मंगलवार, मई 12, 2009

नज़्म उलझी हुई है सीने में

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा



बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

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