शनिवार, मार्च 13, 2010

अच्छी सूरत पे

अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
याद आता है हमें हाय! ज़माना दिल का

तुम भी मुँह चूम लो बेसाख़ता प्यार आ जाए
मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का

पूरी मेंहदी भी लगानी नहीं आती अब तक
क्योंकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का

इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह
होश आता है तो आता है सताना दिल का

मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले
उनका जाना था इलाही के ये जाना दिल का

दे ख़ुदा और जगह सीना-ओ-पहलू के सिवा
के बुरे वक़्त में होजाए ठिकाना दिल का

उंगलियाँ तार-ए-गरीबाँ में उलझ जाती हैं
सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का

बेदिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं
कर लिया तूने कहीं और ठिकाना दिल का

छोड़ कर उसको तेरी बज़्म से क्योंकर जाऊँ
एक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का

निगहा-ए-यार ने की ख़ाना ख़राबी ऎसी
न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का

बाद मुद्दत के ये ऎ दाग़ समझ में आया
वही दाना है कहा जिसने न माना दिल का

हुस्ने-सीरत पर नज़र कर

हुस्ने-सीरत पर नज़र कर, हुस्ने-सूरत को न देख।
आदमी है नाम का गर ख़ू नहीं इन्सान की॥

ध्यान आता है कि टूटा था, ग़लमफ़हमी में अहद।
यादगार इक है तो धुंधली सी मगर किस शान की॥

हिम्मते-कोताह से दिल तंगेज़िन्दाँ बन गया

हिम्मते-कोताह से दिल तंगेज़िन्दाँ बन गया।
वर्ना था घर से सिवा इस घर का हर गोशा वसीअ़॥

छोड़ दे दो गज़ ज़मीं, है दफ़्न जिसमें इक गरीब।
है तेरी मश्क़े-ख़िरामेनाज़ को दुनिया वसीअ़॥

है यह सब किस्मत की कोताही वगर्ना ‘आरज़ू’।
बढ़के दामाने-तलब से हाथ है उसका वसीअ़॥

हर दाने पै इक क़तरा, हर क़तरे पै इक दाना

हर दाने पै इक क़तरा, हर क़तरे पै इक दाना।
इस हाथ में सुमरन है, उस हाथ में पैमाना॥

कुछ तंगियेज़िन्दाँ से दिलतंग नहीं वहशी।
फिरता है निगाहों में, वीरना-ही-वीराना॥

हमारा ज़िक्र जो ज़ालिम को अंजुमन में नही

हमारा ज़िक्र जो ज़ालिम को अंजुमन में नही।
जभी तो दर्द का पहलू किसी सुख़न में नहीं॥

शहीदे-नाज़ की महशर में दे गवाही कौन?
कोई लहू का भी धब्बा मेरे कफ़न में नहीं॥

उनका नाम आया तो क्या

साथ हर हिचकी के लब पर उनका नाम आया तो क्या?
जो समझ ही में न आये वो पयाम आया तो क्या?

मय से हूँ महरूप अब भी, जो शरीके-दौर हूँ।
पाए साक़ी से जो ठोकर खाके जाम आया तो क्या?

सरूरे-शब का नहीं, सुबह का ख़ुमार हूँ मैं

सरूरे-शब का नहीं, सुबह का ख़ुमार हूँ मैं।
निकल चुकी है जो गुलशन से वो बहार हूँ मैं॥

करम पै तेरे नज़र की तो ढै गया वह गरूर।
बढ़ा था नाज़ कि हद का गुनहगार हूँ मैं॥

सबब बग़ैर था हर जब्र क़ाबिले इल्ज़ाम

सबब बग़ैर था हर जब्र क़ाबिले इल्ज़ाम।
बहाना ढूंढ लिया, देके अख्तियार मुझे॥

किया है आग लगाने को बन्द दरवाज़ा।
कि होंट सी के बनाया है राज़दार मुझे॥

रहते न तुम अलग-थलग हम न गुज़रते आप से

रहते न तुम अलग-थलग हम न गुज़रते आप से।
चुपके से कहनेवाली बात कहनी पड़ी पुकार के॥

पूछी थी छेड़कर जो बात, कहने न दी वो बात भी।
तुमने खटकती फ़ाँस को छोड़ दिया उभार के॥

यह मेरी तौबा नतीजा है बुखले-साक़ी का

यह मेरी तौबा नतीजा है बुखले-साक़ी का।
ज़रा-सी पी के कोई मुँह ख़राब क्या करता?

यही थी ज़ीस्त की लज़्ज़त यही थी इश्क़ की शान।
शिकायते-तपिशो-इज़्तराब क्या करता॥

मुझे मिटा तो दिया क़ब्ल अहदेपीरी के।
सलूक और दो रोज़ा शबाब क्या करता॥

यह बहरेइश्क का तूफ़ान और ज़रा-सा दिल।
जहाज़ उलट गये लाखों हुबाब क्या करता॥

पड़े न होते जो ग़फ़लत के ‘आरज़ू’! परदे।
खु़दा ही जाने यह जोशेशबाब क्या करता॥

मुझे रहने को वो मिला है घर

मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र।
तुम्हें ख़ाकसारों की क्या खबर, कभी नीचे उतरे हो बाम से?

