tag:blogger.com,1999:blog-51232626600067047772024-03-13T20:44:24.600-07:00स्याह...सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.comBlogger1866125tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-6137554751363160512011-12-18T17:26:00.000-08:002011-12-18T17:29:45.882-08:00उर्वशी- पंचम अंकपंचम अंक आरम्भ<br /><br />अहमपि तव सूनावद्य विन्यस्य राज्यम्<br />विचरित्मृग्यूथान्याश्रयिष्ये वनानि<br />- विक्रमोर्वशीयम्<br /><br />क्रन्दंस देशदेशेषु बभ्राम नृपति: स्वयं.<br />- देवीभागवत<br /><br />अवेत्य शापदोषं तं सोअथ गत्वा पुरुरवा<br />हरेराराधनं चक्रे ततो बदरिकाश्रमे<br />- कथासरित्सागर<br /><br />स्थान- पुरुरवा का राजप्रसाद<br /><br />[पुरुरवा, उर्वशी, महामात्य, राज-पंडित, राज-ज्योतिषी, अन्य सभासद, परिचायक और परिचारिकाएँ यथास्थान बैठे या खड़े. राजा की मुद्रा अत्यंत चिंताग्रस्त. आरम्भ में, कई क्षणॉ तक, कोई कुछ नहीं बोलता]<br /><br />महामात्य<br />देव क्षमा हो कुतुक, महामय के विशाल नयनॉ में,<br />देख रहा हूँ, आज नई चिंता कुछ घुमड़ रही है.<br />महाराज जब से आए हैं, मूक, विषण्ण, अचल हैं<br />सुखदायक कल रोर रोक, निस्पन्द किए लहरॉ को<br />महासिन्धु क्यॉ, इस प्रकार, अपने में डूब गया है?<br />सभा सन्न है, कौन विपद हम पर आने वाली है?<br /><br />पुरुरवा<br />कुशल करें अर्यमा, मरुद्गण उतर व्योम-मन्डल से<br />अभिषुत सोम ग्रहण करने को आते रहें भुवन में.<br />वरुण रखें प्रज्वलित निरंतर आहवनीय अनल को,<br />रहे दृष्टि हम पर अभीष्ट-वर्षी अमोघ मघवा की<br />सभासदॉ! कल रात स्वप्न मैने विचित्र देखा है.<br /><br />सभी सभासद<br />स्वप्न!<br /><br />पुरुरवा<br />स्वप्न ही कहो, यद्यपि मेरे मन की आंखों के<br />आगे, अब भी, सभी दृश्य वैसे ही घूम रहे हैं,<br />जैसे, सुप्ति और जागृति के धूमिल, द्वाभ क्षितिज पर<br />मैने उन्हें सत्य, चेतना, सुस्पष्ट, स्वच्छ देखा था.<br />कितनी अद्भुत कथा! दृश्य वह मानव की छलना थी?<br />या जो मुद्रित पृष्ठ अभी आगे खुलने वाले हैं,<br />देख गया हूँ उन्हें रात निद्रित भविष्य में जा कर?<br />कौन कहे, जिसको देखा, वह सारहीन सपना था<br />या कि स्वप्न है वह जिसको अब जग कर देख रहा हूँ?<br />क्या जानें, जागरण स्वप्न है या कि स्वप्न जागृति है?<br /><br />महामात्य<br />बड़ी विलक्षण बात! देव ने ऐसा क्या देखा है,<br />जिससे जागृति और स्वप्न की दूरी बिला रही है,<br />परछाईं पड़ रही अनागत की आगत के मुख पर,<br />मुँदी हुई पोथी भविष्य की उन्मीलित लगती है?<br />देव दया कर कहें स्पष्ट, दुश्चिंत्य स्वप्न वह क्या था?<br />अश्विद्वय की कृपा, विघ्न जो भी हों, टल जाएँगे.<br /><br />पुरुरवा<br />कौन विघ्न किसका? जो है, जो अब होने वाला है,<br />सब है बद्ध निगूढ, एक ऋत के शाश्वत धागे में;<br />कहो उसे प्रारब्ध, नियति या लीला सौम्य प्रकृति की.<br />बीज गिरा जो यहाँ, वृक्ष बनकर अवश्य निकलेगा.<br />किंतु, भीत मैं नहीं; गर्त के अतल, गहन गह्वर में<br />जाना हो तो उसी वीरता से प्रदीप्त जाऊँगा<br />जैसे ऊपर विविध व्योम-लोगॉ में घूम चुका हूँ.<br />भीति नहीं यह मौन; मूकता में यह सोच रहा हूँ,<br />अबकी बार भविष्य कौन-सा वेष लिए आता है.<br /><br />महामात्य<br />महाराज का मन बलिष्ठ; संकल्प-शुद्ध अंतर है.<br />जिसकी बाँहॉ के प्रसाद से सुर अचिंत रहते हैं,<br />उस अजेय के लिए कहाँ है भय द्यावा-पृथ्वी पर?<br />प्रभु अभीक ही रहें; किंतु, हे देव! स्वप्न वह क्या था,<br />जिसकी स्मृति अब तक निषण्ण है स्वामी के प्राणॉ में?<br />मन के अलस लेख सपने निद्रा की चित्र-पटी पर<br />जल की रेखा के समान बनते-बुझते रहते हैं.<br /><br />पुरुरवा<br />देखा, सारे प्रतिष्ठानपुर में कलकल छाया है,<br />लोग कहीं से एक नव्य वट-पादप ले आए हैं.<br />और रोप कर उसे सामने, वहाँ बाह्य प्रांगण में<br />सीच रहे हैं बड़ी, प्रीति, चिंताकुल आतुरता से.<br />मैं भी लिए क्षीरघट, देखा, उत्कंठित आया हूँ;<br />और खड़ा हूँ सींच दूध से उस नवीन बिरवे को.<br />मेरी ओर, परंतु, किसी नागर की दृष्टि नहीं है,<br />मानो, मैं हूँ जीव नवागत अपर सौर मंडल का,<br />नगरवासियों की जिससे कोई पहचान नहीं हो.<br />तब देखा, मैं चढ़ा हुआ मदकल, वरिष्ठ कुंजर पर<br />प्रतिष्ठानपुर से बाहर कानन में पहुंच गया हूँ.<br />किंतु, उतर कर वहाँ देखता हूँ तो सब सूना है,<br />मुझे छोड़, चोरी से, मेरा गज भी निकल गया है.<br />एकाकी, नि:संग भटकता हुआ विपिन निर्जन में<br />जा पहुँचा मैं वहाँ जहाँ पर वधूसरा बहती है,<br />च्यवनाश्रम के पास, पुलोमा की दृगम्बु-धारा-सी.<br /><br />उर्वशी<br />च्यवनाश्रम! हा! हंत! अपाले, मुझे घूँट भर जल दे.<br /><br />[अपाला घबरा कर पानी देती है.उर्वशी पानी पीती है.]<br /><br />पुरुरवा<br />देवि! आप क्यॉ सहम उठीं? वह, सचमुच, च्यवनाश्रम था.<br />ऋषि तरु पर से अपने सूखे वसन समेट रहे थे.<br />घूम रहे थे कृष्णसार मृग अभय वीथि-कुंजॉ में;<br />श्रवण कर रहे थे मयूर तट पर से कान लगा कर<br />मेघमन्द्र डुग-डुग-ध्वनि जलधारा में घट भरने की.<br />और, पास ही, एक दिव्य बालक प्रशांत बैठा था<br />प्रत्यंचा माँजते वीर-कर-शोभी किसी धनुष की<br />हाय, कहूँ क्या, वह कुमार कितना सुभव्य लगता था!<br /><br />उर्वशी<br />दुर्विपाक! दुर्भाग्य! अपाले! तनिक और पानी दे.<br />उमड़ प्राण से, कहीं कंठ में, ज्वाला अटक गई है.<br />लगता है, आज ही प्रलय अम्बर से फूट पड़ेगा<br /><br />[पानी पीती है]<br /><br />पुरुरवा<br />देवि! स्वप्न से आप अकारण भीत हुए जाती हैं.<br />मैं हूँ जहाँ, वहाँ कैसे विध्वंश पहुंच सकता है?<br />भूल गईं, स्यन्दन मेरा नभ में अबाध उड़ता है?<br />मैं तो केवल ऋषि-कुमार का तेज बखान रहा था.<br />उरु-दंड परिपुष्ट, मध्य कृश, पृथुल, प्रलम्ब भुजाएँ,<br />व्क्षस्थल उन्नत, प्रशस्त कितना सुभव्य लगता था!<br />ऊषा विभासित उदय शैल की, मानो, स्वर्ण-शिला हो.<br />उफ री, पय:शुभ्रता उन आयत, अलक्श्म नयनों की!<br />प्राण विकल हो उठे दौड़ कर उसे भेंट लेने को<br />पर, तत्क्षण सब बिला गया, जानें, किस शून्य तिमिर में!<br />न तो वहाँ अब ऋषि-कुमार था, न तो कुटीर च्यवन का.<br />देखा जिधर, उधर डालॉ, टहनियॉ, पुष्पवृंतॉ पर<br />देवि! आपका यही कुसुम-आनन जगमगा रहा था<br />हँसता हुआ, प्रहृष्ट, सत्य ही, सद्य:स्फुटित कमल-सा.<br />किंतु, हाय! दुर्भाग्य! जिधर भी बढ़ा स्पर्श करने को<br />डूब गया वह छली पुष्प पत्तॉ की हरियाली में.<br />चकित, भीत, विस्मित, अधीर तब मैं निरस्त माया से,<br />अकस्मात उड़ गया छोड- अवनीतल ऊर्ध्व गगन में,<br />और तैरता रहा, न जानें, कब तक खंड-जलद-सा.<br />जगा, अंत को, जब विभावरी पूरी बीत चुकी थी.<br />वह बालक था कौन? कौन मुझको छलने आई थी.<br />दिखा उर्वशी का प्रसन्न आनन डाली-डाली में<br />------------------------<br />------------------------<br />महामात्य<br />महाश्चर्य!<br /><br />एक सभासद<br />विस्मय अपार!<br /><br />दूसरा सभासद<br />यह स्वप्न या कि कविता है<br />उज्जवलता में रमें, रूप-ध्यायी, रस-मग्न हृदय की?<br />और उड्डयन तो नैतिक उन्नति की ही महिमा है.<br />जो हो, मैं मंगल की शुभ सूचना इसे कहता हूँ<br /><br />तीसरा सभासद<br />शांति! ज्योतिषी विश्वमना गणना में लगे हुए हैं.<br />सुनें, सिद्ध दैवज्ञ स्वप्न का फल क्या बतलाते हैं.<br /><br />विश्वमना<br />हाय, इसी दिन के निमित्त मैं जीवित बचा हुआ था?<br />महाराज! यदि कहूँ सत्य तो गिरा व्यर्थ होती है.<br />मृषा कहूँ तो क्यॉ अब तक आदर पाता आया हूँ?<br />मुझ विमूढ़ को अत: देव मौन ही आज रहने दें;<br />क्यॉकि दीखता है जो कुछ, उसका आधार नहीं है.<br /><br />पुरुरवा<br />किसका है आधार लुप्त? क्या है परिणाम गणित का?<br />यह प्रहेलिका और अधिक उत्कंठा उपजाती है.<br />कहें आप संकोच छोड़ कर, जो कुछ भी कहना हो,<br />गणित मृषा हो भले, आपको मिथ्या कौन कहेगा?<br /><br />विश्वमना<br />वरुण करें कल्याण! देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ.<br />अमिट प्रवज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है,<br />वह आज ही सफल होगा, इसलिए की प्राण-दशा में<br />शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं.<br />अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक<br />आप प्रव्रजित हो जाएंगे अपने वीर तनय को<br />राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर.<br />पर विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?<br />अच्छा है, पुत जाए कालिमा ही मेरे आनन पर;<br />लोग कहें, मर गई जीर्ण हो विद्या विश्वमना की.<br />इस अनभ्र आपद् से तो अपकीर्ति कहीं सुखकर है.<br /><br />उर्वशी<br />आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है.<br />अरी! जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे.<br />महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है.<br /><br />(पानी पीती है. दाह अनुभूत होने का भाव)<br /><br />पुरुरवा<br />किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी!<br />आप खिन्न हो निज को हतभागी क्यॉ कहती हैं?<br />कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में<br />छूट गई यदि पुरी, संग होकर हम वहीं चलेंगे.<br />आप, न जानें, किस चिंता से चूर हुई जाती हैं!<br />कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है?<br /><br />[प्रतीहारी का प्रवेश]<br /><br />प्रतीहारी<br />जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं;<br />कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है!<br />नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है.<br /><br />पुरुरवा<br />सती सुकन्या! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की?<br />सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है.<br />पुण्योदय के बिना संत कब मिलते हैं राजा को?<br /><br />[सुकन्या और आयु का प्रवेश]<br /><br />पुरुरवा<br />इलापुत्र मैं पुरु पदों में नमस्कार करता हूँ.<br />देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है?<br />आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?<br /><br />सुकन्या<br />जय हो, सब है कुशल.<br />उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने<br />कहा, “आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है!<br />अत:, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुंचाना होगा,<br />जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के”.<br />सो, ले आई, अकस्मात ही, इसे; सुयोग नहीं था<br />पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का.<br />सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौपा था,<br />उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ.<br />बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं.<br /><br />[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरुरवा को प्रणाम करता है. पुरुरवा उसे छाती से लगा लेता है.]<br /><br />पुरुरवा<br />महाश्चर्य! अघट घटना! अद्भुत अपूर्व लीला है!<br />यह सब सत्य-यथार्थ या कि फिर सपना देख रहा हूँ?<br />पुत्र! देवि! मैं पुत्रवान हूँ? यह अपत्य मेरा है?<br />जनम चुका है मेरा भी त्राता पुं नाम नरक से?<br />अकस्मात हो उथा उदित यह संचित पुण्य कहाँ का?<br />अमृत-अभ्र कैसे अनभ्र ही मुझ पर बरस पड़ा है?<br />पुत्र! अरे मैं पुत्रवान हूँ, घोषित करो नगर में,<br />जो हो जहाँ, वहीं से मेरे निकट उसे आने दो.<br />द्वार खोल दो कोष-भवन का, कह दो पौर जनों से<br />जितना भी चाहें, सुवर्ण आकर ले जा सकते हैं<br /><br />ऐल वंश के महामंच पर नया सूर्य निकला है;<br />पुत्र-प्राप्ति का लग्न, आज अनुपम, अबाध उत्सव है.<br />पुत्र! अरे कोई संभाल रखो मेरी संज्ञा को,<br />न तो हर्ष से अभी विकल-विक्षिप्त हुआ जाता हूँ.<br />पुत्र! अरे, ओ अमृत-स्पर्श! आनन्द-कन्द नयनॉ के!<br />प्राणॉ के आलोक! हाय! तुम अब तक छिपे कहाँ थे?<br />ऐल वंश का दीप, देवि! यह कब उत्पन्न हुआ था?<br />और आपने छिपा रखा इसको क्यों निष्ठुरता से?<br />हाय! भोगने से मेरा कितना सुख छूट गया है!<br /><br />उर्वशी<br />अब से सोलह वर्ष पूर्व, पुत्रेष्टि-यज्ञ पावन में<br />देव! आप यज्ञिय विशिष्ट जीवन जब बिता रहे थे,<br />च्यवनाश्रम की तपोभूमि में तभी आयु जनमा था<br />मुझमें स्थापित महाराज के तेजपुंज पावक से<br />किंतु, छिपा क्यॉ रखा पुत्र का मुख पुत्रेच्छु पिता से,<br />आह! समय अब नहीं देव! वह सब रहस्य कहने का.<br />लगता है, कोई प्राणॉ को बेध लौह अंकुश से,<br />बरबस मुझे खींच इस जग से दूर लिए जाता है.<br /><br />पुरुरवा<br />अच्छा, जो है गुप्त, गुप्त ही उसे अभी रहने दें.<br />आतुरता क्या हो रहस्य के उद्घाटित करने की,<br />जब रहस्य वपुमान सामने ही साकार खड़ा हो?<br />सभासदॉ! कल रात स्वप्न में इसी वीर-पुंगव को<br />प्रत्यंचा माँजते हुए मैने वन में देखा था.<br />और बढ़ा ज्यॉ ही उदग्र मैं इसे अंक भरने को,<br />यही दुष्ट छल मुझे कहीं कुंजॉ मे समा गया था.<br />किंतु, लाल! अब आलिंगन से कैसे भाग सकोगे?<br />यह प्रसुप्त का नहीं, जगे का सुदृढ़ बाहु-बन्धन है?<br /><br />आयु<br />आयु तक रहा वियुक्त अंक से, यही क्लेश क्या कम है?<br />तात! आपकी छन्ह छोड़ मैं किस निमित्त भागूँगा?<br />जब से पाया जन्म, उपोषण रहा धर्म प्राणॉ का;<br />हृदय भूख से विकल, पिता! मैं बहुत-बहुत प्यासा हूँ,<br />यद्यपि सारी आयु तापसी माँ का प्यार पिया है.<br />------------------------<br />------------------------<br />पुरुरवा<br />रुला दिया तुमने तो मेरे चन्द्र! व्यथा यह कह कर.<br />सुना देवि! यह लाल हमारा कितना तृषित रहा है<br />माँ के उर का क्षीर, पिता का स्नेह नहीं पाने से?<br /><br />[उर्वशी अदृश्य हो चुकी है.]<br /><br />महामात्य<br />महाराज! आश्चर्य! उर्वशी देवि यहाँ नहीं हैं?<br />कहाँ गई? थीं खड़ी अभी तो यहीं निकट स्वामी के?<br /><br />पुरुरवा<br />क्यॉ, जाएँगी कहाँ विमुख हो इस आनन्द सघन से?<br />किंतु, अभी वे श्रांत-चित्त, कुछ थकी-थकी लगती थीं;<br />जाकर देखो, स्यात् प्रमद-उपवन में चली गई हों<br />शीतल, स्वच्छ, प्रसन्न वायु में तनिक घूम आने को.<br /><br />सुकन्या<br />वृथा यत्न; इस राज-भवन में अब उर्वशी नहीं है.<br />चली गई वह वहाँ, जहाँ से भूतल पर आई थी<br />खिंची आपके महाप्रेम के आकुल आकर्षण में.<br />भू वंचित हो गई आज उस चिर-नवीन सुषमा से.<br />महाराज! उर्वशी मानवी नहीं, देव-बाला थी;<br />चक्षुराग जब हुआ आपसे , उस विलोल-हृदया ने,<br />किसी भाँति, कर दिया एक दिन कुपित महर्षि भरत को.<br />और भरत ने ही उसको यह दारुण शाप दिया था,<br />“भूल गई निज कर्म, लीन जिसके स्वरूप-चिंतन में,<br />जा, तू बन प्रेयसी भूमि पर उसी मर्त्य मानव की.<br />किंतु, न होंगे तुझे सुलभ सब सुख गृहस्थ नारी के,<br />पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाएगी;<br />सो भी तब तक ही जिस क्षण तक नहीं देख पाएगा<br />अहंकारिणी! तेरा पति तुझसे उत्पन्न तनय को.”<br />वही शाप फल गया, उर्वशी चली गई सुरपुर को.<br />महाराज! मैं तो इसके हित उद्यत ही आई थी!<br />क्योंकि ज्ञात था मुझे, आयु को जभी आप देखेंगे,<br />गरज उठेगा शाप, उर्वशी भू पर नहीं रहेगी.<br />किंतु, आयु को कब तक हम वंचित कर रख सकते थे<br />जाति, गोत्र, सौभाग्य, वंश से, परिजन और पिता से?<br />हुआ वही, जो कुछ होना था, पश्चाताप वृथा है.<br />अब दीजिए आयु को वह, जो कुछ वह माँग रहा है.<br />महाराज! सत्य ही आयु का हृदय बहुत प्यासा है.<br /><br />[पुरुरवा आयु से अलग हो जाता है]<br /><br />पुरुरवा<br />चली गई? सब शून्य हो गया? मैं वियुक्त, विरही हूँ?<br />देवॉ को मेरे निमित्त, बस, इतनी ही ममता थी!<br />लाओ मेरा धनुष, सजाओ गगन-जयी स्यन्दन को,<br />सखा नहीं, बन शत्रु स्वर्ग-पुर मुझे आज जाना है.<br />और दिखाना है, दाहकता किसकी अधिक प्रबल है,<br />भरत-शाप की या पुरुरवा के प्रचंड बाणॉ की.<br />कहाँ छिपा रखेंगे सुर मेरी प्रेयसी प्रिया को?<br />रत्नसानु की कनक-कन्दरा में? तो उस पर्वत को<br />स्वर्ण-धूलि बन वसुन्धरा पर आज बरस जाना है.<br />छिन्न-भिन्न होकर मनुष्य के प्रलय-दीप्त बाणॉ से.<br />दिव के वियल्लोक में छाए विपुल स्वर्ण-मेघॉ में?<br />तो मेघॉ के अंतराल होकर अरुद्ध शम्पा-सा<br />दौड़ेगा मेरा विमान कम्पित कर प्राण सुरॉ के;<br />और उलट कर एक-एक मायामय मेघ-पटल को<br />खोजूँगा, उर्वशी व्योम के भीतर कहाँ छिपी है.<br />लाओ मेरा धनुष, यहीं से बाण साध अम्बर में<br />अभी देवताऑ के वन में आग लगा देता हूँ.<br />फेंक प्रखर, प्रज्वलित, वह्निमय विशिख दृप्त मघवा को<br />देता हूँ नैवेद्य मनुजता के विरुद्ध संगर का.<br />और सिन्धु में कहीं उर्वशी को फिर छिपा दिया हो,<br />तो साजो विकराल सैन्य, हम आज महासागर को<br />मथ कर देंगे हिला, सिन्धु फिर पराभूत उगलेगा<br />वे सारे मणि-रत्न, बने होंगे जो भी उस दिन से,<br />जब देवॉ-असुरॉ ने इसको पहले-पहल मथा था.<br />और उसी मंथन क्रम में बैठी तरंग-आसन पर<br />एक बार फिर पुन: उर्वशी निकलेगी सागर से<br />बिखराती मोहिनी उषा की प्रभा समस्त भुवन में,<br />जैसे वह पहले समुद्र के भीतर से निकली थी!<br />भूल गए देवता, झेल शत्रुता अमित असुरॉ की<br />कितनी बार उन्हें मैने रण में जय दिलवाई है.<br />पर, इस बार ध्वंस बनकर जब मैं उन पर टूटूँगा,<br />आशा है,आप्रलय दाह विशिखॉ का स्मरण रहेगा;<br />और मान लेंगे यह भी, उर्वशी कहीं जनमी हो,<br />देवॉ की अप्सरा नहीं, वह मेरी प्राणप्रिया है.<br />उठो, बजाओ पटह युद्ध के, कह दो पौर जनॉ से,<br />उनका प्रिय सम्राट स्वर्ग से वैर ठान निकला है;<br />साथ चलें, जिसको किंचित भी प्राण नहीं प्यारे हों.<br /><br />महामात्य्<br />महाराज हॉ शांत; कोप यह अनुचित नहीं, उचित है.<br />तारा को लेकर पहले भी भीषण समर हुआ था<br />दो पक्षॉ मे बँटे, परस्पर कुपित सुरॉ-असुरॉ में.<br />और सुरॉ के, उस रण में भी छक्के छूट गए थे.<br />वह सब होगा पुन:, यही यदि रहा इष्ट स्वामी का.<br />पर, यद्यपि, यह समर खड़ा होगा मानवॉ-सुरॉ में,<br />किंतु दनुज क्या इस अपूर्व अवसर से अलग रहेंगे?<br />मिल जाएँगे वे अवश्य आकर मनुष्य सेना में.<br />सुरता के ध्वंसन से बढ़्कर उन्हें और क्या प्रिय है<br />और टिकेंगे किस बूते पर चरण देवताऑ के<br />वहाँ, जहाँ नर-असुर साथ मिलकर उनसे जूझ रहे हों?<br />इस संगर में महाराज! जय तो अपनी निश्चित है;<br />मात्र सोचना है, देवॉ से वैर ठान लेने पर<br />पड़ न जाएँ हम कहीं दानवॉ की अपूत संगति में.<br />नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्जवल है<br />कहती हैं नीतियाँ, जिसे भी विजयी समझ रहे हो,<br />नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नॉ से,<br />विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है.<br /><br />डाल न दे शत्रुता सुरॉ से हमें दनुज-बाँहॉ में,<br />महाराज! मैं, इसीलिए, देवॉ से घबराता हूँ.<br /><br />पुरुरवा<br />कायरता की बात ! तुम्हारे मन को सता रही है<br />भीति इन्द्र के निथुर व्ज्र की, देवॉ की माया की;<br />किंतु, उसे तुम छिपा रहे हो सचिव! ओढ़ ऊपर से<br />मिथ्या वसन दनुज-संगति-कल्पना-जन्य दूषण का.<br />जब मनुष्य चीखता व्योम का हृदय दरक जाता है<br />सहम-सहम उठते सुरेन्द्र उसके तप की ज्वाला से.<br />और कहीं हो क्रुद्ध मनुज कर दे आह्वान प्रलय का,<br />स्वर्ग, सत्य ही टूट गगन से भू पर आ जाएगा.<br />क्यॉ लेंगे साहाय्य दनुज का? हम मनुष्य क्या कम हैं?<br /> <br />बजे युद्ध का पटह, सिद्ध हो द्रुत योजना समर की<br />यह अपमान असह्य, इसे सहने से श्रेष्ठ मरण है.<br /><br />[नेपथ्य से आवाज आती है]<br /><br />“पीना होगा गरल, वेदना यह सहनी ही होगी.<br />सावधान! देवॉ से लड़ने में कल्याण नहीं है.<br />देव कौन हैं? शुद्ध, दग्धमल, श्रेष्ठ रूप मानव के;<br />तो अपने ही श्रेष्ठ रूप से मानव युद्ध करेगा<br />या उससे जो रूप अभी दानवी, दुष्ट, मलिन है?”<br /><br />पुरुरवा<br />यह किसका स्वर? कौन यवनिकाऑ में छिपा हुआ है?<br />जो भी होती घटित आज, अचरज की ही घटना है.<br />बड़ी अनोखी बात! कौन हो तुम जो बोल रहे हो<br />इतने सूक्ष्म विचार? छिपे हो कहाँ, भूमि या नभ में/<br /><br />[नेपथ्य से आवाज]<br /><br />मैं प्रारब्ध चन्द्रकुल का, संचित प्रताप तेरा हूँ<br />बोल रहा हूँ तेरे ही प्राणॉ के अगम,अतल से.<br />अनुचित नहीं गर्व क्षणभंगुर वर्तमान की जय का<br />पर, अपने में डूब कभी यह भी तूने सोचा है,<br />तेरे वर्तमान मन पर जिनका भविष्य निर्भर है,<br />अनुत्पन्न उन शत-सहस्र मनुजॉ के मुखमंडल पर<br />कौन बिम्ब, क्या प्रभा, कौन छाया पड़ती जाती है?<br /><br />जैसे तूने प्रणय-तूलिका और लौह-विशिखॉ से<br />ओजस्वी आख्यान आत्मजीवन का आज लिखा है,<br />वैसे ही कल चन्द्र-वंश वालॉ के विपुल-हृदय में<br />लौह और वासना समंवित होकर नृत्य करेंगे<br />अतुल पराक्रम के प्रकाश में भी यह नहीं छिपेगा<br />ताराहर विधु के विलास से ये मनुष्य जनमें हैं<br />चिंतन कर यह जान कि तेरे क्षण-क्षण की चिंता से<br />दूर-दूर तक के भविष्य का मनुज जन्म लेता है<br />उठा चरण यह सोच कि तेरे पद के निक्षेपॉ की<br />आगामी युग के कानॉ में ध्वनियाँ पहुंच रही हैं.<br />और प्रेम! वह बना नहीं क्यॉ अश्रुधार करुणा की,<br />आराधन उन दिव्य देवता का, जो छिपे हुए हैं<br />रमणी के लावण्य, रमा-मुख के प्रकाश मंडल में?<br />बना नहीं क्यॉ वह अखंड आलोक-पुंज जीवन का,<br />जिसे लिए तू और व्योम में ऊपर उठ सकता था?<br />अरुण अधर, रक्तिम कपोल, कुसुमाघव घूर्ण दृगॉ में;<br />आमंत्रण कितना असह्य माया-मनोज्ञ प्रतिमा का!<br />ग्रीवा से आकटि समंत उद्वेलित शिखा मदन की,<br />आलोड़ित उज्जवल असीमता-सी सम्पूर्ण त्वचा में;<br />वक्ष प्रतीप कमल, जिन पर दो मूँगे जड़े हुए हैं;<br />त्रिवली किसी स्वर्ण-सरसी में उठती हुई लहर-सी<br />किंतु, नहीं श्लथ हुईं भुजाएँ किन विक्रमी नरॉ की<br />आलिंगन में इस मरीचिका को समेट रखने में?<br />पृथुल, निमंत्रण-मधुर, स्निग्ध, परिणत, विविक्त जघनॉ पर<br />आकर हुआ न ध्वस्त कौन हतविक्रम असृक-स्रवण से?<br />जिसने भी की प्रीति, वही अपने विदीर्ण प्राणॉ में<br />लिए चल रहा व्रण, शोणितमय तिलक प्रेम के कर का;<br />और चोट जिसकी जितनी ही अधिक, घाव गहरा है,<br />वह उतना ही कम अधीर है व्यथा-मुक्ति पाने को.<br />नारी के भीतर असीम जो एक और नारी है,<br />सोचा है उसकी रक्षा पुरुषों में कौन करेगा?<br />वह, जो केवल पुरुष नहीं, है किंचित अधिक पुरुष से;<br />उर में जिसके सलिल-धार, निश्चल महीद्र प्राणॉ में,<br />कलियॉ की उँगलियाँ, मुट्ठियाँ हैं जिसकी पत्थर की.<br />कह सकता है पुरू! कि तू पुरुषाधिक यही पुरुष है?<br />तो फिर भीतर देख, शिलोच्चय शिखर-शैल मानस का<br />अचल खड़ा है या प्रवाल-ताडन से डोल रहा है?<br />यह भी देख, भुजा कुसुमॉ का दाम कि वज्र-शिला है?<br />हाथॉ में फूल ही फूल हैं या कुछ चिंगारी भी?<br />विपद्व्याधिनी भी जीवन में तुझको कहीं मिली थी?<br />पूछा जब तूने भविष्य, उसने क्या बतलाया था?<br />त्रिया! हाय छलना मनोज्ञ वह! पुरुष मग्न हँसता है,<br />जब चाहिये उसे रो उठना कंठ फाड़, चिल्ला कर.<br />पूछ रहा क्या भाग्य ज्योतिषी से, अंकविद, गणक से?<br />हृदय चीर कर देख प्राण की कुंजी वही पड़ी है.<br />अंतर्मन को जगा पूछ, वह जो संकेत करेगा,<br />तुझे मिलेगी मन:शांति उपवेशित उसी दिशा में.<br /><br />बिना चुकाए मूल्य जगत में किसने सुख भोगा है?<br />तुझ पर भी है पुरू! शेष जो ऋण अपार जीवन का<br />भाग नहीं सकता तू उसको किसी प्रकार पचाकर.<br />नहीं देखता, कौन तरेरे नयन समक्ष खड़ा है?<br />पुरुरवा! यह और नहीं कोई, तेरा जीवन है.<br />जो कुछ तूने किया प्राप्त अब तक इसके हाथॉ से,<br />देना होगा मूल्य आज गिन-गिन उन सभी क्षणॉ का.<br />पर, कैसे? जा स्वर्ग उर्वशी को फिर ले आएगा?<br />अथवा अपने महाप्रेम के बलशाली पंखॉ पर<br />चढ़ असीम उड्डयन भरेगा मन के महागगन में,<br />जहाँ त्रिया कामिनी नहीं, छाया है परम विभा की,<br />जहाँ प्रेम कामना नहीं, प्रार्थना निदिध्यासन है?<br />खोज रहा अवलम्ब? किंतु, बाहर इस ज्वलित द्विधा का<br />कोई उत्तर नहीं. पुन: मैं वही बात कहता हूँ,<br />हृदय चीर कर देख, वहीं पर कुंजी कहीं पड़ी है.<br />------------------------<br />------------------------<br />पुरुरवा<br />देख क्रिया. मंत्रियॉ! एक क्षण का भी समय नहीं है;<br />पुरोहित करें स्वस्ति-वाचन शुभ राज-तिलक का.<br />विश्वमना का फलादेश चरितार्थ हुआ जाता है.<br />मृषा बन्ध विक्रम-विलास का, मृषा मोह-माया का;<br />इन दैहिक सिद्धियॉ, कीर्तियॉ के कंचनावरण में,<br />भीतर ही भीतर विषण्ण मैं कितना रिक्त रहा हूँ!<br />अंतर्तम के रूदन, अभावॉ की अव्यक्त गिरा को<br />कितनी बार श्रवण करके भी मैने नहीं सुना है!<br />पर, अब और नहीं, अवहेला अधिक नहीं इस स्वर की,<br />ठहरो आवाहन अनंत के, मूक निनद प्राणॉ के!<br />पंख खोल कर अभी तुम्हारे साथ हुआ जाता हूँ<br />दिन-भर लुटा प्रकाश, विभावसु भी प्रदोष आने पर<br />सारी रश्मि समेट शैल के पार उतर जाते हैं<br />बैठ किसी एकांत, प्रांत, निर्जन कन्दरा, दरी में<br />अपना अंतर्गगन रात में उद्भासित करने को<br />तो मैं ही क्यॉ रहूँ सदा ततता मध्याह्न गगन में?<br />नए सूर्य को क्षितिज छोड़ ऊपर नभ में आने दो.<br />पहुँच गया मेरा मुहुर्त, किरणें समेट अम्बर से<br />चक्रवाल के पार विजन में कहीं उतर जाने का.<br />यह लो अपने घूर्णिमान सिर पर से इसे हटाकर<br />ऐल-वंश का मुकुट आयु के मस्तक पर धरता हूँ.<br />लो, पूरा हो गया राज्य-अभिषेक! कृपा पूषण की.<br />ऐल-वंश-अवतंस नए सम्राट आयु की जय हो<br />महाराज! मैं भार-मुक्त अब कानन को जाता हूँ.<br />भाग्य-दोष सध सका नहीं मुझसे कर्त्तव्य पिता का;<br />अब तो केवल प्रजा-धर्म् है, सो, उसको पालूँगा,<br />जहाँ रहूँगा, वहीं महाभृत का अभ्युदय मनाकर.<br />यती नि:स्व क्या दे सकता है सिवा एक आशिष के?<br />सभासदॉ! कालज्ञ आप, सब के सब कर्म-निपुण हैं,<br />क्या करना पटु को निदेश समयोचित कर्त्तव्यॉ का?<br />प्रजा-जनॉ से मात्र हमारा आशीर्वाद कहेंगे.<br />जय हो, चन्द्र-वंश अब तक जितना सुरम्य, सुखकर था,<br />उसी भाँति वह सुखद रहे आगे भी प्रजा-जनॉ को.<br /><br />[एक ओर से पुरुरवा का निष्क्रमण: दूसरी ओर से महारानी औशीनरी का प्रवेश]<br /><br />औशीनरी<br />चले गए?<br /><br />सभी सभासद<br />जय हो अनुकम्पामयी राजमाता की.<br /><br />औशीनरी<br />हाँ, मैं अभी राज महिषी थी, चाहे जहाँ कहीं भी<br />इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेंक रखा था.<br />किंतु, नियति की बात! सत्य ही, अभी राजमाता हूँ.<br />आ बेटा! लूँ जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगाकर.<br /><br />[आयु को हृदय से लगाती है]<br /><br />कितना भव्य स्वरूप! नयन, नासिका, ललाट, चिबुक में<br />महाराज की आकृतियॉ का पूरा बिम्ब पड़ा है.<br />हाय, पालती कितने सुख, कितनी उमंग, आशा से,<br />मिला मुझे होता यदि मेरा तनय कहीं बचपन में.<br />पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान पुरुषॉ को<br />नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उत्तुंग शिखर पर,<br />बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में,<br />पाषाणॉ पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर<br />सो तू पला गोद में जिनकी सीमंतिनी-शिखा वे,<br />और नहीं कोई जाया हैं तपोनिधान च्यवन की;<br />तप:सिंह की प्रिया, सत्य ही, केहरिणी सतियो में<br />पुत्र! अकारण नहीं भाग्य ने तुझे वहाँ भेजा था.<br />हाय, हमारा लाल चकित कितना निस्तब्ध खड़ा है!<br />और कौन है, जो विस्मित, निस्तब्ध न रह जाएगा<br />इस अकांड राज्याभिषेक, उस वट के विस्थापन से<br />जिसकी छाया हेतु दूर से वह चल कर आया हो?<br /><br />कितना विषम शोक! पहले तो जनमा वन-कानन में;<br />जब महार्घ थी, मिली नहीं तब शीतल गोद पिता की.<br />और स्वयं आया समीप, तब सहसा चले गए वे<br />राजपाट, सर्वस्व सौंप, केवल वात्सल्य चुराकर.<br />नीरवता रवपूर्न, मौन तेरा, सब भाँति, मुखर है;<br />बेटा! तेरी मनोव्यथा यह किस पर प्रकट नहीं है?<br />पर, अब कौन विकल्प? सामने शेष एक ही पथ है<br />मस्तकस्थ इस राजमुकुट का भार वहन करने का.<br />उदित हुआ सौभाग्य आयु! तेरा अपार संकट में<br />किंतु, छोड़ कर तुझे, विपद में हमें कौन तारेगा?<br />मलिन रहा यदि तू, किसके मुख पर मुस्कान खिलेगी?<br />तू उबरा यदि नहीं, महाप्लावन से कौन बचेगा?<br />पिता गए वन, किंतु, अरे, माता तो यहीं खड़ी है<br />बेटा! अब भी तो अनाथ नरनाथ नहीं ऐलॉ का.<br />तुझे प्यास वात्सल्य-सुधा की, मैं भी उसी अमृत से<br />बिना लुटाए कोष हाय! आजीवन भरी रही हूँ.<br />फला न कोई शस्य, प्रकृति से जो भी अमृत मिला था,<br />लहर मारता रहा टहनियो में, सूनी डालॉ में.<br />किंतु, प्राप्त कर तुझे आज, बस, यही भान होता है,<br />शस्य-भार से मेरी सब डालियाँ झुकी जाती हों.<br /><br />हाय पुत्र! मैं भी जीवन भर बहुत-बहुत प्यासी थी<br />शीतल जल का पात्र अधर से पहले पहल लगा है.<br />तप्त बना मत इसे वीरमणिअ! द्विधा, ग्लानि,चिंता से.<br />नहीं देखता, मैं विपन्नता में किस भाँति खड़ी हूँ,<br />गँवा शतऋतु-सम प्रतापशाली, महान भर्त्ता को,<br />अंतर से उच्छलित वेदना का विस्फोट दबाकर?<br />और हाय, तब भी, मैं केवल त्रिया, भीरु नारी हूँ;<br />रुदन छोड़ विधि ने सिरजा क्या और भाग्य नारी का?<br />पर, किशोर होने पर भी बेटा! तू वीर नृपति है.<br />नृपति नहीं टूटते कभी भी निजी विपत्ति-व्यथा से;<br />अपनी पीड़ा भूल यंत्रणा औरॉ की हरते हैं.<br /><br />हँसते हैं, जब किरण हास्य की हो सबके अधरॉ पर,<br />रोते हैं, जब प्रजा-जनॉ के नयन सिक्त होते हैं<br />अपनी पीड़ा कहाँ,उसे अपना आनन्द कहाँ है,<br />जिस पर चढ़ा किरीट, भार दुर्वह् समाज-शासन का?<br />किंतु, हाय, हो गया यहाँ यह सब क्या एक निमिष में?<br /><br />महामात्य<br />घटित हुआ सब, इस प्रकार्, मानो, अदृश्य के कर में<br />नाच रही हो पराधीन यह सभा दारु-पुतली-सी<br />सब की बुद्धि समेट, सभी को अपना पाठ सिखा कर<br />यह नाटक दुखांत भाग्य ने स्वयं यहाँ खेला है.<br />कौन जानता था, अनभ्र ही अशनि आज टूटेगी?<br />मिला कहाँ आभास देवि! हमको आसन्न विपद का?<br />कुछ तो भाग्य-अधीन और कुछ महाराज के भय से<br />हम स्तम्भित रह गए; गिरा खोलें-खोलें, तब तक तो<br />राज-मुकुट नृप से कुमार के सिर पर पहुंच चुका था.<br /><br />सब कुछ हुआ, मरुत जैसे अम्बर में दौड़ रहे हों,<br />जैसे कोई आग शुष्क कानन को जला रही हो;<br />सब कुछ हुआ, देवि! जैसे हम मनुज नहीं, पत्थर हों,<br />जैसे स्वयं अभाग्य हमें आगे को हाँक रहा हो<br />चले गए सम्राट छोड़ हमको अपार विस्मय में,<br />कह पाए हम कहाँ देवि! जो कुछ हमको कहना था?<br /><br />औशीनरी<br />कौन सका कह व्यथा? नहीं देखा, समग्र जीवन में<br />जो कुछ हुआ देख उसको मैं कितनी मौन रही हूँ<br />कोलाहल के बीच मूकता की अकम्प रेखा-सी?<br />वाणी का वर्चस्व रजत है, किंतु, मौन कंचन है.<br />पर, क्या मिला, अंत में जाकर, मुझको इस कंचन से?<br />उतरा सब इतिहास, जहाँ निर्घोष, निनद, कलकल था;<br />चले गए उस मूक नीड़ की छाया सभी बचाकर<br />घटनाऑ से दूर जहाँ मैं अचल, शांत बैठी थी.<br />महाराज कितने उदार, कितने मृदु, भाव-प्रवण थे!<br />मुझ अभागिनी को उनने कितना सम्मान दिया था!<br />पर, चलने के समय कृपा अपनी क्यॉ भूल गए वे?<br />रहा नहीं क्यॉ ध्यान, दानवाक्र्ति इस बड़े भवन में<br />कहीं उपेक्षित शांत एक वह भी धूमिल कोना है,<br />कभी भूल कर भी जातीं घटनाएं नहीं जहाँ पर,<br />न तो जहाँ इतिहासॉ की पदचाप सुनी जाती है;<br />जहाम प्रनय नीरव, अकम्प, कामना, स्निग्ध, शीतल है,<br />अभिलाषाएँ नहीं व्यग्र अपनी ही ज्वालाऑ से;<br />जहाँ नहीं चरणॉ के नीचे अरुण सेज मूँगॉ की,<br />न तो तरंगॉ में ऊपर नागिनियाँ लहराती हैं;<br />जहाँ नहीं बमती कृशानु सुशमा कपोल, अधरॉ की,<br />न तो छिटकती हैं रह-रह कर चिंगारियाँ त्वचा से;<br />स्थापित जहाँ शुभेच्छु, समर्पित हृदय विनम्र त्रिया का,<br /><br />उद्वेगों से अधिक स्वाद है जहाँ शांति, संयम में;<br />एक पात्र में जहाँ क्शीर, मधुरस दोनॉ संचित हैं,<br />छिपे हुए हैं जहाम सूर्य-शशधर एक ही हृदय में;<br />जहाँ भामिनी नहीं मात्र प्रेयसी विमुग्ध पुरुश की,<br />अम्र्त-दायिनी, बल-विधायिनी माता भी होती है.<br />भूल गए क्यॉ दयित, हाय, उस नीरव, निभृत निलय में<br />बैठी है कोई अखंड व्रतमयी समाराधन में,<br />अश्रुमुखी माँगती एक ही भीख त्रिलोक-भरन से,<br />कण्-भर भी मत अकल्याण् हो प्रभो! कभी स्वामी का.<br />जो भी हो आपदा, मुझे दो,. मैं प्रसन्न सह लूँगी,<br />देव! किंतु मत चुभे तुच्छतम कंटक भी प्रियतम को<br /><br />किंतु, हाय, हो गई मृषा साधना सकल जीवन की;<br />मैं बैठी ही रही ध्यान में जोड़े हुए करॉ को;<br />चले गए देवता बिना ही कहे बात इतनी भी,<br />हतभागी! उठ, जाग, देख, मैं मन्दिर से जाता हूँ.