गुरुवार, मई 07, 2009

'मेरी ज़िंदगी की दीप' - सौरभ कुणाल

एक दीप जल रही
मेरी ज़िंदगी की
कभी मद्धम, कभी तेज़
रह रह के भभक रही
कभी दम तोड़ के उठ रही
मेरी ज़िंदगी की दीप जल रही।
दम तोड़ती
दिल के अपेक्षाओं से
कभी बुझती
सांसों की लहरों से
ये दीप ।
आशाओं के भंवर में
अनजानों के शहर में
कभी दबी चाहतों के तेल में
ये दीप धीमे से जल रही
मेरी ज़िंदगी की दीप जल रही।

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