सोमवार, मार्च 15, 2010

होता रहा जब राख मेरा घर मेरे आगे

होता रहा जब राख मेरा घर मेरे आगे
रोता ही रहा मेरा मुक़द्दर मेरे आगे

ख़ुशबू तो कई रंग की लाया है सवेरा
बिखरा है मगर शाम का मंज़र मेरे आगे

दिल हूँ मैं पता है मुझे क्या है मेरी अज़्मत
कुछ भी नहीं सहरा, ये समन्दर मेरे आगे

हो जाएगी ज़ख़्मी ये अना ही तो है आख़िर
मत फेंकिए इमदाद के गौहर मेरे आगे

ये कैसी हवा है जो कहो उल्टा करे है
फैला दिए आवाज़ के पत्थर मेरे आगे

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