<br />याग-यज्ञ, व्रत-अनुष्ठान में, किसी धर्म-साधन में<br />मुझे बुलाए बिना नहीं प्रियतम प्रवृत होते थे.<br />तो यह अंतिम व्रत कठोर कैसे सन्यास सधेगा<br />किए शून्य वामांक, त्याग मुझ सन्यासिनी प्रिया को?<br />और त्यागना ही था तो जाते-जाते प्रियतम ने<br />ले लेने दी नहीं धूलि क्यॉ अंतिम बार पदॉ की?<br />मुझे बुलाए बिना अचानक कैसे चले गए वे?<br />अकस्मात ही मैं कैसे मर गई कांत के मन में?<br />शुभे! गाँस यह सदा हृदय-तल में सालती रहेगी,<br />मेरा ही सर्वस्व हाय, मुझसे यॉ बिछुड गया है,<br />मानो, उस पर मुझ अभागिनी का अधिकार नहीं हो.<br />------------------------<br />------------------------<br />सुकन्या<br />देवि! यही है नियम;पाश जो क्षणिक, क्षाम, दुर्बल हैं,<br />वैराग्योन्मुख पुरुष नहीं उन बन्धॉ से डरता है.<br />जन्म-जन्म की जहाँ, किंतु, श्रृखला अभंग पड़ी है,<br />यती निकल भागता उधर से आंखें सदा चुराकर.<br />परामर्श क्यो करे मुक्तिकामी अपने बन्धन से?<br />गृहिणी की यदि सुने, गेह से कौन निकल सकता है?<br />विस्मय की क्या बात? यहाँ जो हुआ, वही होना था.<br />अचरज नहीं, आपसे मिलकर नृप यदि नहीं गए हैं.<br /><br />औशीनरी<br />पतिव्रते! पर, हाय,चोट यह कितनी तिग्म, विषम है/<br />कैसी अवमानना1 प्रतारण कितना तीव्र गरल-सा<br />मैं अवध्य, निर्दोष, विचारा यह क्यॉ नहीं दयित ने?<br />छला किसी ने और व्ज्र आ गिरा किसी के सिर पर<br />गँवा दिया सर्वस्व हाय, मैने छिप कर छाया में,<br />अस्वीकृत कर खुली धूप में आंख खोल चलने से.<br />देवि! प्रेम के जिस तट पर अप्सरा स्नान करती है,<br />गई नहीं क्यॉ मैं तरंग-आकुल उस रसित पुलिन पर्त?<br />पछताती हूँ हाय, रक्त आवरण फाड़ व्रीड़ा का<br />व्यंजित होने दिया नहीं क्यॉ मैने उस प्रमदा को<br />जो केवल अप्सरा नहीं, मुझमें भी छिपी हुई थी?<br />बसी नहीं क्यॉ कुसुम-दान बन उन विशाल बाँहॉ में?<br />लगी फिरी क्यॉ नहीं पुष्प-सज्र बन उदग्र ग्रीवा से?<br />बेध रहे थे उठा शरासन जब से वक्ष तिमिर का,<br />बनी न क्यॉ शिंजिनी, हाय, तब मैं उस महाधनुष की?<br />गई नहीं क्यॉ संग-संग मैं धरणी और गगन में<br />जहाँ-जहाँ प्रिय को महान घटनाएं बुला रही थीं?<br />अंकित थे कर रहे प्राणपति जब आख्यान विजय का<br />पर्ण-पर्ण पर, लहर-लहर् में, उन्नत शिखर-शिखर पर,<br />समा गई क्यॉ नहीं, हाय, तब मैं जीवंत प्रभा-सी<br />बाणॉ के फलकॉ, कृशानु की लोहित रेखाऑ में?<br />जीत गई वे जो लहरॉ पर मचल-मचल चलती थीं,<br />उड़ सकती थीं खुली धूप में, मेघॉ भरे गगन में<br />हारी मैं इस्लिए कि मेरे व्रीड़ा-विकल दृगॉ में<br />खुली धूप की प्रभा,किरण कोलाहल की गड़ती थी.<br />देखा ही कुछ नहीं, कहाँ, क्या महिमा बरस रही है<br />अंतर की छाया-निवास से बाहर कभी निकल कर<br />हाय, भाग्य ने मुझे खींच इस त्रपा-त्रस्त छाया से<br />फेंक दिया क्यॉ नहीं धूप में, उस उन्मुक्त भुवन में.<br />जहाँ तरंगाकुल समुद्र जीवन का लहराता है<br />और पुरुष हो रणारूढ, विशिखों के निक्षेपन से-<br />पूर्व, पास में खड़ी प्रिया का मुख निहार लेता है?<br />हाय, सती मैं ही कदर्य, दोषी, अनुदार, कृपण हूँ,<br />केवल शुभकामना, मंगलैषा से क्या होता है?<br />मैं ही दे न पाई भावमय वह आहार पुरुष को<br />जिसकी उन्हें अपार क्षुधा, उतनी आवश्यकता थी.<br />मुझे भ्रांति थी, जो कुछ था मेरा, सब चढ़ा चुकी हूँ;<br />शेष नहीं अब कोई भी पूजा-प्रसून डाली में;<br />किंतु, हाय, प्रियतम को जिसकी सबसे अधिक तृषा थी,<br />अब लगता है चूक गई मैं वही सुरभि देने से.<br />रही समेटे अलंकार क्यॉ लज्जामयी विधु-सी?<br />बिखर पड़ी क्यॉ नहीं कुट्टमित, चकित, ललित,लीला में?<br />बरस गई क्यॉ नहीं घेर सारा अस्तित्व दयित का<br />मैं प्रसन्न,उद्दाम, तरंगित, मदिर मेघ-माला-सी?<br />हार गई मैं हाय! अनुत्तम, अपर ऋद्धि जीवन की<br />प्राणॉ के प्रार्थना-भवन में बैठी ध्यान लगाकर.<br /><br />सुकन्या<br />देवि! आपकी व्यथा, सत्य ही, अति दुरंत, दुस्सह है;<br />आजीवन यह गाँस हृदय से, सचमुच नहीं कढ़ेगी.<br />पर, इस ग्लानि,प्रदाह, आत्म-पीड़न से अब क्या होगा?<br />उन्मूलित वाटिका नहीं फिर से बसने वाली है.<br />उसे देख कर जिएँ, नया पादप जो आन मिला है.<br />जितना भी सिर धुनें शोक से प्रियतम की विच्युति पर,<br />किंतु, सुचरिते! यह अचिंत्य विस्मय की बात नहीं है.<br />पुरुष नहीं विक्रांत, भीम, दुर्जय, कराल होता है,<br />जहाँ सामने तथ्य खड़े हों, अरि हॉ, चट्टानें हॉ.<br />पर, जब कभी युद्ध ठन जाता इसी अजेय पुरुष का<br />अपने ही मन की तरंग, अपनी ही किसी तृषा से<br />उससे बढ़कर और कौन कायर जग में होता है?<br />कर लेता है आत्म-घात, क्या कथा यतीत्व-ग्रहण की?<br />पर के फेंके हुए पाश से पुरुष नहीं डरता है,<br />वह, अवश्य ही, काट फेंकता उसे बाहु के बल से.<br />पर, फँस जाता जभी वीर अपनी निर्मित उलझन में,<br />निकल भागने की उसको तब राह नहीं मिलती है.<br />इसीलिए दायित्व गहन,दुस्तर गृहस्थ नारी का.<br />क्षण-क्षण सजग, अनिन्द्र-दृष्टि देखना उसे होता है,<br />अभी कहाँ है व्यथा, समर में लौटे हुए पुरुष को<br />कहाँ लगी है प्यास, प्राँ में काँटे कहाँ चुभे हैं?<br />बुरा किया यदि शुभे! आपने देखा नहीं नृपति के<br />कहाँ घाव थे, कहाँ जलन थी,, कहाँ मर्म-पीड़ा थी?<br />यह भी नियम विचित्र प्रकृति का, जो समर्थ, उद्भट है,<br />दौड़ रहा ऊपर पयोधि के खुले हुए प्रांगण में;<br />और त्रिया जो अबल, मात्र आंसू, केवल करुणा है,<br />वही बैठ सम्पूर्ण सृष्टि के महा मूल निस्तल में<br />छिगुनी पर धारे समुद्र को ऊंचा किए हुए है.<br />इसीलिए इतिहास, तुच्छ अनुचर प्रकाश, हलचल का,<br />किसी त्रिया की कथा नहीं तब तक अंकित करता है,<br />छाँह छोड़ जब तक आकर वह वरवर्णिनी प्रभा में<br />बैठ नहीं जाती नरत्व ले नर के सिंहासन पर<br />या जब तक मोहिनी फेंक मदनायित नयन-शरॉ की<br />किसी पुरुष को ले जग में विक्षोभ नहीं भरती है.<br />देवि! ग्लानि क्या. हम इतिहासॉ में यदि प्रथित नहीं हैं<br />अपनी सहज भूमि नारी की धूप नहीं, छाया है<br />इतिहासॉ की सकल दृष्टि केन्द्रित, बस एक क्रिया पर.<br />किंतु, नारियाँ क्रिया नहीं, प्रेरणा, पीति, करुणा हैं;<br />उद्गम-स्थली अदृश्य ,जहाँ से सभी कर्म उठते हैं.<br />लिखता है इतिहास कथा उस जनाकीर्ण जीवन की;<br />जहाँ सूर्य का प्रखर ताप है, भीषण कोलाहल है<br />पर, फैला है जहाँ चान्द्र साम्राज्य मूक नारी का;<br />वह प्रदेश एकांत, बोलता केवल संकेतॉ में.<br />अंवेषी इतिहास शूरता का, संघर्ष-सुयश का;<br />किंतु, हाय, शूरता नारियॉ की नीरव होती है;<br />वह सशब्द आघात नहीं, ममता है, कष्ट-सहन है.<br />सदा दौड़ता ही रहता इतिहास व्यग्र इस भय से,<br />छूट न जाए कहीं संग भागते हुए अवसर का;<br />किंतु, अचंचल त्रिया बैठ अपने गम्भीर प्राणॉ में<br />अनुद्विग्न, अनधीर काल का पथ देखा करती है.<br />पर, तब भी हम छिन्न नहीं इतिहासों की धारा से<br />कौन नहीं जानता पुरुष जब थकता कभी समर में,<br />किस मुख का कर ध्यान, याद कर किसके स्निग्ध- दृगॉ को<br />क्लांति छोड़ वह पुन: नए पुलकॉ से भर जाता है?<br />और कौन प्रति प्रात हाँक नर को बाहर करती है<br />नई उर्मि, नूतन उमंग-आशा से उसे सजा कर<br />लड़ने को जा वहाँ, जहाँ जीवन-रण छिड़ा हुआ है,<br />करने को निज अंशदान इतिहासॉ के प्रणयन में?<br />और सांझ के समय पुरुष जब आता लौट समर से,<br />दिन भर का इतिहास कौन उसके मुख से सुनती है<br />कभी मन्द स्मिति-सहित, कभी आंखॉ से अश्रु बहाकर?<br />नारी क्रिया नहीं, वह केवल क्षमा, शांति, करुणा है.<br />इसीलिए, इतिहास पहुंचता जभी निकट नारी के,<br />हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है.<br />हाय, स्वप्न! जानें, भविष्य भू का वह कब आयेगा,<br />जब धरती पर निनद नहीं, नीरवता राज करेगी;<br />दिन भर कर संघर्ष पुरुष जो भी इतिहास रचेगा,<br />बन जाएगा काव्य, सांझ होते ही, भवन-भवन में!<br />अभी चंड मध्याह्न, सूर्य की ज्वाला बहुत प्रखर है;<br />दिवस लग्न अनुकूल वह्नि के,पौरुष-पूर्ण गुणॉ के.<br />जब आएगी रात, स्यात, तब शांत, अशब्द क्षणॉ में<br />मही सिक्त होगी नरेश्वरी की शीतल महिमा से.<br />और देवि! जिन दिव्य गुणॉ को मानवता कहते हैं<br />उस्के भी अत्यधिक निकट नर नहीं, मात्र नारी है.<br />जितना अधिक प्रभुत्व-तृषा से पीड़ित पुरुष-हृदय है,<br />उतने पीड़ित कभी नहीं रहते हैं प्राण त्रिया के.<br />कहते हैं, जिसने सिरजा था हमें, प्रकांड पुरुष था;<br />इसीलिए, उसने प्रवृत्ति नर में दी स्वत्व-हरण की.<br />और नारियॉ को विरचा उसने कुछ इस कौशल से,<br />हम हो जाती हैं कृतार्थ अपने अधिकार गँवा कर.<br /><br />किंतु, कभी यदि हमें मिला निर्बाध सुयोग सृजन का,<br />हम होकर निष्पक्ष सुकोमल ऐसा पुरुष रचेंगी,<br />कोलाहल, कर्कश, निनाद में भी जो श्रवण करेगा<br />कातर, मौन पुकार दूर पर खड़ी हुई करुणा की;<br />और बिना ही कहे समझ लेगा, आँखॉ-आँखॉ में,<br />मूक व्यथा की कसक, आँसुऑ की निस्तब्ध गिरा को.<br /><br />औशीनरी<br />कितना मधुर स्वप्न! कैसी कल्पना चान्द्र महिमा की!<br />नारी का स्वर्णिम भविष्य! जानें, वह अभी कहाँ है!<br />हम तो चलीं भोग उसको, जो सुख-दुख हमें बदा था,<br />मिले अधिक उज्जवल, उदार युग आगे की ललना को<br /><br />आयु<br />माँ! हताश मत हो, भविष्य वह चाहे कहीं छिपा हो,<br />मैं आया हूँ अग्रदूत बन उसी स्वर्ण-जीवन का.<br />पिया दूध ही नहीं, जननि! मैं करुणामयी त्रिया के<br />क्षीरोज्जवल कल्पनालोक में पल कर बड़ा हुआ हूँ.<br />जो कुछ मिला मातृ-ममता से, माँके सजल हृदय से,<br />पिता नहीं, मैने जीवन में माताए देखी हैं.<br />दिया एक ने जन्म, दूसरी माँ ने लगा हृदय से<br />पाल-पोस कर बड़ा किया आँखॉ का अमृत पिलाकर;<br />अब मैं होकर युवा खोजते हुए यहाँ आया हूँ<br />राज-मुकुट को नहीं, तीसरी माँ के ही चरणॉ को.<br />माँ! मैं पीछे नृप किशोर, पहले तेरा बेटा हूँ.<br /><br />[आयु औशीनरी के चरणॉ पर गिरता है. औशीनरी उसे उठाकर हृदय से लगाती है और अपने आसूँ पोंछती है.]<br /><br />सुकन्या<br />बरस गया पीयूष; देवि! यह भी है धर्म त्रिया का<br />अटक गई हो तरी मनुज की किसी घाट-अवघट में,<br />तो छिगुनी की शक्ति लगा नारी फिर उसे चला दे;<br />और लुप्त हो जाए पुन: आतप,प्रकाश, हलचल से.<br />सो वह चलने लगी;<br />आइए, वापस लौट चलें हम, <br />मैं अपने घर, देवि! आप अपने प्रार्थना-भवन में.<br />त्यागमयी हम कभी नहीं रुकती हैं अधिक समय तक.<br />इतिहासॉ की आग बुझाकर भी उनके पृष्ठॉ में.<br /><br />पंचम अंक समाप्त<br /><br />खंडकाव्य "उर्वशी" समाप्त<br />------------------------<br />------------------------<br />परिशिष्ट<br /><br />तृतीय अंक<br /><br />मणिकुट्टिम = अंग्रेजी शब्द, मोजेक के अर्थ में प्रयुक्त<br />ऋक्षकल्प = नक्षत्र-कल्प<br />चन्द्रलिंग = जिसका लक्षण या सूचक चन्द्रमा हो.<br />बृंहित = बढ़ा हुआ, उस अर्थ में जिसमें आकाश सतत वर्धनशील है. <br /><br />चतुर्थ अंक<br /><br />“और अप्सरा संततियॉ का पालन कब करती है?”<br />पुराणॉ में निम्नलिखित कथाएँ देखिए--<br />शुकदेवजी का जन्म धृताची से, मत्स्यगन्धा का जन्म उपरिचर और अन्द्रिका से, प्रमद्वरा का जन्म विश्वावसु मुनि और मेनका से. राजा आग्नीध्र और पूर्वचिति, मुनीश्वर कंडु और प्रमलोचा तथा मेनका और विश्वामित्र की कथाएँ भी. गंगा ने भी अपने आठ पुत्रॉ में से किसी का पालन नहीं किया. हाँ मेनका एक ऐसी अप्सरा अवश्य है, जिसके भीतर मातृत्व कुछ अधिक सजीव था. दुष्यंत के यहाँ से शकुंतला जब निकाल दी गई, तब सहसा मेनका आकर उसे उठा ले गई, ऐसा साक्ष्य कालिदास की कल्पना देती है. <br /><br />पंचम अंक<br /><br />अर्यमा = सूर्य अभिषुत<br />सोम = पीसा हुआ सोम<br />आहवनीय = हवन के उपयुक्त<br />अश्विद्वय = दोनॉ अश्विनी कुमार<br />निषण्ण = उपविष्ट<br />वधूसरा = च्यवन की माता का नाम पुलोमा था. दैत्य द्वारा पीड़ित होने पर वधूसरा उसके आसुऑ से निकली थी. च्यवन की पहली पत्नी का नाम आरुषी था. जब प्रसव-काल में उसका देहांत हो गया, च्यवन तपस्या में चले गएऔर तपस्या के आसन से उठकर दुबारा उन्होने प्रेम किया.<br />रत्नसानु = स्वर्ग का एक पर्वत, जो सोने का है<br />शतऋतु = इन्द्र का नाम, इस कारण कि उन्होने सौ यज्ञ किए थे। कहते हैं, पुरुरवा भी शतऋतु थे<br />लक्ष्म = चिन्ह या दाग<br />त्रपा = लज्जा<br />ऋत = वह श्रृंखला अथवा नियम जो समग्र सृष्टि के भीतर व्याप्त है और जिसके अधीन समान कारण से<br />समान फल की उत्पत्ति होती है.<br />उदग्र = उत्कंठित<br />विभावसु = सूर्य<br />पूण, वरुण, मरुद्गण = वैदिक देवता<br />------------------------<br />------------------------सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-79438125099641867252011-12-18T17:23:00.000-08:002011-12-18T17:26:13.727-08:00उर्वशी- चतुर्थ अंकचतुर्थ अंक आरम्भ<br /><br />विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्,<br />शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले<br />-पद्म्पुराण्<br /><br />एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव<br />उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य<br />मम् हस्ते न्यासीकृत:<br />-विक्रमोर्वशीयम्<br /><br />स्थान- महर्षि च्यवन का आश्रम्<br />[महर्षि की पत्नी सुकन्या उर्वशी के नवजात को गोद में लिए खड़ी है. चित्रलेखा का प्रवेश]<br /><br />सुकन्या<br />अच्छा, तू आ गई चित्रलेखे? निंदिया मुन्ने की,<br />अकस्मात्, तेरी आहट पाकर यॉ उचट गई है,<br />मानो, इसके मन में जो अम्बर का अंश छिपा है<br />जाग पड़ा हो सुनते ही पद-चाप स्वर्ग की भू पर.<br />यह प्रसून छविमान मही-नभ के अद्भुत परिणय का,<br />जानें, पिता-सदृश रस लोभी होगा क्षार मही का<br />या देवता-समान मात्र गन्धॉ का प्रेमी होगा?<br /><br />चित्रलेखा<br />मही और नभ दो हैं, ये सब कहने की बातें हैं<br />खोदो जितनी भूमि शून्यता मिलती ही जायेगी.<br />और व्योम जो शून्य दीखता, उसके भी अंतर में<br />भाँति-भाँति के जलद-खंड घूमते ; और पावस में<br />कभी-कभी रंगीन इन्द्रध्नुषी भी उग आती है.<br /><br />सुकन्या<br />और इन्द्रधनुषी के उगने पर विरक्त अम्बर की क्या होती<br />है दशा?<br /><br />चित्रलेखा<br />तुम्हें ही इसका ज्ञान नहीं है?<br />योगीश्वर तज योग, तपस्वी तज निदाधमय तप को<br />रूपवती को देख मुग्ध इस भाँति दौड़ पड़ते हैं,<br />मानो, जो मधु-शिखा ध्यान में अचल नहीं होती थी,<br />ठहर गई हो वही सामने युवा कामिनी बनकर<br />भूल गई, जब किया स्पर्श तुमने ध्यानस्थ च्यवन का,<br />ऋषि समाधि से किस प्रकार व्याकुल-विलोल जागे थे?<br /><br />सुकन्या<br />किंतु, चित्रलेखे! मुझको अपने महर्षि भर्त्ता पर<br />ग्लानि नहीं, निस्सीम गर्व है!<br /><br />चित्रलेखा<br />यही गर्व मुझको भी<br />हो आता है अनायास उन तेजवंत पुरुषॉ पर,<br />बाधक नहीं तपोव्रत जिनके व्यग्र-उदग्र प्रणय का,<br />न तो प्रेम ही विघ्न डालता जिनके तपश्चरण में;<br />प्रणय-पाश में बँधे हुए भी जो निमग्न मानस से<br />उसी महासुख की चोटी पर चढे हुए रहते हैं,<br />जहाँ योग योगी को, कवि को कविता ले जाती है<br />और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर<br />जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आंखॉ को.<br />तप का कर उत्सर्ग प्रेम पर तपोनिधान च्यवन ने<br />मात्र तुम्हे ही नहीं, जगत् भर की सीमंतिनियॉ को<br />अमिट, अपार, त्रिलोकजयी गौरव का दान दिया है.<br />और पुन: यौवन धारण कर उन अमोघ द्रष्टा ने<br />दिखा दिया, इन्द्रिय-तर्पण में कोई दोष नहीं है.<br />एक प्रेम वह, जो विधुसा ऊपर उठता जाता है<br />होकर बीचॉबीच किन्हीं दो ऐसे ताल-द्रुमॉ के<br />जिन वृक्षॉ ने कभी प्रणय-आलिंगन नहीं किया है.<br />और दूसरा वह, पड़कर जिसके रस-आलोड़न में<br />दो मानस ही नहीं एक, दो तन भी हो जाते हैं<br />प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर, केवल आधा है;<br />मन हो एक, किंतु, इस लय से तन को क्या मिलता है?<br />केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना, अतृप्ति ललक की;<br />दो निधि अंत:क्षुब्ध, किंतु संत्रस्त सदा इस भय से,<br />बाँध तोड़ते ही व्रत की विभा चली जाएगी;<br />अच्छा है, मन जले, किंतु तन पर तो दाग नहीं है.<br />मृषा तर्क, मन मलिन हुआ तो तन में प्रभा कहाँ है?<br />तन-मन का यह भेद सुकन्ये! मुझे नहीं रुचता है.<br />बलिहारी उस पूर्ण प्रेम की जिसकी क्षिप्र लहर में<br />केवल मन ही नहीं अंग संज्ञा भी खो जाती है.<br />धन्य त्रिया वह जो बलिष्ठ नर की पिपासु बाँहॉ में<br />आंख मूम्द रस-मग्न प्रणय-पीड़न असह्य सहती है,<br />जैसे बहता कुसुम तरंगित सागर की लहरॉ पर.<br />धन्य पुरुष जो वर्ष-वर्ष निष्काम, उपॉषित रहकर<br />जथरानल को तीव्र, क्षुधा को दीपित कर लेते हैं.<br />सतत भोगरत नर क्या जाने तीक्ष्ण स्वाद जीवन का?<br />उसे जानता वह, जिसने कुछ दिन उपवास किया हो!<br />सदा छाँह में पले, प्रेम यह भोग-निरत प्रेमी का;<br />पर, योगी का प्रेम धूप से छाया में आना है<br /><br />सुकन्या<br />एकचारिणी मैं क्या जानूँ स्वाद विविध भोगॉ का?<br />मेरे तो आनन्द-धाम केवल महर्षि भर्त्ता हैं.<br />योग-भोग का भेद अप्सरा की अबन्ध क्रीड़ा है;<br />गृहिणी के तो परमदेव आराध्य एक होते हैं,<br />जिससे मिलता भोग, योग भी वही हमें देता है.<br />क्या कुछ मिला नहीं मुझको दयिता महर्षि की होकर?<br />शिखर-शिखर उड़ने में, जानें, कौन प्रमोद-लहर है!<br />किंतु, एक तरु से लग सारी आयु बिता देने में<br />जो प्रफुल्ल, धन, गहन शांति है, वह क्या कभी मिलेगी<br />नए-नए फूलॉ पर नित उड़ती फिरनेवाली को?<br />नहीं एक से अधिक प्राण नारी के भी होते हैं,<br />तो फिर वह पालती खिलाकर क्या विभिन्न पुरुषॉ को?<br />और पुरुष कैसे जी लेता पाए बिना हृदय को?<br />स्यात् मात्र छू भित्ति योषिता के शरीरमन्दिर की,<br />धनु, प्रसून, उन्नत तरंग की जहाँ चित्रकारी है.<br />पर, ये चित्र अचिर; भौहॉ के धनुष सिकुड़ जाएँगे,<br />छूटेगी अरुणिमा कपोलों के प्रफुल्ल फूलॉ की.<br />और वक्ष पर जो तरंग यौवन की लहराती है.<br />पीछे समतल छोड़ जरा में जाकर खो जाएगी.<br />तब फिर अंतिम शरण कहाँ उस हतभागी नारी को?<br />यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?<br />यहाँ देव-मन्दिर में तब तक ही जन जाते हैं,<br />जब तक हरे-भरे, मृदु हैं पल्लव-प्रसून तोरण के<br />और भित्तियॉ के ऊपर सुन्दर, सुकुमार त्वचा है.<br />टूट गया यदि हर्म्य, देवता का भी आशु मरण है.<br />इसीलिए कहती हूँ, जब तक हरा-भरा उपवन है,<br />किसी एक के संग बाँध लो तार निखिल जीवन का;<br />न तो एक दिन वह होगा जब गलित, म्लान अंगॉ पर<br />क्षण भर को भी किसी पुरुष की दृष्टि नहीं विरमेगी;<br />बाहर होगा विजन निकेतन, भीतर प्राण तजेंगे<br />अंतर के देवता तृषित भीषण हाहाकारॉ में.<br /><br />चित्रलेखा<br />कौन लक्ष्य?<br /><br />सुकन्या<br />जिसको भी समझो.<br /><br />चित्रलेखा<br />मैं तो तृषित नहीं हूँ,<br />न तो देवता ही व्याकुल मेरे प्रसन्न प्राणॉ के.<br />दृष्टि जहाँ तक भी जाती है, मुझे यही दिखता है,<br />जब तक खिलते फूल, वायु लेकर सुगन्ध चलती है,<br />खिली रहूँगी मैं, शरीर में सौरभ यही रहेगा.<br />---------------------------<br />---------------------------<br />सुकन्या<br />सो, केवल इसलिए कि तुम अप्सरा, सिद्ध नारी हो.<br />विगलित कभी कहाँ होता यौवन तुम अप्सरियॉ का?<br />पर, यौवन है मात्र क्षणिक छलना इस मर्त्य भुवन में,<br />ले उसका अवलम्ब मानवी कब तक जी सकती है?<br /><br />अप्सरियाँ जो करें, किंतु, हम मर्त्य योषिताऑ के<br />जीवन का आनन्द-कोष केवल मधु-पूर्ण हृदय है<br />हृदय नहीं त्यागता हमें यौवन के तज देने पर,<br />न तो जीर्णता के आने पर हृदय जीर्ण होता है<br />एक-दूसरे के उर में हम ऐसे बस जाते हैं,<br />दो प्रसून एक ही वृंत पर जैसे खिले हुए हों.<br />फिर रह जाता भेद कहाँ पर शिशिर, घाम, पावस का?<br />एक संग हम युवा, संग ही संग वृद्ध होते हैं.<br />मिलकर देते खेप अनुद्धतमन विभिन्न ऋतुऑ को;<br />एक नाव पर चढ़े हुए हम उदधि पार करते हैं.<br />अप्सरियाँ उद्विग्न भोगतीं रस जिस चिर यौवन का,<br />उससे कहीं महत् सुख है जो हमें प्राप्त होता है<br />निश्छल, शांत, विनम्र, प्रेमभरे उर के उत्सर्जन से.<br /><br />चित्रलेखा<br />सचमुच, यह सुख अप्रमेय है, मन ही नन्दि-निलय है<br />क्षन भर पाकर हृदय-दान जब उतना सुख मिलता है,<br />तब कितना मिलता होगा यह सुख उन दम्पतियॉ को<br />जो सदैव के लिए हृदय उत्सर्जित कर देते हैं.<br />किंतु, सुकन्ये! डरी नहीं तू, जब तेरे स्पर्शन से<br />मुनिसत्तम खन्डित समाधि से कोपाकुल जागे थे?<br />क्रुद्ध तापसॉ से तो अप्सरियाँ भी डर जाती हैं.<br /><br />सुकन्या<br />डरी नहीं मैं? हाय चित्रलेखे! कौतुहल से ही<br />मैने तनिक पलक खींची थी ध्यानमग्न मुनिवर की.<br />पर, नयनो के खुलते ही उद्भासित रन्ध्र-युगल से,<br />लगा, अग्नि ही स्वयं फूट कर कढ़े चले आते हॉ,<br />और नहीं कुछ एक ग्रास में मुझे लील जाने को.<br />रंच-मात्र भी हिली नहीं, निष्कम्प, चेतनाहीना<br />खड़ी रही उस भयस्तंभ-पीडिता, असंज्ञ मृगी-सी<br />जिसकी मृत्यु समक्ष खड़ी हो मृग-रिपु की आंखॉ में.<br />पर, मैं जली नहीं तत्क्षण पावक ऋषि के नयनॉ का<br />परिणत होने लगा स्वयं शीतल मधु की ज्वाला में<br />मानो, प्रमुदित अनल-ज्वाल जावक में बदल रहा हो<br />नयन रक्त, पर, नहीं कोप से, आसव की लाली से.<br />सहसा फूट पड़ी स्मिति की आभा ऋषि के आनन पर;<br />लौट गया मेरी ग्रीवा पर आकर हाथ प्रलय का<br />ज्यॉ ही हुई सचेत की लज्जा से सुगबुगा उठी मैं<br />पट सँभाल कर ख्गड़ी देखने लगी बंक लोचन से,<br />अब, जाने क्या भाव सुलगते हैं महर्षि के मुख पर.<br />अनुद्विग्न हौठे मुनीश्वर, बोले अमृत गिरा से<br />सौम्ये! हो कल्याण, कहाँ से इस वन में आई हो?<br />सुर-कुल की शुचि-प्रभा या कि मानव कुल की तनया हो?<br /><br />कहाँ मिला यह रूप, देखते ही जिसको पावक की<br />दाहकता मिट गई, स्थाणु में पत्ते निकल रहे हैं?<br />“वरण करोगी मुझे? तुम्हारे लिए जरा को तज कर<br />शुभे! तपस्या के बल से यौवन मैं ग्रहण करूँगा<br />प्रौढ़ मेघ, पादप नवीन,मदकल, किशोर-कुंजर सा.<br /><br />डरो नहीं, यह तपोभंग च्युति नहीं,सिद्धि मेरी है.<br />पहले भी जब हुआ पूर्ण कटु तप महर्षि कर्दम का,<br />स्वर्ग नहीं, ऋषि ने वर में नारी मनोज्ञ मांगी थी.<br />सो तुम सम्मुख खड़ी तपस्या के फल की आभा-सी,<br />अब होगा क्या अपर स्वर्ग जिसका सन्धान करूँ मैं?<br />हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?<br /><br />”मणि-माणिक्य नहीं, तप केवल एक रत्न तापस का;<br />शुचिस्मिते! मैं वही रत्न तुमको अर्पित करता हूँ.<br />हम-तुम मिलकर साथ रहेंगे जहाँ पर्णशाला में,<br />शुभे! स्वर्ग वरदान मांगने वहाँ स्वयं आएगा.”<br /><br /> <br /><br />चित्रलेखा<br />कीर्त्तिमान की कीर्त्ति, साधना भावुक तपोव्रती की<br />जो रसमय उद्वेग त्रिया के उर में भर सकती है,<br />वह उद्वेग भला जागेगा मणि, माणिक्य, मुकुट से?<br />धन्य वही जो विभव नहीं, यश को अर्पित होती है.<br /><br />सुकन्या<br />चित्रे! मैं भर गई, न जानें, किस अपार महिमा से?<br />प्रथम-प्रथम ही जाग उठा नारीत्व विभासित होकर.<br />लगा, सूर्य में चमक रहा जो, वह प्रकाश मेरा है,<br />महाव्योम में भरे रत्न् मुझसे ही छिटक पड़े हैं,<br />नाच रहीं उर्मियाँ भंगिमा ले मेरे चरणॉ की,<br />दौड़ रही वन में, जो, वह मेरी ही हरियाली है.<br />लौट गए थे हो निराश शत-शत युवराज जहाँ से,<br />वही द्वार खुल गया श्रवण कर यह प्रशस्ति तापस की,<br />“हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?’<br /><br />हाय चित्रलेखे! प्रशस्तियाँ क्या-क्या नहीं सुनी थीं?<br />किसे नहीं मुख में दिखा था पूर्ण चन्द्र अम्बर का,<br />नयनॉ में वारुणी और सीपी की चमक त्वचा में?<br />पर, अदृश्य जो देव पड़े थे गहन, गूढ़ मन्दिर में,<br />उनका वन्दन-गान किसी ने कहाँ कभी गाया था?<br />लौट गए सब देख चमत्कृत शोणित, मांस, त्वचा को,<br />रंगॉ के प्राचीर, गन्ध के घेरॉ से टकराकर;<br />कोई भी तो नहीं त्वचा के परे पहुंच पाया था.<br />सब को लगा मोहिनी-सी मुझमें कुछ भरी हुई है,<br />पर, यह सम्मोहन-तरंग आती है उमड़ जहाँ से,<br />भीतर के उस महासिन्धु तक किसकी दृष्टि गई थी?<br />देखा उसे महर्षि च्यवन ने और सुप्त महिमा को<br />जगा दिया आयास मुक्त, निश्छल प्रशस्ति यह गाकर,<br />हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?<br /><br />लगा मुझे, सर्वत्र देह की पपरी टूट रही है,<br />निकल रहीं हैं त्वचा तोड़ कर दीपित नई त्वचाएं;<br />चला आ रहा फूट अतल से कुछ मधु की धारा-सा,<br />हरियाली से मैं प्रसन्न आकंठ भरी जाती हूँ.<br />रही मूक की मूक, किंतु, अम्बर पर चढ़े हृदय ने<br />कहा, ‘गूढ़ द्रष्टा महर्षि ,तुम मृषा नहीं कहते हो;<br />परम सत्य की स्मिति उदार, मैं देवी, मैं नारी हूँ.<br />रूप दीर्घ तप का प्रसाद है, विविध साधनाओं से<br />तातस, प्रग्यावान पुरुष जो सिद्धि लाभ करते हैं,<br />अनायास ही सुलभ शक्ति वह रूपमती नारी को<br />नारी का सौन्दर्य विश्व-विजयिनी, अमोघ प्रभा है<br /><br />“सचमुच ही फूटते स्पर्श से पत्र अपत्र द्रुमॉ में,<br />धरती जहाँ चरण उसर में फूल निकल आते हैं.<br />मैं अनंत की प्रभा, नहीं अनुचरी किरीत मुकुट की,<br />प्रणय-पुण्यशीला स्वतंत्र मैं केवल उसे वरुंगी,<br />जिसमें होगी ज्योति किसी दारुणतम तपश्चरण की.<br />किंतु, हाय, तुम एक बार क्यॉ नहीं पुन: कहते हो,<br />हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?<br />-------------------------<br />--------------------------<br />चित्रलेखा<br />उफ री! मादक घड़ी प्रेम के प्रथम-प्रथम परिचय की!<br />मर कर भी सखि! मधु-मुहुर्त यह कभी नहीं मरता है.<br />जब चाहो, साकार देख लो उसे बन्द आंखॉ में.<br />पर मैं क्यॉ, इस भांति, स्वयं कंटकित हुई जाती हूँ?<br />प्रथम प्रेम की स्मृति भी कितनी पुलकपूर्ण होती है!<br />च्यवन पूज्य सारी वसुधा के, पर, असंख्य ललनाएँ<br />उन्हें देख्ती हैं अपार श्रद्धा, असीम गौरव से.<br />नारी को पर्याय बताकर तप:सिद्धि भूमा का,<br />सचमुच त्रिया जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है.<br /><br />सुकन्या<br />पूछो मत, वैसे तो, ऋषि की प्रकृति तनिक कोपन है;<br />मन की रचना मेंनिविष्ट कुछ अधिक अंश पावक का.<br />किंतु, नारियॉ पर, सचमुच, उनकी अपार श्रद्धा है,<br />और सहज उतनी ही वत्सलता निरीह शिशुऑ पर.<br />कहते हैं, शिशु को मत देखो अगम्भीर भावॉ से;<br />अभी नहीं ये दूर केन्द्र से परम गूढ़ सत्ता के;<br />जानें, क्या कुछ देख स्वप्न में भी हंसते रहते हैं!<br />स्यात्, भेद जो खुला नहीं अब तक रहस्य-ज्ञानी पर,<br />अनायास ही उसे देखते हैं ये सहज नयन से,<br />क्यॉकि दृष्टि पर अभी ज्ञान का केंचुल नहीं चढ़ा है.<br />“जिसके भी भीतर पवित्रता जीवित है शिशुता की,<br />उस अदोष नर के हाथॉ में कोई मैल नहीं है.”<br />जब उर्वशी यहाँ आई थी पुत्र प्रसव करने को<br />ऋषि ने देखा था उसको, क्या कहूँ कि किस ममता से?<br />और रात के समय कहा चिंतन-गम्भीर गिरा में<br />शुभे! त्रिया का जन्म ग्रहण करने में बड़ा सुयश है<br />चन्द्राहत कर विजय प्राप्त कर लेना वीर नरॉ पर<br />बड़ी शक्ति है; शुचिस्मिते! शूरता इसे कहता हूँ.<br />”और नारियॉ में भी श्लथ, गर्भिणी, सत्वशीला को<br />देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा सी हो आती है.<br />कितनी विवश, किंतु कितनी लोकोत्तर वह लगती है!<br />“देह-कांति पीतिमा-युक्त; गति नहीं पदॉ के वश में;<br />चल लेती है किसी भांति पीवर उस मेघाली-सी<br />जो समुद्र का जल पीकर मंथर डगमगा रही हो.<br />आकृति ऑप-विहीन, किंतु, वह रहित नहीं भावॉ से;<br />फिर भी कोई रंग देर तक ठहर नहीं पाता है,<br />विवशा के वश में, मानो, अब ये उर्मियाँ नहीं हों.<br />दृग हो जाते वक्र या कि बाहर मन के बन्धन से;<br />देख नहीं पाती, जैसे देखना चाहती है वह;<br />यही बेबसी मुख पर आकुलता बन छा जाती है.”<br />निस्सहाय, उदरस्थ भविष्यत के अधीन वह दीना<br />किस प्रकार रख सके भला अपने वश में अपने को?<br />जो चाहता भविष्य, वक्त्र पर वही भाव आते हैं.<br />मानो, जो ले जन्म कभी तुतली वाणी बोलेगा,<br />लगा भेजने वह अजात तुतले संकेत अभी से.<br />सत्त्ववती नारी अंकन-पट है भविष्य के कर का.<br />कितनी सह यातना पालती त्रिया भविष्य जगत का?<br />कह सकता है कौन पूर्ण महिमा इस तपश्चरण की?”<br />और प्रसूता के समीप से जब महर्षि आए थे,<br />बोले थे, “उर्वशी अभी, देखा कैसी लगती थी,<br />पड़ी हुई निस्तब्ध शमित पीड़ा की शांत कुहू में?<br />तट पर लगी अचल नौका-सी जो अदृश्य में जाकर<br />दृश्य जगत के लिए सार्थ जीवन का ले आई हो,<br />और रिक्त होकर प्रभार से अब अशेष तन्द्रा में<br />याद कर रही हो धुन्धली बातें अदृश्य के तट की.<br />बाँध रहा जो तंतु लोक को लोकोत्तर जगती से,<br />उसका अंतिम छोर, न जाने, कहाँ अदृश्य छिपा है.<br />दृश्य छोर है, किंतु, यहाँ प्रत्यक्ष त्रिया के उर में!<br />नारी ही वह महासेतु, जिस पर अदृश्य से चलकर<br />नए मनुज, नव प्राण दृश्य जग में आते रहते हैं.<br />नारी ही वह कोष्ठ, देव, दानव, मनुज से छिपकर<br />महाशून्य, चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है.<br />सच पूछो तो, प्रजा-सृष्टि में क्या है भाग पुरुष का?<br />यह तो नारी ही है, जो सब यज्ञ पूर्ण करती है.<br />सत्त्व-भार सहती असंग, संतति असंग जनती है;<br />और वही शिशु को ले जाती मन के उच्च निलय में,<br />जहाँ निरापद, सुखद कक्ष है शैशव के झूले का.<br />शुभे! सदा शिशु के स्वरूप में ईश्वर ही आते हैं.<br />महापुरुश की ही जननी प्रत्येक जननि होती है;<br />किंतु, भविष्यत को समेट अनुकूल बना लेने का<br />मिलता कहाँ सुयोग विश्व की सारी माताऑ को?<br />तब भी, उनका श्रेय सुचरिते! अल्प नहीं, अद्भुत है.”<br /><br />(उर्वशी का प्रवेश)<br /><br />उर्वशी चित्रलेखा से-<br />अच्छा तो यह आप सखी के संग विराज रही हैं!<br />अब तो यहीं भेंट हो जाती है सब अप्सरियॉ से<br />च्यवन-कुटी है अथवा यह मघवा का मोद-भवन है?<br /><br />चित्रलेखा<br />मोद-भवन हो भले सुकन्या का यह; पर अपना तो<br />राज-भवन है, जहाँ कल्पना और सत्य-संगम से<br />मनुजॉ का अगला शशांक-वंशी नरेश जनमा है.<br />हम अप्सरा, किंतु, आर्या किस मानव की बेटी हैं?<br /><br />उर्वशी<br />बेटी नहीं हुई तो क्या? अब माँ तो हूँ मानव की?<br />नहीं देखती, रत्नमयी को कैसा लाल दिया है?<br /><br />चित्रलेखा<br />कौन कहे, जो तेज दमकता है इसके आनन पर,<br />प्राप्त हुआ हो इसे अंश वह जननी नहीं, जनक से?<br />------------------------<br />------------------------<br />उर्वशी<br />अरी देखती नहीं, लाल की नन्हीं-सी आंखॉ में<br />अब भी तो सुस्पष्ट स्वर्ग के सपने झलक रहे हैं?<br />टुकुर-टुकुर संतुष्ट भाव से कैसे ताक रहा है?<br />मानो, हो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी समर्थ देवॉ-सा!<br /><br />सुकन्या<br />सखी! तुम्हारा लाल अभी से बहुत-बहुत नटखट है,<br />देख रही हूँ बड़े ध्यान से, जब से तुम आई हो,<br />तु पर से इस महाधूर्त की दृष्टि नहीं हटती है.<br />लो, छाती से लगा जुड़ाओ इसके तृषित हृदय को;<br />जो भी करूँ, दुष्ट मुझको अपनी माँ क्यो मानेगा?<br /><br />उर्वशी<br />अरी! जुड़ाना क्या इसको? ला, दे, इस ह्दय-कुसुम को<br />लगा वक्ष से स्वयं प्राण तक शीतल हो जाती हूँ<br /><br />(सुकन्या की गोद से बच्चे को लेकर हृदय से लगाती है)<br /><br />आह! गर्भ में लिए इसे कल्पना-श्रृंग पर चढ़ कर<br />किस सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को मैने नहीं छुआ था?<br />यही चहती थी समेट कर पी लूँ सूर्य-किरण को,<br />विधु की कोमल रश्मि, तारकॉ की पवित्र आभा को,<br />जिससे ये अपरूप, अमर ज्योतियाँ गर्भ में जाकर<br />समा जाएँ इसके शोणित में, हृदय और प्राणॉ में.<br />यही सोचती थी त्रिलोक में जो भी शुभ, सुन्दर है,<br />बरस जाए सब एक साथ मेरे अंचल में आकर;<br />मैं समेट सबको रच दूँ मुसकान एक पतली-सी,<br />और किसी भी भांति उसे जड़ दूँ इसके अधरॉ पर!<br />सब का चाहा भला कि इसके मानस की रचना में<br />समावेश हो जाए दया का, सभी भली बातॉ का.<br />विनय सुनाती रही अगोचर, निराकार, निर्गुण को,<br />भ्रूण-पिंड को परम देव छू दें अपनी महिमा से.<br />वह सब होगा सत्य; लाल मेरा यह कभी उगेगा<br />पिता-सदृश ही अपर सूर्य बनकर अखंड भूतल में<br />और भरेगा पुण्यवान यह माता का गुण लेकर<br />उर-अंतर अनुरक्त प्रजा का शीतल हरियाली से.<br />जब होगा यह भूप, प्रचुर धन-धान्यवती भू होगी,<br />रोग, शोक, परिताप,पाप वसुधा के घट जाएंगे;<br />सब होंगे सुखपूर्ण, जगत में सबकी आयु बढ़ेगी,<br />इसीलिए तो सखी! अभी से इसे आयु कहती हूँ.