रविवार, मार्च 29, 2009

यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता

शनिवार, मार्च 28, 2009

हसरत जयपुरी की ग़ज़लें

1.
एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तों
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों
बनता है मेरा काम तुम्हारे ही काम से
होता है मेरा नाम तुम्हारे ही नाम से
तुम जैसे मेहरबां का सहारा है दोस्तों
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों
जब आ पडा है कोई भी मुश्किल का रास्ता
मैंने दिया है तुम को मुहब्बत का वास्ता
हर हाल में तुम्हीं को पुकारा है दोस्तों
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों
यारों ने मेरे वास्ते क्या कुछ नहीं किया
सौ बार शुक्रिया अरे सौ बार शुक्रिया
बचपन तुम्हारे साथ गुज़ारा है दोस्तो
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों

2.
इस तरह हर ग़म भुलाया कीजिये
रोज़ मैख़ाने में आया कीजिये
छोड़ भी दीजिये तकल्लुफ़ शेख़ जी
जब भी आयें पी के जाया कीजिये
ज़िंदगी भर फिर न उतेरेगा नशा
इन शराबों में नहाया कीजिये
ऐ हसीनों ये गुज़ारिश है मेरी
अपने हाथों से पिलाया कीजिए

3.

तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।

सांसों में आज मेरे तूफान उठ रहे हैं
शहनाईयों से कह दो कहीं और जाकर गायें
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।

मतवाले चांद सूरज, तेरा उठायें डोला
तुझको खुशी की परियां घर तेरे लेके जाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।

तुम तो रहो सलामत, सेहरा तुम्हें मुबारक
मेरा हरेक आंसू देने लगा दुआएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।

4.

ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
फ़िज़ा महकी महकी हवा महकी महकी
वो आँखों में काजल वो बालों में गजरा
हथेली पे उसके हिना महकी महकी
ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी
वो क़ातिल अदा वो सबा महकी महकी
सवेरे सवेरे मेरे घर पे आई
ऐ "हसरत" वो बाद-ए-सबा महकी महकी

5.

ये किस ने कहा है मेरी तक़दीर बना दे
आ अपने ही हाथों से मिटाने के लिये आ
ऐ दोस्त मुझे गर्दिश-ए-हालात ने घेरा
तू ज़ुल्फ़ की कमली में छुपाने के लिये आ
दीवार है दुनिया इसे राहों से हटा दे
हर रस्म मुहब्बत की मिटाने के लिये आ
मतलब तेरी आमद से है दरमाँ से नहीं
"हसरत" की क़सम दिल ही दुखाने के लिये आ

6.

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल चल
हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें कब
है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल चल
प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल चल
अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत-ए-ग़ज़ल चल
पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल चल

हम रातों को उठ उठ के / हसरत जयपुरी

हम रातों को उठ-उठ के जिनके लिये रोते हैं
वो ग़ैर की बाहों में आराम से सोते हैं

हम अश्क जुदाई के गिरने ही नहीं देते
बेचैन सी पलओं में मोती से पिरोते हैं

होता चला आया है बेदर्द ज़माने में
सच्चाई की राहों में काँटे सभी बोतें हैं

अंदाज-ए-सितम उन का देखे तो कोई
मिलने को तो मिलते हैं नश्तर से चुभोते हैं

यारो मुझे मुआफ़ करो मैं नशे में हूँ / हसरत जयपुरी

यारो मुझे मु'आफ़ करो मैं नशे में हूँ
अब थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ

जो कुछ भी कह रहा हूँ नशा बोलत है ये
इसका न कुछ ख़याल करो मैं नशे में हूँ

उस मैकदे की राह मे गिर जाऊँ न कहीं
अब मेरा हाथ थाम तो लो मैं नशे में हूँ

मुझको तो अपने घर का पता याद ही नहीं
तुम मेरे आस पास रहो मैं नशे में हूँ

कैसी गुज़र रही है मुहब्बत में ज़िंदगी
कुछ अपना हाल कहो मैं नशे में हूँ

शुक्रवार, मार्च 27, 2009

इंसान इंसान की बलि मांग रहे हैं - हयात हाशमी

दिल खून है, हर आँख है नम,

देख रहे हो इस दौर का दस्तूर-ए-करम,

देख रहे हो इंसान से इंसान की बलि मांग रहे हैं

ज़हनों के तराशीदा सनम, देख रहे हो

अखबार में मिलती है सदा खून की सुर्खी

औराक़-ए-सियाह पोश का ग़म देख रहे हो

बेबस है मेरी ज़ात तो मजबूर महज़ तुम

आज़ाद ग़ुलामों के सितम देख रहे हो

इंसान के बचने की कोई राह नहीं है

हर मोड़ पे ये दैर-ओ-हरम देख रहे हो

खुद अपने लिए फ़ैसला-ए-मौत लिखा है

टूटी हुई ये नोक-ए-क़लम देख रहे हो

देखा है हयात हमने उन्हें मौत के मुँह में

तुम जिनको किताबों में रक़म देख रहे हो

मुझे देख के हँसती है दुनिया - राहत इन्दौरी

वो इक इक बात पर रोने लगा था

समन्दर आबरू खोने लगा था

लगे रहते थे सब दरवाज़े , फिर भी मैं

आँखें खोल कर सोने लगा था

चुराता हूँ अब आँखें आईनों से

खुदा का सामना होने लगा था

वो अब आईने धोता फिर रहा है

उसे चहरों पे शक होने लगा था

मुझे अब देख के हँसती है दुनिया

मैं सब के सामने रोने लगा था

दुनिया बच्चों का खिलौना है

दुनिया जिसे कहते हैं बच्चे का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है

अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

ये वक़्त जो तेरा है, ये वक़्त जो मेरा है
हर गाम पे पहरा है फिर भी इसे खोना है

ग़म हों कि खुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है, हँसना है न रोना है

आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आँगन को
आकाश की चादर है, धरती का बिछौना है

ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो

धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो।

सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई बनाकर देखो।

पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाकर देखो।

वो सितारा है चमकने दो यूँही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो।

फ़ासिला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
चाँद जब चमके ज़रा हाथ बढ़ा कर देखो।

हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं

कच्चे बखिए की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं
हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं।

यूँ हुआ दूरियाँ कम करने लगे थे दोनों
रोज़ चलने से तो रस्ते भी उखड़ जाते हैं।

छाँव में रख के ही पूजा करो ये मोम के बुत
धूप में अच्छे भले नक़्श बिगड़ जाते हैं।

भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में
बेख़्याली में कई शहर उजड़ जाते हैं।

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए

बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए

दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए

ये तो चेहरे की शबाहत हुई तक़दीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए

कोई आवाज़ तो जंगल में दिखाए रस्ता
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए

तुमने कितनी निर्दयता की !

तुमने कितनी निर्दयता की !

सम्मुख फैला कर मधु-सागर,

मानस में भर कर प्यास अमर,

मेरी इस कोमल गर्दन पर

रख पत्थर का गुरु भार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

अरमान सभी उर के कुचले,

निर्मम कर से छाले मसले,

फिर भी आँसू के घूँघट से

हँसने का ही अधिकार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

जग का कटु से कटुतम बन्धन,

बाँधा मेरा तन-मन यौवन,

फिर भी इस छोटे से मन में

निस्सीम प्यार उपहार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

कारवां गुज़र गया

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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए, छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके, मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे, वक्त से पिटेपिटे
साँस की शराब का खुमार देखते
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे, नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन नयन,
पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजान से,दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

मज़दूर / सीमाब अकबराबादी

गर्द चेहरे पर, पसीने में जबीं डूबी हई
आँसुओं मे कोहनियों तक आस्तीं डूबी हुई
पीठ पर नाक़ाबिले बरदाश्त इक बारे गिराँ
ज़ोफ़ से लरज़ी हुई सारे बदन की झुर्रियाँ
हड्डियों में तेज़ चलने से चटख़ने की सदा
दर्द में डूबी हुई मजरूह टख़ने की सदा
पाँव मिट्टी की तहों में मैल से चिकटे हुए
एक बदबूदार मैला चीथड़ा बाँधे हुए
जा रहा है जानवर की तरह घबराता हुआ
हाँपता, गिरता,लरज़ता ,ठोकरें खाता हुआ
मुज़महिल बामाँदगी से और फ़ाक़ों से निढाल
चार पैसे की तवक़्क़ोह सारे कुनबे का ख़याल
अपनी ख़िलक़त को गुनाहों की सज़ा समझे हुए
आदमी होने को लानत और बला समझे हुए
इसके दिल तक ज़िन्दगी की रोशनी जती नहीं
भूल कर भी इसके होंठों तक हसीं आती नहीं

मज़रूह: घायल ; मुज़महिल : थका हुआ ; बामाँदगी: दुर्बलता

बुधवार, मार्च 25, 2009

वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा

फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई / जिगर मुरादाबादी

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वोह ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!

कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!

तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई

सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना गए
हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी की
हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई

ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई

गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई

साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया / जिगर मुरादाबादी


साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया

लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया


बेकैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया

तौबा को तोड़-तोड़ के थर्रा के पी गया


ज़ाहिद ये मेरी शोखी-ए-रिनदाना देखना

रेहमत को बातों-बातों में बहला के पी गया


सरमस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई

दुनिया-ए-ऎतबार को ठुकरा के पी गया


आज़ुर्दगी ए खा‍तिर-ए-साक़ी को देख कर

मुझको वो शर्म आई कि शरमा के पी गया


ऎ रेहमते तमाम मेरी हर ख़ता मुआफ़

मैं इंतेहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया


पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मजाल

दरपरदा चश्म-ए-यार की शेह पा के पी गया


इस जाने मयकदा की क़सम बारहा जिगर

कुल आलम-ए-बसीत पर मैं छा के पी गया

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजिए- जिगर मुरादाबादी

इक लफ़्ज़े-मोहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है

ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है

वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है

वो हुस्न-ओ-जमाल उन का ये इश्क़-ओ-शबाब
अपना जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है

या वो थे ख़फ़ा हम से या हम थे ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है

अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है

आँखों में नमी सी है चुप-चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है

है इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर को हँस हँस के रुलाना है

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजिए
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है

आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले उम्र भर के लिए

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

दोहे

१.
छोटा कर के देखिये, जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाँहो भर संसार ।
२.
वो सूफ़ी का कौ़ल हो, या गीता का ज्ञान
जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान
३.
सात समुन्दर पार से कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फ़िर भेजे हथियार
४.
बच्चा बोला देख कर,मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान

जब किसी से कोई गिला रखना

जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना

मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना

ज़रा सा क़तरा कहीं - वसीम बरेलवी

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते

कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं

किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलती

जब आसमान से कोई फ़ैसला उतरता है

तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों

ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

उसूलों पे जहाँ आँच आये - वसीम बरेलवी

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है...
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाए
कहां से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है...
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है...
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है...
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है...
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है...