बुधवार, जून 03, 2009

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के



आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के



इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के



कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिन्झोड़ के



इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं

हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं है सियाह फिर
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर



होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार-बार
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर



पिछले सफ़र की गर्द को दामन से झाड़ दो
आवाज़ दे रही है कोई सूनी राह फिर



बेरंग आसमाँ को देखेगी कब तलक
मंज़र नया तलाश करेगी निगाह फिर



ढीली हुई गिरफ़्त जुनूँ की के जल उठा
ताक़-ए-हवस में कोई चराग़-ए-गुनाह फिर

सूरज का सफ़र ख़त्म हुआ रात न आयी

सूरज का सफ़र ख़त्म हुआ रात न आयी
हिस्से में मेरे ख्वाबों की सौगत न आयी



मौसम ही पे हम करते रहे तब्सरा ता देर
दिल जिस से दुखे ऐसी कोई बात न आयी



यूं डोरे को हम वक्त की पकड़े तो हुए थे
एक बार मगर छूटी तो फिर हाथ न आयी



हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी



हर सिम्त नज़र आती हैं बेफ़सल ज़मीन
इस साल भी शहर में बरसात न आयी

सीने में जलन

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है



दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है



तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है



हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है



क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है




टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने 1979 में बनी फ़िल्म "गमन" के लिये लिखा था।

शंख बजने की घड़ी

आँख मन्दिर के कलश पर रखो
शंख बजने की घड़ी आ पहुँची
देवदासी के कदम रुक- रुक कर
आगे बढ़ते हैं
जमीं के नीचे
गाय को सींग बदलने की बड़ी जल्दी है
बुलहवस आखों ने फिर जाल बुना
खून टपकाती जबाँ फिर से हुई मसरुफे-सफर
साधना भंग ना हो अब के भी
जोर से चीख के श्लोक
पुजारी ने पढ़े
आँख मन्दिर के कलश पर रक्खो

ये क्या जगह है दोस्तों

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है



ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है



तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है



बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है



न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है




टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान" के लिये लिखा था।

यह क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गये होते

यह क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गये होते
इक पल भी अगर भूल से हम सो गये होते



ऐ शहर तेरा नाम-ओ-निशां भी नहीं होता
जो हादसे होने थे अगर हो गये होते



हर बार पलटते हुए घर को यही सोचा
ऐ काश किसी लम्बे सफ़र को गए होते



हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है
अज़दाद कहीं पेड़ भी कुछ बो गये होते



किस मुंह से कहें तुझसे समन्दर के हैं हक़दार
सेराब सराबों से भी हम हो गये होते

मैं नहीं जागता

मैं नहीं जागता, तुम जागो
सियाह रात की जुल्फ, इतनी उलझी है कि सुलझा नहीं सकता
बारहा* कर चुका कोशिश मैं तो
तुम भी अपनी सी करो
इस तगो-दौ* के लिए ख्वाब मेरे हाजिर हैं
नींद इन ख्वाबों के दरवाजों से लौट जाती है
सुनो, जागने के लिए इनका होना
सहूल कर देगा बहुत कुछ तुम पर
आसमां रंग में कागज की नाव
रुक गई है इसे हरकत में लाओ
और क्या करना है तुम जानते हो
मैं नहीं जागता, तुम जागो
सियाह रात की जुल्फ
इतनी उलझी है कि सुलझा नहीं सकता

# कई बार
# दौड़धूप

महफिल में बहुत लोग थे

महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था
हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था



ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था
प्यासों के तअक्कुब* सुना दरिया गया था



आँखे हैं कि बस रौजने दीवार* हुई हैं
इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था



ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए
कल धूप तहफ्फुज* के लिए साया गया था



वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ
ये वक्त शबो-रोज* में जब बाँटा गया था



पीछा करना

झरोखा

संरक्षण

रात-दिन

नया अमृत

दवाओं की अलमारियों से सजी
इक दुकान में
मरीज़ों के अन्बोह में मुज़्महिल सा
इक इन्साँ खड़ा है
जो इक कुबड़ी सी शीशी के
सीने पे लिखे हुए
इक-इक हर्फ़ को ग़ौर से पढ़ रहा है
मगर इस पे तो ज़हर लिखा हुआ है
इस इन्सान को क्या मर्ज़ है
ये कैसी दवा है

दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं

दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं, बदला नहीं हूँ मैं।
तुझसे बिछड़ के क्यों लगता है, तनहा नहीं हूँ मैं।



उम्र-सफश्र में कब सोचा था, मोड़ ये आयेगा।
दरिया पार खड़ा हूँ गरचे प्यासा नहीं हूँ मैं।



पहले बहुत नादिम था लेकिन आज बहुत खुश हूँ।
दुनिया-राय थी अब तक जैसी वैसा नहीं हूँ मैं।



तेरा लासानी होना तस्लीम किया जाए।
जिसको देखो ये कहता है तुझ-सा नहीं हूँ मैं।



ख्वाबतही कुछ लोग यहाँ पहले भी आये थे।
नींद-सराय तेरा मुसाफिश्र पहला नहीं हूँ मैं।

दिल चीज़ क्या है

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये



इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये



माना के दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास
लेकिन ये क्या के ग़ैर का एहसान लीजिये



कहिये तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये




टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म
"उमराव जान" के लिये लिखा था।

जुस्तजू जिस की थी

जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने



तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हम ने



कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हम ने



ऐ "अदा" और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हम ने




जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने



तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हम ने



कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हम ने



ऐ "अदा" और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हम ने




टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान" के
लिये लिखा था। फ़िल्म में नायिका उमराव जान एक
शायरा भी हैं और उनका तख़ल्लुस "अदा" है।

ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी

ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है



घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है



बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है



अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है



आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में

ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें



सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें



याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें



हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें




टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान"
के लिये लिखा था। फ़िल्म में नायिका उमराव जान
एक शायरा भी हैं और उनका तख़ल्लुस "अदा" है।

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है अहसास कहीं कुछ कम है



घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है



बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है



अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है



आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

ख़ून में लथ-पथ हो

ख़ून में लथ-पथ हो गये साये भी अश्जार के
कितने गहरे वार थे ख़ुशबू की तलवार के



इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाज़े इज़हार के



आओ उठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
बैठे-बैठे थक गये साये में दिलदार के



रास्ते सूने हो गये दीवाने घर को गये
ज़ालिम लम्बी रात की तारीकी से हार के



बिल्कुल बंज़र हो गई धरती दिल के दश्त की
रुख़सत कब के हो गये मौसम सारे प्यार के

किस-किस तरह से मुझको

किस-किस तरह से मुझको न रुसवा किया गया
ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया



निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में
भूले से इस सुकूत के सहरा में आ गया



क्यों आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
क्यों आज उस का नाम मेरा दिल दुखा गया



इस हादसे को सुन के करेगा यक़ीं कोई
सूरज को एक झोंका हवा का बुझा गया

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का



ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का



ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का



वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का



ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का

कटेगा देखिए दिन

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ



तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ



बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ



फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ



ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं



जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं



अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं



जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं



काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम



हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम



हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम



वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम



फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम



सराब = मरीचिका
जाविए = कोण
नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान
हिजाब = पर्दा

इन आँखों की मस्ती के

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं



इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं



इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं



इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं




टिप्पणी:
इस गज़ल को शहरयार ने फ़िल्म "उमराव जान" के
लिये लिखा था। फ़िल्म में नायिका उमराव जान एक
शायरा भी हैं और उनका तख़ल्लुस "अदा" है।

मंगलवार, जून 02, 2009

अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो

अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो



हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख़्म मेरे दिल का भर गया यारो



भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो



वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारो

असद बदायूँनी की मौत पर

ख़्वाहिशे-मर्ग की सरशारी में
यह भी नहीं सोचा
जीना भी एक कारे-जुनूं है इस दुनिया के बीच
और लम्बे अनजान सफ़र पर चले गए तन्हा
पीछे क्या कुछ छूट गया है
मुड़के नहीं देखा।