जो तेरे अमल का चराग़ है, वही बेमहल है तो दाग़ है।
न जला के बैठ उसे सुबह से, न बुझा के सो उसे शाम से॥

मुझ ग़मज़दा के पास से सब रो के उठे हैं

मुझ ग़मज़दा के पास से सब रो के उठे हैं।
हाँ आप इक ऐसे हैं कि ख़ूश होके उठे हैं॥

मुँह उठके तो सब धोते हैं ऐ दीदये-खूंबाज़।
बिस्तर से हम उठे हैं तो मुँह धोके उठे हैं॥

महमाँनवाज़, वादिये-गु़रबत की ख़ाक थी

महमाँनवाज़, वादिये-गु़रबत की ख़ाक थी।
लाशा किसी ग़रीब का उरियाँ नहीं रहा॥

आँसू बना जबीं का अरक़ ज़ब्ते-अश्क़ से।
बदला भी ग़म ने भेस तो पिन्हाँ नहीं रहा॥

ज़बाँ का फ़र्क़ हक़ीक़त बदल नहीं सकता।
यह कोई बात नहीं, बुत कहा खुदा नहीं रहा॥

भले दिन आये तो आज़ार बन गया आराम

भले दिन आये तो आज़ार बन गया आराम।
क़फ़स के तिनके भी काम आ गए नशेमन के॥

मिटा के फिर तो बनाने पर अब नहीं काबू।
वो सर झुकाए खड़े है, क़रीब मदफ़न के॥

फिर ‘आरजू’ को दर से उठा, पहले यह बता

फिर ‘आरजू’ को दर से उठा, पहले यह बता।
आखिर ग़रीब जाये कहाँ और कहाँ रहे॥
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था शौके़दीद ताब-ए-आदाबे-बज़्मेनाज़।
यानी बचा-बचा के नज़र देखते रहे॥

अहले-क़फ़स का ख़ौफ़ज़दा शौक़ क्या कहूँ?
सूएचमन समेट के पर देखते रहे॥

पलक झपकी कि मंज़र खत्म था बर्क़े-तजल्ली का

पलक झपकी कि मंज़र खत्म था बर्क़े-तजल्ली का।
ज़ता सी न्यामतेदीद, उसका भी यूँ रायगाँ जाना॥

समझ ले शमा से ऐ हमनशीं! आदाबे-ग़मख्वारी।
ज़बाँ कटवानेवाले का है, मन्सब राज़दाँ होना॥

नैरंगियाँ चमन की तिलिस्मे-फ़रेब हैं

नैरंगियाँ चमन की तिलिस्मे-फ़रेब हैं।
उस जा भटक रहा हूँ जहाँ आशियाँ न था॥

पाबंदियों ने खोल दी आँखें तो समझे हम।
आकर क़फ़स में बस गए थे आशियाँ न था॥

जो दर्द मिटते-मिटते भी मुझको मिटा गया।
क्या उसका पूछना कि कहाँ था कहाँ न था॥

अब तक वो चारासाज़िए-चश्मेकरम है याद।
फाहा वहाँ लगाते थे, चरका जहाँ न था॥

नालाँ ख़ुद अपने दिल से हूँ दरबाँ को क्या कहूँ

नालाँ ख़ुद अपने दिल से हूँ दरबाँ को क्या कहूँ।
जैसे बिठाया गया है, कोई पाँव तोड़ के॥

क्या जाने टपके आँख से किस वक़्त खू़नेदिल।
आँसू गिरा रहा हूँ जगह छोड़-छोड़ के॥

नादाँ की दोस्ती में जी का ज़रर न जाना

नादाँ की दोस्ती में जी का ज़रर न जाना।
इक काम कर तो बैठे, और हाय कर न जाना॥

नादानियाँ हज़ारों, दानाई इक यही है।
दुनिया को कुछ न जाना और उम्र भर न जाना॥

नादानियों से अपनी आफ़त में फ़ँस गया हूँ।
बेदादगर को मैंने बेदादगर न जाना॥

न यह कहो "तेरी तक़दीर का हूँ मै मालिक"

न यह कहो "तेरी तक़दीर का हूँ मैं मालिक।
बनो जो चाहो ख़ुदा के लिए, ख़ुदा न बनो॥

अगर है जुर्मे-मुहब्बत तो ख़ैर यूँ ही सही।
मगर तुम्हीं कहीं इस जुर्म की सज़ा न बनो॥

मिले भी कुछ तो है बेहतर तलब से इस्तग़ना[1]।
बनो तो शाह बनो, ‘आरज़ू’! गदा[2] न बनो॥
शब्दार्थ:

↑ सन्तोष
↑ भिक्षुक

दो घडी़ को दे-दे कोई अपनी आँखों की जो नींद

दो घडी़ को दे-दे कोई अपनी आँखों की जो नींद।
पाँव फैला दूँ गली में तेरी सोने के लिए॥

मिट भी सकती थी कहीं, बेरोये छाती की जलन।
आग को पिघला लिया फाहा भिगोने के लिए॥

दिल का जिस शख़्स के पता पाया

दिल का जिस शख़्स के पता पाया।
उसको आफ़त में मुब्तला पाया॥

नफ़ा अपना हो कुच तो दो नुक़सान।
मुझको दुनिया से खो के क्या पाया॥

बेकसी में भी गुज़र ही जाएगी।
दिल को मैं और दिल मुझे समझा गया॥

तुम हो कि एक तर्ज़े-सितम पर नहीं क़रार

तुम हो कि एक तर्ज़े-सितम पर नहीं क़रार।
हम हैं कि पायेबन्द हरेक इम्तहाँ के हैं॥

हों सर्फ़ तीलियों में क़फ़स के तो ख़ौफ़ है।
तिनके जो मेरे उजड़े हुए आशियाँ के हैं॥

जो मेरी सरगुज़िश्त सुनते हैं

जो मेरी सरगुज़िश्त सुनते हैं।
सर को दो-दो पहर यह धुनते हैं॥

कै़द में माजरा-ए-तनहाई।
आप कहते हैं, आप सुनते हैं॥

झूठे वादों का भी यकीन आ जाये।
कुछ वो इन तेवरों से कहते हैं॥

जो दर्द मिटने-मिटते भी मुझको मिटा गया

जो दर्द मिटने-मिटते भी मुझको मिटा गया।
क्या उसका पूछना कि कहाँ था कहाँ न था॥

अब तक चारासाज़िये-चश्मेकरम है याद।
फाहा वहाँ लगाते थे, चरका जहाँ न था॥

जो कोई हद हो मुअ़य्यन तो शौक़, शौक़ नहीं

जो कोई हद हो मुअ़य्यन तो शौक़, शौक़ नहीं।
वो कमयाब है जो कमयाब हो न सका॥

बुरी सरिश्त न बदली जगह बदलने से।
चमन में आके भी काँटा गुलाब हो न सका॥
... .... ...