<br /><br />(बच्चे को बार-बार चुमकारती है)<br /><br />कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणॉ में अकथ, अपार सुखॉ की!<br />दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है!<br />और स्पर्श में यह तरंग-सी क्या है सोम-सुधा की,<br />अंख लगाते ही आंखॉ की पलकें झुक जाती हैं!<br />हाय सुकन्ये! कल से मैं जानें, किस भांति जियूँगी!<br /><br />सुकन्या<br />क्यों कल क्या होगा?<br /><br />उर्वशी<br />कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा.<br />यज्ञ पूर्ण होगा, विमुक्त होते ही आचारॉ से<br />कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे.<br />और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आंखों से.<br />हाय दयित जिसके निमित्त इतने अधीर व्याकुल हैं,<br />उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है.<br />और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी<br />दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को<br />न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ.<br />भरत-शाप जितना भी कटु था, अब्तक वह वर ही था;<br />उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है.<br /><br />सुकन्या<br />महा क्रूर-कर्मा कोविद; ये भरत बड़े दारुण हैं.<br />यह भी क्या वे नहीं जानते, संतति के आने पर<br />पति-पत्नी का प्रणय और भी दृढ़तर हो जाता है?<br />बाला रहती बँधी मृदुल धागॉ से शिरिष-सुमन के,<br />किंतु,अंक में तनय, पयस के आते ही अंचल में,<br />वही शिरिष के तार रेशमी कड़ियाँ बन जाते है.<br />और कौन है, जो तोड़े झटके से इस बन्धन को?<br />रेशम जितना ही कोमल उतना ही दृढ़ होता है.<br />कौन भामिनी है, जो अंगज पुत्र और प्रियतम में<br />किसी एक को लेकर सुख से आयु बिता सकती है<br />कौन पुरन्ध्री तज सकती है पति के लिए तनय को?<br />कौन सती सुत के निमित्त स्वामी को त्याग सकेगी?<br />यह संघर्ष कराल! उर्वशी! बड़ा कठिन निर्णय है.<br />पुत्र और पति नहीं,पुत्र या केवल पति पाओगी,<br />सो भी तब, जब छिपा सको निष्ठुर बन सदा तनय को,<br />और मिटा दो इसी छिपाने में भविष्य बेटे का.<br />सखी! दुष्ट मुनि ने कितना यह भीषण शाप दिया है!<br />इससे तो था श्रेष्ठ भस्म कर देते तुम्हे जलाकर.<br /><br />चित्रलेखा<br />किंतु, जला दें तो सन्ध्या आने पर इन्द्र-सभा में<br />नाच-नाच कर कौन देवताऑ की तपन हरेगी<br />काम-लोल कटि के कम्पन, भौहॉ के संचालन से?<br />सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवॉ का?<br />भस्म-समूहॉ के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं<br />सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीन-केतन की<br />अब भी मन्द-मन्द चलती है श्रमित रक्त-धारा में.<br />सहे मुक्त प्रहरण अनंग का, दर्प कहाँ वह तन में?<br />बिबुध पंचशर के बाणॉ को मानस पर लेते हैं.<br />वश में नहीं सुरॉ के प्रशमन सहज, स्वच्छ पावक का,<br />ये भोगते पवित्र भोग औरॉ में वह्नि जगाकर!<br />कहते हैं, अप्सरा बचे यौवनहर प्रसव-व्यथा से;<br />और अप्सराएँ इस सुख से बचती भी रहती हैं.<br />क्योकि कहीं बस गई भूमि पर वे माताएँ बनकर,<br />रसलोलुप् दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवॉ की<br />लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा, उर के तल्पॉ पर?<br />हम कुछ नहीं, रंजिकाएँ हैं मात्र अभुक्त मदन की.<br />हाय, सुकन्ये! नियति-शाप से ग्रसित अप्सराऑ की<br />कोई भी तो नहीं विषम वेदना समझ पाता है.<br />------------------------<br />------------------------<br />सुकन्या (उर्वशी से)<br />तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?<br />कब तक तुम इस भांति नित्य छिपकर वन में आओगी<br />सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?<br />और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?<br />हे भगवान! उर्वशी पर यह कैसी विपद पड़ी है.<br /><br />उर्वशी<br />आने को तो, स्यात्, आज यह अंतिम ही आना है.<br />कल से तो फिर लौट पड़ेगी वही सरणि जीवन की,<br />दिन भर रहना संग-संग प्रियतम के, जहाँ रहें वे,<br />और बिता देना समग्र रजनी उस प्रणय-कथा में<br />जिसका कहीं न आदि, न तो मध्यावसान होता है.<br />तब भी, जानें, विरह आयु का कैसे झेल सकूँगी?<br />हाय पुत्र! तू क्यों आया था उसके बन्ध्य उदर में,<br />अभिशप्ता जो नहीं प्यार माँ का भी दे सकती है?<br />मैं निमित्त ही रही, सुकन्ये! इस अबोध बालक की<br />तुम्हे छोड़ कर निखिल लोक में और कौन माता है?<br />केवल भ्रूण-वहन, केवल प्रजनन मातृत्व नहीं है;<br />माता वही, पालती है जो शिशु को हृदय लगाकर.<br />सखी! दयामयि देवि! शरण्ये! शुभे! स्वसे! कल्याणी!<br />मैं क्या कहूँ, वंश से बिछुड़ा कब तक आयु रहेगा<br />यहाँ धर्म की शरण तुम्हारे अंचल की छाया में?<br />किंतु, पिता-गृह तो, अवश्य ही उसे कभी जाना है<br />वह हो आज या कि कुछ दिन में या यौवन आने पर.<br />अपना सुख तृणवत नगण्य है,उसे छोड़ सकती हूँ.<br />किंतु, पुत्र का भाग्य भूमि पर रह कैसे फोड़ूँगी?<br />देना भेज, उचित जब समझो, मुझसे जनित तनय पर<br />जभी पड़ेगी दृष्टि दयित की, वज्र आन टूटेगा;<br />गरज उठेगा भरत-शाप मैं पराधीन पुतली-सी<br />खिंची हुई क्षिति छोड़ अचानक स्वर्ग चली जाऊँगी.<br />छूट जाएँगे अकस्मात वे सुख, जिनके लालच में,<br />जब से आई यहाँ, कल्प-कानन को भूल गई हूँ.<br />यह धरती, यह गगन, मृगॉ से भरी, हरी अट्वी यह,<br />ये प्रसून, ये वृक्ष स्वर्ग में बहुत याद आएँगे.<br />झलमल-झलमल सरित्सलिल वह ऊषा की लाली से<br />शस्यॉ पर बिछली-बिछ्ली आभा वह रजत किरण की,<br />चहक-चहक उठना वह विहगॉ का निकुंज-पुंजॉ में,<br />स्वर्ग-वासिनी मैं, श्रद्धा से, नमस्कार करती हूँ<br />अविनश्वर, सौन्दर्यपूर्ण, नश्वर इस महा मही को.<br />कितना सुख! कितना प्रमोद! कितनी आनन्द-लहर है!<br />कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस वसुधा से!<br />दिन में भी अंकस्थ किए मोहिनी प्रिया छाया को<br />ये पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते हैं!<br />कितना हो उठता महान् यह गगन निशा आने पर,<br />जब उसके उर में विराट नक्षत्र-ज्वार आता है.<br />हो उठती यामिनी गहन, तब उन निस्तब्ध क्षणॉ में,<br />कौन गान है, जिसे अचेतन अन्धकार गाता है?<br />आती है जब वायु स्पर्श-सुख-मयी सुदूर क्षितिज से,<br />कौन बात है, जिसे तृणॉ पर वह लिखती जाती है?<br />और गन्धमादन का वह अनमोल भुवन फूलॉ का!<br />मृग ही नहीं, विटप-तृण भी कितने सजीव लगते थे!<br />पत्र-पत्र को श्रवण बना अटवी कैसे सुनती थी<br />सूक्ष्म निनद, चुपचाप, हमारे चुम्बन, कल कूजन का!<br />झुक जाती थीं, किस प्रकार, डालियाँ हमें छूने को,<br />शैलराज, मानो, सपने में बाँहें बढ़ा रहा हो.<br />किस प्रकार विचलित हो उठते थे प्रसून कुंजॉ के,<br />फेन-फेन होती वह उर्मिल हरियाली शिखरॉ की<br />ज्वार बाँध, किस भांति, बादलॉ को छूने उठती थी?<br />कैसे वे तटिनियाँ उछलती हुई सुढाल शिला पर<br />हमें देख चलने लगतीं थीं और अधिक इठला कर!<br />और हाय! वह एक निर्झरी पिघले हुए सुकृत-सी,<br />तीर-द्रुमॉ की छाया में कितनी भोली लगती थी!<br />लगता था, यह चली आ रही जिस पवित्र उद्गम से,<br />वहीं कहीं रहते होंगे नारायण कुटी बनाकर.<br />आह! गन्धमादन का वह सुख और अंक प्रियतम का!<br />सखी! स्वर्ग में जो अलभ्य है, उस आनन्द मदिर का,<br />इसी सरस वसुधा पर मैने छक कर पान किया है.<br />व्याप गई जो सुरभि घ्राण में, सुषमा चकित नयन में,<br />रोमांचक सनसनी स्पर्श-सुख की जो समा गई है<br />त्वचा-जाल, ग्रीवा, कपोल में, ऊँगली की पोरॉ में,<br />धो पाएगा उसे कभी क्या सलिल वियद-गंगा का?<br />पारिजात-तरु-तले ध्यान में जगी हुई खोजूँगी<br />उर:देश पर सुखद लक्ष्म प्रियतम के वक्षस्थल का,<br />रोमांचित सम्पूर्ण देह पर चिन्ह विगत चुम्बन के.<br />और कभी क्या भूल सकूँगी उन सुरम्य रभसॉ को,<br />प्रिय का वह क्रीड़न अभंग मेरे समस्त अंगॉ से;<br />रस में देना बिता मदिर शर्वरी खुली पलको में<br />कभी लगाकर मुझे स्निग्ध अपने उच्छ्वसित हृदय से,<br />कभी बालकॉ-सा मेरे उर में मुख-देश छिपाकर?<br />तब फिर आलोड़न निगूढ़ दो प्राणॉ की ध्वनियॉ का;<br />उनकी वह बेकली विलय पाने की एक अपर में;<br />शोणित का वह ज्वलन, अस्थियॉ में वह चिंगारी-सी,<br />स्वयं विभासित हो उठना पुलकित सम्पूर्ण त्वचा का,<br />मानो, तन के अन्धकार की परतें टूट रही हों.<br />और डूब जाना मन का निश्चल समाधि के सुख में,<br />किसी व्योम के अंतराल में, किसी महासागर में.<br />सखि! पृथ्वी का प्रेम प्रभामय कितना दिव्य गहन है!<br />विसुध तैरते हुए स्वयं अपनी शोणित-धारा में,<br />क्या जाने, हम किस अदृश्य के बीच पहुंच जाते हैं!<br /><br />यह प्रदीप्त आनन्द कहाँ सुरपुर की शीतलता में?<br />पारिजा-द्रुम के फूलॉ में कहाँ आग होती है?<br />यह तो यही मर्त्य जगती है, जहाँ स्पर्श के सुख से<br />अन्धकार में प्रभापूर्ण वातायन खुल पड़ते हैं.<br />जल उठती है प्रणय-वह्नि वैसे ही शांत हृदय में,<br />ज्यॉ निद्रित पाषाण जाग कर हीरा बन जाता है.<br />किंतु, हाय री, नश्वरता इन अतुल, अमेय सुखॉ की!<br />अमर बनाकर उन्हें भोगना मुझको भी दुष्कर है,<br />यद्यपि मैं निर्जर, अमर्त्य, शाश्वत, पीयूषमयी हूँ. <br />भरत-शाप, जानें, आकर कितना अदूर ठहरा है<br />घात लगाए हुए एक ही आकस्मिक झटके में,<br />पृथ्वी से मेरा सुखमय सम्बन्ध काट देने को!<br />जो भी करूँ सखी! पर, वह दिन आने ही वाला है,<br />छिन जाएगा जब समस्त सौभाग्य एक ही क्षण में.<br /><br />उड़ जाऊँगी छोड़ भूमि पर सुख समस्त भूतल का,<br />जैसे आत्मा देह छोड़ अम्बर में उड़ जाती है.<br />हाय! अंत में मुझ अभागिनी शाप-ग्रस्त नारी को<br />न तो प्राणप्रिय पुत्र न तो प्रियतम मिलने वाले हैं.<br /><br />चित्रलेखा<br />भरत-शाप दुस्सह, दुरंत, कितना कटु, दुखदायी है!<br />क्षण-क्षण का यह त्रास सखी! कब तक सहती जाओगी<br />उस छागी-सी, सतत भीति-कम्पित जिसकी ग्रीवा पर<br />यम की जिन्ह्वा के समान खर-छुरिका झूल रही हो?<br />शिशु को किसी भांति पहुंचाकर प्रिय के राजभवन में<br />अच्छा है, तुम लौट चलो, आज ही रात, सुरपुर को.<br />माना, नहीं उपाय शाप से कभी त्राण पाने का;<br />पर, उसके भय की प्रचण्डता से तो बच सकती हो.<br />और अप्सरा संततियॉ का पालन कब करती है?<br /><br />उर्वशी<br />यॉ बोलो मत सखी! भूमि के अपने अलग नियम हैं.<br />सुख है जहाँ, वहीं दुख वातायन से झाँक रहा है.<br />यहाँ जहाँ भी पूर्ण स्वरस है, वहीं निकट खाई में<br />दाँत पंजाती हुई घात में छिपी मृत्यु बैठी है<br />जो भी करता सुधापान , उसको रखना पड़ता है<br />एक हाथ रस के घट पर, दूसरा मरण-ग्रीवा पर.<br />फिर मैं ही क्यॉ उसे छोड़ दूँ भीत अनागत भय से?<br />आयु रहेगा यहीं, दूसरी कोई राह नहीं है.<br /><br /> <br /><br />सुकन्या<br />चित्रे! सखी उचित कहती है, इस निरीह पयमुख को<br />अभी भेजना नहीं निरापद होगा राजभवन में.<br />रानी जितनी भी उदार, कुलपाली, दयामयी हों,<br />विमातृत्व का हम वामा विश्वास नहीं करती हैं.<br />दो, उर्वशी! इसे मुझको दो, मैं इसको पालूँगी.<br /><br />(उर्वशी की गोद से आयु को ले लेती है और उसे पुचकारते हुए बोलती जाती है)<br /><br />यह आश्रम की ज्योति, इन्दु नन्हा इस पर्ण-कुटी का;<br />सखी! तुम्हारा लाल हमारी आंखॉ का तारा है.<br />घुटनॉ के बल दौड़-दौड़ मेरा मुन्ना पकड़ेगा<br />कभी हरिण के कान, कभी डैने कपोत-केकी के.<br />और खड़ा होकर चलते ही बड़ी रार रोपेगा<br />शशकॉ, गिलहरियॉ, प्लवंग-शिशुऑ, कुरंग-छौनॉ से<br />फिर कुछ दिन में और तनिक बढ़कर प्रतिदिन जाएगा<br />होमधेनुऑ को लेकर गोचर-अनुकूल विपिन में.<br />और सांझ के समय चराकर उन्हें लौट आएगा<br />सिर पर छोटा बोझ लिए कुश, दर्भ और समिधा का.<br />फिर पवित्र होकर, महर्षि के साथ यज्ञ-वेदी पर<br />बैठ हमारा लाल मंत्र पढ़-पढ़ कर हवन करेगा.<br />हवन-धूम से आंखॉ में जब वाष्प उमड़ आएँगे<br />तब मैं दोनॉ नयन पॉछ दूँगी अपने अंचल से.<br />शस्त्र-शास्त्र-निष्णात, अंग से बली, विभासित मन से<br />जब अपना यह आयु पूर्ण कैशोर प्राप्त कर लेगा,<br />पहुंचा दूँगी स्वयं इसे ले जाकर राज-भवन में.<br />तब तक जा, पीयूष पान कर तू मृण्मयी मही का,<br />चिंता-रहित, अशंक, आयु को कोई त्रास नहीं है.<br /><br />उर्वशी<br />तो मैं चली.<br /><br />सुकन्या<br />कहाँ? बँधने को प्रिय के आलिंगन में?<br /><br />उर्वशी<br />उस बन्धन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा;<br />प्राणॉ को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ.<br />“पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी?”<br />सखी! सत्य ही, ये विकल्प दारुण, दुरंत, दुस्सह हैं.<br />अब मत डाले भाग्य किसी को ऐसी कठिन विपद में.<br /><br />[उर्वशी और चित्रलेखा का प्रस्थान]<br /><br />चतुर्थ अंक समाप्त<br />------------------------<br />------------------------सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-87460849233677027222011-12-18T17:19:00.000-08:002011-12-18T17:23:24.041-08:00उर्वशी- तृतीय अंकतृतीय अंक आरम्भ<br /><br />पुरुरवः ! पुनरस्तं परेहि,<br />दुरापना वात इवाहमस्मि<br />-ऋग्वेद<br /><br />हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ<br />मैं वायु के सामान दुष्प्राप्य हूँ<br /><br />[गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी ]<br /><br />पुरुरवा<br />जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में<br />रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;<br />जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,<br />अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आई है.<br />जब से हम-तुम मिले, रूप के अगम, फुल कानन में<br />अनिमिष मेरी दृष्टि किसी विस्मय में ड़ूब गयी है,<br />अर्थ नहीं सूझता मुझे अपनी ही विकल गिरा का;<br />शब्दों से बनाती हैं जो मूर्त्तियां, तुम्हारे दृग से.<br />उठने वाले क्षीर-ज्वार में गल कर खो जाती हैं.<br />खडा सिहरता रहता मैं आनंद-विकल उस तरु-सा<br />जिसकी दालों पर प्रसन्न गिलहरियाँ किलक रही हों,<br />या पत्तों में छिपी हुई कोयल कूजन करती हो.<br /><br />उर्वशी<br />जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को,<br />लय होता जा रहा मरुदगति से अतीत-गह्वर में.<br />किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी,<br />यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था.<br />उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था,<br />कल्प बिताये बिना न हटाती थीं वे काल-निशाएँ<br />कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;<br />पर, तुम आए नहीं कभ छिप कर भी सुधि लेने को.<br />निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में<br />सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का.<br />मिले, अंत में, तब, जब ललना की मर्याद गंवाकर<br />स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई.<br /><br />पुरुरवा<br />चिर कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का,<br />इसे छोड़कर और दूसरा कौन पथ संभव था ?<br />उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके<br />और छोकर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में<br />लौटा जब मैं राजभवन को, लगा, देह ही केवल<br />रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गयी है;<br />छुट गये हैं प्राण उन्हीं उज्जवल मेघों के वन में,<br />जहां मिली थी तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी.<br />कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं,<br />अब उर्वशी बिना यह जीवन बर हुआ जाता है,<br /><br />बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भू-तल पर आने दें<br />पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख मांगते हैं क्या"?<br />और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ?<br />मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से ,<br />उसका ह्रदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ?<br />बाहर सांकल नहीं जिसे तू खोल ह्रदय पा जाए,<br />इस मंदिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है.<br /> <br />"और कभी ये भी सोचा है, जिस सुगंध से छककर<br />विकल वायु बह रही मत्त होकर त्रिकाल -त्रिभुवन की,<br />उस दिगंत-व्यापिनी गंध की अव्यय, अमर शिखा को<br />मर्त्य प्राण की किस निकुंज-वीथी में बाँध धरेगा?"<br /> <br />इसीलिए, असहाय तड़पता बैठा रहा महल में<br />लेकर यह विश्वास, प्रीती यदि मेरी मृषा नहीं है,<br />मेरे मन का दाह व्योम के नीचे नहीं रुकेगा,<br />जलद-पुंज को भेद, पहुँचकर पारिजात के वन में<br />वह अवश्य ही कर देगा संतप्त तुम्हारे मन को.<br />और प्रीती जागने पर तुम वैकुंठ-लोक को तजकर<br />किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी.<br /><br />उर्वशी<br />सो तो मैं आ गयी, किन्तु, यह वैसा ही आना है,<br />अयस्कांत ले खींच अयस को जैसे निज बाहों में.<br />पर, इस आने में किंचित भी स्वाद कहाँ उस सुख का,<br />जो सुख मिलता उन मनस्विनी वामलोचनाओं को <br />जिन्हें प्रेम से उद्वेलित विक्रमा पुरुष बलशाली<br />रण से लाते जीत या कि बल-सहित हरण करते हैं.<br /> <br />नदियाँ आती स्वयं, ध्यान सागर, पर, कब देता है?<br />बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को <br />चिर-अतृप्त, उद्भ्रांत महोदधि लहराता रहता है.<br /> <br />वही धनी जो मान्मयी प्रणयी के बाहु-वलय में<br />खिंची नहीं,विक्रम-तरंग पर चढी हुई आती है.<br /> <br />हरण किया क्यों नहीं, मांग लाने में यदि अपयश था?<br /> <br />पुरुरवा<br />अयशमूल दोनों विकर्म हैं,हरण हो कि भिक्षाटन<br />और हरण करता मैं किसका ? उस सौन्दर्य सुधा का<br />जो देवों की शान्ति, इन्द्र के दृग की शीतलता थी?<br /> <br />नहीं बढाया कभी हाथ पर के स्वाधीन मुकुट पर,<br />न तो किया संघर्ष कभी पर की वसुधा हराने को.<br />तब भी प्रतिष्ठानपुर वंदित है सहस्र मुकुटों से,<br />और राज्य-सीमा दिन-दिन विस्तृत होती जाती है.<br />इसी भांति, प्रत्येक सुयश, सुख, विजय, सिद्धि जीवन की<br />अनायास, स्वयमेव प्राप्त मुझको होती आई है.<br />यह सब उनकी कृपा , सृष्टि जिनकी निगूढ़ रचना है. <br />झुके हुए हम धनुष मात्र हैं, तनी हुई ज्या पर से <br />किसी और की इच्छाओं के बाण चला करते हैं.<br /> <br />मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है<br />कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन-पुलक जगा कर;<br />कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से<br />मन का दीपक बुझा, बनाकर तिमिराच्छन्न ह्रदय को.<br />किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?<br />फिर होता संघर्ष तिमिर में दीपक फिर जलाते हैं.<br /> <br />रंगों की आकुल तरंग जब हमको कस लेती है, <br />हम केवल डूबते नहीं ऊपर भी उतराते हैं<br />पुण्डरीक के सदृश मृत्ति-जल ही जिसका जीवन है <br />पर, तब भी रहता अलिप्त जो सलिल और कर्दम से.<br /> <br />नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,<br />उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है<br /> <br />उर्वशी<br />यह मैं क्या सुन रही ? देवताओं के जग से चल कर<br />फिर मैं क्या फंस गई किसी सुर के ही बाहू-वलय में ?<br />अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक ह्रदय तुम्हारा<br />तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करुँगी?<br />और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को <br />मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?<br /> <br />वह विद्युन्मय स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की<br />नींद टूट जाती,रोमों में दीपक बल उठते हैं ?<br />वह आलिंगन अन्धकार है, जिसमें बांध जाने पर<br />हम प्रकाश के महासिंधु में उतराने लगते हैं?<br />और कहोगे तिमिर-शूल उस चुम्बन को भी जिससे<br />जड़ता की ग्रंथियां निखिल तन-मन की खुल जाती हैं?<br /> <br />यह भी कैसी द्विधा? देवता गंधों के घेरे से<br />निकल नहीं मधुपूर्ण पुष्प का चुम्बन ले सकते हैं.<br />और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर<br />ललचाता है दूर गंध के नभ में उड़ जाने को<br /> <br />अनासक्ति तुन कहो, किन्तु, उस द्विधा-ग्रस्त मानव की<br />झांकी तुम में देख मुझे, जाने क्यों, भय लगता है<br /> <br />तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ आलिंगन में,<br />मन से, किन्तु, विषण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?<br />बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में<br />मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?<br />कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ<br />आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो<br /> <br />क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोडन में<br />और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं<br />अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी<br />और अभी यह भाव, गोद में पडी हुई मैं जैसे<br />युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ.<br />शमित-वह्नि सुर की शीतलता तो अज्ञात नहीं है;<br />पर, ज्वलंत नर पर किसका यह अंकुश लटक रहा है<br />छककर देता उसे नहीं पीने जो रस जीवन का, <br />न तो देवता-सदृश गंध-नभ में जीने देता है.<br /> <br />पुरुरवा<br />कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ.<br />पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,<br />उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ.<br /> <br />आग है कोई, नहीं जो शांत होती;<br />और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है.<br /> <br />रूप का रसमय निमंत्रण<br />या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि<br />मुझको शान्ति से जीने न देती.<br />हर घड़ी कहती, उठो,<br />इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो,<br />पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी.<br />अब नहीं आगे कभी उद्भ्रांत हूँगी.<br /> <br />किन्तु रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को,<br />घूँट या दो घूँट पीते ही <br />न जानें, किस अतल से नाद यह आता,<br />"अभी तक भी न समझा ?<br />दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है.<br />रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है."<br /> <br />टूट गिरती हैं उमंगें,<br />बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है.<br />अप्रतिभ मैं फिर उसी दुर्गम जलधि में ड़ूब जाता,<br />फिर वही उद्विग्न चिंतन, <br />फिर वही पृच्छा चिरंतन , <br />"रूप की आराधना का मार्ग<br />आलिंगन नहीं तो और क्या है?<br />स्नेह का सौन्दर्य को उपहार<br />रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"<br /> <br />रक्त की उत्तम लहरों की परिधि के पार<br />कोई सत्य हो तो,<br />चाहता हूँ, भेद उसका जान लूँ.<br />पथ हो सौन्दर्य की आराधना का व्योम में यदि<br />शून्य की उस रेख को पहचान लूँ.<br /> <br />पर,जहां तक भी उडूँ, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है<br />मृत्ति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर? शून्य है सब<br />और नीचे भी नहीं संतोष,<br />मिट्टी के ह्रदय से <br />दूर होता ही कभी अम्बर नहीं है .<br /> <br />इस व्यथा को झेलता<br />आकाश की निस्सीमता में <br />घूमता फिरता विकल, विभ्रांत<br />पर, कुछ भी न पाता.<br />प्रश्न को कढता,<br />गगन की शून्यता में गूंजकर सब ओर<br />मेरे ही श्रवण में लौट आता. <br /> <br />और इतने में मही का गान फिर पड़ता सुनाई, <br />"हम वही जग हैं, जहां पर फूल खिलते हैं.<br />दूब है शय्या हमारे देवता की,<br />पुष्प के वे कुञ्ज मंदिर हैं<br />जहां शीतल, हरित, एकांत मंडप में प्रकृति के<br />कंटकित युवती-युवक स्वच्छंद मिलते हैं."<br /> <br />"इन कपोलों की ललाई देखते हो?<br />और अधरों की हँसी यह कुंद -सी, जूही-क़ली-सी ?<br />गौर चम्पक-यष्टि -सी यह देह श्लथ पुष्पभरण से, <br />स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?"<br /> <br />यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो.<br />रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर. <br />ओ गगनचारी! यहाँ मधुमास छाया है.<br />भूमि पर उतारो,<br />कमल, कर्पूर, कुंकुम से,कुटज से <br />इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो." <br /> <br />गीत आता है मही से?<br />या कि मेरे ही रुधिर का राग<br />यह उठता गगन में ?<br />बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ ह्रदय में;<br />याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन<br />याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन;<br />स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,<br />याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख.<br />कामनाएं प्राण को हिलकोरती हैं.<br />चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में.<br /> <br />फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती.<br /> <br />मैं न रुक पाता कहीं,<br />फिर लौट आता हूँ पिपासित <br />शून्य से साकार सुषमा के भुवन में <br />युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा<br />जो कहीं रुकता नहीं,<br />बेचैन जा गिरता अकुंठित<br />तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में<br /> <br />चूमता हूँ दूब को, जल को, प्रसूनों, पल्लवों को,<br />वल्लरी को बांह भर उर से लगाता हूँ;<br />बालकों-सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह को छिपाकर<br />नींद की निस्तब्धता में डूब जाता हूँ.<br /> <br />नींद जल का स्रोत है, छाया सघन है,<br />नींद श्यामल मेघ है, शीतल पवन है.<br /> <br />किन्तु, जगकर देखता हूँ,<br />कामनाएं वर्तिका सी बल रही हैं<br />जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं<br />प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं.<br />रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पडा हो,<br />नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पडा हो.<br />---------------------<br />----------------------<br />फिर क्षुधित कोई अतिथि आवाज देता<br />फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को,<br />कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है,<br />रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रुधिर में,<br />चेतना रस की लहर में डूब जाती है<br /> <br />और तब सहसा<br />न जानें , ध्यान खो जाता कहाँ पर.<br />सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान,<br />तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो<br />आरती की ज्योति को भुज में समेटे<br />मैं तुम्हारी ओर अपलक देखता एकांत मन से<br />रूप के उद्गम अगम का भेद गुनता हूँ .<br /> <br />सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है,<br />सींचता हूँ प्राण को इस गंध की भीनी लहर से,<br />और अंगों की विभा की वीचियों से एक होकर<br />मैं तुम्हारे रंग का संगीत सुनता हूँ<br /> <br />और फिर यह सोचने लगता, कहाँ ,किस लोक में हूँ ?<br />कौन है यह वन सघन हरियालियों का,<br />झूमते फूलों, लचकती डालियों को?<br />कौन है यह देश जिसकी स्वामिनी मुझको निरंतर<br />वारुणी की धार से नहला रही है ?<br />कौन है यह जग, समेटे अंक में ज्वालामुखी को<br />चांदनी चुमकार कर बहला रही है ?<br /> <br />कौमुदी के इस सुनहरे जाल का बल तोलता हूँ,<br />एक पल उड्डीन होने के लिए पर खोलता हूँ. <br /> <br />पर, प्रभंजन मत्त है इस भांति रस-आमोद में, <br />उड़ न सकता, लौट गिरता है कुसुम की गोद में.<br /> <br />टूटता तोड़े नहीं यह किसलयों का दाम,<br />फूलों की लड़ी जो बांध गई, खुलती नहीं है.<br /> <br />कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी, <br />खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बांह मेरी. <br /> <br />सिन्धु-सा उद्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है?<br />गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार,<br />उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?<br /> <br />यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएं<br />सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल,<br />मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है.<br /> <br />सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,<br />कांपता है कुण्डली मारे समय का व्याल,<br />मेरी बांह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है.<br /> <br />मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,<br />उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं.<br />अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,<br />बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ<br /> <br />पर, न जानें, बात क्या है !<br />इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,<br />सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,<br />फूल के आगे वही असहाय हो जाता ,<br />शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता.<br /> <br />विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से<br />जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से.<br /> <br />मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग<br />वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ.<br />मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ<br />प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ.<br /> <br />कौन कहता है,<br />तुम्हें मैं छोड़कर आकाश में विचरण करूंगा ?<br /> <br />बाहुओं के इस वलय में गात्र की बंदी नहीं है,<br />वक्ष के इस तल्प पर सोती न केवल देह ,<br />मेरे व्यग्र, व्याकुल प्राण भी विश्राम पाते हैं.<br /> <br />मर्त्य नर को देवता कहना मृषा है,<br />देवता शीतल, मनुज अंगार है.<br /> <br />देवताओं की नदी में ताप की लहरें न उठतीं,<br />किन्तु, नर के रक्त में ज्वालामुखी हुंकारता है,<br />घूर्नियाँ चिंगारियों की नाचती हैं,<br />नाचते उड़कर दहन के खंड पत्तों-से हवा में,<br />मानवों का मन गले-पिघले अनल की धार है.<br /> <br />चाहिए देवत्व,<br />पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?<br />कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?<br /> <br />वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ?<br />आग के बदले मुझे संतोष ,बोलो कौन देगा?<br /> <br />फिर दिशाए मौन, फिर उत्तर नहीं है<br /> <br />प्राण की चिर-संगिनी यह वह्नि,<br />इसको साथ लेकर<br />भूमि से आकाश तक चलते रहो.<br />मर्त्य नर का भाग्य !<br />जब तक प्रेम की धारा न मिलती,<br />आप अपनी आग में जलते रहो.<br /> <br />एक ही आशा, मरुस्थल की तपन में<br />ओ सजल कादम्बिनी! सर पर तुम्हारी छांह है.<br />एक ही सुख है, उरस्थल से लगा हूँ,<br />ग्रीव के नीचे तुम्हारी बांह है.<br /> <br />इन प्रफुल्लित प्राण-पुष्पों में मुझे शाश्वत शरण दो,<br />गंध के इस लोक से बहार न जाना चाहता हूँ.<br />मैं तुम्हारे रक्त के कान में समाकर<br />प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ.<br /><br />उर्वशी<br />स्वर्णदी, सत्य ही, वह जिसमें उर्मियाँ नहीं, खर ताप नहीं<br />देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं<br />पर, ओ, जीवन के चटुल वेग! तू होता क्यों इतना कातर ?<br />तू पुरुष तभी तक, गरज रहा जब तक भीतर यह वैश्वानर.<br />जब तक यह पावक शेष, तभी तक सखा-मित्र त्रिभुवन तेरा,<br />चलता है भूतल छोड़ बादलों के ऊपर स्यन्दन तेरा.<br />जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है,<br />अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है.<br />पथ नहीं रोकते सिंह, राह देती है सघन अरण्यानी<br />तब तक ही शीष झुकाते हैं सामने प्रांशु पर्वत मानी.<br />सुरपति तब तक ही सावधान रहते बढकर अपनाने को,<br />अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को.<br />जब तक यह पावक शेष, तभी तक भाव द्वन्द्व के जगते हैं,<br />बारी-बारी से मही, स्वर्ग दोनों ही सुन्दर लगते हैं<br />मरघट की आती याद तभी तक फुल्ल प्रसूनों के वन में<br />सूने श्मशान को देख चमेली-जूही फूलती हैं मन में<br />शय्या की याद तभी तक देवालय में तुझे सताती है,<br />औ’ शयन कक्ष में मूर्त्ति देवता की मन में फिर जाती है.