सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

जीवन साथी से

धूप में बारिश होते देख के
हैरत करने वाले
शायद तूने मेरी हँसी को
छूकर
कभी नहीं देखा

वर्किंग वूमन

सब कहते हैं
कैसे गुरुर की बात हुई है
मैं अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरे अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शिगुफ़े पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर क़र्ज़ नहीं है
मैं जब चाहूँ खिल सकती हूँ
मेरे सारा रूप मिरी अपनी दरयाफ्त है
मैं अब हर मौसम से सर ऊँचा करके मिल सकती हूँ
एक तनवर पेड़ हूँ अब मैं
और अपनी ज़रखेज़ नुमू के सारे इम्कानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी बेल
कभी-कभी जब तेज़ हवा हो
किसी बहुत मज़बूत शजर के तन से लिपटना चाहती हैं

बुलावा

मैंने सारी उम्र
किसी मंदिर में क़दम नहीं रक्खा
लेकिन जब से
तेरी दुआ में
मेरा नाम शरीक हुआ है
तेरे होंठो की जुम्बिश पर
मेरे अन्दर की दासी के उजले तन में
घंटियाँ बजती रहती हैं

गूंज

ऊँचे पहाड़ों में गुल होती पगडंडियों पर
खड़ा हुआ नन्हा चरवाहा
बकरी के बच्चे को फिसलते देख के
कुछ इस तरह हँसा है
वादी की हर दर्ज़ से झरने फूट रहे हैं

इस्म

बहुत प्यार से
बाद मुद्दत के
जब से किसी शख़्स ने चाँद कहकर बुलाया है
तब से
अंधेरों की खूगर निगाहों को
हर रोशनी अच्छी लगने लगी है

नहीं मेरा आँचल मैला है

नहीं मेरा आँचल मैला है
और तेरी दस्तार के सरे पेच अभी तक तीखे हैं
किसी हवा ने उनको अब तक छूने की जुर्रत नहीं की है
तेरी उजली परेशानी पर
गए दिनों की कोई घड़ी
पछतावा बनके नहीं फूटी
और मेरे माथे की स्याही
तुझ से आँख मिलाकर बात नहीं कर सकती
अच्छे लड़के
मुझे न ऐसे देखे
अपने सारे जुगनू सारे फूल
सँभाल के रख ले
फटे हुए आँचल से फूल गिर जाते हैं
और जुगनू
पहला मौका पाते ही उड़ जाते हैं
चाहे ओढ़नी से बाहर की धूप कितनी ही कड़ी हो

नई आँख पुराना ख़्वाब

आतिशदान के पास
गुलाबी हिद्दत के होले में सिमटकर
तुमसे बातें करते हुए
कभी कभी तो ऐसा लगा है
जैसे ओस में भीगी घास पे
उसके बाजू थामे हुए
मैं फिर नींद में चलने लगी हूँ

एक मुश्किल

टाट के परदों के पीछे से
एक तरह बारह-तेरह साला चेहरा झाँका
वो चेहरा
बहार के फूल की तरह शफ़्फ़ाफ़
लेकिन उसके हाथ में
तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं
और उन लकीरों में
बर्तन मांझने वाली राख जमी थी
उसके हाथ
उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे

ऐ रे पेड़ तेरे कितने पात

ऐ रे पेड़ तेरे कितने पात
इतने
जितने गगन में तारे
या जितने वन में फूल
जितनी सागर की लहरें
जितनी मेरी माँग में धूल
तेरी सुंदर हरियाली का और न छोर कोई
जग की धूप तेरी छाया से छोटी है
मैं तेरे साए में जैसे जैसे सिमटती जाऊँ
अपने दुखते माथे जलती आत्मा पर से शबनम चुनती जाऊँ
ऐ रे पेड़ तेरे कितने हात

तू है राधा अपने कृष्ण की

तू है राधा अपने कृष्ण की
तिरा कोई भी होता नाम
मुरली तिरे भीतर बजती
किस वन करती विश्राम
या कोई सिंहासन विराजती
तुझे खोज ही लेते श्याम
जिस संग भी फेरे डालती
संजोग में थे घनश्याम
क्या मोल तू मन का माँगती
बिकना था तुझे बेदाम
बंसी की मधुर तानों से
बसना था ये सूना धाम
तिरा रंग भी कौन सा अपना
मोहन का भी एक ही काम
गिरधर आके भी गए और
मन माला है वही नाम
जोगन का पता भी क्या हो
कब सुबह हुई कब शाम