उदू न भी मगर अन्धी ज़रूर थी बिजली।
कि देखे फूल न पत्ते न आशियाँ देखा॥

जिसमें कैफ़ेग़म नहीं, बाज़ आये ऐसे दिल से हम

जिसमें कैफ़ेग़म नहीं, बाज़ आये ऐसे दिल से हम।
यह भी देना है कोई? मय तो न दी, साग़र दिया॥

‘आरज़ू’ इक रोज़ ढा देता मुझे मेरा ही ज़ोर।
यह भी उसकी कारसाज़ी दिल में जिसने डर दिया॥

एक दिल में ग़म ज़माने भर का, क्योंकर भर दिया।
ख़ूए-हमदर्दी ने कूज़े में समन्दर भर दिया॥

आँख थी साक़ी की जानिब, हाथ में जामेतिही।
मय तो किस्मत में कहाँ, अश्कों ने साग़र भर दिया॥

जादह-ओ-मंज़िल जहाँ दोनों हैं एक

जादह-ओ-मंज़िल जहाँ दोनों हैं एक।
उस जगह से मेरा सेहरा शुरू॥

वक़्त थोडा़ और यह भी तै नहीं।
किस जगह से कीजिये कि़स्सा शुरू॥

देखा ललचाई निगाहों का मआ़ल।
‘आरज़ू’ लो हो गया परदा शुरू॥

ज़माने से नाज़ अपने उठवानेवाले

ज़माने से नाज़ अपने उठवानेवाले।
मुहब्बत का बोझ आप उठाना पड़ेगा॥

सज़ा तो बजा है, यह अन्धेर कैसा?
ख़ता को भी जो ख़ुद बताना पड़ेगा॥

मुहब्बत नहीं, आग से खेलना है।
लगाना पड़ेगा, बुझाना पड़ेगा॥

जवाब देने के बदले वे शक्ल देखते हैं

जवाब देने के बदले वे शक्ल देखते हैं।
यह क्या हुआ ,मेरे चेहरे को, अर्ज़ेहाल के बाद॥

अदाशनास निगाहों ने ऐसा कुछ देखा।
जवाब की न तमन्ना रही सवाल के बाद॥

नातवां बीमारे-ग़म, उस पर थपेडे मौत के।
बुझ गया आख़िर चिरागे़-सुबह लहराने के बाद॥

खुद चले आओ या बुला भेजो

खुद चले आओ या बुला भेजो।
रात अकेले बसर नहीं होती॥

हम ख़ुदाई में हो गए रुसवा।
मगर उनको ख़बर नहीं होती॥

किसी नादाँ से जो कहो जाये।
बात वह मुख़्तसर नहीं होती॥

जब से अश्कों ने राज़ खोल दिया।
चार अपनी नज़र नहीं होती॥

आग दिल में लगी न हो जब तक।
आँख अश्कों से तर नहीं होती॥

खुदारा ! न दो बदगुमानी का मौक़ा

खुदारा ! न दो बदगुमानी का मौक़ा।
कहलवा के औरों से पैग़ाम अपना॥

हविसकार आशिक भी ऐसा है जैसे--
वह बन्दा कि रख ले ख़ुदा नाम अपना॥

क्यों किसी रहबर से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता

क्यों किसी रहबर से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता।
मौजे-दरिया खु़द लगा लेती है साहिल का पता॥

राहबर रहज़न न बन जाये कहीं, इस सोच में।
चुप खड़ा हूँ भूलकर रस्ते में मंज़िल का पता॥

क्यों उसकी यह दिलजोई दिल जिसका दुखाना है

क्यों उसकी यह दिलजोई दिल जिसका दुखाना है।
ठहरा के निशाने को क्या तीर लगाना है॥

अंदाज़े-तग़ाफ़ुल पर दिल चोट तो खा बैठा।
अब उनकी निशानी को, उनसे भी छुपाना है॥

कमताक़तिये-नालाँ अश्कों से मदद ले लें।
बेरब्त कहानी में, पेबन्द लगाना है॥

क़रीबेसुबह यह कहकर अज़ल ने आँख झपका दी

क़रीबेसुबह यह कहकर अज़ल ने आँख झपका दी।
"अरे ओ हिज्र के मारे, तुझे अब तक न ख़्वाब आया"॥

दिल उस आवाज़ के सदके़, यह मुश्किल में कहा किसने।
"न घबराना, न घबराना, मैं आया और शिताब आया॥

कोई क़त्ताल सूरत देख ली मरने लगे उस पर।
यह मौत इक ख़ुशनुमा परदे में आई या शबाब आया॥

मुअम्मा बन गया राज़ेमुहब्बत ‘आरज़ू’ यूँ ही।
वे मुझसे पूछते झिझके, मुझे कहते हिजाब आया॥

क़फ़स से ठोकरें खाती नज़र जिस नख़्ल तक पहुँची

क़फ़स से ठोकरें खाती नज़र जिस नख़्ल तक पहुँची।
उसी पर लेके इक तिनका बिनाए-आशियाँ रख दी॥

सकूनेदिल नहीं जिस वक़्त से इस बज़्म में आये।
ज़रा-सी चीज़ घबराहट में क्या जानें कहाँ रख दी॥

बुरा हो इस मुहब्बत का हुए बरबाद घर लाखों।
वहीं से आग लग उठी यह चिंगारी जहाँ रख दी॥

किया फिर तुमने रोता देख कर दीदार का वादा।
फिर एक बहते हुए पानी में बुनियादे-मकां रख दी॥

दर्देदिल ‘आरज़ू’ दरवाज़ा-ए-काबे से बहत्तर था।
यह ओ गफ़लत के मारे! तूने पेशानी कहाँ रख दी॥