<br />किल्विष के मल का लेश नहीं, यह शिखा शुभ्र पावक केवल,<br />जो किए जा रहा तुझे दग्ध कर क्षण-क्षण और अधिक उज्ज्वल.<br />जितना ही यह खर अनल-ज्वार शोणित में उमह उबलता है.<br />उतना ही यौवन-अगुरु दीप्त कुछ और धधक कर जलता है.<br />मैं इसी अगुरु की ताप-तप्त, मधुमयी गन्ध पीने आई,<br />निर्जीव स्वर्ग को छोड़ भूमि की ज्वाला में जीने आई<br /><br />बुझ जाए मृत्ति का अनल, स्वर्गपुर का तू इतना ध्यान न कर<br />जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर.<br />तू नहीं जानता इसे, वस्तु जो इस ज्वाला में खिलती है,<br />सुर क्या सुरेश के आलिंगन में भी न कभी वह मिलती है.<br />यह विकल, व्यग्र, विह्वल प्रहर्ष सुर की सुन्दरी कहां पाए ?<br />प्रज्वलित रक्त का मधुर स्पर्श नभ की अप्सरी कहां पाए ?<br />वे रक्तहीन,शुची, सौम्य पुरुष अम्बरपुर के शीतल, सुन्दर,<br />दें उन्हें किंतु क्या दान स्वप्न जिनके लोहित, संतप्त, प्रखर?<br />यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल औए ज्वलित भी है,<br />मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है.<br />योगी अनंत, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला,<br />भोगी ज्वलंत, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला;<br />मन की असीमता में, निबद्ध नक्षत्र, पिन्ड, ग्रह, दिशाकाश,<br />तन में रसस्विनी की धारा, मिट्टी की मृदु, सोन्धी सुवास;<br />मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है,<br />वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है.<br />तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,<br />फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ अपने आलिंगन में भर ले.<br />मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ,<br />छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ.<br />आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंत:सर में मज्जित करके,<br />हर लूंगी मन की तपन चान्दनी, फूलों से सज्जित करके.<br />रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,<br />फूलों की छन्ह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी<br />---------------------------<br />---------------------------<br />पुरुरवा<br />तुम मेरे बहुरंगे स्वप्न की मणि-कुट्टिम प्रतिमा हो,<br />नहीं मोहती हो केवल तन की प्रसन्न द्युति से ही,<br />पर, गति की भंगिमा-लहर से, स्वर से, किलकिंचित से,<br />और गूढ़ दर्शन-चिंतन से भरी उक्तियों से भी.<br />किंतु, अनल की दाहक्ता यह दर्शन हर सकता है?<br />हर सकते हैं उसे मात्र ये दोनों नयन तुम्हारे,<br />जिनके शुचि, निस्सीम, नील-नभ में प्रवेश करते ही<br />मन के सारे द्विधा-द्वन्द्व, चिंता-भरय मिट जाते हैं.<br />या प्रवाल-से अधर दीप्त, जिनका चुम्बन लेते ही<br />धुल जाती है श्रांति, प्राण के पाटल खिल पड्ते हैं<br />और उमड़ आसुरी शक्ति फिर तन में छा जाती है<br /><br />किंतु, हाय री, लहर वह्नि की, जिसे रक्त कहते हैं;<br />किंतु, हाय री, अविच्छिन्न वेदना पुरुष के मन की.<br />कर्पूरित, उन्मद, सुरम्य इसके रंगीन धुएँ में<br />जानें, कितनी पुष्पमुखी आकृतियाँ उतराती हैं<br />रंगों की यह घटा ! व्यग्र झंझा यह मादकता की!<br />चाहे जितनी उड़े बुद्धि पर राह नहीं पाती है.<br />छिपता भी यदि पुरुष कभी क्षण-भर को निभृत निलय में<br />यही वह्नि फिर उसे खींच् मधुवन में ले आती है.<br />अप्रतिहत यह अनल! दग्ध हो इसकी दाहकता से<br />कुंज-कुंज में जगे हुए कोकिल क्रन्दन करते हैं.<br />घूणि चक्र, आंसू, पुकार, झंझा, प्रवेग, उद्वेलन,<br />करते रहते सभी रात भर दीर्ण-विदीर्ण तिमिर को,<br />और प्रात जब महा क्षुब्ध प्लावन पग फैलाता है,<br />जगती के प्रहरी-सेवित सब बन्ध टूट जाते हैं.<br />दुर्निवार यह वह्नि, मुग्ध इसकी लौ के इंगित से<br />उठते हैं तूफान और संसार मरा करता है.<br /><br />उर्वशी<br />रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी,<br />क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है.<br />निरी बुद्धि की निर्मितियाँ निष्प्राण हुआ करती हैं;<br />चित्र और प्रतिमा, इनमें जो जीवन लहराता है,<br />वह सूझों से नहीं, पत्र-पाषाणों में आया है,<br />कलाकार के अंतर के हिलकोरे हुए रुधिर से.<br />क्या विश्वास करे कोई कल्पनामयी इस धी का?<br />अमित वार देती यह छलना भेज तीर्थ-पथिकों को<br />उस मन्दिर की ओर, कहीं जिसका अस्तित्व नहीं है<br /><br />पर,शोणित दौड़ता जिधर को,उस अभिप्रेत दिशा में,<br />निश्चय ही, कोई प्रसून यौवानोत्फुल्ल सौरभ से<br />विकल-व्यग्र मधुकर को रस-आमंत्रण भेज रहा है.<br />या वासकसज्जा कोई फूलों के कुञ्ज-भवन में<br />पथ जोहती हुई, संकेतस्थल सूचित करने को<br />खड़ी समुत्सुक पद्म्राग्मानी-नूपुर बजा रही है.<br /> <br />या कोई रूपसी उन्मना बैठी जाग रही है<br />प्रणय-सेज पर, क्षितिज-पास, विद्रुम की अरुणाई में<br />सिर की ओर चन्द्रमय मंगल-निद्राकलश सजा कर<br /> <br />श्रुतिपट पर उत्तप्त श्वास का स्पर्श और अधरों पर,<br />रसना की गुदगुदी, अदीपित निश के अन्धियाले में<br />रस-माती, भटकती ऊंगलियों का संचरण त्वचा पर;<br />इस निगूढ़ कूजन का आशय बुद्धि समझ सकती है?<br /> <br />उसे समझना रक्त, एक कम्पन जिसमें उठता है<br />किसी डूब की फुनगी से औचक छू जाने पर भी<br />बुद्धि बहुत करती बखान सागर-तट की सिकता का,<br />पर, तरंग-चुम्बित सैकत में कितनी कोमलता है,<br />इसे जानती केवल सिहरित त्वचा नग्न चरणों की.<br />तुम निरुपते हो विराग जिसकी भीषिका सुनाकर,<br />मेरे लिये सत्य की वानी वही तप्त शोनित है.<br />पढो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का;<br />यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमायेगी,<br />छली बुद्धि की भांति,जिसे सुख-दुख से भरे भुवन में<br />पाप दीखता वहाँ जहाम सुन्दरता हुलस रही है,<br />और पुष्प-चय वहाँ जहाँ कंकाल, कुलिश, कांटे हैं.<br /><br />पुरुरवा<br />द्वन्द्व शूलते जिसे, सत्य ही, वह जन अभी मनुज है<br />देवी वह जिसके मन में कोई संघर्ष नहीं है.<br />तब भी, मनुज जन्म से है लोकोत्तर, दिव्य तुम्हीं-सा,<br />मटमैली, खर, चटुल धार निर्मल, प्रशांत उद्गम की<br /><br />रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो.<br />निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नहीं पाते हैं<br />पहुंच नहीं पाते उस अव्यय, एक, पूर्ण सविता तक,<br />खोए हुए अचेत माधवी किरणॉ के कलरव में<br /><br />ये किरणें, ये फूल, किंतु, अप्रतिम सोपान नहीं हैं<br />उठना होगा बहुत दूर ऊपर इनके तारों पर,<br />स्यात, ऊर्ध्व उस अम्बर तक जिसकी ऊंचाई पर से<br />यह मृत्तिका-विहार दिव्य किरणों का हीन लगेगा.<br />दाह मात्र ही नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,<br />नारी जब देखती पुरुष की इच्छा-भरे नयन को,<br />नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में,<br />मन में किसी कांत कवि को भी जन्म दिया करती है.<br />नर समेट रखता बाहॉ में स्थूल देह नारी की,<br />शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीडा करता है.<br />तन्मय हो सुनता मनुष्य जब स्वर कोकिल-कंठी का,<br />कवि हो रहता लीन रूप की उज्ज्वल झंकारॉ में.<br />नर चाहता सदेह खींच रख लेना जिसे हृदय में<br />कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है.<br />कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से<br />दोनॉ मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते है,<br />उस अनंत में जो अमूर्त धागों से बान्ध रहा है<br />सभी दृश्य सुषमाओं को अविगत, अदृश्य सत्ता से.<br />देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की,<br />सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक.<br />यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में<br />जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है<br />और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमन्डल में<br />किसी दिव्य,अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है<br /><br />जगता प्रेम प्रथम लोचन में, तब तरंग-निभ मन में,<br />प्रथम दीखती प्रिया एकदेही, फिर व्याप्त भुवन में,<br />पहले प्रेम स्पर्श होता है,तदनंतर चिंतन भी,<br />प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी.<br />मुझमें जिस रहस्य चिंतक को तुमने जगा दिया है<br />उडा चहता है वह भावुक निरभ्र अम्बर में<br />घेर रहा जो तुम्हें चतुर्दिक अपनी स्निग्ध विभा से,<br />समां रहीं जिसमें अलक्ष्य आभा-उर्मियाँ तुम्हारी.<br /><br />वह अम्बर जिसके जीवन का पावस उतर चुका है,<br />चमक रही है धुली हुई जिसमें नीलिमा शरद की.<br />वह निरभ्र आकाश, जहाँ, सत्य ही, चन्द्रमा सी तुम<br />तैर रही हो अपने ही शीतल प्रकाश-प्लावन से ,<br />किरण रूप में मुझे समाहित किये हुए अपने में.<br />वह नभ, जहाँ गूढ छवि पर से अम्बर खिसक गया है,<br />परम कांति की आभा में सब विस्मित, चकित खडे हैं,<br />अधर भूल कर तृषा और शोणित निज तीव्र क्षुधा को .<br />वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,<br />न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;<br />दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,<br />देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है.<br />ऊपर जो द्युतिमान, मनोमय जीवन झलक रहा है,<br />उसे प्राप्त हम कर सकते हैं तन मके अतिक्रमण से<br />तन का अतिक्रमण, यानी इन दो सुरम्य नयनों के<br />वातायन से झांक देखना उस अदृश्य जगती को<br />जहाँ मृत्ति की सीमा सूनेपन में बिला रही है<br />तन का अतिक्रमण,यानी मांसल आवरण हटाकर<br />आंखों से देखना वस्तुओं के वास्तविक हृदय को<br />और श्रवण करना कानों से आहट उन भावॉ की<br />जो खुल कर बोलते नहीं, गोपन इंगित करते हैं<br />जो कुछ भी हम जान सके हैं यहाँ देह या मन से<br />वह स्थिर नहीं, सभी अटकल-अनुमान-सदृश लगता है<br />अत:, किसी भी भांति आप अपनी सीमा लंघित कर्<br />अंतरस्थ उस दूर देश में हम सबको जाना है<br />जहाँ न उठते प्रश्न, न कोई शंका ही जगती है.<br />तुम अशेष सुन्दर हो, पर, हो कोर मात्र ही केवल<br />उस विराट छवि की,जो, घन के नीचे अभी दबी है<br />अतिक्रमण इसलिये कि इन जलदॉ का पटल हटाकर<br />देख सकूँ , मधुकांतिमान सारा सौन्दर्य तुम्हारा.<br />मध्यांतर में देह और आत्मा के जो खाई है<br />अनुल्लन्घ्य वह नहीं, प्रभा के पुल से संयोजित है<br />अतिक्रमण इसलिये, पार कर इस सुवर्ण सेतुक को<br />उद्भासित हो सकें भूतरोत्तर जग की आभा से<br />सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है<br />और चुनें गोपन भेदॉ को, जो समाधि-कानन में<br />कामद्रुम से, कुसुम सदृश, नीरव अशब्द झरते हैं<br />यह अति-क्रांति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का<br />देह-धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाना है<br />यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से<br />प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में<br />मौन ग्रहण यह उन अपार शोभाशाली बिम्बों का,<br />जो नारी से निकल पुरुष के मन में समा रहे हैं<br />यह अति-क्रांति वियोग नहीं, शोणित के तप्त ज्वलन का<br />परिवर्तन है स्निग्ध, शांत दीपक की सौम्य शिखा में<br />निन्दा नहीं, प्रशस्ति प्रेम की, छलना नहीं,समर्पण<br />त्याग नहीं, संचय; उपत्यकाऑ के कुसुम-द्रुमॉ को<br />ले जाना है यह समूल नगपति के तुंग शिखर पर<br />वहाँ जहाँ कैलाश-प्रांत में शिव प्रत्येक पुरुष है<br />और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी.<br />पर, कैसा दुसाध्य पंथ ,कितना उड्डयन कठिन है<br />पहले तो मधु-सिक्त भ्रमर के पंख नहीं खुलते हैं<br />और खुले भी तो उडान आधी ही रह जाती है ;<br />नीचे उसे खींच लेता है आकर्षण मधुवन का<br />देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की<br />ममता रखती रोक उसे अति दूर देश जाने से<br />बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का.<br />------------------<br />------------------<br />उर्वशी<br />अतिक्रमण सुख की तरंग, तन के उद्वेलित मधु का?<br />तुम तो जगा रहे मुझ में फिर उसी शीत महिमा को<br />जिसे टांग कर पारिजात-द्रुम की अकम्प टहनी में<br />मैं चपलोष्ण मानवी-सी भू पर जीने आई हूँ<br /><br />पर, मैं बाधक नहीं, जहाँ भी रहो, भूमि या नभ में<br />वक्षस्थल पर इसी भांति मेरा कपोल रहने दो<br />कसे रहो, बस इसी भांति, उर-पीड़क आलिंगन में<br />और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से<br /><br />किंतु आह! यों नहीं तनिक तो शिथिल करो बाहॉ को;<br />निष्पेषित मत करो, यदपि, इस मधु-निष्पेषण में भी<br />मर्मांतक है शांति और आनन्द एक दारुण है<br /><br />तुम पर्वत मैं लता, तुम्हारी बलवत्तर बाँहों में<br />विह्वल, रस-आकुलित, क्षाम मैं मूर्छित हो जाऊँगी<br /><br />ना, यों नहीं; अरे, देखो तो उधर, बडा कौतुक है,<br />नगपति के उत्तुंग, समुज्ज्वल, हिम-भूषित शृगों पर<br />कौन नई उज्जवलता की तूली सी फेर रहा है?<br />कुछ वृक्षो के हरित-मौलि पर, कुछ पत्तों से छनकर<br />छँह देख नीचे मृगांक की किरणें लेट गई हैं<br />ओढ़े धूप-छम्ह की जाली ,अपनी ही निर्मिति की.<br />लगता है, निष्कम्प, मौन सारे वन-वृक्ष खड़े हों<br />पीताम्बर, उष्णीष बान्धकर छायातप-कुट्टिम पर.<br />दमक रही कर्पूर धूलि दिग्बन्धुओं के आनन पर;<br />रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है<br />यह अधित्यका दिन में तो कुछ इतनी बडी नहीं थी?<br />अब क्या हुआ कि यह अनंत सागर-समान लगती है?<br />कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की?<br />उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है<br />रसप्रसन्न मधुकांति चतुर्दिक ऐसे उमड़ रही है,<br />मानो, निखिल सृष्टि के प्राणॉ में कम्पन भरने को<br />एक साथ ही सभी बाण मनसिज ने छोड़ दिये हों.<br /><br />पुरुरवा<br />हाँ समस्त आकाश दीखता भरा शांत सुषमा से<br />चमक रहा चन्द्रमा शुद्ध, शीतल, निष्पाप हृदय-सा<br />विस्मृतियाँ निस्तल समाधि से बाहर निकल रही हैं<br />लगता है, चन्द्रिका आज सपने में घूम रही है.<br />और गगन पर जो असंख्य आग्नेय जीव बैठे हैं<br />लगते हैं धुन्धले अरण्य में हीरॉ के कूपॉ-से.<br />चन्द्रभूति-निर्मित हिमकण ये चमक रहे शाद्वल में?<br />या नभ के रन्ध्रॉ में सित पारावत बैठ गये हैं?<br />कल्प्द्रुम के कुसुम, या कि ये परियॉ की आंखें हैं?<br /><br />उर्वशी<br />कल्पद्रुम के कुसुम नहीं ये, न तो नयन परियॉ के,<br />ये जो दीख रहे उजले-उजले से नील गगन में,<br />दीप्तिमान, सित, शुभ्र, श्मश्रुमय देवॉ के आनन हैं.<br />शमित वह्नि ये शीत-प्राण पीते सौन्दर्य नयन से,<br />घ्राण मात्र लेते, न कुसुम का अंग कभी छूते हैं<br /><br />पर, देखो तो, दिखा-दिखा दर्पण शशांक यह कैसे<br />सब के मन का भेद गुप्तचर-सा पढ़्ता जाता है,<br />(भेद शैल-द्रुम का, निकुंज में छिपी निर्झरी का भी.)<br />और सभी कैसे प्रसन्न अभ्यंतर खोल रहे हैं,<br />मानो चन्द्र-रूप धर प्राणॉ का पाहुन आया हो.<br />ऐसी क्या मोहिनी चन्द्रमा के कर में होती है?<br /><br />पुरुरवा<br />ऋक्षकल्प झिलमिल भावॉ का, चन्द्रलिंग स्वप्नॉ का<br />दिवस शत्रु, एकांत यामिनी धात्री है, माता है.<br />आती जब शर्वरी, पॉछती नहीं विश्व के सिर से<br />केवल तपन-चिन्ह, केवल लांछन सफेद किरणॉ के;<br />श्रमहारी, निर्मोघ, शांतिमय अपने तिमिरांचल में<br />कोलाहल, कर्कश निनाद को भी समेट लेती है<br />तिमिर शांति का व्यूह, तिमिर अंतर्मन की आभा है,<br />दिन में अंतरस्थ भावॉ के बीज बिखर जाते हैं;<br />पर हम चुनकर उन्हें समंजस करते पुन: निशा में<br />जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है.<br />जो सपने दिन के प्रकाश में धूमिल हो जाते हैं<br />या अदृश्य अपने सोदर, संकोचशील उडुऑ-से,<br />वही रात आने पर कैसे हमें घेर लेते हैं<br />ज्योतिर्मय, जाज्वल्यमान, आलोक-शिखाएँ बनकर!<br />निशा योग-जागृति का क्षण है उदग्र प्रणय की<br />ऐकायनिक समाधि; काल के इसी गरुत के नीचे<br />भूमा के रस-पथिक समय का अतिक्रमण करते हैं<br />योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में.<br />समतामयी उदार शीतलांचल जब फैलाती है,<br />जाते भूल नृपति मुकुटॉ को, बन्दी निज कडियॉ को;<br />जग भर की चेतना एक होकर अशब्द बहती है<br />किसी अनिर्वचनीय, सुखद माया के महावरण में.<br />साम्राज्ञी विभ्राट, कभी जाते इसको देखा है<br />समारोह-प्रांगण में पहने हुए दुकूल तिमिर का<br />नक्षत्रॉ से खचित, कूल-कीलित झालरें विभा की<br />गूँथे हुए चिकुर में सुरभित दाम श्वेत फूलॉ के?<br />और सुना है वह अस्फुट मर्मर कौशेय वसन का<br />जो उठता मणिमय अलिन्द या नभ के प्राचीरॉ पर<br />मुक्ता-भर,लम्बित दुकूल के मन्द-मन्द घर्षण से,<br />राज्ञी जब गर्वित गति से ज्योतिर्विहार करती है?<br /><br />निशा शांति का क्रोड़; किंतु, यह सुरभित स्फटिक-भवन में<br />तब भी, कोई गीत ज्योति से मिला हुआ चलता है<br />यह क्या है? कौमुदी या कि तारे गुन-गुन गाते है?<br />दृश्य श्रव्य बनकर अथवा श्रुतियॉ में समा रहा है?<br />बजती है रागिनी सुप्त सुन्दरता की साँसॉ की<br />या अपूर्व कविता चिर-विस्मृत किसी पुरातन कवि की<br />गूँज रही निस्तब्ध निशा में निकल काल-गह्वर से?<br />यह अगाध सुषमा, अनंतता की प्रशांत धारा में,<br />लगता है, निश्चेत कहीं हम बहे चले जाते हैं.<br /><br />उर्वशी<br />अतल, अनादि, अनंत, पूर्ण, बृंहित, अपार अम्बर में<br />सीमा खींचे कहाँ? निमिष, पल, दिवस, मास, संवत्सर<br />महाकाश में टंगे काल के लक्तक-से लगते हैं.<br />प्रिय! उस पत्रक को समेट लो जिसमें समय सनातन<br />क्षण, मुहुर्त, संवत, शताब्दि की बून्दॉ में अंकित है.<br />बहने दो निश्चेत शांति की इस अकूल धारा में,<br />देश-काल से परे, छूट कर अपने भी हाथॉ से.<br />किस समाधि का शिखर चेतना जिस पर ठहर गई है?<br />उड़ता हुआ विशिख अम्बर में स्थिर-समान लगता है.<br /><br />पुरुरवा<br />रुको समय-सरिते! पल! अनुपल! काल-शकल! घटिकाऑ!<br />इस प्रकार, आतुर उड़ान भर कहाँ तुम्हें जाना है?<br />कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का,<br />काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है<br />कहीं कुंडली मार कर बैठ जाओ नक्षत्र-निलय में<br />मत ले जाओ खींच निशा को आज सूर्य-वेदी पर.<br />रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की;<br />एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का,<br />एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूंघ लेने दो.<br />मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है;<br />जनमा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में<br />बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है.<br />जिस प्रकार नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की,<br />और हिमालय की गाथा विदित महासागर को,<br />वर्तमान, त्यॉ ही, अपने गृह में जो कुछ करता है,<br />भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं.<br />सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान खड़े हैं दिगायाम में जैसे<br />एक साथ; त्यॉ काल-देवता के महान प्रांगण में<br />भूत, भविष्यत, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं<br />बातें करते हुए परस्पर गिरा-मुक्त भाषा में.<br />कहाँ देश, हम नहीं व्योम में जिसके गूँज रहे हैं<br />कौन कल्प, हम नहीं तैरते हैं जिसके सागर में?<br />महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है,<br />बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर.<br /><br />उर्वशी<br />हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से<br />भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनॉ के एकार्णव में<br />तैर रहे सम्पृक्त सभी वीचियॉ, कणॉ, अणुऑ से.<br />समा रही धड़कनें उरॉ की अप्रतिहत त्रिभुवन में,<br />काल-रन्ध्र भर रहा हमारी सांसॉ के सौरभ से.<br />अंतर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणॉ का!<br />सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?<br /><br />पुरुरवा<br />महाशून्य के अंतर्गृह में, उस अद्वैत-भवन में<br />जहाँ पहुंच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है.<br />इस निरभ्र नीलांतरिक्ष की निर्झर मंजुषा में<br />सर्ग-प्रलय के पुराव्र्त्त जिसमें समग्र संचित हैं.<br />दूरागत इस सतत-संचरण-मय समीर के कर में<br />कथा आदि की जिसे अंत की श्रुति तक ले जाना है<br />इस प्रदीप्त निश के अंचल में, जो आप्रलंय निरंतर,<br />इसी भांति, सुनती जायेगी कूजन गूढ़ प्रणय का.<br />उस अदृश्य के पद पर, जिसकी दयासिक्त, मृदु स्मिति में,<br />हम दोनो घूमते और क्रीड़ा विहार करते हैं.<br />जिसकी इच्छा का प्रसार भूतल, पाताल, गगन है,<br />दौड़ रहे नभ में अनंत कन्दुक जिसकी लीला के<br />अगणित सविता-सोम, अपरिमित ग्रह, उडु-मंडल बनकर;<br />नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है<br />और बेधता पुरुष-कांति बन हृदय-पुष्प नारी का.<br />निधि में जल, वन में हरीतिमा जिसका घनावरण है,<br />रक्त-मांस-विग्रह भंगुर ये उसी विभा के पट हैं.<br />प्रणय-श्रृंग की निश्चेतनता में अधीर बाँहॉ के<br />आलिंगन में देह नहीं श्लथ, यही विभा बँधती है.<br />और चूमते हम अचेत हो जब असंज्ञ अधरॉ को,<br />वह चुम्बन अदृश्य के चरणॉ पर भी चढ़ जाता है.<br />देह मृत्ति, दैहिक प्रकाश की किरणें मृत्ति नहीं हैं,<br />अधर नष्ट होते, मिटती झंकार नहीं चुम्बन की;<br />यह अरूप आभा-तरंग अर्पित उसके चरणॉ पर,<br />निराकार जो जाग रहा है सारे आकारॉ में.<br /><br />उर्वशी<br />रोम-रोम में वृक्ष, तरंगित, फेनिल हरियाली पर<br />चढ़ी हुई आकाश-ओर मैं कहाँ उड़ी जाती हूँ?<br /><br />पुरुरवा<br />देह डूबने चली अतल मन के अकूल सागर में<br />किरणें फेंक अरूप रूप को ऊपर खींच रहा है.<br /><br />उर्वशी<br />करते नहीं स्पर्श क्यॉ पगतल मृत्ति और प्रस्तर का?<br />सघन, उष्ण वह वायु कहाँ है? हम इस समय कहाँ हैं?<br /><br />पुरुरवा<br />छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारॉ पर<br />चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुंच रहे हैं<br /><br />उर्वशी<br />फूलॉ-सा सम्पूर्ण भुवन सिर पर इस तरह, उठाए<br />यह पर्वत का श्रृंग मुदित हमको क्यॉ हेर रहा है?<br /><br />पुरुरवा<br />अयुत युगॉ से ये प्रसून यॉ ही खिलते आए हैं,<br />नित्य जोहते पंथ हमारे इसी महान मिलन का.<br />जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में,<br />नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर<br />तब प्रहर्ष की अति से यॉ ही प्रकृति काँप उठती है,<br />और फूल यॉ ही प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं.<br /><br />उर्वशी<br />जला जा रहा अर्थ सत्य का सपनॉ की ज्वाला में,<br />निराकार में आकारॉ की पृथ्वी डूब रही है.<br />यह कैसी माधुरी? कौन स्वर लय में गूंज रहा है<br />त्वचा-जाल पर, रक्त-शिराऑ में, अकूल अंतर में?<br />ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ री बेबसी गिरा की!<br />दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को?<br /><br />पुरुरवा<br />शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है;<br />प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं<br />कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी?<br />भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणॉ की.<br /><br />उर्वशी<br />कौन पुरुष तुम?<br /><br />पुरुरवा<br />जो अनेक कल्पॉ के अंधियाले में<br />तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को<br />जन्मॉ के अनेक कुंजॉ, वीथियॉ, प्रार्थनाऑ में,<br />पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघॉ पर<br />एक पुष्प में अमित युगॉ के स्वप्नॉ की आभा-सी<br /><br />उर्वशी<br />और कौन मैं?<br /><br />पुरुरवा<br />ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता हूँ<br />इतना ही है ज्ञात, तुम्हारे आते ही अंतर का<br />द्वार स्वयं खुल गया और प्राणॉ का निभृत निकेतन्<br />अकस्मात, भर गया स्वरित रंगॉ के कोलाहल से.<br />जब से तुम आई पृथ्वी कुछ अधिक मुदित लगती है;<br />शैल समझते हैं, उनके प्राणॉ में जो धारा है,<br />बहती है पहले से वह,कुछ अधिक रसवती होकर<br />जब से तुम आई धरती पर फूल अधिक खिलते हैं,<br />दौड़ रही कुछ नई दीप्ति सी शीतल हरियली में.<br />सब हैं सुखी, एक नक्षत्रो को ऐसा लगता है<br />जैसे कोई वस्तु हाथ से उनके निकल गई हो.<br /><br />उर्वशी<br />और मिले जब प्रथम-प्रथम तुम, विद्युत चमक उठी थी<br />इन्द्रधनुष बनकर भविष्य के नीले अन्धियाले पर<br />तुम मेरे प्राणेश, ज्ञान-गुरु, सखा, मित्र, सह्चर हो;<br />जहाँ कहीं भी प्रणय सुप्त था शोणित के कण-कण में<br />तुमने उसको छेड़ मुझे मूर्छा से जगा दिया है.<br />प्राणॉ में शीतल शुचिता सद्य:प्रस्फुटित कमल की;<br />लगता है ऋजु प्रभा हृदय में पुन: लौट आई है<br />भरी चुम्बनॉ की फुहार, कम्पित प्रमोद की अति से<br />जाग उठी हूँ मैं निद्रा से जगी हुई लतिका-सी<br />प्रथम-प्रथम ही सुना नाद उद्गम पर बजते जल का,<br />प्रथम-प्रथम ही आदि उषा की द्युति में भीग रही हूँ.<br />तन की शिरा-शिरा में जो रागिनियाँ बन्द पड़ी थी<br />कौन तुम्हारे बिना उन्हें उन्मोचित कर सकता था?<br />कौन तुम्हारे बिना दिलाता यह विश्वास हृदय को,<br />अंतरिक्ष यह स्वयं भूमि है किसी अन्य जगती की,<br />सम्मुख जो झूमते वृक्ष,वे वृक्ष नहीं बादल हैं?<br />यह ज्योतिर्मय रूप? प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से<br />काट पुरुष-प्रतिमा विराट निज मन के आकारॉ की,<br />महाप्रान से भर उसको, फिर भू पर गिरा दिया है;<br />स्यात्, स्वर्ग की सुन्दरियॉ, परियॉ को ललचाने को,<br />स्यात्, दिखाने को, धरती जब महावीर जनती है,<br />असुरॉ से वह बली, सुरॉ से भी मनोज्ञ् होता है.<br /><br />उफ री यह माधुरी! और ये अधर विकच फूलॉ-से!<br />ये न्वीन पाटल के दल आनन पर जब फिरते हैं,<br />रोम-कूप, जानें, भर जाते किन पीयुष कणॉ से!<br />और सिमटते ही कठोर बाँहॉ के आलिंगन में,<br />चटुल एक-पर-एक उष्ण उर्मियाँ तुम्हारे तन की<br />मुझमें कर संक्रमण प्राण उन्मत्त बना देती हैं<br />कुसुमायित पर्वत-समान तब लगी तुम्हारे तन से<br />मैं पुलकित-विह्वल, प्रसन्न-मूर्च्छित होने लगती हूँ<br />कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को<br />पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?<br />---------------------<br />---------------------<br />पुरुरवा<br />हाय, तृषा फिर वही तरंगॉ में गाहन करने की!<br />वही लोभ चेतना-सिन्धु के अपर पार जाने का<br />झम्प मार तन की प्रतप्त, उफनाती हुई लहर में?<br />ठहर सकेगा कभी नहीं क्या प्रणय शून्य अम्बर पर?<br />विविध सुरॉ में छेड़ तुम्हारी तंत्री के तारॉ को,<br />बिठा-बिठा कर विविध भांति रंगॉ में, रेखाऑ में,<br />कभी उष्ण उर-कम्प, कभी मानस के शीत मुकुर में,<br />बहुत पढ़ा मैने अनेक लोकॉ में तुम्हें जगाकर.<br />पर, इन सब से खुलीं पूर्ण तुम? या जो देख रहा हूँ,<br />मायाविनि! वह बन्द मुकुल है, महासिन्धु का तट है?<br />कहाँ उच्च वह शिखर, काल का जिस पर अभी विलय था?<br />और कहाँ यह तृषा ग्राम्य नीचे आकर बहने की<br />पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?<br />भ्रांत स्वयं या जान-बूझकर मुझ्को भ्रमा रही हो?<br /><br />उर्वशी<br />भ्रांति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं,<br />शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है.<br />किसने कहा तुम्हें, परमेश्वर और प्रकृति, ये दोनॉ<br />साथ नहीं रहते; जिसको भी ईश्वर तक जाना है,<br />उसे तोड़ लेने होंगे सारे सम्बन्ध प्रकृति से;<br />और प्रकृति के रस में जिसका अंतर रमा हुआ है,<br />उसे और जो मिले, किंतु, परमेश्वर नहीं मिलेगा?<br />किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है,<br />उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का;<br />और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को,<br />देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है?<br />ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से;<br />इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है<br /><br />माया कह क्यॉ मृषा मेटते हो अस्तित्व प्रकृति का?<br />ये नदियाँ, ये फूल, वृक्ष ये और स्वयं हम-तुम भी<br />शून्य मंच पर सत्वशील, जीवित, साकार खड़े हैं.<br />और यहाँ जो कुछ करते हैं उसकी गंध हवा में<br />उड़ते-उड़ते दूर जन्म-जन्मांतर तक जाती है.<br />शिखरॉ में जो मौन, वही झरनॉ में गरज रहा है,<br />ऊपर जिसकी ज्योति, छिपा है वही गर्त्त के तम में.<br />तब किस भय से भाग रहे नीचे की तिमिरपुरी से?<br />शिखरॉ पर का कौन लोभ ऊपर को खींच रहा है?<br />अन्धा हो जाता मनुष्य रवि की भी प्रखर प्रभा से<br />और किसी को अन्धियाले में भी सब कुछ दिखता है.<br />मुक्ति खोजते हो? पर,यह तो कहो कि किस बंधन से?<br />ये प्रसून, यह पवन बन्ध है? या मैं बाँध रही हूँ?<br />अच्छा, खुल जाओ प्रसून से, पवन और मुझसे भी;<br />अब बोलो, मन पर जो बाकी कोई बन्ध नहीं है?<br />बन्ध नियम,संयम, निग्रह, शास्त्रॉ की आज्ञाऑ का?<br />मोह मात्र ही नहीं सभी ऐसे विचार बन्धन हैं<br />जो सिखलाते हैं मनुष्य को, प्रकृति और पर्मेश्वर<br />दो हैं; जो भी प्रकृत हुआ, वह हुआ दूर ईश्वर से;<br />ईश्वर का जो हुआ, उसे फिर प्रकृति नहीं पायेगी.<br />प्रकृति नहीं माया, माया है नाम भ्रमित उस धी का,<br />बीचॉबीच सर्प-सी जिसकी जिह्वा फटी हुई है;<br />एक जीभ से जो कहती कुछ सुख अर्जित करने को,<br />और दूसरी से बाकी का वर्णन सिखलाती है<br /><br />मन की कृति यह द्वैत, प्रकृति में, सचमुच द्वैत नहीं है.<br />जब तक प्रकृति विभक्त पड़ी है श्वेत-श्याम खन्डॉ में<br />विश्व तभी तक माया का मिथ्या प्रवाह लगता है<br />किंतु,शुभाशुभ भावॉ से मन के तटस्थ होते ही,<br />न तो दीखता भेद, न कोई शंका ही रहती है.<br />राग-विराग दुष्ट दोनॉ, दोनॉ निसर्ग-द्रोही हैं.<br />एक चेतना को अजुष्ट संकोचन सिखलाता है;<br />और दूसरा प्रिय, अभीष्ट सुख की अभिप्रेत दिशा में<br />कहता है बल-सहित भावना को प्रसरित होने को.<br />दोनॉ विषम शांति-समता के दोनॉ ही बाधक हैं;<br />दोनॉ से निश्चिंत चेतना को अभंग बहने दो.<br />करने दो सब कृत्य उसे निर्लिप्त सभी से होकर,<br />लोभ, भीति, संघर्ष और यम, नियम, सयंमॉ से भी.<br /><br />हम इच्छुक अकलुष प्रमोद के, पर, वह प्रमुद निरामय<br />विधि-निषेध-मय संघर्षॉ, यत्नॉ से साध्य नहीं है.<br />आता है वह अनायास, जैसे फूटा करती हैं<br />डाली से टहनियाँ और पत्तियाँ स्वत: टहनी से,<br />या रहस्य-चिंतक के मन में स्वयं कौंध जाती है<br />जैसे किरण अद्र्श्य लोक की, भेद अगम सत्ता का.<br /><br />यह अकाम आनन्द भाग संतुष्ट-शांत उस जन का,<br />जिसके सम्मुख फलासक्तिमय कोई ध्येय नहीं है,<br />जो अविरत तन्मय निसर्ग से, एकाकार प्रकृति से,<br />बहता रहता मुदित, पूर्ण, निष्काम कर्म-धारा में,<br />संघर्षॉ में निरत, विरत, पर, उनके परिणामॉ से;<br />सदा मानते हुए, यहाँ जो कुछ है, मात्र क्रिया है;<br />हम निसर्ग के स्वयं कर्म हैं, कर्म स्वभाव हमारा,<br />कर्म स्वयं आनन्द, कर्म ही फल समस्त कर्मॉ का.<br />जब हम कुछ भी नहीं खोजते निज से बाहर जाकर,<br />तब हम कमी नहीं, कर्म के रूप स्वयं होते हैं<br />करते हुए व्यक्त आंसू अथवा उल्लास प्रकृति का.<br />यह अकाम आनन्द भाग उनका, जो नहीं सुखॉ को<br />आमंत्रण भेजते, न जगकर पथ जोहा करते हैं;<br />न तो बुद्धि जिनकी चिंताकुल यह सोचा करती है,<br />कैसे, क्या कुछ करें कि हो सुख पर अधिकार हमारा;<br />और न तो चेतना आकुलित इस भय से रहती है,<br />जानें, कौन दुख आ जाए कब, किस वातायन से;<br />विधि-निषेध से मुक्त, न तो पीड़ित सचेष्ट वर्जन से,<br />न तो प्राण को बल समेत, बरबस उस ओर लगाए<br />जिस दिशि से जीवन में सुख-धारा फूटा करती है.<br />जब इन्द्रियाँ और मन ऐसी सहज, शांत मुद्रा में,<br />वातायन खोले, चिंता से रहित पड़े होते हैं,<br />तभी किरन निष्कलुष मोद की स्वयं उतर आती है<br />रवि की किरणॉ के समान, अम्बर से, खुले भवन में.<br />विधि-निषेध हैं जहाँ, वहाम पर कर्म अकाम नहीं है;<br />विधि-निषेध कुछ नहीं, नियम हैं वे अर्जन-वर्जन के.<br />और जहाँ अर्जन-वर्जन का गणित चला करता है,<br />कह सकते हो सजग-प्रहरियॉ की उस बड़ी सभा में,<br />एक जीव भी है, जिसके कर्मॉ का ध्येय नहीं है?