सोमवार, मई 18, 2009

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें* हैं
क़लन्दरी* यहाँ पलने के बाद आती है

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है

(ख़ानक़ाहें- आश्रम, क़लन्दरी- फक्कड़पन)

2 टिप्पणियाँ:

Randhir Singh Suman ने कहा…

good

Unknown ने कहा…

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

- bahut khoob