सोमवार, मार्च 15, 2010

ये मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे

ये मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
कि संग तुझपे गिरे और ज़ख़्म आये मुझे



वो महरबाँ है तोप इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे



मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही दोपहर न भाये मुझे



मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरहना शहर में कोई नज़र न आये मुझे



वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे



मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे

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