<br />फलासक्ति से मुक्त क्रिया मे6 जो उस भाँति निरत है,<br />जैसे बहता है समीर सर्वथा मुक्त ध्येयॉ से,<br />अथवा जैसे निरुद्देश्य ये फूल खिला करते हैं?<br />हो कोई तो कहो, उसे फल का यदि लोभ नहीं है,<br />तो फिर चाबुक मार स्वयं को वह क्यॉ हाम्क रहा है?<br />समर प्रकृति से रोप, इन्द्रियॉ पर तलवार उठाये<br />चुका रहा है किस सुख का वह मोल देह-दंडन से?<br />और कौन सुख है जिसके लुट जाने की शंका से<br />सारी रात नीन्द से लड़ वह आकुल जाग रहा है?<br />और सुनोगे एक भेद? ये प्रहरी जिन घेरॉ पर<br />रात-रात भर धनु का गुण ताने घूमा करते हैं,<br />उन घेरॉ में रक्षणीय कोई भी सार नहीं है.<br />कुछ भूखी रिक्तता चेतना की, कुछ फेन हवा के,<br />कुछ थोड़ी यह तृषा कि ऐसी कोई युक्ति निकालें,<br />जिससे मृत्यु-करॉ में भी पड़ने पर नहीं मरें हम;<br />किंतु, अधिक यह भाव, वैर है प्र्कृति और ईश्वर में,<br />अत: सिद्धि के लिये, प्रकृति से हमें दूर होना है.<br />मूढ़ मनुज! यह भी न जानता, तू ही स्वयं प्रकृति है?<br />फिर अपने से आप भागकर कहाँ त्राण पाएगा?<br />सब है शून्य कहीं कोई निश्चित आकार नहीं है,<br />क्षण-क्षण सब कुछ बदल रहा है परिवर्तन के क्रम में<br />धूमयोनि ही नहीं, ठोस यह पर्वत भी छाया है,<br />यह भी कभी शून्य अम्बर था और अचेत अभी भी,<br />नए-नए आकारॉ में क्षण-क्षण यह समा रहा है;<br />स्यात् कभी मिल ही जाए, क्या पता, अनंत गगन में.<br />यह परिवर्तन ही विनाश है? तो फिर नश्वरता से<br />भिन्न मुक्ति कुछ नहीं. किंतु, परिवर्तन नाश नहीं है.<br />परिवर्तन-प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण-धारा है.<br /><br />मुक्त वही, जो सहज भावना से इसमें बहते हैं,<br />विधि-निषेध से परे, छूटकर सभी कामनाओ से,<br />किसी ध्येय के लिए नहीं केवल बहते रहने को;<br />क्यॉकि और कुछ भी करना सम्भव या योग्य नही है.<br /><br />जानें, क्यॉ तैराक चतुर तब भी प्रशांत धारा में<br />चला-चलाकर हाथ-पाँव विक्षोभ व्यर्थ भरते हैं!<br />कौन सिद्धि है जो मिलती संतरण-दक्ष साधक को,<br />और नहीं मिलती अकाम जल में बहने वाले को?<br />जिसे खिजता फिरता है तू,वह अरूप, अनिकेतन<br />किसी व्योम पर कहीं देह धर बैठा नहीं मिलेगा.<br />वह तो स्वयं रहा बह अपनी ही लीला-धारा में,<br />कर्दम कहीं, कहीं पंकज बन, कहीं स्वच्छ जल बनकर.<br />उसे देख्ना हो तो आंखॉ को पहले समझा दे,<br />श्वेत-श्याम एक ही रंग की युगपत संज्ञाएँ हैं<br />और उसे छूना हो तो कह दे अपने हाथॉ से,<br />भेद उठा दें शूल-फूल का, कमल और कर्दम का.<br />अर्थ खोजते हो जीवन का? लड़ी कार्य-कारण की<br />बहुत दूर तक बिछी हुई है पीछे अन्धियाले में<br />चलो जहाँ तक भी, अतीत-गह्वर में, चरण-चरण पर,<br />मात्र प्रतीक्षा-निरत प्रश्न मग में मिलते जाएंगे.<br />और, अंत में अनाख्येय जो आदि भित्ति आती है,<br />परे झांकने को भी उसमें कहीं गवाक्ष नहीं है.<br />वर्तमान की कुछ मत पूछो,एक बूंद वह जल है,<br />अभी हाथ आया, तुरंत फिर अभी बिखर जायेगा.<br />पढ़ा जाए क्या अर्थ काल के इस उड़ते अक्षर का?<br />और भविष्यत के वन में ऐसा घनघोर तिमिर है,<br />नहीं सूझता पंथ बुद्धि के दीपॉ की आभा में<br />हार मान प्रज्ञा अपना सिर थाम बैठ जाती है.<br />वृथा यत्न इस अतल शून्य का तलस्पर्श करने का<br />वृथा यत्न पढ़ने का कोई भेद उत्स पर जाकर.<br />कहीं न कोई द्वार न तो वातायन कहीं खुले हैं,<br />हम हैं जहाँ, वहाँ जाने की कोई राह नहीं है.<br />किंतु, अर्थ को छोड़ जभी शब्दॉ की ओर मुड़ॉगे,<br />अकस्मात, यह शून्य ठोस रूपॉ से भर जाएगा.<br />देखोगे, सुनसान नहीं यह तो पूरी बस्ती है<br />नक्षत्रॉ की, नील गगन की, शैलॉ, सरिताऑ की,<br />लता-पत्र् की, हरियाली की, ऊषा की लाली की.<br />सभी पूर्ण, सब सुखासीन, सब के सब लीन क्रिया में,<br />पूछे किससे? कौन, कहाँ से सृष्टि निकल आई है?<br />अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,<br />हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएंगे?<br />सच में, यह प्रत्यक्ष जगत कुछ उतना कठिन नहीं है,<br />जितना हो जाता दुरूह मन के भीतर जाने पर.<br />वैचारिक जितना विषण्ण रहता दुरूहताऑ से,<br />उतना खिन्न नहीं रहता है सहज मनुष्य प्रकृति का.<br />द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,<br />द्वन्द्वॉ का आभास द्वैतमय मानस की रचना है.<br />यह आभास नहीं टिकता, जब मनुज जान लेता है<br />अप्रयास अनुभवन प्रकृति का, सहज रीति जीवन की;<br />क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है.<br />जो भी है अव्सर निसर्ग के, ईश्वर के भी क्षण हैं<br />धर्म-साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं चलती है.<br />दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनॉ, प्रकृति और ईश्वर में<br />भेद गुणॉ का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का<br /><br />और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है.<br />काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को<br />उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जंतु बना देता है<br />और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर<br />पहुंचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर.<br />यह विरोध क्या है? कैसे दो फल एक ही क्रिया के<br />एक अपर से, इस प्रकार, प्रतिकूल हुआ करते हैं?<br />सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यॉ दानव बन जाता है,<br />और कहीं क्यॉ जाकर मिल जाता रहस्य-चिंतन से?<br />काम नहीं, इस वैपरीत्य का भी मन ही कारण है.<br />मन जब हो आसक्त काम से लभ्य अनेक सुखॉ पर,<br />चिंतन में भी उन्हीं सुखॉ की स्मृति ढोये फिरता है,<br />विकल, व्यग्र, फिर-फिर, रस-मधु में अवगाहन करने को<br />स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नॉ से, छल से, बल से भी,<br />तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं<br />तभी काम दुर्द्धर्ष, दानवी किल्विष बन जाता है.<br />काम-कृत्य वे सभी दुष्ट हैं, जिनके सम्पादन में<br />मन-आत्माएँ नहीं, मात्र दो वपुस् मिला करते हैं;<br />या तन जहाम विरुद्ध प्रकृति के विवश किया जाता है<br />सुख पाने को, क्षुधा नहीं केवल मन की लिप्सा से;<br />जहाँ नहीं मिलते नर-नारी उस सहजाकर्षण से<br />जैसे दो वीचियाँ अनामंत्रित आ मिल जाती हैं,<br />पर, सुवर्ण की लोलुपता में छिपे-छिपे तस्कर से<br />एक दूसरे का आकुल सन्धान किया करते हैं<br />तन का क्या अपराध? यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का;<br />सीमित उसकी शक्ति और सीमित आवश्यकता है.<br />यह तो मन ही है, निवास जिसमें समस्त विपदॉ का;<br />वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी काल्पनिक क्षुधा से<br />हाँक-हाँक तन को उस जल को मलिन बना देता है,<br />बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस स्वच्छ सलिल में<br />जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार खिलते हैं<br /><br />तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन क काम गरल है.<br />फलासक्ति दूषित कर देती ज्यॉ समस्त कर्मॉ को,<br />उसी भाँति, वह काम-कृत्य भी दूषित और मलिन है,<br />स्वत:स्फूर्त जो नहीं, ध्येय जिसका मानसिक क्षुधा का<br />स्प्रयास है शमन; जहाम पर सुख खोजा जाता है<br />तन की प्रकृति नहीं, मन की माया से प्रेरित होकर<br />जहाँ जागकर स्वयं नहीं बहती चेतना उरॉ की,<br />मन की लिप्सा के अधीन उसको जगना पड़ता है;<br />या जब रसावेश की स्थिति में, किसी भाँति, जाने को<br />मन शरीर के यंत्रॉ को बरबस चालित करता है.<br />किंतु, कभी क्या रसावेश में कोई जा सकता है,<br />बिना सहज एकाग्र वृत्ति के मात्र हाँक कर तन को?<br />माँस-पेशियाँ नहीं जानती आनन्दॉ के रस को,<br />उसे जानती स्नायु, भोगता उसे हमारा मन है,<br />इसीलिए निष्काम काम-सुख वह स्वर्गीय पुलक है,<br />सपने में भी नहीं स्वल्प जिस पर अधिकार किसी का.<br />नहीं साध्य वह तन के आस्फालन या संकोचन से;<br />वह तो आता अनायास, जैसे बूँदें स्वाती की<br />आ गिरती हैं, अकस्मात, सीपी के खुले हृदय में.<br />लिया-दिया वह नहीं, मात्र वह ग्रहण किया जाता है.<br />और पुत्र-कामना कहो तो यद्यपि वह सुखकर है,<br />पर, निष्काम काम का, सचमुच वह भी ध्येय नहीं है.<br />निरुद्देश्य, निष्काम काम-सुख की अचेत धारा में,<br />संतानें अज्ञात लोक से आकर खिल जाती हैं<br />वारि-वल्लरी में फूलॉ-सी, निराकार के गृह से<br />स्वयं निकल पड़ने वाली जीवन की प्रतिमाऑ-सी<br />प्रकृति नित्य आनन्दमयी है, जब भी भूल स्वयं को<br />हम निसर्ग के किसी रूप(नारी, नर या फूलॉ) से<br />एकतान होकर खो जाते हैं समाधि-निस्तल में<br />खुल जाता है कमल, धार मधु की बहने लगती है,<br />दैहिक जग को छोड़ कहीं हम और पहुंच जाते हैं,<br />मानो मायावरण एक क्षण मन से उतर गया हो.<br />क्या प्रतीक यह नहीं, काम-सुख गर्हित, ग्राम्य नहीं है?<br />वह भी ले जाता मनुष्य को ऊपर मुक्ति-दिशा में<br />मन के माया-मोह-बन्ध को छुड़ा सहज पद्धति से<br />पर, खोजें क्यॉ मुक्ति? प्रकृति के हम प्रसन्न अवयव हैं;<br />जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे<br />लीलामय की सहज, शांत, आनन्दमयी धारा में.<br />---------------<br />------------------<br />पुरुरवा<br />कुसुम और कामिनी बहुत सुन्दर दोनॉ होते हैं<br />पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमॉ से,<br />क्यॉकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है.<br />सुमन मूक सौन्दर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं.<br />किंतु, कहीं यदि शब्द फूटने लगें सुमुख पुष्पॉ से,<br />और लगें करने प्रसून ये गहन-गूढ़ चिंतन भी,<br />सब की वही दशा होगी, जो मेरी अभी हुई है.<br />यह प्रपात रसमयी बुद्धि का! यह हिलोर चिनतन की!<br />तुम्हें ज्ञात है, मैं बहते-बहते इसकी धारा में<br />किन लोकॉ, किन गुह्य नभॉ में अभी घूम आया हूँ?<br />आदि-अंत कुछ नहीं सूझता, सचमुच ही, जीवन का;<br />ग्रंथि-जाल का किसी काल-गह्वर में छोर नहीं है.<br />विधि-निषेध, सत्य ही स्यात्, जल पर की रेखाएं हैं<br />कोई लेख नहीं उगता भीतर के अगम सलिल पर.<br />और ज्वार जो भी उठता ऊपर अवचेत-अतल से,<br />विधि-निषेध का उस पर कोई जोर नहीं चलता है.<br />स्यात्, योग सायास उपेक्षा भर है इस स्वीकृति की,<br />हम निसर्ग के बन्द कपाटॉ को न खोल सकते हैं;<br />स्यात्, साधनाएं प्रयास हैं थकी हुई प्रज्ञा को<br />अन्वेषण में, किसी भांति भी, निरत किये रहने का.<br />सत्य, स्यात्, केवल आत्मार्पण, केवल शरणागति है<br />उसके पद पर, जिसे प्रकृति तुम, मैं ईश्वर कहता हूँ.<br />एक कर्म, अनुगमन मूक अविगत के संकेतॉ का,<br />एक धर्म, अनुभवन निरंतर उस सुषमा, उस छवि का<br />जो विकीर्ण सर्वत्र, केन्द्र बन तुम में झलक रही है.<br /><br />आह, रूप यह! उडू जहाँ भी, चरॉ ओर भुवन में<br />यही रूप हँसता, प्रसन्न इंगित करता मिलता है<br />सूर्य-चन्द्र में, नक्षत्रॉ- फूलॉ में, तृणॉ-द्रुमॉ में.<br />और यही मुख बार-बार उग पुन: डूब जाता है<br />मन के अमित अगाध सिन्धु में ज्वालामयी लहर-सा<br />लगता है, मानो, निकलीं तुम बाहर नहीं जलधि से,<br />जन्मभूमि की शीतलता में अब भी खेल रही हो.<br />देखा तुम्हें बहुत, पर, अब भी तो यह ज्ञात नहीं है,<br />प्रथम-प्रथम तुम खिलीं चीर टहनी किस कल्पलता की?<br />लिया कहाँ आकार निकलकर निराकार के गृह से?<br />उषा-सदृश प्रकटी थीं किन जलदॉ का पटल हटाकर?<br />कहते हैं, मैं स्वयं विश्व में आया बिना पिता के:<br />तो क्या तुम भी, उसी भांति, सचमुच उत्पन्न हुई थीं<br />माता बिना, मात्र नारायण ऋषि की कामेच्छा से,<br />तप:पूत नर के समस्त संचित तप की आभा-सी?<br />या समुद्र जब अंतराग़्नि से आकुल, तप्त, विकल था,<br />तुम प्रसून-सी स्वयं फूट निकलीं उस व्याकुलता से,<br />ज्यॉ अम्बुधि की अंतराग्नि से अन्य रत्न बनते है?<br />और सुरासुर के अभंग, युग-व्यापी आह्वानॉ से<br />दयाद्रवित हो, एक प्रात, निकलीं अप्रतिम शिखा-सी<br />अतल, वितल, पाताल, तलातल से ऊपर भूतल में,<br />जैसे उषा निकल सागर-तल से ऊपर आती है?<br />डूब गया होगा सारा आकाश कुतुक-विस्मय में,<br />चकित खडे होंगे सब जब यह प्रतिमा अरुण प्रभा की<br />आकर ठहर गई होगी कम्पित, सुनील लहरॉ पर,<br />धूम-तरंगॉ पर चढ़कर नाचती हुई ज्वाला-सी.<br />कैसा दीप रहा होगा पावकमय रूप तुम्हारा<br />नील तरंगो में, झलमल फेनॉ के शुभ्र वसन में!<br />और चतुर्दिक तुम्हें घेर उद्ग्रीव भुजंगिनियॉ-सी<br />देख रही होंगी काली लहरें किस उत्सुकता से?<br />रुदन किया होगा कितना अम्बुधि ने तुम्हें गँवाकर!<br />मणि-मुक्ता-विद्रुम-प्रवाल से विरचे हुए भवन की<br />आभा उतर गई होगी, तुम से वियुक्त होते ही<br />शून्य हो गया होगा सारा हृदय महासागर का.<br />और प्राप्त कर रक्त-मांस-मय इस अप्रतिम कुसुम को<br />कितना हर्ष-निनाद हुआ होगा देवॉ के जग में!<br />तुम अनंत सौन्दर्य, एक तन में बस जाने पर भी,<br />निखिल सृष्टि में फैल चतुर्दिक कैसे व्याप रही हो?<br />तुम अनंत कल्पना, अंक चहे जिअ भांति भरूँ मैं,<br />एक किरण तब भी बाहॉ से बाहर रह जाती है.<br />ये लोचन, जो किसी अन्य जग के नभ के दर्पण हैं;<br />ये कपोल, जिसकी द्युति में तैरती किरण ऊषा की;<br />ये किसलय से अधर , नाचता जिन पर स्वयं मदन है,<br />रोती है कामना जहाँ पीड़ा पुकार करती है;<br />ये श्रुतियाँ जिनमें उडुऑ के अश्रु-बिन्दु झरते हैं;<br />ये बाँहें, विधु के प्रकाश की दो नवीन किरणॉ सी;<br />और वक्ष के कुसुम-पुंज, सुरभित विश्राम-भवन ये,<br />जहाँ मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रांति दूर करते हैं.<br />यह मुसकान, विभा जैसे दूरागत किसी किरण की;<br />ध्यान जगा देती मन में यह किसी असीम जगत् का<br />जिसे चाहता तो हूँ, पर, मैने न कभी देखा है.<br />यह रहस्यमय रूप कहीं त्रिभुवन में और नहीं है,<br />सुर-किन्नर-गन्धर्व-लोक में अथवा मर्त्य-भुवन में.<br />तुम कैसे, तब कहो, भला, उस भांति जनम सकती हो<br />जैसे जग में अन्य, अपर सौन्दर्य जन्म लेते हैं?<br />कहो, सत्य ही, तुम समुद्र के भीतर से निकली थीं?<br />या कि शून्य से प्रकट हो गई सहसा चीर गगन को?<br />अथवा जब अरूप सुषमा को रूपायित करने को<br />ऋषि सौन्दर्य-समाधि बान्ध, तन्मय छवि के चिंतन में,<br />बैठे थे निश्चेत, तभी नारी बन निकल पड़ी तुम<br />नारायण की महाकल्पना से, एकायन मन से?<br /><br />उर्वशी<br />मैं मानवी नहीं, देवी हूँ; देवॉ के आनन पर<br />सदा एक झिलमिल रहस्य-आवरण पड़ा होता है.<br />उसे हटाओ मत, प्रकाश के पूरा खुल जाने से,<br />जीवन में जो भी कवित्व है, शेष नहीं रहता है.<br />स्पष्ट शब्द मत चुनो, चुनो उनको जो धुन्धियाले हैं;<br />ये धुँधले ही शब्द ऋचाऑ में प्रवेश पाने पर<br />एक साथ जोड़ते अनिश्चित को निश्चित आशय से.<br />और जहाँ भी मिलन देखते हो प्रकाश-छाया का,<br />वही निरापद बिन्दु मनुज-मन का आश्रय शीतल है.<br />सघन कुंज, गोधुली, चाँदनी, ये यदि नहीं रहें तो<br />दिन की खुली धूप में कब तक जीवन चल सकता है?<br />द्वाभा का वरदान, सभी कुछ अर्धस्फुट, झिलमिल है,<br />स्वप्न स्वप्न से, हृदय हृदय से मिलकर सुख पाते हैं<br />यदि प्रकाश हो जाए और जो कुछ भी छिपा जहाँ है,<br />सब-के-सब हो जाएँ सामने खड़े नग्न रूपॉ में,<br />कौन सहेगा यह भीषण आघात भेद विघटन का?<br />इसीलिए कहती हूँ, अब तक जितना जान सके हो,<br />उतना ही है अलम; और आगे इससे जाने पर,<br />स्यात्, कुतुहल-शमन छोड़ कुछ हाथ नहीं आएगा.<br />और करूँगी क्या कहकर मैं शमित कुतुहल को भी?<br />मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो;<br />मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो<br />सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की.<br />कब था ऐसा समय कि जब मेरा अस्तित्व नहीं था?<br />कब आएगा वह भविष्य कि जिस दिन मैं नहीं रहूँगी?<br />कौन पुरुष जिसकी समाधि में मेरी झलक नहीं है?<br />कौन त्रिया, मैं नहीं राजती हूँ जिसके यौवन में?<br />कौन लोक, कौधती नहीं मेरी ह्रादिनी जहाँ पर?<br />कौन मेघ, जिसको न सेज मैं अपनी बना चुकी हूँ?<br />कहूँ कौन सी बात और रहने दूँ कथा कहाँ की?<br />मेरा तो इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है,<br />उसी भांति निस्सीम, असीमित जैसे स्वयं प्रकृति है.<br /><br />पुरुरवा<br />सत्य मानकर कब समझा भिन्न तुम्हें सपने से?<br />नारी कहकर भी कब मैने कहा, मानुषी हो तुम?<br />अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आंखॉ से<br />रही झांकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,<br />बांहॉ में जिसको समेटकर उर से लगा रहा हूँ,<br />रक्त-मांस की मूर्त्ति नहीं,वह सपना है, छाया है.<br />छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य-वसन में<br />देह ग्रहण कर्ने पर भी तुम रही अदेह विभा-सी.<br />द्वाभा कहाँ? जहाँ भी ये युग चरण मंजु पड़ते हैं,<br />तुम्हे घेरकर खुली मुक्त आभा-सी छा जाती है;<br />और देखता हूँ मैं, जो अन्यत्र नहीं दिखता है.<br />तब भी हो गो धूलि कहीं तो उसका पटल हटाकर<br />आज चाहता हूँ समग्र दर्शन मैं उस सपने का,<br />शेष आयु के लिए जिसे निज दीपक बना चुका हूँ<br />कौन सत्य ऐसा कराल है, जिसके अनावरण से<br />अग्नि प्रकट होगी, मेरे ये लोचन जल जाएंगे,<br />याकि अशनि-आघात घोर, मैं जिसको सह न सकूँगा?<br />कहो मुक्त सब कुछ, समक्ष यह प्रतिमा अगर खड़ी है,<br />मुझे भीति कुछ नहीं, प्रलय के भी वज्राघातॉ से<br />सह लूँगा अनिमेष देख्ते हुए तुम्हारे मुख को.<br />---------------------<br />---------------------<br />उर्वशी<br />पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ?<br />भ्रांति, यह देह-भाव.<br />मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;<br />अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में<br />मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल.<br />मैं नहीं सिन्धु की सुता;<br />तलातल-अतल-वितल-पाताल छोड़,<br />नीले समुद्र को फोड़ शुभ्र, झलमल फेनांकुश में प्रदीप्त<br />नाचती उर्मियॉ के सिर पर<br />मैं नहीं महातल से निकली.<br />मैं नहीं गगन की लता<br />तारकॉ में पुलकित फूलती हुई,<br />मैं नहीं व्योमपुर की बाला,<br />विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,<br />पूर्णिमा-सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,<br />मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी.<br />मैं नाम-गोत्र से रहित पुष्प,<br />अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द-शिखा<br />इतिवृत्तहीन,<br />सौन्दर्य चेतना की तरंग;<br />सुर-नर-किन्नर-गन्धर्व नहीं,<br />प्रिय मैं केवल अप्सरा<br />विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत.<br />कामना-तरंगों से अधीर<br />जब विश्वपुरुष का हृदय-सिन्धु<br />आलोड़ित, क्षुभित, मथित होकर,<br />अपनी समस्त बड़वाग्नि<br />कण्ठ में भरकर मुझे बुलाता है,<br />तब मैं अपूर्वयौवना<br />पुरुष के निभृत प्राणतल से उठकर<br />प्रसरित करती निर्वसन, शुभ्र, हेमाभ कांति<br />कल्पना लोक से उतर भूमि पर आती हूँ,<br />विजयिनी विश्वनर को अपने उत्तुंग वक्ष<br />पर सुला अमित कल्पों के अश्रु सुखाती हूँ.<br />जन-जन के मन की मधुर वह्नि, प्रत्येक हृदय की उजियाली,<br />नारी की मैं कल्पना चरम, नर के मन में बसने वाली.<br />विषधर के फण पर अमृतवर्त्ति ;<br />उद्धत, अदम्य, बर्बर बल पर<br />रूपांकुश, क्षीण मृणाल-तार.<br />मेरे सम्मुख नत हो रहते गजराज मत्त;<br />केसरी, शरभ, शार्दूल भूल निज हिंस्र भाव<br />गृह-मृग-समान निएविष, अहिंस्र बनकर जीते.<br />मेरी भू-स्मिति को देख चकित, विस्मित, विभोर<br />शूरमा निमिष खोले अवाक रह जाते हैं;<br />श्लथ हो जाता स्वयमेव शिंजिनी का कसाव,<br />संस्रस्त करो से धनुष-बाण गिर जाते हैं.<br />कामना-वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध,<br />मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार;<br />मैं सदा घूमती फिरती हूँ<br />पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन<br />नीहार-आवरण में अम्बर के आर-पार;<br />उड़ते मेघों को दौड़ बाहुऑ में भरती,<br />स्वप्नों की प्रतिमाऑ का आलिंगन करती.<br />विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकांत द्वीप,<br />यह मेरा उर.<br />देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ.<br />मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध,<br />बज रहा अर्चना में मेरी, मेरा नुपूर.<br />मैं कला-चेतना का मधुमय, प्रच्छन्न स्त्रोत,<br />रेखाऑ में अंकित कर अंगों के उभार<br />भंगिमा, तरंगित वर्तुलता, वीचियाँ, लहर,<br />तन की प्रकांति अंगों में लिये उतरती हूँ.<br />पाषाणॉ के अनगढ़ अंगॉ को काट-छाँट<br />मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,<br />मदिरलोचना, कामलुलिता नारी<br />प्रस्तावरण कर भंग,<br />तोड़ तम को उन्मत्त उभरती हूँ.<br />भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,<br />सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है.<br />प्रिय मुझे प्रखर कामना-कलित, संतप्त, व्यग्र, चंचल चुम्बन,<br />प्रिय मुझे रसोदधि में निमग्न उच्छल, हिल्लोल-निरत जीवन.<br />तारॉ की झिलमिल छाया में फूलॉ की नाव बहाती हूँ,<br />मैं नैश प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ.<br />मादन सुगन्ध पवमान-दलित सन्ध्या-तन से उठनेवाली,<br />नभ से अलिंगित कुमुद्वती चन्द्रिका-यामिनी मतवाली,<br />कबरी के फूलॉ का सुवास, आकुंचित अधरॉ का कम्पन,<br />परिरम्भ-वेदना से विभोर, कंटकित अंग, मधुमत्त नयन;<br />दो प्राणॉ से उठने वाली वे झंकृतियाँ गोपन, मधुमय,<br />जो अगुरु-धूम-सी हो जाती ऊपर उठ एक अपर में लय.<br />दो दीपॉ की सम्मिलित ज्योति, वह एक शिखा जब जगती है,<br />मन के अगाध रत्नाकर में यह देह डूबने लगती है.<br />दो हृदयॉ का वह मूक मिलन, तन शिथिल, स्रस्त अतिशय सुख से,<br />अलसित आंखें देखतीं न कोई शब्द निकलता है मुख से.<br />कितनी पावन वह रस-समाधि! जब सेज स्वर्ग बन जाती है,<br />गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है.<br />देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शांति की छाया में,<br />आरोहण के सोपान लगे हैं त्वचा, रुधिर में, काया में.<br />परिरम्भ पाश में बँधे हुए उस अम्बर तक उठ जाओ रे!<br />देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!<br />चिंतन की लहरॉ के समान सौन्दर्य- लहर में भी है बल,<br />सातॉ अम्बर तक उड़ता है रूपसी नारी का स्वर्णांचल.<br />जिस मधुर भूमिका में जन को दर्शन-तरंग पहुंचाती है,<br />उस दिव्य लोक तक हमें प्रेम की नाव सहज ले जाती है.<br />ओ शून्य पवन में मुझे देख चुम्बन अर्पित करने वालों!<br />सम्पूर्ण निशा मेरी छवि का उन्निद्र ध्यान धरने वालो!<br />मैं देश-काल से परे चिरंतन नारी हूँ.<br />मै आत्मतंत्र यौवन की नित्य नवीन प्रभा,<br />रूपसी अमर मैं चिर-युवती सुकुमारी हूँ.<br />तुम त्रिभुवन में अथवा त्रिकाल में जहाँ कहीं भी हो,<br />अंतर में धैर्य धरो.<br />सरिता, समुद्र, गिरि, वन मेरे व्यवधान नहीं.<br />मैं भूत, भविष्यत, वर्तमान की कृत्रिम बाधा से विमुक्त;<br />मैं विश्वप्रिया.<br />तुम पंथ जोहते रहो,<br />अचानक किसी रात मैं आऊँगी.<br />अधरों में अपने अधरों की मदिरा उड़ेल,<br />मैं तुम्हें वक्ष से लगा<br />युगॉ की संचित तपन मिटाऊँगी.<br /><br />पुरुरवा<br />आवेशित उद्गार यही मर्मॉ का उद्घाटन है?<br />हुआ स्रस्त कितना रहस्यमय अवगुंठन माया का?<br />पर, रहस्य हट जाने पर भी रहीं रहस्यमयी तुम;<br />मायावरण दूर कर देने पर भी तुम माया हो.<br />अब भी तो तुम दीप रहीं निष्कलुष आदि ऊषा-सी,<br />शुभ्र वह्नि-सी जो अरणी से अभी-अभी फूटी हो;<br />युग-युग की प्रेयसी हेम-सी जिसकी शुभ्र त्वचा पर<br />कहीं काल के स्पर्श याकि ऊँगली का दाग नहीं है.<br /><br />एक कोमल स्पर्श कोमल गीतॉ से भरी हुई ऊँगली का,<br />तंत्री से नव निनद, नई झंकार उमड़ पड़ती है;<br />धरती हो ये अरुण पुष्प-से पद जिस किसी दिशा में,<br />जग उठते हैं नये पुंस कम्पित नव ईहाऑ से.<br />तुम त्रिकाल-सुन्दरी, अमर आभा अखंड त्रिभुवन की,<br />सभी युगॉ से, सभी दिशाऑ से चल कर आई हो;<br />इसीलिए, तुम विविध जन्म-कुंजॉ में पुलक जगाकर<br />सभी दिशाऑ, सभी युगॉ को पुन: लौट जाओगी.<br />एक पुष्प में सभी पुष्प, सब किरणें एक किरण में<br />तुम सन्हित, एकत्र एक नारी में सब नारी हो.<br />प्रति युग की परिचिता, रसाकर्षण प्रति मंवंतर का,<br />विश्व-प्रिया, सत्य ही, महारानी सब के सपनॉ की.<br />पर, दिगंत-व्यापिनी चन्द्रिका मुक्त विहरनेवाली<br />व्योम छोड़कर सिमट गई जो मेरे भुज पाशॉ में;<br />रस की कादम्बिनी, विचरती हुई अनंत गगन में,<br />अकस्मात् आकर प्रसन्न जो मुझ पर बरस गई है,<br />सो केवल सन्योग मात्र है? या इस गूढ़ मिलन के<br />पीछे जन्म-जन्म की कोई लीला छिपी हुई है?<br />जहाँ-जहाँ तुम खिलीं स्यात् मैं ही मलयानिल बनकर<br />तुम्हें घेरता आया हूँ अपनी आकुल बाँहॉ में<br />जिसके भी सामने किया तुम ने कुंचित अधरॉ को,<br />लगता है, मैं ही सदैव वह चुम्बन-रसिक पुरुष था.<br />मेरी ही थी तपन जिसे फूलॉ के कुंज-भवन में<br />जन्म-जन्म में तुम आलिंगन से हरती आई हो.<br />कल-कल्प में सुला प्रणय-उद्वेलित वक्षोजों पर<br />अश्रु पॉछती आई हो मेरे ही आर्त्त दृगॉ का.<br />जहाँ-जहाँ तुम रही, निष्पलक नयनॉ की आभा से<br />रहा सींचता मैं, आगे तुम जहाँ-जहाँ जाओगी,<br />साथ चलूँगा मैं सुगन्ध से खिंचे हुए मधुकर-सा<br />या कि राहु जैसे विधु के पीछे-पीछे चलता है.<br /><br />उर्वशी<br />चन्द्रमा चला, रजनी बीती हो गया प्रात;<br />पर्वत के नीचे से प्रकाश के आसन पर<br />आ रहा सूर्य फेंकते बाण अपने लोहित,<br />बिंध गया ज्योति से, वह देखो, अरुणाभ शिखर.<br />हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी-पुजारिन को देखो,<br />पति को फूलॉ का नया हार पहनाती है,<br />कुंजॉ में जनमा है कल कोई वृक्ष कहीं,<br />वन की प्रसन्न विहगावलि सोहर गाती है.<br />कट गया वर्ष ऐसे जैसे दो निमिष गए<br />प्रिय! छोड़ गन्धमादन को अब जाना होगा,<br />इस भूमि-स्वर्ग के हरे-भरे, शीतल वन में<br />जानें, कब राजपुरी से फिर आना होगा!<br />कितना अपार सुख था, बैठे चट्टानॉ पर<br />हम साथ-साथ झरनॉ में पाँव भिगोते थे,<br />तरु-तले परस्पर बाँहों को उपधान बना<br />हम किस प्रकार निश्चिंत छाँह में सोते थे!<br />जाने से पहले चलो, आज जी खोल मिलें<br />निर्झरी, लता, फूलॉ की डाली-डाली से,<br />पी लें जी भर पर्वत पर का नीरव प्रकाश,<br />लें सींच हृदय झूमती हुई हरियाली से.<br /><br />तृतीय अंक समाप्तसौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-19792598416302939002011-12-18T17:17:00.000-08:002011-12-18T17:19:38.186-08:00उर्वशी- द्वितीय अंकद्वितीय अंक आरम्भ<br /><br />प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते,<br />प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित:.<br />-विक्रमोर्वशीयं<br /><br />[प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों के साथ]<br /><br /><br />औशीनरी<br />तो वे गये?<br /><br />निपुणिका<br />गये ! उस दिन जब पति का पूजन करके<br />लौटीं, आप प्रमदवन से संतोष हृदय मॅ भरके<br />लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे<br />हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे<br />प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा,<br />अन्य नारियॉ पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा,<br />तभी भाग्य पर देवि ! आपके कुटिल नियतमुसकाई,<br />महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई.<br /><br />औशीनरी<br />फिर क्या हुआ ?<br /><br />निपुणिका<br />देवि, वह सब भी क्या अनुचरी कहेगी ?<br /><br />औशीनरी<br />पगली ! कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ?<br />कह्ती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे,<br />जलता है यदि हृदय अभागिन का,उसको जलने दे.<br />सानुकूलता कितनी थी उस दिन स्वामी के स्वर मॅ !<br />समझ नहीं पाती, कैसे वे बदल गए क्षण भर मॅ !<br />ऐसी भी मोहिनी कौन-सी परियाँ कर सकती हैं,<br />पुरुषॉ की धीरता एक पल मॅ यॉ हर सकती हैं !<br />छला अप्सरा ने स्वामी को छवि से या माया से?<br />प्रकटी जब उर्वशी चन्द्नी मॅ द्रुम की छाया से,<br />लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो,<br />याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा मॅ आन ढली हो;<br />उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की,<br />उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवंकी.<br />कुसुम-कलेवर मॅ प्रदीप्त आभा ज्वालामय मन की,<br />चमक रही थी नग्न कांति वसनो से छन कर तन की.<br />हिमकम-सिक्त-कुसुम-सम उज्जवल अंग-अंग झलमल था,<br />मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था<br />किसी सान्द्र वन के समान नयनॉ की ज्योति हरी थी,<br />बड़ी-बड़ी पलकॉ के नीचे निद्रा भरी-भरी थी.<br />अंग-अंग मॅ लहर लास्य की राग जगानेवाली,<br />नर के सुप्त शांत शोणित मॅ आग लगानेवाली.<br /><br />'मदनिका<br />सुप्त, शांत कहती हो?<br />जलधारा को पाषाणॉ मॅ हाँक रही जो शक्ति,<br />वही छिप कर नर के प्राणॉ मॅ दौड़-दौड़<br />शोणित प्रवाह मॅ लहरें उपजाती है,<br />और किसी दिन फूत प्रेम की धारा बन जाती है.<br />पर, तुम कहो कथा आगे की, पूर्ण चन्द्र जब आया,<br />अचल रहा अथवा मर्यादा छोड़ सिन्धु लहराया ?<br />----------------------<br />----------------------<br />निपुणिका<br />सिन्धु अचल रहता तो हम क्यॉ रोते राजमहल मॅ?<br />जलते क्यॉ इस भांति भाग्य के दारुण कोपानल मॅ ?<br />महाराज ने देख उर्वशी को अधीर अकुलाकर,<br />बाँहॉ मॅ भर लिया दौड़ गोदी मॅ उसे उठाकर<br />समा गई उर-बीच अप्सरा सुख-सम्भार-नता-सी,<br />पर्वत के पंखॉ मॅ सिमटी गिरिमल्लिका-लता-सी.<br /><br />और प्रेम-पीड़ित नृप बोले, “क्या उपचार करुँ मैं?<br />सुख की इस मादक तरंग को कहाँ समेट धरु मैं?<br />गहा चाहता सिन्धु प्राण का कौन अदृश्य किनारा?<br />छुआ चाहती किसे हृदय को फोड़ रक्त की धारा?<br />कौन सुरभि की दिव्य बेलि प्राणॉ मॅ गमक उठी है?<br />नई तारिका कौन आज मूर्धा पर चमक उठी है?<br />किस पाटल के गन्ध-विकल दल उड़कर अनिल-लहर मॅ<br />मन्द-मन्द तिर रहे आज प्राणॉ के मादक सर मॅ?<br />सुगम्भीर सुख की समाधि यह भी कितनी निस्तल है?<br />डूबें प्राण जहाँ तक, रस-ही-रस है, जल-ही-जल है.<br />प्राणॉ की मणि! अयि मनोज्ञ मोहिनी! दुरंत विरह मॅ<br />नहीं झेलता रहा वेदनाएँ क्या-क्या दुस्सह मैं?<br />दिवा-रात्रि उन्निद पलॉ मॅ तेरा ध्यान संजोकर<br />काट दिए आतप, वर्षा, हिमकाल सतत रो-रोकर.<br />विदा समय तूने देखा था जिस मधुमत्त नयन से,<br />वह प्रतिमा, वह दृष्टि न भूली कभी एक क्षण मन से.<br />धरते तेरा ध्यान चाँद्नी मन मॅ छा जाती थी,<br />चुम्बन की कल्पना मन मॅ सिहरन उपजाती थी.<br />मेघॉ मॅ सर्वत्र छिपी मेरा मन तू हरती थी,<br />और ओट लेकर विधु की संकेत मुझे करती थी.<br />फूल-फूल मॅ यही इन्दु-मुख आकर्षण उपजाकर,<br />छिप जाता सौ बार बिहँस इगित से मुझे बुलाकर.<br />रस की स्रोतस्विनी यही प्राणॉ मॅ लहराती थी,<br />दाह-दग्ध सैकत को, पर, अभिसिक्त न कर पाती थी.<br />किंतु, आज आषाढ, घनाली छाई मतवाली है,<br />मुझे घेरकर खड़ी हो गई नूतन हरियाली है.<br />प्राणेश्वरी! मिलन-सुख को, नित होकर संग वरें हम,<br />मधुमय हरियाले निकुंज मॅ आजीवन विचरॅ हम”<br /><br />औशीनरी<br />आजीवन वे साथ रहेंगे? तो अब क्या करना है?<br />जीते जी यह मरण झेलने से अच्छा मरना है<br /><br />निपुणिका<br />मरण श्रेष्ठ है, किंतु, आपको वह भी सुलभ नहीं है.<br />जाते समय मंत्रियॉ से प्रभु ने यह बात कही है;<br />”एक वर्ष पर्यंत गन्धमादन पर हम विचरेंगे,<br />प्रत्यागत हो नैमिषेय नामक शुभ यज्ञ करेंगे.”<br />विचरें गिरि पर महाराज हो वशीभूत प्रीता के,<br />यज्ञ न होगा पूर्ण बिना कुलवनिता परिणिता के.<br /><br />औशीनरी<br />इसी धर्म के लिए आपको भुवनेश्वरी जीना है<br />हाय, मरण तक जेकर मुझको हालाहल पीना है<br />जाने, इस गणिका का मैने कब क्या अहित किया था,<br />कब, किस पूर्वजन्म मॅ उसका क्या सुख छीन लिया था,<br />जिसके कारण भ्रमा हमारे महाजन की मति को,<br />छीन ले गई अधम पापिनी मुझसे मेरे पति को.<br />ये प्रवंचिकाएँ, जानें, क्यॉ तरस नहीं खाती हैं,<br />निज विनोद के हित कुल-वामाऑ को तड़पाती हैं.<br />जाल फेंकती फिरती अपने रूप और यौवन का,<br />हँसी-हँसी मॅ करती हैं आखेट नरॉ के मन का.<br />किंतु, बाण इन व्याधिनियॉ के किसे कष्ट देते हैं?