अज़ल की नग़्मगी

छिपाई उसने न मुझसे कभी कोई भी बात
मैं राज़दार था उसका, वो ग़मग़ुसार मेरा
कई जनम का बहुत पायदार रिश्ता था
मेरे सिवा भी हज़ारों से उसकी क़ुरबत थी
शिमाख़्त उसकी अगर थी तो बस मुहब्बत थी
सफ़र में ज़ीस्त के वह तेज़गाम था इतना
रुका न वाँ भी जहाँ पर क़्याम करना था
ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे
अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी
दिले-कुशादा में उसने अजल को रक्खा था
अज़ाबे-हिज्र मुक़द्दर में मेरे लिक्ख़ा था
सो बाक़ी उम्र मुझे यह अज़ाब सहना है
फ़लक को देखना हरदम, ज़मीं पर रहना है
ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे
अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी।

जीने की लत

मुझसे मिलने आने वाला कोई नहीं है

फिर क्यों घर के दरवाज़े पर तख़्ती अब है

जीने की लत पड़ जाए

तो छूटती कब है।

सहर का खौफ़

शाम का ढलना नई बात नहीं

इसलिए ख़ौफ़ज़दा हूँ इतना

आने वाली जो सहर है उसमें

रात शामिल नहीं

यह जानता हूँ।

सच बोलने की ख़्वाहिश

ऎसा इक बार किया जाए

सच बोलने वाले लोगों में

मेरा भी शुमार किया जाए।

जागने का लुत्फ़

तेरे होठों पे मेरे होठ

हाथों के तराज़ू में

बदन को तोलना

और गुम्बदों में दूर तक बारूद की ख़ुशबू

बहुत दिन बाद मुझको जागने में लुत्फ़ आया है।

लम्बे बोसों का मरकज़

वह सुबह का सूरज जो तेरी पेशानी था

मेरे होठों के लम्बे बोसों का मरकज़ था

क्यों आँख खुली, क्यों मुझको यह एहसास हुआ

तू अपनी रात को साथ यहाँ भी लाया है।

सज़ा पाओगे।

बेची है सहर के हाथों

रातों की सियाही तुमने

की है जो तबाही तुमने

किस रोज़ सज़ा पाओगे।

फ़िरक़ापरस्ती

नीम पागल लोग

इस तादाद में

कुछ असर आए मेरी फ़रयाद में।

ऎ तन्हाई!

कुछ लोग तो हों जो सच बोलें

यह ख़्वाहिश दिल में फिर आई

है तेरा करम, ऎ तन्हाई!

सुबह से उदास हूँ।

हवा के दरमियान आज रात का पड़ाव है

मैं अपने ख़्वाब के चिराग़ को

जला न पाऊंगा ये सोच के

बहुत ही बदहवास हूँ

मैं सुबह से उदास हूँ।

तुझे कुछ याद आता है।

मैं तेरे जिस्म तक किन रास्तों से

होके पहुँचा था

ज़मीं, आवाज़ और गंदुम के ख़ोशों की महक

मैं साथ लाया था

तुझे कुछ याद आता है।

बदन पाताल

हवस-आकाश के नीचे भी उतरूँ

बदन-पाताल में ता-देर ठहरूँ

मैं अपने आप को जी भर के देखूँ।

एक सच

शोर समाअत के दर पे है, जानते हो

मौत के क़दमों की आहट पहचानते हो

होनी को कोई भी टाल नहीं सकता

यह इक ऎसा सच है, तुम भी मानते हो।

जीने की हवस

सफ़र तेरी जानिब था

अपनी तरफ़ लौट आया

हर इक मोड़ पर मौत से साबक़ा था

मैं जीने से लेकिन कहाँ बाज़ आया।

मंज़र कितना अच्छा होगा।

मैं सुबह सवेरे जाग उठा

तू नींद की बारिश में भीगा, तन्हा होगा

रस्ता मेरा तकता होगा

मंज़र कितना अच्छा होगा।

अजीब काम

रेत को निचोड़कर पानी को निकालना

बहुत अजीब काम है

बड़े ही इनहमाक से ये काम कर रहा हूँ मैं।


शब्दार्थ :

