लिए काकुलें संवारो भी



मेरी तलाश की मेराज हो तुम्हीं लेकिन
नकाब उठाओ, निशान-ए-सफ़र उभारो भी



यह काएनात, अजल से सुपुर्द-ए-इन्सां है
मगर नदीम तुम इस बोझ को सहारो भी

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