उठ खडा़ हो तो बगोला है, जो बैठे तो गु़बार

उठ खडा़ हो तो बगोला है, जो बैठे तो गु़बार।
ख़ाक होकर भी वही शान है, दीवाने की॥

‘आरज़ू’! ख़त्म हक़ीक़त पै हुआ दौरे-मजाज़।
डाली काबे की बिना, आड़ से बुतख़ाने की॥

इक जाम-ए-बोसीदा हस्ती और रूह अज़ल से सौदाई

इक जाम-ए-बोसीदा हस्ती[1] और रूह अज़ल[2] से सौदाई[3]।
यह तंग लिबास न यूँ चढ़ता ख़ुद फाड़ के हमने पहना है॥

हिचकी में जो उखड़ी साँस अपनी घबरा के पुकारी याद उसकी।
"फिर जोड़ ले यह टूटा रिश्ता इक झटका और भी सहना है"॥
शब्दार्थ:

↑ शरीर रूपी गली-सड़ी पोशाक
↑ प्रारम्भ
↑ दीवानी

आफ़त में पडे़ दर्द के इज़हार से हम और

आफ़त में पडे़ दर्द के इज़हार से हम और।
याद आ गये भूले हुए कुछ उसको सितम और॥

हम ‘आरज़ू’ इस शान से पहुँचे सरेमंज़िल।
ख़ुद लग़्ज़िशेपा ले गई दो-चार क़दम और॥

आ गई मंज़िले-मुराद, बाँगेदरा को भूल जा

आ गई मंज़िले-मुराद, बाँगेदरा को भूल जा।
ज़ाते-खु़दा में यूँ हो महव, नामे-ख़ुदा को भूल जा॥

सबकी पस्न्द अलग-अलग, सबके जुदा-जुदा मज़ाक़।
जिसपै कि मर मिटा कोई, अब उस अदा को भूल जा॥

आके क़ासिद ने कहा जो, वही अकसर निकला

आके क़ासिद ने कहा जो, वही अकसर निकला।
नामाबर समझे थे हम, वह तो पयम्बर निकला॥

बाएगु़रबत कि हुई जिसके लिए खाना-खराब।
सुनके आवाज़ भी घर से न वह बाहर निकला॥

अलअमाँ मेरे ग़मकदे की शाम

अलअमाँ मेरे ग़मकदे की शाम।
सुर्ख़ शोअ़ला सियाह हो जाये॥

पाक निकले वहाँ से कौन जहाँ ।
उज़्रख़्वाही गुनाह हो जाये॥

इन्तहाये-करम वो है कि जहाँ।
बेगुनाही गुनाह हो जाये॥

अब मुझको फ़ायदा हो दवा-ओ-दुआ से क्या

अब मुझ को फ़ायदा हो दवा-ओ-दुआ से क्या?
वो मुँह पे कह गए--"यह मर्ज़ लाइलाज है"॥

इज़्ज़त कुछ और शय है, नुमाइश कुछ और चीज़।
यूँ तो यहाँ खूरोस के सर पर भी ताज है॥

समा गए मेरी नज़रों में छा गए दिल पर

समा गए मेरी नज़रों में छा गए दिल पर।
ख़याल करता हूँ, उनको कि देखता हूँ मैं॥

न कोई नाम है मेरा न कोई सूरत है।
कुछ इस तरह हमातनदीद हो गया हूं मैं॥

न कामयाब हुआ और न रह गया महरूम।
बडा़ ग़ज़ब है कि मंज़िल पै खो गया हूँ मैं॥

ये राज़ है मेरी ज़िंदगी का

ये राज़ है मेरी ज़िंदगी का
पहने हुए हूँ कफ़न खुदी का

फिर नश्तर-ए-गम से छेड़ते हैं
इक तर्ज़ है ये भी दिल दही का

ओ लफ्ज़-ओ-बयाँ में छुपाने वाले
अब क़स्द है और खामोशी का

मारना तो है इब्तदा की इक बात
जीना है कमाल मुंतही का

हाँ सीना गुलों की तरह कर चाक
दे मार के सबूत ज़िंदगी का

ये मुझ से पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है

ये मुझ से पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है
फ़ज़ा-ए-दहर में तहलियल हो गया हूँ मैं

हटाके शीशा-ओ-सागर हुज़ूम-ए-मस्ती में
तमाम अरसा-ए-आलम पे छा गया हूँ मैं

उड़ा हूँ जब तो फलक पे लिया है दम जा कर
ज़मीं को तोड़ गया हूँ जो रह गया हूँ मैं

रही है खाक के ज़र्रों में भी चमक मेरी
कभी कभी तो सितारों में मिल गया हूँ मैं

समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर
ख़याल करता हूँ उन को कि देखता हूँ मैं

ये इश्क़ ने देखा है

ये इश्क़ ने देखा है, ये अक़्ल से पिन्हाँ है
क़तरे में समन्दर है, ज़र्रे में बयाबाँ है

ऐ पैकर-ए-महबूबी मैं, किस से तुझे देखूँ
जिस ने तुझे देखा है, वो दीदा-ए-हैराँ है

सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया
जब आँख खुली देखा, अपना ही गिरेबाँ है

ये हुस्न की मौजें हैं, या जोश-ए-तमन्ना है
उस शोख़ के होंठों पर, इक बर्क़-सी लरज़ाँ है

"असग़र" से मिले लेकिन, "असग़र" को नहीं देखा
अशआर में सुनते हैं, कुछ-कुछ वो नुमायाँ है

मौजों का अक्स है, ख़त-ए-जाम-ए-शराब में

मौजों का अक्स है, ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
या ख़ून उछल रहा है, रग-ए-माहताब में

