मंगलवार, मई 12, 2009

शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन

शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन
दूर उस बाग में लेती है बसेरा अपना
धुन्ध के बीच थके से शहर की आँखों में
आ रही रात है अँजनाती अँधेरा अपना !



ठीक छः दिन के लगातार इन्तजार के बाद
आज ही आई है ऐ दोस्त ! तुम्हारी पाती
आज ही मैंने जलाया है दिया कमरे में
आज ही द्वार से गुज़री है वह जोगिन गाती।



व्योम पे पहला सितारा अभी ही चमका है
धूप ने फूल की अँचल अभी ही छोड़ा है
बाग में सोयी हैं मुस्काके अभी ही कलियाँ
और अभी नाव का पतवार ने रुख मोड़ा है।



आग सुलगाई है चूल्हों ने अभी ही घर-घर
आरती गूँजी है मठ मन्दिरों शिवालों में
अभी हाँ पार्क में बोले हैं एक नेता जी,
और अभी बाँटा टिकिट है सिनेमा वालों ने !



चीखती जो रही कैंची की तरह से दिन-भर
मंडियों बीच अब बढ़ने लगी हैं दूकानें
हलचलें दिन को जहाँ जुल्म से टकराती रहीं
हाट मेले में अब होने लगे हैं वीराने।



बन्द दिन भर जो रहे सूम की मुट्ठी की तरह
खुल गये मील के फाटक हैं वो काले-काले
भरती जाती है सड़क स्याह-स्याह चेहरों से
शायद इनपे भी कभी चाँदनी नजर डाले।



वह बड़ी रोड नाम जिसका है अब गांधी मार्ग
हल हुआ करते हैं होटल में जहाँ सारे सवाल
मोटरों-रिक्शों बसों से है इस तरह बोझिल
जैसे मुफलिस की गरीबी पै कि रोटी का ख़याल



और बस्ती वह मूलगंज जहां कोठों पर
रात सोने को नहीं जागने को आती है
एक ही दिन में जहाँ रूप की अनमोल कली
ब्याह भी करती है और बेवा भी हो जाती है



चमचमाती हुई पानों की दुकानों पे वहाँ
इस समय एक है मेला सा खरीदारों का
एक बस्ती है बसी यह भी राम राज्य में दोस्त
एक यह भी है चमन वोट के बीमारों का।



बिकता है रोज यहीं पर सतीत्व सीता का
और कुन्ती का भी मातृत्व यहीं रोता है
भक्ति राधा की यहीं भागवत पे हँसती है।
राष्ट्र निर्माण का अवसान यहीं होता है !



आके इस ठौर ही झुकता है शीश भारत का
जाके इस जगह सुबह राह भूल जाती है
और मिलता है यहीं अर्थ गरीबी का हमें
भूख की भी यहीं तस्वीर नज़र आती है !



सोचता हूँ क्या यही स्वप्न था आज़ादी का ?
रावी तट पे क्या क़सम हमने यह खाई थी ?
क्या इसी वास्ते तड़पी थी भगतसिंह की लाश ?
दिल्ली बापू ने गरम खून से नहलाई थी ?



अब लिखा जाता नहीं, गर्म हो गया है लहू
और कागज़ पे क़लम काँप काँप जाती है
रोशनी जितनी ही देता हूँ इन सवालों को
शाम उतनी ही और स्याह नज़र आती है



इसलिए सिर्फ रात भर के वास्ते दो विदा
कल को जागूँगा लबों पर तुम्हारा नाम लिये
वृद्ध दुनियाँ के लिये कोई नया सूर्य लिये
सूने हाथों के लिये कोई नया काम लिये !

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