शनिवार, मई 16, 2009

इस क़दर भी उजाले न हों

इस क़दर भी उजाले न हों
घर आग के निवाले न हो।

प्यासे हलक से गुज़रे न जब तलक,
नदी समन्दर के हवाले न हों।

बोल प्यार के हों ग़ज़ल की राह में,
मस्जिद न हो और शिवाले न हों।

सूरज अबके ऐसी भी धूप न बाँटे,
कि पहाड़ पर बर्फ़ के दुशाले न हों।

खुशियों की मकड़ियों का वहाँ गुज़र नहीं,
ग़मों के जिस घर में जाले न हों।

इस हमाम में सब नंगे नज़र आएंगे।
सच की ज़बान पर जो ताले न हों।

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