रविवार, फ़रवरी 21, 2010

अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात अब के बार रही

अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नज़रों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं

सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ़सराने-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तक़ल्लुफ़न मेरे नज़दीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया


कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने न हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुज़रता है तेरा जान-ए-हयात ?

पहर दिन की अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त-रवी का तुझे भी शिकवा है
ग़म-ए-फ़िराक़ के क़िस्से निशात-ए-वस्ल का ज़िक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते

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