<br />पुरुषॉ को दे मोद प्राण वे वधुऑ के लेते हैं<br />---------------------<br />---------------------<br /><br />निपुणिका<br />पर, कैसी है कृपा भाग्य की इस गणिका के ऊपर!<br />बरस रहा है महाराज का सारा प्रेम उमड़कर.<br />जिधर-जिधर उर्वशी घूमती, देव उधर चलते हैं<br />तनिक श्रांत यदि हुई व्यजन पल्लव-दल से झलते हैं.<br />निखिल देह को गाढ दृष्टि के पय से मज्जित करके<br />अंग-अंग किसलय, पराग, फूलॉ से सज्जित करके,<br />फिर तुरंत कहते “ये भी तो ठीक नहीं जंचते हैं ‘’<br />भाँति-भाँति के विविध प्रसाधन बार-बार रचते हैं<br /><br />और उर्वशी पीकर सब आनन्द मौन रहती है<br />अर्धचेत पुलकातिरेक मॅ मन्द-मन्द बहती है<br />मदनिका इसमॅ क्या आश्चर्य?<br />प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है,<br />दुर्लभ स्वप्न समान रम्य नारी नर को लगती है<br /><br />कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी जीवन की<br />जब अजेय केसरी भूल सुध-बुध समस्त तन-मन की<br />पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी-मुख को,<br />क्षण-क्षण रोमाकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को!<br />यही लग्न है वह जब नारी, जो चाहे, वह पा ले,<br />उडुऑ की मेखला, कौमुदी का दुकूल मंगवा ले.<br />रंगवा ले उंगलियाँ पदों की ऊषा के जावक से <br />सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से.<br /> <br />तपोनिष्ठ नर का संचित ताप और ज्ञान ज्ञानी का,<br />मानशील का मान, गर्व गर्वीले, अभिमानी का,<br />सब चढ़ जाते भेंट, सहज ही प्रमदा के चरणों पर<br />कुछ भी बचा नहीं पाटा नारी से, उद्वेलित नर.<br /> <br />किन्तु, हाय, यह उद्वेलन भी कितना मायामय है !<br />उठता धधक सहज जिस आतुरता से पुरुष ह्रदय है,<br />उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में<br />रखा चाहती वह समेटकर सागर को बंधन में.<br /> <br />”’औशीनरी”’<br />किन्तु बन्ध को तोड़ ज्वार नारी में जब जगता है<br />तब तक नर का प्रेम शिथिल, प्रशमित होने लगता है.<br />पुरुष चूमता हमें, अर्ध-निद्रा में हमको पाकर,<br />पर, हो जाता विमिख प्रेम के जग में हमें जगाकर.<br /> <br />और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला,<br />पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला.<br />वही आंसुओं की माला अब मुझे पिरोनी होगी.<br /> <br />निपुणिका<br />इसी भाँती क्या महाराज भी होंगे नहीं वियोगी ?<br />आप सद्र्श सन्नारी को यदि राजा ताज सकते हैं,<br />आँख मूंद स्वर्वेश्या को कब तक वे भज सकते हैं ?<br />-----------------------<br />-----------------------<br />औशीनरी<br />कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है.<br />जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है.<br /> <br />मदनिका<br />उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की,<br />नई-नई प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की.<br />वश में आई हुई वास्तु से इसको तोष नहीं है,<br />जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है.<br /> <br />नई सिद्धि-हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर,<br />नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है नर.<br />करस्पर्श से दूर, स्वप्न झलमल न्र को भाता है,<br />चहक कर जिसको पी न सका,वह जल नर को भाता है.<br />ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है,<br />जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है<br /> <br />क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर,<br />ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर;<br />जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो<br />और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो,<br />प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में,<br />पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में.<br /> <br />औशीनरी<br />गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके,<br />जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भर के<br />पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी?<br />जीत गयी अप्सरा, सखी ! मैं रानी बनकर हारी.<br /> <br />निपुणिका<br />इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने<br />दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने?<br /> <br />महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं,<br />जिसका चित्त अप्सराएं कर सकती सहज हरण हैं?<br />कार्त्तिकेय -सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी,<br />रावी-सम तेजवंत, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी;<br />घनाद-सदृश संग्रही, व्योमवत मुक्त, जल्द-निभ त्यागी,<br />कुसुम -सदृश मधुमय, मनोज्ञ , कुसुमायुध से अनुरागी.<br /> <br />ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है?<br /> कौन वास्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है?<br /> <br />औशीनरी<br />अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक न कर सकी हूँ ?<br />कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ ?<br />प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है.<br />न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है.<br /> <br />तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को,<br />सड़ा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को.<br />पर, वह मिलता नहीं, चमक, जाने क्यों खो गयी कहाँ पर !<br />जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गयी कहाँ पर !<br /> <br />सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है,<br />जिससे नारी के अंतर का मान-पद्म खिलता है.<br />वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से,<br />देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से.<br /> <br />वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है,<br />प्रौढा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है.<br />अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी,<br />जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठाती है नारी.<br /> <br />मदनिका<br />जब तक यह रस-दृष्टि, तभी तक रसोद्रेक जीवन में,<br />आलिंगन में पुलक और सिहरन सजीव चुम्बन में.<br />विरस दृष्टि जब हुई स्वाद चुम्बन का खो जाता है,<br />दारु-स्पर्श-वत सारहीन आलिंगन हो जाता है.<br /> <br />वपु तो केवल ग्रन्थ मात्र है,क्या हो काय-मिलन से ?<br />तन पर जिसे प्रेम लिखता,कविता आती वह मन से.<br />पर, नर के मन को सदैव वश में रखना दुष्कर है,<br />फूलों से यह मही पूर्ण है और चपल मधुकर है.<br /> <br />पुरुष सदा आक्रांत विचरता मादक प्रणय-क्षुधा से,<br />जय से उसको तृप्ति नहीं,संतोष न कीर्ति-सुधा से.<br />असफलता में उसे जननी का वक्ष याद आता है,<br />संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है.<br /> <br />संघर्षों से श्रमित-श्रांत हो पुरुष खोजता विह्वल<br />सर धरकर सोने को, क्षण-भर, नारी का वक्षस्थल.<br />आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन,<br />और विपद में रमणी के अंगों का गाढालिंगन .<br /> <br />जलती हुई धूप में आती याद छांह की, जल की,<br />या निकुंज में राह देखती प्रमदा के अंचल की.<br />और नरों में भी, जो जितना ही विक्रमी, प्रबल है,<br />उतना ही उद्दाम, वेगमय उसका दीप्त अनल है<br /> <br />प्रकृति-कोष से जो जितना हिएज लिए आता है,<br />वह उतना ही अनायास फूलों से कट जाता है.<br />अगम, अगाध, वीर नर जो अप्रतिम तेज-बल-धारी,<br />बड़ी सहजता से जय करती उसे रूपसी नारी.<br /> <br />तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है,<br />युवती के उज्जवल कपोल पर वही दृष्टि सोती है.<br />जो बाँहें गिरी को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं,<br />उरःपीड-परिरंभ-वेदना वही दान करती हैं.<br /> <br />जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रांत, गम है,<br />उसकी बडवाग्नि उतनी ही अविश्रांत, दुर्दम है.<br />बंधन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं,<br />किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं<br />----------------<br />-----------------<br />निपुणिका<br />इस प्रचंडता का जग में कोई उपचार नहीं है ?<br /> <br />औशीनरी<br />पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है.<br />जब तक है यह दशा, नारियां व्यथा कहाँ खोयेंगी?<br />आंसू छिपा हँसेंगी, फिर हंसते-हँसते रोएंगी.<br /> <br />[कंचुकी का प्रवेश]<br /><br />कंचुकी<br />जय हो भट्टारिके ! मार्ग भट्टारक को दिखलाने<br />और उन्हें सक्षेम गंधमादन गिरि तक पहुंचाने<br />जो सैनिक थे गए,आज वे नगर लौट आए हैं,<br />और आपके लिए संदेशा यह प्रभु का लाए हैं.<br /> <br />"पवन स्वास्थ्यदाई, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है,<br />झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है.<br /> लम्बे-लम्बे चीड ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,<br />एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए<br /><br />दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नंदन-वन हैं,<br />जहां देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुञ्ज-भवन हैं.<br />शिखरों पर हिमराशी और नीचे झरनों का पानी,<br />बीचों बीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी.<br /> <br />बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में,<br />किन्तु यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में.<br />प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है,<br />एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है.<br /> <br />पुत्र ! पुत्र ! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा?<br />देवि ! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा?<br />करती रहें प्रार्थना, त्रुटी हो नहीं धर्म-साधन में,<br />जहां रहूं, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में."<br /><br />निपुणिका<br />सुन लिया सन्देश आर्ये ?<br /><br />औशीनरी<br />हाँ, अनोखी साधना है,<br />अप्सरा के संग रमना ईश की आराधना है !<br />पुत्र पाने के लिए बिहरा करें वे कुञ्ज-वन में,<br />और मैं आराधना करती रहूं सूने भवन में .<br /><br />कितना विलक्षण न्याय है !<br />कोई न पास उपाय है !<br />अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है.<br /><br />दुःख-दर्द जतलाओ नहीं,<br />मन की व्यथा गाओ नहीं,<br />नारी ! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं.<br /><br />तब भी मरुत अनुकूल हों,<br />मुझको मिलें, जो शूल हों,<br />प्रियतम जहां भी हों, बिछे सर्वत्र पथ में फूल हों.<br /><br />द्वितीय अंक समाप्तसौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-54652385950374310152011-12-18T17:10:00.002-08:002011-12-18T17:16:59.100-08:00उर्वशी---प्रथम अंकपात्र परिचय <br />पुरुष<br />पुरुरवा - वेदकालीन, प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक <br />महर्षि च्यवन - प्रसिद्द ;भ्रिगुवंशी, वेदकालीन महर्षि <br />सूत्रधार - नाटक का शास्त्रीय आयोजक, अनिवार्य पात्र <br />कंचुकी -<br />सभासद -<br />प्रतिहारी -<br />प्रारब्ध आदि <br />आयु - पुरुरवा-उर्वशी का पुत्र <br />महामात्य - पुरुरवा के मुख्य सचिव <br />विश्व्मना - राज ज्योतिषी <br /> <br /> <br />नारी<br />नटी - शास्त्रीय पात्री, सूत्रधार की पत्नी <br />सहजन्या, रम्भा, मेनका, चित्रलेखा - अप्सराएं <br />औशीनरी - पुरुरवा पत्नी, प्रतिष्ठानपुर की महारानी <br />निपुणिका,मदनिका - औशिनरी की सखियाँ <br />उर्वशी - अप्सरा, नायिका <br />सुकन्या - च्यवन ऋषी की सहधर्मिणी<br />अपाला - उर्वशी की सेविका<br />--------------------<br />-------------------<br />प्रथम अंक आरम्भ<br /><br />साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य,<br />तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम._ विक्रमोर्वशीयम<br /><br />राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।<br /> <br />सूत्रधार<br />नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है,<br />ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।<br />खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,<br />चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;<br />या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर <br />नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों<br /><br />नटी <br />इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,<br />मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;<br />मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी<br />कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो <br /><br />सूत्रधार <br />सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को <br />गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है <br /><br />नटी<br />सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा मॅ <br />समाधिस्थ संसार अचेतन बह्ता – सा लगता है.<br /><br />सूत्रधार <br />स्वच्छ कौमुदी मॅ प्रशांत जगती यॉ दमक रही है,<br />सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पन मॆ.<br />शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर मॅ <br />प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो . <br /><br />(ऊपर आकाश मॅ रशनाऑ और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है. बहुत- सी अप्सराऍ एक साथ नीचे उतर रही हैँ).<br /><br />नटी<br />शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणन-स्वर कैसा?<br />अतल व्योम-उर मॅ ये कैसे नूपुर झनक रहे है?<br />उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणॅ लगी लजाने;<br />ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?<br />कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती<br />अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायॅ उतर रही है?<br />उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?<br />या देवॉ की वीणा की रागिनियाँ भटक गई है?<br />उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की <br />नई अर्चियॉ-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले मॅ?<br />या वसंत के सपनॉ की तस्वीरॅ घूम रही है<br />तारॉ-भरे गगन मॅ फूलॉ-भरी धरा के भ्रम से?<br /><br />सूत्रधार <br />लो, पृथ्वी पर आ पहुंची ये सुश्मायॅ अम्बर की <br />उतरे हॉ ज्यॉ गुच्छ गीत गाने वाले फूलॉ के.<br />पद-निक्छेपॉ मॅ बल खाती है भंगिमा लहर की,<br />सजल कंठ से गीत ,हंसी से फूल झरे जाते है.<br />तन पर भीगे हुए वसन है किरणॉ की जाली के,<br />पुश्परेण-भूशित सब के आनन यॉ दमक रहे है,<br />कुसुम बन गई हॉ जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर.<br /><br />नटी<br />फूलॉ की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ है?<br /><br />सूत्रधार <br />नही, चन्द्रिका नही, न तो कुसुमॉ की सहचरियाँ है,<br />ये जो शशधर के प्रकाश मॅ फूलॉ पर उतरी है,<br />मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाऍ है<br />देवॉ की रण क्लांति मदिर नयनॉ से हरने वाली<br />स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की.<br /><br />नटी<br />पर,सुरपुर को छोड आज ये भू पर क्यॉ आई है?<br /><br /><br />सूत्रधार<br />यॉ ही, किरणॉ के तारॉ पर चढी हुई, क्रीडा मॅ,<br />इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है.<br />या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का<br />क्यॉकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,<br />पर, कह्ते है,स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नही है.<br />पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,<br />गगन रूप को बाँहो मॅ भरने को अकुलाता है<br />गगन, भूमि, दोनॉ अभाव से पूरित है,दोनो के <br />अलग-अलग है प्रश्न और है अलग-अलग पीडाये.<br />हम चह्ते तोड कर बन्धन उड्ना मुक्त पवन मॅ,<br />कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते है.<br /><br />एक स्वाद है त्रिदिव लोक मॅ, एक स्वाद वसुधा पर,<br />कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,<br />जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,<br />वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालॉ को .<br />किन्तु ,सुनॅ भी तो, ये परियाँ बातॅ क्या करती है?<br /><br />{नटी और सूत्रधार वृक्श की छाया मॅ जाकर अदृश्य हो जाते है. अप्सरायॅ पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली और झरनॉ के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती है}<br /><br />परियॉ का समवेत गान<br />फूलॉ की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई.<br />फूटी सुधा-सलिल की धारा<br />डूबा नभ का कूल किनारा<br />सजल चान्दनी की सुमन्द लहरॉ मॅ तैर नहाओ री !<br />यह रात रुपहली आई.<br />मही सुप्त, निश्चेत गगन है,<br />आलिंगन मॅ मौन मगन है.<br />ऐसे मॅ नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !<br />यह रात रुपहली आई.<br />मुदित चाँद की अलकॅ चूमो,<br />तारॉ की गलियॉ मॅ घूमो,<br />झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणॉ के तार बढाओ री !<br />यह रात रुपहली आई..<br /> <br />सहजन्या<br />धुली चाँद्ननी मॅ शोभा मिट्टी की भी जगती है,<br />कभी-कभी यह धरती भी कित्नी सुन्दर लगती है!<br />जी करता है यही रहॅ ,हम फूलॉ मॅ बस जायॅ!<br /><br />रम्भा<br />दूर-दूर तक फैल रही दूबॉ की हरियाली है,<br />बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है.<br />जी करता है, इन शीतल बून्दॉ मॅ खूब नहायॅ.<br /><br />मेनका<br />आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी है,<br />लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी है.<br />जी करता है,फूलॉ को प्राणॉ का गीत सुनायॅ.<br /><br />समवेत गान<br />हम गीतॉ के प्राण सघन,<br />छूम छनन छन, छूम छनन.<br />बजा व्योम वीणा के तार,<br />भरती हम नीली झंकार,<br />सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन.<br />छूम छनन छन, छूम छनन.<br />सपनॉ की सुषमा रंगीन,<br />कलित कल्पना पर उड्डीन,<br />हम फिरती है भुवन-भुवन<br />छूम छनन छन, छूम छनन.<br />हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,<br />भिंगो भुमि-अम्बर के छोर,<br />बरसाती फिरती रस-कन.<br />छूम छनन छन, छूम छनन.<br />----------------<br />----------------<br />रम्भा<br />बिछा हुआ है जाल रश्मि का,मही मग्न सोती है,<br />अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है.<br /><br />मेनका<br />कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन मॅ<br />उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन मॅ?<br /><br />रम्भा<br />प्रश्न उठे या नही, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है ,<br />मर्त्यलोक मरने वाला है ,पर सुरलोक अमर है.<br />अमित, स्निग्ध ,निर्धूम शिखा सी देवॉ की काया है ,<br />मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है.<br /><br />मेनका<br />पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;<br />भू को जो आनन्द सुलभ है, नही प्राप्त अम्बर को.<br />हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते है,<br />स्वाद व्यंजनॉ का न कभी रसना से ले पाते है.<br />हो जाते है तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से <br />रूप भोगते है मन से या तृष्णा भरे नयन से.<br />पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,<br />किसी अनिर्वचनीय क्षुधा मॅ जीवन पड़ जाता है,<br /><br />उस पीड़ा से बचने की तब राह नही मिलती है<br />उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है<br />किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नही है<br />रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नही है<br /><br />नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,<br />रुके गन्ध पर या बढ कर फूलॉ को गले लगाए.<br />पर, सुर बनॅ मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते है,<br />गन्धॉ की सीमा से आगे देव न जा सकते है.<br /><br />क्या है यह अमरत्व? समीरॉ-सा सौरभ पीना है,<br />मन मॅ धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है.<br />पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!<br />दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!<br />इन ज्वलंत वेगॉ के आगे मलिन शांति सारी है<br />क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है.<br /><br />सहजन्या<br />साधु ! साधु ! मेनके ! तुम्हारा भी मन कही फंसा है ?<br />मिट्टी का मोहन कोई अंतर मॅ आन बसा है?<br />तुम भी हो बन गई महीतल पर रुपसी किसी की?<br />किन्ही मर्त्य नयनॉ की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?<br />सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो <br />मर्त्यॉ की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो.<br /><br />रम्भा<br />अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई <br />आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नही क्यॉ आई?<br /><br />सहजन्या<br />वाह तुम्हे ही ज्ञात नही है कथा प्राण प्यारी की ?<br />तुम्ही नही जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की ?<br />नही जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से <br />लौत रही थी जब, इतने मॅ एक दैत्य ऊपर से<br />टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर <br />और तुरंत उड गया उर्वशी को बाहॉ मॅ लेकर.<br />--------------------------<br />---------------------------<br />रम्भा<br />बाहॉ मॅ ले उड़ा ? अरी आगे की कथा सुनाओ.<br /><br />सह्जन्या<br />यही कि हम रो उठी, “दौड़ कर कोई हमॅ बचाओ”<br /><br />रम्भा<br />तब क्या हुआ?<br /><br />सह्जन्या<br />पुकार हमारी सुनी एक राजा ने,<br />दौड़ पड़े वे सदय उर्वशी को अविलम्ब बचाने<br />और उन्ही नरवीर नृपति के पौरुष से, भुजबल से<br />मुक्त हुई उर्वशी हमारी उस दिन काल-कवल से.<br /><br />रम्भा<br />ये राजा तो बड़े वीर है.<br /><br />सह्जन्या<br />और परम सुन्दर भी.<br />ऐसा मनोमुग्धकारी तो होता नही अमर भी<br />इसीलिये तो सखी उर्वशी ,उषा नन्दनवन की<br />सुरपुर की कौमुदी, कलित कामना इन्द्र के मन की<br />सिद्ध विरागी की समाधि मॅ राग जगाने वाली<br />देवॉ के शोणित मॅ मधुमय आग लगाने वाली <br />रति की मूर्ति, रमा की प्रतिमा, तृषा विश्वमय नर की<br />विधु की प्राणेश्वरी, आरती-शिखा काम के कर की<br />जिसके चरणॉ पर चढने को विकल व्यग्र जन-जन है<br />जिस सुषमा के मदिर ध्यान मॅ मगन-मुग्ध त्रिभुवन है<br />पुरुष रत्न को देख न वह रह सकी आप अपने मॅ <br />डूब गई सुर-पुर की शोभा मिट्टी के सपने मॅ<br />प्रस्तुत है देवता जिसे सब कुछ देकर पाने को<br />स्वर्ग-कुसुम वह स्वयं विकल है वसुधा पर जाने को.<br /><br />रम्भा<br />सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?<br />निरी मानवी बनकर मिट्ती की सब व्यथा सहेगी?<br /><br />सहजन्या<br />सो जो हो. पर, प्राणॉ मॅ उसके जो प्रीत जगी है <br />अंतर की प्रत्येक शिरा मॅ ज्वाला जो सुलगी है<br />छोडेगी वह नही उर्वशी को अब देव निलय मॅ<br />ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय मॅ<br /><br />रम्भा<br />ऐसा कठिन प्रेम होता है?<br /><br />सहजन्या<br />इसमॅ क्या विस्मय है?<br />कहते है, धरती पर सब रोगॉ से कठिन प्रणय है<br />लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नही आती है <br />दिवस रुदन मॅ, रात आह भरने मॅ कट जाती है.<br />मन खोया-खोया, आंखॅ कुछ भरी-भरी रहती है<br />भींगी पुतली मॅ कोई तस्वीर खडी रह्ती है <br />सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी <br />तन से जगी, स्वप्न के कुंजॉ मॅ मन से सोई-सी<br />खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़्ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ<br />किसी ध्यान मॅ पड़ी गँवा देती घड़ियॉ पर घड़ियाँ<br />दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नही होता है <br />आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नही होता है <br />मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है<br />भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है.<br />सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी,<br />योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी.<br />वे नूपुर भी मौन पड़े है,निरानन्द सुरपुर है,<br />देव सभा मॅ लहर लास्य की अब वह नही मधुर है.<br />क्या होगा उर्वशी छोड जब हमॅ चली जायेगी?<br /><br />रम्भा<br />स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी .<br />सहजन्ये! हम परियॉ का इतना भी रोना क्या?<br />किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?<br />हम भी है मानवी कि ज्यॉ ही प्रेम उगे रुक जाये?<br />मिला जहाँ भी दान हृदय का, वही मग्न झुक जायॅ<br />प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है;<br />प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है <br />जनमी हम किसलिये? मोद सबके मन मॅ भरने को<br />किसी एक को नही मुग्ध जीवन अर्पित करने को.<br />सृष्टि हमारी नही संकुचित किसी एक आनन मॅ,<br />किसी एक के लिये सुरभि हम नही संजोती तन मॅ.<br />कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल है<br />किसी गेह का नही दीप जो ,हम वह द्युति कोमल है.<br />रचना की वेदना जगा जग मॅ उमंग भरती है, <br />कभी देवता ,कभी मनुज का आलिंगन करती है.<br />पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है,<br />गन्धॉ के जग मॅ दो प्राणॉ का निर्मुक्त रमण है.<br /><br />सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम <br />कनक-रंग मॅ नर को रंग देती अनुरागमयी हम;<br />देती मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरॉ मॅ ,<br />सुख से देती छोड़ कनक-कलशॉ को उष्ण करॉ मॅ;<br />पर यह तो रसमय विनोद है, भावॉ का खिलना है,<br />तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणॉ का मिलना है.<br /><br />रचना की वेदना जगाती, पर न स्वयं रचती हम<br />बन्ध कर कभी विविध पीड़ाऑ मॅ न कभी पचती हम.<br />हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल है<br />इच्छाऑ की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल है.<br /><br />हम तो है अप्सरा ,पवन मॅ मुक्त विहरने वाली<br />गीत-नाद ,सौरभ-सुवास से सबको भरने वाली.<br />अपना है आवास, न जानॅ, कित्नॉ की चहॉ मॅ,<br />कैसे हम बन्ध रहॅ किसी भी नर की दो बाहॉ मॅ?<br />और उर्वशी जहाँ वास करने पर आन तुली है,<br />उस धरती की व्यथा अभी तक उस पर नही खुली है.<br />-------------------------<br />------------------------<br />सहजन्या<br />कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?<br />सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर.<br /><br />रम्भा <br />सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है<br />जहाँ प्रेम की मादकता मॅ भी यातना निहित है <br />नही पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है<br />जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है.<br /><br />और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि, कहती है,<br />पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नही सहती है?<br />तन हो जाता शिथिल, दान मॅ यौवन गल जाता है<br />ममता के रस मॅ प्राणॉ का वेग पिघल जाता है.<br />रुक जाती है राह स्वप्न-जग मॅ आने-जाने की,<br />फूलॉ मॅ उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की .<br />मेघॉ मॅ कामना नही उन्मुक्त खेल करती है,<br />प्राणॉ मॅ फिर नही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है.<br /><br />रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते है,<br />पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते है.<br />अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,<br />कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?<br /><br />सह्जन्या<br />उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी ,<br />सचमुच ही, कर रही नरक मॅ जाने की तैयारी.<br />तू ने भी रम्भे! निर्घिन क्या बातॅ बतलाई है!<br />अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़्ती दिखलाई है.<br /><br />गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?<br />यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?<br />जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?<br />यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?<br />किरण्मयी यह परी करेगी यह विरुपता धारण?<br />वह भी और नही कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?<br /><br />रम्भा<br />हाँ, अब परियाँ भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,<br />और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को.<br />जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,<br />प्रथम ग्रास मॅ ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;<br />धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,<br />छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,<br />पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,<br />और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को.<br />इसी देव की बाहॉ मॅ झुलसेंगी अब परियाँ भी <br />यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी.<br />पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी मॅ हलराएँगी<br />मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी.<br />पह्नेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,<br />नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली.<br /><br />मेनका<br />पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन मॅ आती है,<br />माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?<br />गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,<br />पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?<br />युवा जननि को देख शांति कैसी मन मॅ जगती है!<br />रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,<br />जो गोदी मॅ लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो<br />अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो<br /><br />[एक अप्सरा गुनगुनाती हुई उड़्ती आ रही है]<br /> <br /><br />रम्भा<br />अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?<br />रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?<br />तुम्हॅ नही लगता क्या, जैसे इसे कही देखा है?<br /> <br />सह्जन्या<br />दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है.<br /><br />सब<br />अरी चित्रलेखे! हम सब है यहाँ कुसुम के वन मॅ;<br />जल्दी आ, सब लोग चलॅ उड़ होकर साथ गगन मॅ.<br />भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई.<br /><br />चित्रलेखा<br />रुको, रुको क्षण भर सहचरियॉ! आई, मै यह आई.<br />खेल रही हो यही अभी तक तारॉ की छाया मॅ?<br />स्वर्ग भूल ही गया तुम्हे भी मिट्टी की माया मॅ?<br /><br />[चित्रलेखा आ पहुंचती है]<br />------------------------<br />-------------------------<br />सह्जन्या<br />तेज-तेज सांसे चलती है, धड़क रही छाती है,<br />चित्रे ! तू इस तरह कहाँ से थकी-थकी आती है?<br /><br />चित्रलेखा<br />आज सांझ से सखी उर्वशी को न रंच भी कल थी<br />नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी<br />कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नही पाउँगी,<br />तो शरीर को छोड- पवन मॅ निश्चय मिल जाउँगी.”<br /><br />“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी<br />दिव मॅ रखकर मुझे नही जीवित अवलोक सकोगी.<br />भला चाह्ती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो<br />मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो.<br />नही दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय मॅ<br />बुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय मॅ.<br /><br />स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग मॅ सब सौभाग्य भरा है,<br />पर, इस महास्वर्ग मॅ मेरे हित क्या आज धरा है?<br />स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मै,<br />नही कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मै.<br />तृप्ति नही अब मुझे साँस भर-भर सौरभ पीने से<br />ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से.<br /><br />लगता है, कोई शोणित मॅ स्वर्ण तरी खेता है<br />रह-रह मुझे उठा अपनी बाहॉ मॅ भर लेता है<br />कौन देवता है, जो यॉ छिप-छिप कर खेल रहा है,<br />प्राणॉ के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?<br />जिस्का ध्यान प्राण मॅ मेरे यह प्रमोद भरता है,<br />उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है.<br /><br />यही चाह्ती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मै,<br />उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहॉ मॅ जकड़ू मै,<br />निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,<br />फूटे तन की आग और मै उसमॅ तैर नहाऊँ.<br />कहती हूँ, इसलिये चित्रलेखे! मत देर लगाओ,<br />जैसे भी हो मुझे आज प्रिय के समीप पहुंचाओ.”<br /><br />सह्जन्या<br />तो तुमने क्या किया?<br /> <br />चित्रलेखा<br />अरी, क्या और भला करती मै?<br />कैसे नही सखी के दुःसंकल्पॉ से डरती मै ?<br />आज सांझ को ही उसको फूलॉ से खूब सजाकर,<br />सुरपुर से बाहर ले आई ,सब्की आंख बचाकर,<br />उतर गई धीरे-धीरे चुपके ,फिर मर्त्य भुवन मॅ,<br />और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन मॅ<br /><br />रम्भा<br />छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?<br /><br />चित्रलेखा<br />युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए.<br />अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी<br />हमॅ देख लेती वे तो फिर बढती वृथा कहानी<br /><br />नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन मॅ आई है,<br />अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन मॅ छाई है.<br />रानी ज्यॉ ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,<br />फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन मॅ विरहिणी-वियोगी.<br /><br />रम्भा<br />अरी, एक रानी भी है राजा को?<br /><br />चित्रलेखा<br />तो क्या भय है?<br />एक घाट पर किस राजा का रहता बन्धा प्रणय है?<br />नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते है,<br />नित्य नई सुन्दरताऑ पर मरते ही रहते है.<br />सहधर्मिणी गेह मॅ आती कुल-पोषण करने को,<br />पति को नही नित्य नूतन मादकता से भरने को.<br />किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणॉ से,<br />नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणॉ से.<br />जितने भी हॉ कुसुम, कौन उर्वशी–सदृश, पर, होगा?<br />उसे छोड अन्यत्र रमॅ, दृगहीन कौन नर होगा?<br />कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?<br />एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी.<br /><br />सहजन्या<br />तब तो अपर स्वर्ग मॅ ही तू उसको धर आई है,<br />नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है.<br /><br />मेनका<br />अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु ,मेरे मन मॅ संशय है.<br />कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?<br />सखी उर्वशी की पीडा, माना तुम जान चुकी हो ;<br />चित्रे !पर, क्या इसी भांति ,नृप को पह्चान चुकी हो?<br />तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर जिसको वरने को,<br />प्रस्तुत है वह भी क्या उसका आलिंगन करने को ?<br />दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन मॅ,<br />देखा कभी धुँआ भी उसका तूने मर्त्य भुवन मॅ?<br /><br />चित्रलेखा<br />धुँआ नही, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,<br />जो अमर्त्य की आग ,मर्त्य की जलन न उससे कम है.<br />सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है<br />उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है .<br /><br />छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हॅ स्वयं निज मन से,<br />”वृथा लौत आया उस दिन उज्ज्वल मेघॉ के वन से,<br />नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न टुक लाना था,<br />मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था.<br />एक मूर्ति मॅ सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?<br />कब था ज्ञात मुझे , इतनी सुन्दर होती है नारी?<br />लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से<br />तन की रक्तिम कांति शुद्ध ,ज्यॉ धुली हुई पावक से.<br />जग भर की माधुरी अरुण अधरॉ मॅ धरी हुई सी.<br />आंखॉ मॅ वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी<br />तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाऑ की लाली-सी,<br />नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी.<br />पग पड़्ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलॉ से<br />जहाँ खड़ी हो, वही व्योम भर जाये श्वेत फूलॉ से.<br />दर्पण, जिसमॅ प्रकृति रूप अपना देखा करती है,<br />वह सौन्दर्य, कला जिस्का सपना देखा करती है.<br />नही, उर्वशी नारि नही, आभा है निखिल भुवन की;<br />रूप नही, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”<br /><br />फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे<br />अंतराग्नि मॅ पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?<br />जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?<br />कल्पलता, जानॅ, आलिंगन से कब तपन हरेगी?<br />आह! कौन मन पर यॉ मढ सोने का तार रही है?<br />मेरे चारॉ ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?<br /><br />नक्षत्रॉ के बीज प्राण के नभ मॅ बोने वाली !<br />ओ रसमयी वेदनाऑ मॅ मुझे डुबोने वाली !<br />स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!<br />किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मै निज मन की ?<br />स्यात अभी तप ही अपूर्ण है,न तो भेद अम्बर को<br />छुआ नही क्यॉ मेरी आहॉ ने तेरे अंतर को?<br />पर, मै नही निराश, सृष्टि मॅ व्याप्त एक ही मन है,<br />और शब्दगुण गगन रोकता रव का नही गमन है.<br />निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;<br />और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा.<br /><br />मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,<br />पारिजात वन के प्रसून आहॉ से कुम्हलाएँगे.<br />मेरी मर्म पुकार् मोहिनी वृथा नही जायेगी,<br />आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर मॅ वह तड़पाएगी.<br />और वही लाएगी नीचे तुझे उतार गगन से<br />या फिर देह छोड़ मै ही मिलने आऊंगा मन से.”<br /><br />सह्जन्या <br />यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !<br /><br />चित्रलेखा <br />यही समुद्वेलन नर का शोभा है रूपमती की.<br />सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है.<br />राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है.<br /><br />सह्जन्या<br />महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी<br />समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ कहानी.<br /><br />चित्रलेखा<br />कैसे समझे नही ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?<br />कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?<br />प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,<br />सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है.<br /><br />सह्जन्या<br />तब तो चन्द्रानना-चन्द्र मॅ अच्छी होड़ पड़ी है.<br /><br />मेनका<br />यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है.<br /><br />रम्भा<br />अच्छ, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर मॅ,<br />भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर मॅ.<br /><br />समवेत गान<br />बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !<br />उमड़ रही जो विभा, उसे बढ बाहॉ मॅ कस रे !<br />इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,<br />डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नही बस रे !<br />दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,<br />रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियॉ मॅ बस रे !<br /><br />[सब गाते-गाते उड़ कर आकश मॅ विलीन हो जाती है]<br /><br />प्रथम अंक समाप्तसौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-9499570932350160852011-12-18T17:10:00.001-08:002011-12-18T17:10:41.357-08:00बापू, तुम मुर्गी खाते यदिबापू, तुम मुर्गी खाते यदि<br />तो क्या भजते होते तुमको<br />ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे - ?<br />सर के बल खड़े हुए होते<br />हिंदी के इतने लेखक-कवि?<br /><br />बापू, तुम मुर्गी खाते यदि<br />तो लोकमान्य से क्या तुमने<br />लोहा भी कभी लिया होता?<br />दक्खिन में हिंदी चलवाकर<br />लखते हिंदुस्तानी की छवि,<br />बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?<br /><br />बापू, तुम मुर्गी खाते यदि<br />तो क्या अवतार हुए होते<br />कुल के कुल कायथ बनियों के?<br />दुनिया के सबसे बड़े पुरुष<br />आदम, भेड़ों के होते भी!<br />बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?<br /><br />बापू, तुम मुर्गी खाते यदि<br />तो क्या पटेल, राजन, टंडन,<br />गोपालाचारी भी भजते- ?<br /><br />भजता होता तुमको मैं औ´<br />मेरी प्यारी अल्लारक्खी !<br /><br />बापू, तुम मुर्गी खाते यदि !सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-41632345232897256842011-12-18T17:08:00.003-08:002011-12-18T17:09:12.594-08:00भिक्षुकवह आता--<br />दो टूक कलेजे के करता पछताता <br />पथ पर आता।<br /><br />पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,<br />चल रहा लकुटिया टेक,<br />मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को <br />मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--<br />दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।<br /><br />साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,<br />बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,<br />और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।<br />भूख से सूख ओठ जब जाते<br />दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--<br />घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।<br />चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,<br />और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-67248618990040351912011-12-18T17:08:00.002-08:002011-12-18T17:09:11.732-08:00भिक्षुकवह आता--<br />दो टूक कलेजे के करता पछताता <br />पथ पर आता।<br /><br />पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,<br />चल रहा लकुटिया टेक,<br />मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को <br />मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--<br />दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।<br /><br />साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,<br />बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,<br />और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।<br />भूख से सूख ओठ जब जाते<br />दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--<br />घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।<br />चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,<br />और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-87070662673619044232011-12-18T17:08:00.001-08:002011-12-18T17:08:38.093-08:00बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!<br />पूछेगा सारा गाँव, बंधु!<br /><br />यह घाट वही जिस पर हँसकर,<br />वह कभी नहाती थी धँसकर,<br />आँखें रह जाती थीं फँसकर,<br />कँपते थे दोनों पाँव बंधु!<br /><br />वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,<br />फिर भी अपने में रहती थी,<br />सबकी सुनती थी, सहती थी,<br />देती थी सबके दाँव, बंधु!सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-55624759208079090042011-12-18T17:07:00.000-08:002011-12-18T17:08:03.534-08:00वह तोड़ती पत्थरवह तोड़ती पत्थर;<br />देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-<br />वह तोड़ती पत्थर।<br /><br />कोई न छायादार<br />पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;<br />श्याम तन, भर बंधा यौवन,<br />नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,<br />गुरु हथौड़ा हाथ,<br />करती बार-बार प्रहार:-<br />सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।<br /><br />चढ़ रही थी धूप;<br />गर्मियों के दिन, <br />दिवा का तमतमाता रूप;<br />उठी झुलसाती हुई लू<br />रुई ज्यों जलती हुई भू,<br />गर्द चिनगीं छा गई,<br />प्रायः हुई दुपहर :-<br />वह तोड़ती पत्थर।<br /><br />देखते देखा मुझे तो एक बार<br />उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;<br />देखकर कोई नहीं,<br />देखा मुझे उस दृष्टि से<br />जो मार खा रोई नहीं,<br />सजा सहज सितार,<br />सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।<br /><br />एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,<br />ढुलक माथे से गिरे सीकर,<br />लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-<br />"मैं तोड़ती पत्थर।"सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-6048814069117727212011-12-18T17:06:00.001-08:002011-12-18T17:06:51.846-08:00कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होतीलहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,<br />कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।<br />नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,<br />चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।<br />मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,<br />चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।<br />आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,<br />कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।<br /><br />डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,<br />जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।<br />मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,<br />बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।<br />मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,<br />कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।<br /><br />असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,<br />क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।<br />जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,<br />संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।<br />कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,<br />कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-3904199928847417912011-12-18T17:04:00.000-08:002011-12-18T17:05:09.651-08:00कुत्ता भौंकने लगाआज ठंडक अधिक है।<br />बाहर ओले पड़ चुके हैं,<br />एक हफ़्ता पहले पाला पड़ा था--<br />अरहर कुल की कुल मर चुकी थी,<br />हवा हाड़ तक बेध जाती है,<br />गेहूँ के पेड़ ऎंठे खड़े हैं,<br />खेतीहरों में जान नहीं,<br />मन मारे दरवाज़े कौड़े ताप रहे हैं<br />एक दूसरे से गिरे गले बातें करते हुए,<br />कुहरा छाया हुआ।<br />उँपर से हवाबाज़ उड़ गया।<br />ज़मीनदार का सिपाही लट्ठ कंधे पर डाले<br />आया और लोगों की ओर देख कर कहा,<br />'डेरे पर थानेदार आए हैं;<br />डिप्टी साहब नें चंदा लगाया है,<br />एक हफ़्ते के अंदर देना है।<br />चलो, बात दे आओ।<br />कौड़े से कुछ हट कर<br />लोगों के साथ कुत्ता खेतिहर का बैठा था,<br />चलते सिपाही को देख कर खडा हुआ,<br />और भौंकने लगा,<br />करुणा से बंधु खेतिहर को देख-देख कर।सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-74165660455587124662011-12-18T17:00:00.002-08:002011-12-18T17:03:52.899-08:00राम की शक्ति पूजारवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर<br />रह गया राम-रावण का अपराजेय समर<br />आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,<br />शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,<br />प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह<br />राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,<br />विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,<br />लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,<br />राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,<br />उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,<br />अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,<br />विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,<br />रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,<br />मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,<br />वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,<br />गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,<br />उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,<br />जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।<br /><br />लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,<br />बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।<br />वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न<br />चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।<br /><br />प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल<br />लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल<br />रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,<br />श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,<br />दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल<br />फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल<br />उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार<br />चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।<br /><br />आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर<br />सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर<br />सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान<br />नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान<br />करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।<br /><br />बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल<br />ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान<br />अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान<br />वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,<br />सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,<br />पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,<br />सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,<br />यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष<br />देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।<br /><br />है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,<br />खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,<br />अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,<br />भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।<br />स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय<br />रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,<br />जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,<br />एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,<br />कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,<br />असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।<br /><br />ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत<br />जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत<br />देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन<br />विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन<br />नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-<br />पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-<br />काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-<br />गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-<br />ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-<br />जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।<br /><br />सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,<br />हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,<br />फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,<br />फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,<br />वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-<br />फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,<br />देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,<br />ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;<br />--------------------<br />फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो<br />आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,<br />ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,<br />पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;<br />लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,<br />खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;<br />फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,<br />भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।<br /><br />बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-<br />युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;<br />साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,<br />दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्<br />पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,<br />जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।<br />युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,<br />देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;<br />ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-<br />सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;<br />टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,<br />सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल<br />बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,<br />व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।<br />"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,<br />उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,<br />हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल<br />एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,<br />शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,<br />जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,<br />तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष<br />दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,<br />शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,<br />जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव<br />वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश<br />पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।<br />रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,<br />यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;<br />उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,<br />इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,<br />करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,<br />लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,<br />श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर<br />बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर<br />यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,<br />अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,<br />चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,<br />मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,<br />लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार<br />करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;<br />विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,<br />झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"<br /><br />कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय<br />सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।<br />बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल<br />तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,<br />यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।<br />यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।<br />यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,<br />पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल<br />क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,<br />क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?<br />तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,<br />क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"<br />कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,<br />उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।<br /><br />राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,<br />"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन<br />वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर<br />भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,<br />रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,<br />है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,<br />हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,<br />हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,<br />ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,<br />अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर<br />हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,<br />फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।<br />रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,<br />तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।<br />----------------------------------<br />कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,<br />तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!<br />रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,<br />जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,<br />बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,<br />कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,<br />सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक<br />मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?<br /><br />सब सभा रही निस्तब्ध<br />राम के स्तिमित नयन<br />छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,<br />जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव<br />उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,<br />ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,<br />पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।<br /><br />कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,<br />बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,<br />यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,<br />उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,<br />अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल<br />हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,<br />रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड<br />धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड<br />स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,<br />व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,<br />निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम<br />मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।<br />निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण<br />बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।<br />रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,<br />यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!<br />करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,<br />हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,<br />जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,<br />हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।<br /><br />शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,<br />जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,<br />जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,<br />वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!<br />देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,<br />लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,<br />हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,<br />निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।<br />विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,<br />झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,<br />पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,<br />फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"<br /><br />कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,<br />बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,<br />विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,<br />हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,<br />आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,<br />तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।<br />रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त<br />तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,<br />शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।<br />छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!<br />तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,<br />मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।<br />मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,<br />नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।<br />सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय<br />आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"<br /><br />खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"<br />कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।<br />हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,<br />देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।<br />कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन<br />खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,<br />बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित<br />"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;<br />हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;<br />जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!