इनहमाक=तन्मयता

ज़िन्दा रहने की शर्त

हर एक शख़्स अपने हिस्से का अज़ाब ख़ुद सहे

कोई न उसका साथ दे

ज़मीं पे ज़िन्दा रहने की ये एक पहली शर्त है।

देर तक बारिश हुई।

शाम को इंजीर के पत्तों के पीछे

एक सरगोशी बरहना पाँव

इतनी तेज़ दौड़ी

मेरा दम घुटने लगा

रेत जैसे ज़ायक़े वाली किसी मशरूब की ख़्वाहिश हुई

वह वहाँ कुछ दूर एक आंधी चली

फिर देर तक बारिश हुई।


शब्दार्थ :

मशरूब=पेय

उस उदास शाम तक

लज़्ज़तों की जुस्तजू में इतनी दूर आ गया हूँ
चाहूँ भी तो लौट के जा नहीं सकूंगा मैं
उस उदास शाम तक
जो मेरे इन्तज़ार में
रात से नहीं मिली।

मैं डरता हूँ

ऐं डरता हूँ,
मैं डरता हूँ, उन लम्हों से
उन आने वाले लम्हों से
जो मेरे दिल और उसके इक-इक गोशे में
बड़ी आज़ादी से ढूँढ़ेंगे
उन ख़्वाबों को, उन राज़ों को
जिन्हें मैंने छिपाकर रखा है इस दुनिया से।

रेंगने वाले लोग

चलते-चलते रेंगने वाले ये लोग
रेंगने में इनके वह दम-ख़म नहीम
ऎसा लगता है कि इनको ज़िल्लतें
मुस्तहक़ मेक़्दार से कुछ कम मिलीं।

मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे

किसी एक छत की मुंडेर पर
मुझे तक रहा है जो देर से
मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे
ये जो धुन्ध-सी है ज़रा, हटा
कोई उसका मुझको सुराग़ दे
कि मैं उसको नाम से दूँ सदा।

जो इन्सान था पहले कभी

शहर सारा ख़ौफ़ में डूबा हुआ है सुबह से

रतजगों के वास्ते मशहूर एक दीवाना शख़्स

अनसुनी, अनदेखी ख़बरें लाना जिसका काम है

उसका कहना है कि कल की रात कोई दो बजे

तेज़ यख़बस्ता हवा के शोर में

इक अजब दिलदोज़, सहमी-सी सदा थी हर तरफ़

यह किसी बुत की थी जो इन्सान था पहले कभी।




शब्दार्थ :

यख़बस्ता= ठंडी; सदा=पुकार,आवाज़

सहरा की हदों में दाख़िल

सहरा की हदों में दाख़िल

जो लोग नहीं हो पाए

शहरों की बहुत-सी यादें

हमराह लिए आए थे।

तसलसुल के साथ

वह, उधर सामने बबूल तले

इक परछाईं और इक साया

अपने जिस्मों को याद करते हैं

और सरगोशियों की ज़र्बों से

इक तसलसुल के साथ वज्द में हैं।

किस तरह निकलूँ

मैं नीले पानियों में घिर गया हूँ

किस तरह निकलूँ

किनारे पर खड़े लोगों के हाथों में

ये कैसे फूल हैं?

मुझे रुख़्सत हुए तो मुद्दतें गुज़रीं।

सज़ा की ख़्वाहिश

मैंने तेरे जिस्म के होते

क्यों कुछ देखा

मुझको सज़ा इसकी दी जाए।

पानी की दीवार का गिरना

बामे-खला से जाकर देखो

दूर उफ़क पर सूरज-साया

और वहीं पर आस-पास ही

पानी की दीवार का गिरना

बोलो तो कैसा लगता है?

अज़ाब की लज़्ज़त

फिर रेत भरे दस्ताने पहने बच्चों का

इक लम्बा जुलूस निकलते देखने वाले हो

आँखों को काली लम्बी रात से धो डालो

तुम ख़ुशक़िस्मत हो, ऎसे अज़ाब की लज़्ज़त

फिर तुम चक्खोगे।

सवारे-बेसमंद

ज़मीन जिससे छुट गई

बाब ज़िन्दगी का जिस पे बन्द है

वो जानता है यह कि वह सवारे-बेसमंद है

मगर वो क्या करे,

कि उसको आसमाँ को जाने वाला रास्ता पसन्द है।




शब्दार्थ :

सवारे-बेसमंद=बिना घोड़े का सवार; बाब=दरवाज़ा