शुक्रवार, मार्च 27, 2009

इंसान इंसान की बलि मांग रहे हैं - हयात हाशमी

दिल खून है, हर आँख है नम,

देख रहे हो इस दौर का दस्तूर-ए-करम,

देख रहे हो इंसान से इंसान की बलि मांग रहे हैं

ज़हनों के तराशीदा सनम, देख रहे हो

अखबार में मिलती है सदा खून की सुर्खी

औराक़-ए-सियाह पोश का ग़म देख रहे हो

बेबस है मेरी ज़ात तो मजबूर महज़ तुम

आज़ाद ग़ुलामों के सितम देख रहे हो

इंसान के बचने की कोई राह नहीं है

हर मोड़ पे ये दैर-ओ-हरम देख रहे हो

खुद अपने लिए फ़ैसला-ए-मौत लिखा है

टूटी हुई ये नोक-ए-क़लम देख रहे हो

देखा है हयात हमने उन्हें मौत के मुँह में

तुम जिनको किताबों में रक़म देख रहे हो

मुझे देख के हँसती है दुनिया - राहत इन्दौरी

वो इक इक बात पर रोने लगा था

समन्दर आबरू खोने लगा था

लगे रहते थे सब दरवाज़े , फिर भी मैं

आँखें खोल कर सोने लगा था

चुराता हूँ अब आँखें आईनों से

खुदा का सामना होने लगा था

वो अब आईने धोता फिर रहा है

उसे चहरों पे शक होने लगा था

मुझे अब देख के हँसती है दुनिया

मैं सब के सामने रोने लगा था

दुनिया बच्चों का खिलौना है

दुनिया जिसे कहते हैं बच्चे का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है

अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

ये वक़्त जो तेरा है, ये वक़्त जो मेरा है
हर गाम पे पहरा है फिर भी इसे खोना है

ग़म हों कि खुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है, हँसना है न रोना है

आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आँगन को
आकाश की चादर है, धरती का बिछौना है

ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो

धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो।

सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई बनाकर देखो।

पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाकर देखो।

वो सितारा है चमकने दो यूँही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो।

फ़ासिला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
चाँद जब चमके ज़रा हाथ बढ़ा कर देखो।

हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं

कच्चे बखिए की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं
हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं।

यूँ हुआ दूरियाँ कम करने लगे थे दोनों
रोज़ चलने से तो रस्ते भी उखड़ जाते हैं।

छाँव में रख के ही पूजा करो ये मोम के बुत
धूप में अच्छे भले नक़्श बिगड़ जाते हैं।

भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में
बेख़्याली में कई शहर उजड़ जाते हैं।

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए

बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए

दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए

ये तो चेहरे की शबाहत हुई तक़दीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए

कोई आवाज़ तो जंगल में दिखाए रस्ता
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए

तुमने कितनी निर्दयता की !

तुमने कितनी निर्दयता की !

सम्मुख फैला कर मधु-सागर,

मानस में भर कर प्यास अमर,

मेरी इस कोमल गर्दन पर

रख पत्थर का गुरु भार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

अरमान सभी उर के कुचले,

निर्मम कर से छाले मसले,

फिर भी आँसू के घूँघट से

हँसने का ही अधिकार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

जग का कटु से कटुतम बन्धन,

बाँधा मेरा तन-मन यौवन,

फिर भी इस छोटे से मन में

निस्सीम प्यार उपहार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

कारवां गुज़र गया

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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए, छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके, मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे, वक्त से पिटेपिटे
साँस की शराब का खुमार देखते
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे, नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन नयन,
पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजान से,दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

मज़दूर / सीमाब अकबराबादी

गर्द चेहरे पर, पसीने में जबीं डूबी हई
आँसुओं मे कोहनियों तक आस्तीं डूबी हुई
पीठ पर नाक़ाबिले बरदाश्त इक बारे गिराँ
ज़ोफ़ से लरज़ी हुई सारे बदन की झुर्रियाँ
हड्डियों में तेज़ चलने से चटख़ने की सदा
दर्द में डूबी हुई मजरूह टख़ने की सदा
पाँव मिट्टी की तहों में मैल से चिकटे हुए
एक बदबूदार मैला चीथड़ा बाँधे हुए
जा रहा है जानवर की तरह घबराता हुआ
हाँपता, गिरता,लरज़ता ,ठोकरें खाता हुआ
मुज़महिल बामाँदगी से और फ़ाक़ों से निढाल
चार पैसे की तवक़्क़ोह सारे कुनबे का ख़याल
अपनी ख़िलक़त को गुनाहों की सज़ा समझे हुए
आदमी होने को लानत और बला समझे हुए
इसके दिल तक ज़िन्दगी की रोशनी जती नहीं
भूल कर भी इसके होंठों तक हसीं आती नहीं

मज़रूह: घायल ; मुज़महिल : थका हुआ ; बामाँदगी: दुर्बलता