सोमवार, मार्च 15, 2010

उफ़ुक़ के उस पार ज़िन्दगी के उदास लम्हे उतार आऊँ

उफ़ुक़[1] के उस पार ज़िन्दगी के उदास लम्हे उतार आऊँ
अगर मेरा साथ दे सको तुम तो मौत को भी उतार आऊँ

कुछ इस तरह जी रहा हूँ जैसे उठाए फिरता हूँ लाश अपनी
जो तुम ज़रा-सा भी दो सहारा तो बारे-हस्ती[2] उतार आऊँ

बदल गये ज़िन्दगी के महवर[3],तवाफ़े-दैरो-हरम[4] कहाँ का
तुम्हारी महफ़िल अगर हो बाक़ी तो मैं भी परवानावार आऊँ

कोई तो ऐसा मुकाम होगा जहाँ मुझे भी सुकूँ मिलेगा
ज़मीं के तेवर बदल रहे हैं तो आस्माँ को सँवार आऊँ

अगरचे[5] इसरार-ए-बेख़ुदी[6] है तुझे भी ज़रपोश महफ़िलों में
मुझे भी ज़िद है कि तेरे दिल में नुक़ूश-ए-माज़ी[7] उभार आऊँ

सुना है एक अजनबी-सी मंज़िल को उठ रहे हैं क़दम तुम्हारे
बुरा न मानो तो रहनुमाई को सरे-रहगुज़ार आऊँ

शब्दार्थ:

↑ क्षितिज
↑ जीवन का बोझ
↑ धुरियाँ
↑ बुतख़ाने और क़ाबे की परिक्रमा
↑ यद्यपि
↑ बेसुध होने का हठ
↑ अतीत के चिह्न

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