रविवार, फ़रवरी 21, 2010

राग-ओ-पै में कोई लज़्ज़त अज़ब थी

गज़ाल-ए-शौक़ की वहशत अज़ब थी
किसी खुशचश्म से निस्बत अज़ब थी

हुजूम-ए-चश्म-ओ-रुखसार-ओ-दहन में
जो तन्हा कर गई सूरत अज़ब थी

वो तरदीद-ए-वफ़ा तो कर रहा था
मगर उस शख्स की हालत अज़ब थी

मिरी तक़दीर की नैरागियों में
मिरी तदबीर की शिरकत अज़ब थी

सर-ए-मक़तल किसी के पैरहन में
गुलाबी रंग की हिद्दत अज़ब थी

बदन का पहले-पहले आज चखना
राग-ओ-पै में कोई लज़्ज़त अज़ब थी

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