<br />यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,<br />मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"<br />------------------------------------<br />कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,<br />फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।<br />हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन<br />बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।<br />बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,<br />प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,<br />"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर<br />शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,<br />पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,<br />गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।<br /><br />दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,<br />अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,<br />लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,<br />मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"<br />फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए<br />बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,<br />"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,<br />कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,<br />जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर<br />तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"<br />अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,<br />प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।<br />राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,<br />सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।<br />निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण<br />फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।<br /><br />हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध<br />वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,<br />सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,<br />उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,<br />पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,<br />मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,<br />बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण<br />गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।<br /><br />क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,<br />चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,<br />कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,<br />निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।<br />चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,<br />प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,<br />संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,<br />जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।<br />दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,<br />अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।<br />आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर<br />कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,<br />हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,<br />हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।<br />रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार<br />प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,<br />द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर<br />हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।<br /><br />यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल<br />राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।<br />कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,<br />ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।<br />देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,<br />आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,<br />"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,<br />धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध<br />जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,<br />वह एक और मन रहा राम का जो न थका,<br />जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,<br />कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,<br />बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन<br />राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।<br /><br />"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-<br />"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।<br />दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण<br />पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"<br />-------------------------------<br />कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,<br />ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।<br />ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन<br />ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन<br />जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,<br />काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-<br />"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"<br />कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।<br />देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर<br />वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।<br />ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,<br />मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।<br />हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,<br />दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,<br />मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर<br />श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।<br /><br />"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"<br />कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।<br />-----------------------------------<br />-----------------------------------सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-56877094952688372292011-12-18T17:00:00.001-08:002011-12-18T17:00:56.370-08:00संध्या सुन्दरीदिवसावसान का समय -<br />मेघमय आसमान से उतर रही है<br />वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,<br />धीरे, धीरे, धीरे,<br />तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,<br />मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,<br />किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।<br />हँसता है तो केवल तारा एक -<br />गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,<br />हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।<br />अलसता की-सी लता,<br />किंतु कोमलता की वह कली,<br />सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,<br />छाँह सी अम्बर-पथ से चली।<br />नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,<br />नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,<br />नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,<br />सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'<br />है गूँज रहा सब कहीं -<br /><br />व्योम मंडल में, जगतीतल में -<br />सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में -<br />सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में -<br />धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में -<br />उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में -<br />क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में -<br />सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'<br />है गूँज रहा सब कहीं -<br /><br />और क्या है? कुछ नहीं।<br />मदिरा की वह नदी बहाती आती,<br />थके हुए जीवों को वह सस्नेह,<br />प्याला एक पिलाती।<br />सुलाती उन्हें अंक पर अपने,<br />दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।<br />अर्द्धरात्री की निश्चलता में हो जाती जब लीन,<br />कवि का बढ़ जाता अनुराग,<br />विरहाकुल कमनीय कंठ से,<br />आप निकल पड़ता तब एक विहाग!सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-44474926458713723852011-12-18T16:55:00.000-08:002011-12-18T16:59:14.337-08:00सरोज स्मृति- निरालासूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की पुत्री सरोज की मृत्यु 18 वर्ष की उम्र में हो गयी। सरोज स्मृति नामक इस रचना में कवि ने अपनी पुत्री की स्मृतियों को संजोया है।<br />-------------------------<br />-------------------------<br />ऊनविंश पर जो प्रथम चरण<br />तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;<br />तनये, ली कर दृक्पात तरुण<br />जनक से जन्म की विदा अरुण!<br />गीते मेरी, तज रूप-नाम<br />वर लिया अमर शाश्वत विराम<br />पूरे कर शुचितर सपर्याय<br />जीवन के अष्टादशाध्याय,<br />चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण<br />कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण<br />करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,<br />'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --<br /><br />अशब्द अधरों का सुना भाष,<br />मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश<br />मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर<br />ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।<br />जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर<br />छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर<br />तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --<br />"जब पिता करेंगे मार्ग पार<br />यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,<br />तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --<br /><br />कहता तेरा प्रयाण सविनय, --<br />कोई न था अन्य भावोदय।<br />श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार<br />शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!<br /><br />धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,<br />कुछ भी तेरे हित न कर सका!<br />जाना तो अर्थागमोपाय,<br />पर रहा सदा संकुचित-काय<br />लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर<br />हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।<br />शुचिते, पहनाकर चीनांशुक<br />रख सका न तुझे अत: दधिमुख।<br />क्षीण का न छीना कभी अन्न,<br />मैं लख न सका वे दृग विपन्न;<br />अपने आँसुओं अत: बिम्बित<br />देखे हैं अपने ही मुख-चित।<br /><br />सोचा है नत हो बार बार --<br />"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,<br />यह नहीं हार मेरी, भास्वर<br />यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --<br />अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध<br />साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,<br />हैं दिये हुए मेरे प्रमाण<br />कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान<br />------------------------------<br />पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त<br />गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। --<br />देखें वे; हसँते हुए प्रवर,<br />जो रहे देखते सदा समर,<br />एक साथ जब शत घात घूर्ण<br />आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,<br />देखता रहा मैं खडा़ अपल<br />वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल।<br />व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल<br />क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।<br />और भी फलित होगी वह छवि,<br />जागे जीवन-जीवन का रवि,<br />लेकर-कर कल तूलिका कला,<br />देखो क्या रँग भरती विमला,<br />वांछित उस किस लांछित छवि पर<br />फेरती स्नेह कूची भर।<br /><br />अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम<br />कर नहीं सका पोषण उत्तम<br />कुछ दिन को, जब तू रही साथ,<br />अपने गौरव से झुका माथ,<br />पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,<br />छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।<br />आँसुओं सजल दृष्टि की छलक<br />पूरी न हुई जो रही कलक<br /><br />प्राणों की प्राणों में दब कर<br />कहती लघु-लघु उसाँस में भर;<br />समझता हुआ मैं रहा देख,<br />हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।<br /><br />तू सवा साल की जब कोमल<br />पहचान रही ज्ञान में चपल<br />माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण<br />भरती जीवन में नव जीवन,<br />वह चरित पूर्ण कर गई चली<br />तू नानी की गोद जा पली।<br />सब किये वहीं कौतुक-विनोद<br />उस घर निशि-वासर भरे मोद;<br />खाई भाई की मार, विकल<br />रोई उत्पल-दल-दृग-छलछल,<br />चुमकारा सिर उसने निहार<br />फिर गंगा-तट-सैकत-विहार<br />करने को लेकर साथ चला,<br />तू गहकर चली हाथ चपला;<br />आँसुओं-धुला मुख हासोच्छल,<br />लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।<br />तब भी मैं इसी तरह समस्त<br />कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त<br />लिखता अबाध-गति मुक्त छंद,<br />----------------------------<br /><br />पर संपादकगण निरानंद<br />वापस कर देते पढ़ सत्त्वर<br />दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।<br />लौटी लेकर रचना उदास<br />ताकता हुआ मैं दिशाकाश<br />बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर<br />व्यतीत करता था गुन-गुन कर<br />सम्पादक के गुण; यथाभ्यास<br />पास की नोंचता हुआ घास<br />अज्ञात फेंकता इधर-उधर<br />भाव की चढी़ पूजा उन पर।<br />याद है दिवस की प्रथम धूप<br />थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप,<br />खेलती हुई तू परी चपल,<br />मैं दूरस्थित प्रवास में चल<br />दो वर्ष बाद हो कर उत्सुक<br />देखने के लिये अपने मुख<br />था गया हुआ, बैठा बाहर<br />आँगन में फाटक के भीतर,<br />मोढे़ पर, ले कुंडली हाथ<br />अपने जीवन की दीर्घ-गाथ।<br />पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह।<br />हँसता था, मन में बडी़ चाह<br />खंडित करने को भाग्य-अंक,<br />देखा भविष्य के प्रति अशंक।<br /><br />इससे पहिले आत्मीय स्वजन<br />सस्नेह कह चुके थे जीवन<br />सुखमय होगा, विवाह कर लो<br />जो पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो।<br />आये ऐसे अनेक परिणय,<br />पर विदा किया मैंने सविनय<br />सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर<br />नयनों में, पाने को उत्तर<br />अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर --<br />"मैं हूँ मंगली," मुडे़ सुनकर<br />इस बार एक आया विवाह<br />जो किसी तरह भी हतोत्साह<br />होने को न था, पडी़ अड़चन,<br />आया मन में भर आकर्षण<br />उस नयनों का, सासु ने कहा --<br />"वे बडे़ भले जन हैं भैय्या,<br />एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,<br />बोले मुझसे -- 'छब्बीस ही तो<br />वर की है उम्र, ठीक ही है,<br />लड़की भी अट्ठारह की है।'<br />फिर हाथ जोडने लगे कहा --<br />' वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,<br />हैं सुधरे हुए बडे़ सज्जन।<br />अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन।<br />हैं बडे़ नाम उनके। शिक्षित<br />लड़की भी रूपवती; समुचित<br />आपको यही होगा कि कहें<br />हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।'<br />-------------------------------<br />आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल,<br />आई पुतली तू खिल-खिल-खिल<br />हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन<br />सोचता हुआ विवाह-बन्धन।<br />कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो"<br />आई तू, दिया, कहा--"खेलो।"<br />कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश<br />सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश<br />आईं करने को बातचीत<br />जो कल होनेवाली, अजीत,<br />संकेत किया मैंने अखिन्न<br />जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न;<br />देखने लगीं वे विस्मय भर<br />तू बैठी संचित टुकडों पर।<br /><br />धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण,<br />बाल्य की केलियों का प्रांगण<br />कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर<br />आईं, लावण्य-भार थर-थर<br />काँपा कोमलता पर सस्वर<br />ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,<br />नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद<br />फूटी उषा जागरण छंद<br />काँपी भर निज आलोक-भार,<br />काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।<br />परिचय-परिचय पर खिला सकल --<br />नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल<br />क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार<br />ज्यों भोगावती उठी अपार,<br />उमड़ता उर्ध्व को कल सलील<br />जल टलमल करता नील नील,<br />पर बँधा देह के दिव्य बाँध;<br />छलकता दृगों से साध साध।<br />फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर<br />माँ की मधुरिमा व्यंजना भर<br />हर पिता कंठ की दृप्त-धार<br />उत्कलित रागिनी की बहार!<br />बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,<br />मेरे स्वर की रागिनी वह्लि<br />साकार हुई दृष्टि में सुघर,<br />समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।<br />शिक्षा के बिना बना वह स्वर<br />है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!<br />जाना बस, पिक-बालिका प्रथम<br />पल अन्य नीड़ में जब सक्षम<br />होती उड़ने को, अपना स्वर<br />भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।<br />तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,<br />जागा उर में तेरा प्रिय कवि,<br />उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज<br />तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज<br />बह चली एक अज्ञात बात<br />चूमती केश--मृदु नवल गात,<br />देखती सकल निष्पलक-नयन<br />तू, समझा मैं तेरा जीवन।<br /><br />सासु ने कहा लख एक दिवस :--<br />"भैया अब नहीं हमारा बस,<br />पालना-पोसना रहा काम,<br />देना 'सरोज' को धन्य-धाम,<br />शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,<br />है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;<br />अब कुछ दिन इसे साथ लेकर<br />अपने घर रहो, ढूंढकर वर<br />जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह<br />होंगे सहाय हम सहोत्साह।"<br /><br /><br />सुनकर, गुनकर, चुपचाप रहा,<br />कुछ भी न कहा, -- न अहो, न अहा;<br />ले चला साथ मैं तुझे कनक<br />ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक<br />अपने जीवन की, प्रभा विमल<br />ले आया निज गृह-छाया-तल।<br />सोचा मन में हत बार-बार --<br />"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,<br />खाकर पत्तल में करें छेद,<br />इनके कर कन्या, अर्थ खेद,<br />इस विषय-बेलि में विष ही फल,<br />यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।"<br />फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण<br />गुजरे जिस राह, वही शोभन<br />होगा मुझको, यह लोक-रीति<br />कर दूं पूरी, गो नहीं भीति<br />कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;<br />पर पूर्ण रूप प्राचीन भार<br />ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय<br />आयेगी मुझमें नहीं विनय<br />उतनी जो रेखा करे पार<br />सौहार्द्र-बंध की निराधार।<br />-------------------------------<br /><br />वे जो यमुना के-से कछार<br />पद फटे बिवाई के, उधार<br />खाये के मुख ज्यों पिये तेल<br />चमरौधे जूते से सकेल<br />निकले, जी लेते, घोर-गंध,<br />उन चरणों को मैं यथा अंध,<br />कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति<br />हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति।<br />ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह<br />करने की मुझको नहीं चाह!"<br />फिर आई याद -- "मुझे सज्जन<br />है मिला प्रथम ही विद्वज्जन<br />नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,<br />कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक<br />होगा कोई इंगित अदृश्य,<br />मेरे हित है हित यही स्पृश्य<br />अभिनन्दनीय।" बँध गया भाव,<br />खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव,<br />खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,<br />युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।<br />बोला मैं -- "मैं हूँ रिक्त-हस्त<br />इस समय, विवेचन में समस्त --<br />जो कुछ है मेरा अपना धन<br />पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण<br />यदि महाजनों को तो विवाह<br />कर सकता हूँ, पर नहीं चाह<br />मेरी ऐसी, दहेज देकर<br />मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर,<br />बारात बुला कर मिथ्या व्यय<br />मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय।<br />तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम<br />मैं सामाजिक योग के प्रथम,<br />लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र<br />यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र।<br />जो कुछ मेरे, वह कन्या का,<br />निश्चय समझो, कुल धन्या का।"<br /><br />आये पंडित जी, प्रजावर्ग,<br />आमन्त्रित साहित्यिक ससर्ग<br />देखा विवाह आमूल नवल,<br />तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल।<br />देखती मुझे तू हँसी मन्द,<br />होंठो में बिजली फँसी स्पन्द<br />उर में भर झूली छवि सुन्दर,<br />प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर<br />तू खुली एक उच्छवास संग,<br />विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग,<br />नत नयनों से आलोक उतर<br />काँपा अधरों पर थर-थर-थर।<br />देखा मैनें वह मूर्ति-धीति<br />मेरे वसन्त की प्रथम गीति --<br />श्रृंगार, रहा जो निराकार,<br />रस कविता में उच्छ्वसित-धार<br />गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग --<br />भरता प्राणों में राग-रंग,<br />रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,<br />आकाश बदल कर बना मही।<br />हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन<br />कोई थे नहीं, न आमन्त्रण<br />था भेजा गया, विवाह-राग<br />भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;<br />प्रिय मौन एक संगीत भरा<br />नव जीवन के स्वर पर उतरा।<br />माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,<br />पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,<br />सोचा मन में, "वह शकुन्तला,<br />पर पाठ अन्य यह अन्य कला।"<br /><br />कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद<br />बैठी नानी की स्नेह-गोद।<br />मामा-मामी का रहा प्यार,<br />भर जलद धरा को ज्यों अपार;<br />वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,<br />तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;<br />वह लता वहीं की, जहाँ कली<br />तू खिली, स्नेह से हिली, पली,<br />अंत भी उसी गोद में शरण<br />ली, मूंदे दृग वर महामरण!<br /><br />मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल<br />युग वर्ष बाद जब हुई विकल,<br />दुख ही जीवन की कथा रही,<br />क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!<br />हो इसी कर्म पर वज्रपात<br />यदि धर्म, रहे नत सदा माथ<br />इस पथ पर, मेरे कार्य सकल<br />हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!<br />कन्ये, गत कर्मों का अर्पण<br />कर, करता मैं तेरा तर्पण!<br />--------------------------------<br />--------------------------------सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-12273321209338059382011-06-30T07:35:00.000-07:002011-06-30T07:36:04.780-07:00सआदत हसन मंटो की कहानी : खोल दोअमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।<br />सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।<br />गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।<br />पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।<br />सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।"<br />सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?<br />सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?<br />सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।<br />छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।<br />रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।<br />आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।<br />एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?<br />लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।<br />आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।<br />कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।<br />एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?<br />सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।<br />शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।<br />कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना<br />डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?<br />सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।<br />डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।<br />सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है-। डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया।<br />----सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-24257906567695208072011-06-30T07:22:00.001-07:002011-06-30T07:22:28.895-07:00मंटो की कहानी "खोल दो"सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-78485085590077154522011-04-19T06:02:00.002-07:002011-04-19T06:03:41.846-07:00स्याह-सफ़ेदस्याह-सफ़ेद डालकर साए<br />मेरा रंग पूछने आए !<br /><br />मैं अपने में कोरा-सादा<br />मेरा कोई नहीं इरादा<br />ठोकर मर-मारकर तुमने<br />बंजर उर में शूल उगाए ।<br /><br />स्याह-सफ़ेद डालकर साए<br />मेरा रंग पूछने आए !<br /><br />मेरी निंदियारी आँखों का-<br />कोई स्वप्न नहीं; पाँखों का-<br />गहन गगन से रहा न नता,<br />क्यों तुमने तारे तुड़वाए ।<br /><br />स्याह-सफ़ेद डालकर साए<br />मेरा रंग पूछने आए !<br /><br />मेरी बर्फ़ीली आहों का<br />बुझी धुआँती-सी चाहों का-<br />क्या था? घर में आग लगाकर<br />तुमने बाहर दिए जलाए !<br /><br />स्याह-सफ़ेद डालकर साए<br />मेरा रंग पूछने आए !सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-78881127072079434042011-04-19T06:02:00.001-07:002011-04-19T06:02:54.356-07:00सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगासांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा ।<br />और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥<br /><br />विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर,<br />चाहती रुकना नहीं इस तीर पर,<br />भेद, यों, मालूम है पर पार का <br />धार से कटता किनारा जायेगा ।<br /><br />चाँदनी छिटके, घिरे तम-तोम या<br />श्वेत-श्याम वितान यह कोई नया ?<br />लोल लहरों से ठने न बदाबदी,<br />पवन पर जमकर विचारा जायेगा ।<br /><br />मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया <br />औ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,<br />प्राण-गान अभी चढ़े भी तो गगन <br />फिर गगन भू पर उतारा जायेगा ।सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-22741288571197862252011-04-19T06:00:00.000-07:002011-04-19T06:01:55.443-07:00रक्तमुखकुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो <br /><br />पथ निर्देशक वह है, <br /><br />लाज लजाती जिसकी कृति से <br /><br />धृति उपदेश वह है, <br /><br />मूर्त दंभ गढ़ने उठता है <br /><br />शील विनय परिभाषा, <br /><br />मृत्यू रक्तमुख से देता <br /><br />जन को जीवन की आशा, <br /><br />जनता धरती पर बैठी है <br /><br />नभ में मंच खड़ा है, <br /><br />जो जितना है दूर मही से <br /><br />उतना वही बड़ा है.सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-75754017869604821592011-04-19T05:59:00.000-07:002011-04-19T06:00:11.410-07:00रंग लगे अंगरंग लाए अंग चम्पई<br /><br /><br />नई लता के<br /><br />धड़कन बन तरु को<br /><br /><br />अपराधिन-सी ताके<br /><br />फड़क रही थी कोंपल<br />आँखुओं से ढक के<br />गुच्छे थे सोए<br /><br /><br />टहनी से दब, थक के<br /><br /><br />औचक झकझोर गया<br /><br /><br />नया था झकोरा,<br /><br />तन में भी दाग लगे<br /><br /><br /><br />मन न रहा कोरा<br /><br /><br />अनचाहा संग शिविर का,<br /><br /><br />ठंडा पा के<br /><br />वासन्ती उझक झुकी,<br /><br /><br />सिमटी सकुचा केसौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-40345285926468972052011-04-19T05:58:00.000-07:002011-04-19T05:59:06.708-07:00यह पीर पुरानी हो !यह पीर पुरानी हो !<br />मत रहो हाय, मैं, जग में मेरी एक कहानी हो ।<br /><br />मैं चलता चलूँ निरन्तर अन्तर में विश्वास भरे,<br />इन सूखी-सूखी आँखों में, तेरी ही प्यास भरे,<br />मत पहुँचु तुझ तक, पथ में मेरी चरण-निशानी हो ।<br /><br />दूँ लगा आग अपने हाँथों, मिट्टी का गेह जले,<br />पल भर प्रदीप में तेरे मेरा भी तो स्नेह जले,<br />जल जाये मेरा सत्य, अमर मेरी नादानी हो ।<br /><br />वह काम करूँ ही नहीं, न हो जिससे तेरी अर्चा,<br />वह बात सुनूँ ही नहीं, न हो जिसमें तेरी चर्चा,<br />जग उँगली उठा कहे : कोई ऐसा अभिमानी हो ।सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-51923668257174903482011-04-19T05:57:00.000-07:002011-04-19T05:58:19.092-07:00मौजसब अपनी-अपनी कहते हैं!<br /><br /><br />कोई न किसी की सुनता है,<br /><br />नाहक कोई सिर धुनता है,<br /><br />दिल बहलाने को चल फिर कर,<br /><br />फिर सब अपने में रहते हैं!<br /><br /><br />सबके सिर पर है भार प्रचुर<br /><br />सब का हारा बेचारा उर,<br /><br />सब ऊपर ही ऊपर हँसते,<br /><br />भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!<br /><br /><br />ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,<br /><br />सबके पथ में है शिला, शिला,<br /><br />ले जाती जिधर बहा धारा,<br /><br />सब उसी ओर चुप बहते हैं।सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-64209095333896463142011-04-19T05:56:00.000-07:002011-04-19T05:57:13.764-07:00मेरा नाम पुकार रहे तुममेरा नाम पुकार रहे तुम,<br />अपना नाम छिपाने को !<br /><br /><br /><br />सहज-सजा मैं साज तुम्हारा-<br /><br />दर्द बजा, जब भी झनकारा<br /><br />पुरस्कार देते हो मुझको,<br />अपना काम छिपाने का !<br /><br /><br /><br />मैं जब-जब जिस पथ पर चलता,<br /><br />दीप तुम्हारा दिखता जलता,<br /><br />मेरी राह दिखा देते तुम,<br />अपना धाम छिपाने को !सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5123262660006704777.post-13659439660433686922011-04-19T05:54:00.000-07:002011-04-19T05:56:22.344-07:00माझी, उसको मझधार न कह !रुक गयी नाव जिस ठौर स्वयं, <br />माझी, उसको मझधार न कह !<br /><br /> कायर जो बैठे आह भरे<br /> तूफानों की परवाह करे <br /><br />हाँ, तट तक जो पहुँचा न सका, <br />चाहे तू उसको ज्वार न कह !<br /><br /> कोई तम को कह भ्रम, सपना<br /> ढूँढे, आलोक-लोक अपना, <br /><br />तव सिन्धु पार जाने वाले को, <br />निष्ठुर, तू बेकार न कह !सौरभ कुणालhttp://www.blogger.com/profile/17551595320096300445noreply@blogger.com0