गुरुवार, मार्च 11, 2010

पत्‍थर होता इंसान

दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्‍म् है औ,
शब्‍द तार तार है

एक बूँद पीठ सेंककर
धुआँ-धुआँ सी उड चली
वक्‍त की मुरदा उम्‍मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं

प्रेम,स्‍नेह,नीर पत्‍तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्‍तक धडकनों की बेकार है

घर,बाग,ठूँठ से जंगल
सर्द-शुष्‍क बियाबान से हैं खडे
सँघर्षो की इस आग में
पत्‍थर हुए इँसान हैं

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