वो मौत है कि कहते हैं, जिसको सुकून सब
वो ऐन ज़िन्दगी है,जो है इज़्तराब में

दोज़ख़ भी एक जल्वा-ए-फ़िरदौस-ए-हुस्न है
जो इस से बेख़बर हैं, वही हैं अज़ाब में

उस दिन भी मेरी रूह थी, मह्व-ए-निशात-ए-दीद
मूसा उलझ गए थे, सवाल-ओ-जवाब में

मैं इज़्तराब-ए-शौक़ कहूँ या जमाल-ए-दोस्त
इक बर्क़ है जो कौंध रही है नक़ाब में

मरते-मरते न कभी आक़िलो-फ़रज़ाना बने

मरते-मरते न कभी आक़िलो-फ़रज़ाना बने।
होश रखता हो जो इन्सान तो दिवाना बने॥

परतबे-रुख़ के करिश्मे थे सरे राहगुज़र।
ज़र्रे जो ख़ाक से उट्ठे, वो सनमख़ाना बने॥

कारफ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंगे-कमाल।
चाहे वो शमअ़ बने, चाहे वो परवाना बने॥

बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ

बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ , न मस्ती है न होश
ज़र्रे सब साकित ओ सामत हैं, सितारे ख़ामोश

नज़र आती है मज़ाहिर में मेरी शक्ल मुझे
फ़ितरत-ए-आईना बदस्त और मैं हैरान-ओ-ख़ामोश

तर्जुमानी की मुझे आज इजाज़त दे दे
शजर-ए-"तूर" है साकित, लब-ए-मन्सूर ख़ामोश

बहर आवाज़ "अनल बहर" अगर दे तो बजा
पर्दा-ए-क़तरा-ए-नाचीज़ से क्यूँ है यह ख़रोश?

हस्ती-ए-ग़ालिब से गवारा-ए-फ़ितरत जुम्बां
ख़्वाब में तिफ़्लक-ए-आलम है सरासर मदहोश

पर्तव-ए-महर ही ज़ौक़-ए-राम ओ बेदारी दे
बिस्तर-ए-गुल पे है इक क़तरा-ए-शबनम मदहोश

फ़ित्ना-सामानियों की ख़ू न करे

फ़ित्ना-सामानियों[1] की ख़ू[2] न करे।
मुख़्तसर यह कि आरज़ू न करे॥

पहले हस्ती की है तलाश ज़रूर।
फिर जो गुम हो तो जुस्तजू न करे॥

मावराये-सुख़न[3] भी है कुछ बात।
बात यह है कि गुफ़्तगू न करे॥




शब्दार्थ:

↑ सांसारिक वस्तुओं
↑ इच्छा
↑ वाई का संयम

पास-ए-अदब में जोश-ए-तमन्ना लिये हुए

पास-ए-अदब में जोश-ए-तमन्ना लिये हुए
मैं भी हूँ एक हुबाब में दरिया लिये हुए

रग-रग में और कुछ न रहा जुज़ ख़याल-ए-दोस्त
उस शोख़ को हूँ आज सरापा लिये हुए

सरमाया-ए-हयात है हिर्माने-ए-आशिक़ी
है साथ एक सूरत-ए-ज़ेबा लिये हुए

जोश-ए-जुनूँ में छूट गया आस्तान-ए-यार
रोते हैं मुँह में दामन-ए-सहरा लिये हुए

"असग़र" हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी में उसकी याद
आई है इक तिलिस्मी तमन्ना लिये हुए

तर्के-मुद्दआ कर दे ऐने-मुद्दआ हो जा

तर्के-मुद्दआ[1] कर दे ऐने-मुद्दआ[2] हो जा।
शाने-अबद[3] पैदा कर मज़हरे-ख़ुदा[4] हो जा॥

उसकी राह में मिटकर, बे-नियाज़े-ख़लक़त बन।
हुस्न पर फ़िदा होकर हुस्न की अदा हो जा॥

तू है जब पयाम उसका फिर पयाम क्या तेरा।
तू है जब सदा उसकी, आप बेसदा हो जा॥

आदमी नहीं सुनता आदमी की बातों को।
पैकरे-अमल बनकर ग़ैब की सदा हो जा॥




शब्दार्थ:

↑ अभिलाषाओं का त्याग
↑ निर्मल
↑ आत्मसमर्पण करके उसके सेवक बनने का गौरव प्राप्त कर
↑ ईश्वर के प्रकट होने का स्थान

चुनिंदा शे’र

इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा
यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा।

दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥

नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ।
हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥

क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल।
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥

अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है।
मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥

मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥

खिलते ही बाग में पज़मुर्दा[1] हो चले।
जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥

बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़।
हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥

जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की।
उनसे बढ़कर कौन होगा, नुक्तादाने-इज़्तराब[2]॥

नासेह मुश्फ़िक़![3] मगर यूँ ही तड़पने दे मुझे।
मुझ को भी मालूम है, सूदो-ज़ियाने-इज़्तराब[4]॥





शब्दार्थ:

↑ कुम्हलाने लगे
↑ बेचैनी को समझनेवाला
↑ हितैशी उपदेशक
↑ बेचैनी का हानी-लाभ

चंद रुबाइयात

सारे आलम में किया तुझ को तलाश।
तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ?
खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ।
फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ?

वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये।
अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥
शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप।
इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥

मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह!
बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥
इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को।
क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥

खुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए- दीवाना बरसों से

खुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए- दीवाना बरसों से
कि उस को ढूँढते हैं काबा-ओ-बुतखाना बरसों से

तड़पना है न जलना है न जलकर ख़ाक होना है
ये क्यों सोई हुई है फ़ितरत-ए-परवाना बरसों से

कोई ऐसा नहीं यारब कि जो इस दर्द को समझे
नहीं मालूम क्यों ख़ामोश है दीवाना बरसों से

हसीनों पर न रंग आया न फूलों में बहार आई
नहीं आया जो लब पर नग़मा-ए-मस्ताना बरसों से

कभी है महवेदीद ऐसे समझ बाक़ी नहीं रहती

कभी है महवेदीद ऐसे समझ बाक़ी नहीं रहती।
कभी दीदार से महरूम है इतना समझते हैं॥

यही थोड़ी-सी मय है और यही छोटा-सा पैमाना।
इसी से रिन्द राज़े-गुम्बदे-मीना समझते हैं॥

कभी तो जुस्तजू जलवे की भी परदा बताती है।
कभी हम शौक़ में परदे को भी जलवा समझते हैं॥

