बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

महाकवि सूरदास के पद

मैया मैं नहिं माखन खायौ |
ख्याल परैँ ये सखा रावैं मिलि, मेरैं मुख लपटायौ |
देखि तुही सींके पर भाजन ऊँचैँ धरि लटकायौ |
हौँ जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसे करि पायौ |
मुख दधि पौंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पोठि दुरायौ |
डारि साँटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहिँ कंठ लगायौ |
बाल-बिनोद- मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ |
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव विरंचि नहिं पायौ ||

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मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसोँ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ।
कहा करौं इहि रिस के मारै खेसन हौँ नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात।
गोरे नंद, जसोदा गोरी, तु कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुसुकात।
तू मोहाँ कौ मारन सीखी, दाउहि कबहु न खीझै।
मोहन-मुख रिस की ये बातैँ, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिँ गोधन की सौँ, हौ माता तू पूत।


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सखि री नंद-नंदन देखु।
घूरि-धूसर जटा जुटली, हरि किए हर-भैषु।
नील पाट पिरोइ मनि-मन, फनिग धोखे जाइ।
खुन खुना कर, हँसत हरि, हर नचत डमरु बजाइ।
जलज माल गुपाल पहिरे, कहा कहौँ बनाइ।
मुंड-माला मनौ हर-गर ऐसी सोभा पाइ।
स्वाति सुत-माला विराजत स्याम तन इंहि भाइ।
मनौ गंगा गौरि-डर हर लइ कंठ लगाइ।
केहरी-नख निरखि हिरदै, रहीँ नारि विचारि।
बाल-ससि मनु माल ते ले, उर धरयौ त्रिपुरारि।
देखि अंद अनंग झझक्यौ, नंद सुत हर जान।
सूर के हिरदै बसौ नित, स्याम सिव कौ घ्यान||


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जसोदा हरि पालनै झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं वैगहि आवै, तोको कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँद लेत है, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जान मौन हवै रहि-रहि, करि-करि सैन बतावै।
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुर्लभ, सो नंद भामिनी पावै।।


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किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद के आंगन, बिंब पकरिबै धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौ पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत दवै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।
कनक भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करि-करि प्रतिपद, प्रतिमनि वसुधा, कमल बैठकि साजति।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावत।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पिलावत।।

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सोभिक कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत, रेनु-तनु-मंडित मुख दधि लेप किए।
चारु कपोल लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुपगन, मादक मधुहिं पिए।
कठुला-कंठ वज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहि सुख, का सत कल्प जिए।।


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चरन कमल बंदौ हरि राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे कौ सब कुछ दरसाइ।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बंदौ तिहिं पांइ।।


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अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यौ गुंगे मीठे पल कौ रस अंकरगत ही भावै।
परम स्वाद सबरी सु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौ अगम-अगोचर सो जानै जो पावै।
रूप-रेख गुन-जाति जुगति-बिनु निरालंब कित धावै।
सब विधि अगम बिचारहिँ तातै सूर सगुन-पद गावै।।

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अब कैं राखि लेहु भगवान।
हौ अनाथ बैठ्यो द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान।
ताकैँ डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान।
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिँ, जय जय कृपानिधान।।

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प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढ़ौ।
और पतित तुम जसे तारे, तिनहौं मैं लिखि काढ़ौ।
जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ, टेरि कहत होँ यातौं।
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौ घटि कातौं।
कै प्रभु हारि मानि के बैठौ, कै करौ बिरद सही।
सूर पतित जौ झूठ कहत है, देखौ खोजि बही।।

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