बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

कबीर के दोहे

||1||
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥

||2||
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

||3||
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

||4||
साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥

||5||
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

|6||
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

||7||
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

||8||
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

||9||
तिनका कबहुँ ना निंदयें, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

||10||
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाय ।
बिलहारी गुरु आपनो, गोरिनेद दियो बताय ॥

||11||
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥

||12||
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥

||13||
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

||14||
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥

||15||
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सॴचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

||16||
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हिर रुठे गुरु ठौर है, गुरु रुठ नहीं ठौर ॥

||17||
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हिर नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥

||18||
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥

||19||
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥

||20||
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

||21||
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥

||22||
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥

||23||
आय हैं सो जाएँगे, राजा रक फकीर ।
एक सिंहासन चिढ़ चले, एक बँधे जात जजीर ॥

||24||
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

||25||
माँगन मरण समान है, मित माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥

||26||
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

||27||
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥

||28||
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥

||29||
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रुप, बरसे अमृत धार ॥

||30||
पितवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पितवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥

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