यह ज़ौके़दीद की शोखी़, वो अक्से-रंगे-महबूबी।
न जलवा है न परदा, हम उसे तनहा समझते हैं॥

इक आलम-ए-हैरत है, फ़ना है न बक़ा है

इक आलम-ए-हैरत है, फ़ना है न बक़ा है
हैरत भी ये है कि, क्या जानिए क्या है

सौ बार जला है तो, ये सौ बार बना है
हम सख़्त जानों का, नशेमन भी बला है

होठों पे तबस्सुम है, कि एक बर्क़-ए-बला है
आंखों का इशारा है, कि सैलाब-ए-फ़ना है

सुनता हूँ बड़े गौर से, अफ़साना-ए-हस्ती
कुछ ख़्वाब है कुछ अस्ल है, कुछ तर्ज़-ए-अदा है

है तेरे तसव्वुर से यहाँ, नूर की बारिश
ये जान-ए-हज़ीं है कि, शबिस्तान-ए-हिरा है

अब तक न देखा है, क्या उस रुख़ेख़न्दाँ को

अब तक नहीं देखा है, क्या उस रुख़ेख़न्दाँ को।
इकतारे शुआ़ई से उलझा है जो परवाना॥

माना कि बहुत कुछ है, यह गर्मिए-हुस्ने शमअ़।
इससे भी ज़ियादा है, सोज़े-ग़मे-परवाना॥

ज़ाहिद को तआज्जुब है, सूफ़ी को तहय्युर है।
सद-रस्के-तरीक़त है, इक लग़ज़िशे-मस्ताना॥

हो न रंगीन तबीयत

हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब
आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है

निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर
गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है

हिन्द में तो मज़हबी हालत है

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई

एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई

अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई

नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई

शब्दार्थ :
नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;
रूबकारी=जान-पहचान
जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना
सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी
नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।

हास्य-रस -एक

दिल लिया है हमसे जिसने दिल्लगी के वास्ते
क्या तआज्जुब है जो तफ़रीहन हमारी जान ले




शेख़ जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया
आप बी०ए० पास हैं तो बन्दा बीवी पास है




तमाशा देखिये बिजली का मग़रिब और मशरिक़ में
कलों में है वहाँ दाख़िल, यहाँ मज़हब पे गिरती है.





तिफ़्ल में बू आए क्या माँ -बाप के अतवार की
दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की





कर दिया कर्ज़न ने ज़न मर्दों की सूरत देखिये
आबरू चेहरों की सब, फ़ैशन बना कर पोंछ ली





मग़रबी ज़ौक़ है और वज़ह की पाबन्दी भी
ऊँट पे चढ़ के थियेटर को चले हैं हज़रत





जो जिसको मुनासिब था गर्दूं ने किया पैदा
यारों के लिए ओहदे, चिड़ियों के लिए फन्दे

हास्य-रस -दो

पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
*
बोला चपरासी जो मैं पहुँचा ब-उम्मीदे-सलाम-
"फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये"
*
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
*
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
*
तंग इस दुनिया से दिल दौरे-फ़लक़ में आ गया
जिस जगह मैंने बनाया घर, सड़क में आ गया

हास्य-रस -तीन

पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता




दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए





मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"





नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है






बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया

हास्य-रस -चार

तालीम लड़कियों की ज़रूरी तो है मगर
ख़ातूने-ख़ाना हों, वे सभा की परी न हों
जो इल्मों-मुत्तकी हों, जो हों उनके मुन्तज़िम
उस्ताद अच्छे हों, मगर ‘उस्ताद जी’ न हों




तालीमे-दुख़तराँ से ये उम्मीद है ज़रूर
नाचे दुल्हन ख़ुशी से ख़ुद अपनी बारात में




हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बच्चे बापको ख़ब्ती समझते हैं




क़द्रदानों की तबीयत का अजब रंग है आज
बुलबुलों को ये हसरत, कि वो उल्लू न हुए.

हास्य-रस -पाँच

फ़िरगी से कहा, पेंशन भी ले कर बस यहाँ रहिये
कहा-जीने को आए हैं,यहाँ मरने नहीं आये





बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है, और नूर चला जाता है

काँउंसिल में सवाल होने लगे
क़ौमी ताक़त ने जब जवाब दिता




हरमसरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक ?




ख़ुदा के फ़ज़्ल से बीवी-मियाँ दोनों मुहज़्ज़ब हैं
हिजाब उनको नहीं आता इन्हें ग़ुसा नहीं आता

माल गाड़ी पे भरोशा है जिन्हें ऐ अकबर
उनको क्या ग़म है गुनाहों की गिराँबारी का?

ख़ुदा की राह में बेशर्त करते थे सफ़र पहले
मगर अब पूछते हैं रेलवे इसमें कहाँ तक है?

हास्य-रस -छ:

मय भी होटल में पियो,चन्दा भी दो मस्जिद में
शेख़ भी ख़ुश रहे, शैतान भी बेज़ार न हो





ऐश का भी ज़ौक़ दींदारी की शुहरत का भी शौक़
आप म्यूज़िक हाल में क़ुरआन गाया कीजिये





गुले तस्वीर किस ख़ूबी से गुलशन में लगाया है
मेरे सैयाद ने बुलबुल को भी उल्लू बनाया है





मछली ने ढील पाई है लुक़में पे शाद है
सैयद मुतमइन है कि काँटा निगल गई





ज़वाले क़ौम की इन्तिदा वही थी कि जब
तिजारत आपने की तर्क नौकरी कर ली

हास्य-रस -सात

क्योंकर ख़ुदा के अर्श के क़ायल हों ये अज़ीज़
जुगराफ़िये में अर्श का नक़्शा नहीं मिला





क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ





जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ




तालीम का शोर ऐसा, तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती नीयत की ख़राबी है




तुम बीवियों को मेम बनाते हो आजकल
क्या ग़म जो हम ने मेम को बीवी बना लिया?




