सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से



बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे



इस बार जो इंधन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से



मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से



ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से



बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से



पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से



निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से

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