नौकरों पर जो गुज़रती है, मुझे मालूम है
बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिये

हाले दिल सुना नहीं सकता

हाले दिल सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता

इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता

पोंछ सकता है हमनशीं आँसू
दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता

मुझको हैरत है इस कदर उस पर
इल्म उसका घटा नहीं सकता

हम कब शरीक होते हैं

हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में

मफ़्तूह हो के भूल गए शेख़ अपनी बह्स
मन्तिक़ शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है



ना-तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है



वाइज़= धर्मोपदेशक


उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है



मक़सूद= मनोरथ


वाँ दिल में कि सदमे दो या जी में के सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है



हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती हम हैं तो ख़ुदा भी है



अनवार-ए-इलाही= दैवी प्रकाश


सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहे काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है



फ़ितरत= प्रकृति

सूप का शायक़ हूँ

सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या
चाहिए कटलेट यह कीमा क्या करूँ

लैथरिज की चाहिए रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा क्या करूँ

खींचते हैं हर तरफ़ तानें हरीफ़
फिर मैं अपने सुर को धीमा क्यों करूँ

डाक्टर से दोस्ती लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान बीमा क्या करूँ

चांद में आया नज़र ग़ारे-मोहीब
हाये अब ऎ माहे-सीमा क्या करूँ

शब्दार्थ :
शायक़= शौक़ीन, चाहने वाला;
करीमा= शेख़ सादी की एक क़िताब जिसमें ईश्वर का गुणगान किया गया है।;
हरीफ़=दुश्मन या विरोधी;
ग़ारे-मोहीब=गहरी गुफ़ा;
माहे-सीमा= चन्द्रमुखी

साँस लेते हुए भी डरता हूँ

साँस लेते हुए भी डरता हूँ
ये न समझें कि आह करता हूँ



बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हुबाब
मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ



बहर-ए-हस्ती = जीवन सागर
हुबाब = बु्लबुला



इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ



शेख़ साहब खुदा से डरते हो
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ



आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ



ये बड़ा ऐब मुझ में है 'अकबर'
दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का



गर शैख़ो-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का
माबद न रहे काब-ओ-बुतख़ाना किसी का



अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चांद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का



अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का



इशरत जो नहीं आती मिरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का



करने जो नहीं देते बयाँ हालते-दिल को
सुनिएगा लबे-ग़ौर से अफ़साना किसी का



कोई न हुआ रूह का साथी दमे-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का



हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर'
जब से दिले-बेताब है दीवाना किसी का

शेर कहता है

शेर कहता है बज़्म से न टलो
दाद लो, वाह की हवा में पलो
वक़्त कहता है क़ाफ़िया है तंग
चुप रहो, भाग जाओ, साँस न लो

शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे

शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे
वह थियेटर में थिरकते ही रहे

दफ़ बजाया ही किए मज़्मूंनिगार
वह कमेटी में मटकते ही रहे

सरकशों ने ताअते-हक़ छोड़ दी
अह्ले-सजदा सर पटकते ही रहे

जो गुबारे थे वह आख़िर गिर गए
जो सितारे थे चमकते ही रहे

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा

आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा

तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा

ऎ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा के है बीमार हमारा कैसा

क्या कहा तुमने के हम जाते हैं दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा

मौत आई इश्क़ में

मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया

बाज़ारे-मग़रिबी की हवा से ख़ुदा बचाए
मैं क्या, महाजनों का दिवाला निकल गया

मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो

मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे!
बन जावो हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे!
हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!

मुझे भी दीजिए अख़बार

मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई
मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो

जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस वक़्त
यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो

गिला यह जब्र क्यों कर रहे हो ऐ ’अकबर’
सुकूत ही है मुनासिब जब अख़्तियार न हो

मुँह देखते हैं हज़रत

मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं

मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम
हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं?

अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो
वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं

मायूस कर रहा है

मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है

तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है

बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक

बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक

मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक

तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक

अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक

जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक

जनाबे हज़रते 'अकबर' हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक

शब्दार्थ :
हरम-सरा= भवन का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं;
तेग़= तलवार;
नमू=उठान;
मग़रिब=पश्चिम;
ग़ैरत= हयादारी;
हरारत= गर्मी;
अवाम= जनता;
मुसिर= ज़िद्द करना
हामिए-पर्दा= पर्दे का समर्थन करने वाला

बहार आई

बहार आई, मये-गुल्गूँ के फ़व्वारे हुए जारी
यहाँ सावन से बढ़कर साक़िया फागुन बरसता है
फ़रावानी हुई दौलत की सन्नाआने योरप में
यह अब्रे-दौरे-इंजन है कि जिससे हुन बरसता है

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी

दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी

जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी


है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी

हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी

कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी

मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार

मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार



हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है



हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल



टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर



शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है



नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज



कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही



हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं



दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया



स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें



क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा



क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया



भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई



पंव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त2 की लज़्ज़त3 नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्त4 से गुज़र जाऊँगा बेलौस5
साया हूँ फ़क़्त6, नक़्श7 बेदीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा8 हूँ इबारत9 से, दवा की नहीं हाजित10
गम़ का मुझे ये जो’फ़11 है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल12 हूँ ख़िज़ां13 ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार14 नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़15 रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत16 का तलबगार17 नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़18 की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर19 के मुक़ाबिल में भी दींदार20 नहीं हूँ


शब्दार्थ: 1. तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला; 2. ज़ीस्त= जीवन; 3. लज़्ज़त= स्वाद; 4. ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; 5. बेलौस= लांछन के बिना; 6. फ़क़्त= केवल; 7. नक़्श= चिन्ह, चित्र; 8. अफ़सुर्दा= निराश; 9. इबारत= शब्द, लेख; 10. हाजित(हाजत)= आवश्यकता; 11. जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता; 12. गुल= फूल; 13. ख़िज़ां= पतझड़; 14. ख़ार= कांटा; 15. महफ़ूज़= सुरक्षित; 16. इनायत= कृपा; 17. तलबगार= इच्छुक; 18. अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता; 19. क़ाफ़िर= नास्तिक; 20. दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला



बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला



बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार



गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला



ख्व़ाहाँ=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले;
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक



वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला



मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर



सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला



गज़ट=समाचार पत्र

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से

तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से
उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से

शेख़ नाफ़ह्म[1] हैं करते जो नहीं क़द्र[2] उसकी
दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से

मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से

कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में 'अक़बर'
इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से


शब्दार्थ:

↑ नासमझ
↑ इज़्ज़त

तहज़ीब के ख़िलाफ़ है

तहज़ीब के ख़िलाफ़ है जो लाये राह पर
अब शायरी वह है जो उभारे गुनाह पर

क्या पूछते हो मुझसे कि मैं खुश हूँ या मलूल
यह बात मुन्हसिर[1] है तुम्हारी निगाह पर

शब्दार्थ:

↑ टिकी

तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब

तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट[1] सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म[2] में बस यही दास्ताँ[3] है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ[4] है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है

शब्दार्थ:

↑ गवर्नमेन्ट
↑ सभा
↑ कथा
↑ अतिथि

जो हस्रते दिल है

जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं

यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ

मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ

ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ

अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ

दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो

जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो
हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी

जान ही लेने की हिकमत[1] में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ

ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ

मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती[2] में फँसा, जुल्फ़ का सौदा[3] न हुआ


शब्दार्थ:

↑ विधि
↑ जीवन रूपी जाल
↑ आशिक

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी

जान ही लेने की हिकमत[1] में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ

ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ

मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती[2] में फँसा, जुल्फ़ का सौदा[3] न हुआ


शब्दार्थ:

↑ विधि
↑ जीवन रूपी जाल
↑ आशिक

गाँधी तो हमारा भोला है

गाँधी तो हमारा भोला है, और शेख़ ने बदला चोला है
देखो तो ख़ुदा क्या करता है, साहब ने भी दफ़्तर खोला है
आनर की पहेली बूझी है, हर इक को तअल्ली सूझी है
जो चोकर था वह सूजी है, जो माशा था वह तोला है
यारों में रक़म अब कटती है, इस वक़्त हुकूमत बटती है
कम्पू से तो ज़ुल्मत हटती है, बे-नूर मोहल्ला-टोला है

ग़म क्या

ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ

मग़रिब ने खुर्दबीं से कमर उनकी देख ली
मशरिक की शायरी का मज़ा किरकिरा हुआ

ख़ैर उनको कुछ न आए

ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा

थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा

काम यारों का चल रहा है

ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर[1] चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

फ़ना[2] उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर[3] है वह कल, जो आज साँचे में ढल रहा है

यह देखते ही जो कासये-सर[4], गुरूरे-ग़फ़लत[5] से कल था ममलू[6]
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है

समझ हो जिसकी बलीग़[7] समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ[8] देखे
अभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ यह क़ुल्जुम[9] उबल रहा है

कहाँ का शर्क़ी[10] कहाँ का ग़र्बी[11] तमाम दुख-सुख है यह मसावी[12]
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है, वहाँ भी एक ग़म से जल रहा है

उरूजे-क़ौमी ज़वाले-क़ौमी, ख़ुदा की कुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अन्दर यह अम्र पोलिटिकल रहा है

मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पॉनियर में
फ़लक की गर्दिश[13] के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है


शब्दार्थ:

↑ चाकू, काँटा
↑ लुप्त हो जाना
↑ टूटा हुआ और बिखरा हुआ
↑ सर का प्याला
↑ अज्ञान का घमण्ड
↑ भरा हुआ
↑ अर्थपूर्ण
↑ फैला हुआ
↑ समुद्र
↑ पूर्वी
↑ पश्चिमी
↑ बराबर क़ौम का उत्थान और पतन
↑ आसमान का चक्कर या फेरा

ख़ुदा के बाब में

ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं
मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ायम न रक्खूँगा
मचेगा गुल, ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं

यह क्या हो रहा है

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है

कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है

कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है

इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है

किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा

किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा

अव्वल[1] बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा[2] की सूरत में आके मारा

आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा

ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

सोसन[3] की तरह 'अकबर', ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा

शब्दार्थ:

↑ पहले
↑ मौत
↑ एक कश्मीरी पौधा

काम कोई मुझे बाकी नहीं

काम कोई मुझे बाकी नहीं मरने के सिवा
कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा

हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल
तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा

कहाँ ले जाऊँ दिल

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है ।

इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है ।

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर,
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।

हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया,
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार[1] की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन[2] को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों[3] ने गली में यार की

लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की

शब्दार्थ:

↑ ग़ैर
↑ तसल्ली
↑ दोस्तों

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान

उससे तो इस सदी में

उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा

बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला
साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

आबे ज़मज़म से कहा मैंने

आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों
क्यों तेरी तीनत[1] में इतनी नातवानी[2] आ गई?

वह लगा कहने कि हज़रत! आप देखें तो ज़रा
बन्द था शीशी में, अब मुझमें रवानी आ गई

शब्दार्थ:

↑ नीयत
↑ अक्षमता

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे

शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं
झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे

रोज़े-रिन्दी[1] है नसीबे-दीगराँ[2]
शायरी की सिर्फ़ क़ूवत[3] है मुझे

नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं
देस ही की याद है बस गत मुझे

दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल
मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे

शब्दार्थ:

↑ शराब पीने का दिन
↑ दूसरों की क़िस्मत में
↑ ताक़त

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते



ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते



किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते



परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते



हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते



दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते



गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने'
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

अफ़्सोस है

अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है
शाख़े-गुले-तर सूख के अब टूट रही है

इस क़ौम से वह आदते-देरीनये-ताअत
बिलकुल नहीं छूटी है मगर छूट रही है