निकनेम

तुम मुझको गुड़िया कहते हो
ठीक ही कहते हो
खेलने वाले हाथों को मैं गुड़िया ही लगती हूँ
जो पहना दो मुझ पे सजेगा
मेरा कोई रंग नहीं
जिस बच्चे के हाथ थमा दो
मेरे किसी से जंग नहीं
सोचती जागती आँखें मेरी
जब चाहे बीनाई ले लो
कूक भरो और बातें सुन लो
या मेरी गोयाई ले लो
मांग भरो सिन्दूर लगाओ
प्यार करो आँखों में बसाओ
और फिर जब दिल भर जाए तो
दिल से उठा के ताक़ पे रख दो
तुम मुझको गुड़िया कहते हो
ठीक ही कहते हो

चीड़ के मग़रूर पेड़

चीड़ के मग़रूर पेड़
जिनकी आँखें
अपनी क़ामत के नशे में सिर्फ़ ऊपर देखती हैं
अपनी गर्दन के तनाव को कभी तो कम करें
और नीचे देखें
वो घने बादल जो उनके पाँव को छूकर गुज़र जाते हैं
जिनको चूम सकते हैं
वो पौधे
प्यार के इस वालिहाना लम्स से कैसे निखर आए

सुबह

सुबह ए विसाल की पौ फटती है
चारों ओर
मदमाती भोर की नीली हुई ठंडक फैल रही है
शगुन का पहला परिंदा
मुंडेर पर आकर
अभी-अभी बैठा है
सब्ज़ किवाड़ों के पीछे एक सुर्ख़ कली मुस्काई
पाज़ेबों की गूंज फज़ा में लहराई
कच्चे रंगों की साड़ी में
गीले बाल छुपाए गोरी
घर सा सारा बाजरा आँगन में ले आई

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की

हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया

हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उसने भी भूल जाने का वादा नहीं किया

दुःख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम
मलाबूसे-दिल को तन का लाबादा नहीं किया

जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उसका ख़ुद
सर-ज़ेर-बारे-सागरो-बादा नहीं किया

कारे-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उसने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया

आमद पे तेरे इतरो-चरागो-सुबू न हो
इतना भी बूदो-बाश तो सादा नहीं किया

सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ

सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ



भोर समय तक जिसने हमें बाहम उलझाये रखा
वो अलबेली रेशम जैसी बात गुज़र गई जानाँ



सदा की देखी रात हमें इस बार मिली तो चुप के से
ख़ाली हाथ पे रख के क्या सौग़ात गुज़र गई जानाँ



किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सर-सब्ज़ हो तुम
अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गई जानाँ



लोग न जाने किन रातों की मुरादें माँगा करते हैं
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानाँ

सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक

सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक



बाज़ूओं के सख्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिल्वटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ



गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़ छाड़



सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक



शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी एक सदा



काँपते होंठों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ एक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जायें ठहर जायें ज़रा

शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले

शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले



रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले



वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले



इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले



धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले

वो तो ख़ुशबू है

वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा



हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा



वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा



वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा



आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा

वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी

वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
जो तेरे बगैर कट रही थी

उसको जब पहली बार देखा
मैं तो हैरान रह गयी थी

वो चश्म थी सहरकार बेहद
और मुझपे तिलस्म कर रही थी

लौटा है वो पिछले मौसमों को
मुझमें किसी रंग की कमी थी

सहरा की तरह थीं ख़ुश्क आंखें
बारिश कहीं दिल में हो रही थी

आंसू मेरे चूमता था कोई
दुख का हासिल यही घड़ी थी

सुनती हूं कि मेरे तज़किरे पर
हल्की-सी उस आंख में नमी थी

ग़ुरबत के बहुत कड़े दिनों में
उस दिल ने मुझे पनाह दी थी

सब गिर्द थे उसके और हमने
बस दूर से इक निगाह की थी

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था

और चांद तुलूअ हो रहा था

ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी

ख़ुशबू सांसों में घुल रही थी

आई थी मैं अपने पी से मिलने

जैसे कोई गुल हवा में खिलने

इक उम्र के बाद हंसी थी

ख़ुद पर कितनी तवज्ज: दी थी


पहना गहरा बसंती जोड़ा

और इत्रे-सुहाग में बसाया

आइने में ख़ुद को फिर कई बार

उसकी नज़रों से मैंने देखा

संदल से चमक रहा था माथा

चंदन से बदन दमक रहा था

होंठों पर बहुत शरीर लाली

गालों पे गुलाल खेलता था

बालों में पिरोए इतने मोती

तारों का गुमान हो रहा था

अफ़्शां की लकीर मांग में थी

काजल आंखों में हंस रहा था

कानों में मचल रही थी बाली

बाहों में लिपट रहा था गजरा

और सारे बदन से फूटता था

उसके लिए गीत जो लिखा था

हाथों में लिए दिये की थाली

उसके क़दमों में जाके बैठी

आई थी कि आरती उतारूं

सारे जीवन को दान कर दूं


देखा मेरे देवता ने मुझको

बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया

फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ

रखा भी तो इक दिया उठाया

और मेरी तमाम ज़िन्दगी से

मांगी भी तो इक शाम मांगी

रुकने का समय गुज़र गया है

रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है



रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है



मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है



बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है



बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है

आसमान का वह हिस्सा

आसमान का वह हिस्सा

जिसे हम अपने घर की खिड़की से देखते हैं

कितना दिलकश होता है

ज़िन्दगी पर यह खिड़की भर तसर्रूफ़

अपने अंदर कैसी विलायत रखता है

इसका अंदाज़ा

तुझसे बढ़कर किसे होगा

जिसके सर पर सारी ज़िन्दगी छत नहीं पड़ी

जिसने बारिश सदा अपने हाथों पर रोकी

और धूप में कभी दीवार उधार नहीं मांगी

और बर्फ़ों में

बस इक अलाव रौशन रखा

अपने दिल का

और कैसा दिल

जिसने एक बार किसी से मौहब्बत की

और फिर किसी और जानिब भूले से नहीं देखा

मिट्टी से इक अह्द किया

और आतिशो-आबो-बाद का चेहरा भूल गया

एक अकेले ख़्वाब की ख़ातिर

सारी उम्र की नींदें गिरवी रख दी हैं

धरती से इक वादा किया

और हस्ती भूल गया

अर्ज़्रे वतन की खोज में ऎसे निकला

दिल की बस्ती भूल गया

और उस भूल पे

सारे ख़ज़ानों जैसे हाफ़िज़े वारे

ऎसी बेघरी, इस बेचादरी के आगे

सारे जग की मिल्कियत भी थोड़ी है

आसमान की नीलाहट भी मैली है

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से



बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे



इस बार जो इंधन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से



मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से



ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से



बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से



पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से



निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से

मंज़र है वही ठठक रही हूँ

मंज़र है वही ठठक रही हूँ
हैरत से पलक झपक रही हूँ



ये तू है के मेरा वहम है
बंद आँखों से तुझ को तक रही हूँ



जैसे के कभी न था तार्रुफ़
यूँ मिलते हुए झिझक रही हूँ



पहचान मैं तेरी रोशनी हूँ
और तेरी पलक पलक रही हूँ



क्या चैन मिला है सर जो उस के
शानों पे रखे सिसक रही हूँ



इक उम्र हुई है ख़ुद से लड़ते
अंदर से तमाम थक रही हूँ

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !

उसे बुला जिसकी चाहत में

तेरा तन-मन भीगा है

प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !

और जब इस बारिश के बाद

हिज्र की पहली धूप खिलेगी

तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये



बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये



जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये



लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये



सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये



जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये



साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो



खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो



उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो



अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो



दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो



रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना



यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना



किस शबाहत को लिये आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना



आईने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिये
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना

बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर

बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को हैफिर

हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया
सरें-मिज़गां गुलाब आने को है फिर

अचानक रेत सोना बन गयी है
कहीं आगे सुराब आने को है फिर

ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर

बशारत दे कोई तो आसमाँ से
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर

दरीचे मैंने भी वा कर लिये हैं
कहीं वो माहताब आने को है फिर

जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़ हो इज़ाफ़ी
मुहब्बत में वो बाब आने को है फिर

घरों पर जब्रिया होगी सफ़ेदी
कोई इज़्ज़्त-म-आब आने को है फिर

पा-बा-गिल सब हें

पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शह'र में खोले मेरी ज़जीर कौन



मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
कर रहा है मेरे फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन



मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
बे-रिदा'ई को मेरी फिर दे गया तश-हीर कौन



नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन



रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
फिर लब-ए-साहिल घरोंदा कर गया तामीर कौन



सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
शह'र से जाते हु'ए होता है दामन-गीर कौन



दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी अज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझपे पेहला तीर कौन

दुआ

चांदनी

उस दरीचे को छूकर

मेरे नीम रोशन झरोखे में आए, न आए,

मगर

मेरी पलकों की तकदीर से नींद चुनती रहे

और उस आँख के ख़्वाब बुनती रहे।

दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना

दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
मुस्कुराते हुए रुखसत करना



अच्छी आँखें जो मिली हैं उसको
कुछ तो लाजिम हुआ वहशत करना



जुर्म किसका था, सज़ा किसको मिली
अब किसी से ना मोहब्बत करना



घर का दरवाज़ा खुला रखा है
वक़्त मिल जाये तो ज़ह्मत करना

दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना

दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना



वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुरसत
उस से क्या कहिये जो हर रोज़ कहे कल मिलना



इश्क़ की राह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम
दश्त-ए-उम्मीद में अन्देशे का बादल मिलना



दामने-शब को अगर चाक भी कर लें तो कहाँ
नूर में डूबा हुआ सुबह का आँचल मिलना

दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी

दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
सिलवटें रोशनी में उभरेंगी



घर की दीवारें मेरे जाने पर
अपनी तन्हाइयों को सोचेंगी



उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उस का नाम लिखेंगी



रंग-ओ-बू से कहीं पनाह नहीं
ख़्वाहिशें भी कहाँ अमाँ देंगी



एक ख़ुश्बू से बच भी जाऊँ अगर
दूसरी निकहतें जकड़ लेंगी



खिड़कियों पर दबीज़ पर्दे हों
बारिशें फिर भी दस्तकें देंगी

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है



शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है



दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है



ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है



उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का एहवाल कहा करती है



बेनियाज़-ए-काफ़-ए-दरिया अन्गुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है



शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है



मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अन करती है



दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है



अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है



मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है

तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ

तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ

बचपने का साथ, फिर एक से दोनों के दुख
रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ-साथ

वो अज़ब दुनिया कि सब खंज़र-ब-कफ़ फिरते हैं और
काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ

बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूँ, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ

लड़कियों के दुख अज़ब होते हैं, सुख उससे अज़ीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ

बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
ज़िस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ

मैं कहां पर हूं ?

तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहां पर हूं ?


हवाए-सुबह में

या शाम के पहले सितारे में

झिझकती बूंदा-बांदी में

कि बेहद तेज़ बारिश में

रुपहली चांदनी में

या कि फिर तपती दुपहरी में

बहुत गहरे ख़यालों में

कि बेहद सरसरी धुन में


तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहां पर हूं ?


हुजूमे-कार से घबरा के

साहिल के किनारे पर

किसी वीक-येण्ड का वक़्फ़ा

कि सिगरेट के तसलसुल में

तुम्हारी उंगलियों के बीच

आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत

कि जामे-सुर्ख़ में

यकसर तही

और फिर से

भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा

कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने

और दूसरा आग़ाज़ होने के

कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत ?


तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहां पर हूं ?

तुझसे तो कोई गिला नहीं है

तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है

बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है

जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है

जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है

ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है

सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है

इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा




इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश

फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा




यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं

जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा




काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली

तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा




किस तर्ह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर

वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या

टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या

बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या


तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो

कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या


औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ

मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या


अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़

सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या


ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू

तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या


तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए

तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या ।

जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे

जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे



रास्तों का इल्म था हम को न सिम्तों की ख़बर
शहर-ए-नामालूम की चाहत मगर करते रहे



हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की ख़बर दर-ओ-दिवार करते रहे



वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे



आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल
जिन को तेरे ज़ौम में बे-बाल-ओ-पर करते रहे

छोटी नज़्म

मौसम


चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है


फ़ोन


मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी


बारिश


बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।

रविवार, फ़रवरी 21, 2010

चेहरा मेरा था निगाहें उस की

चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामुशी में भी वो बातें उस की



मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की



शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की



ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की



ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की



फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की



नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की



दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की

चिड़िया

सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया !

तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में

पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है

तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ

सोच रही हूँ

सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं ?

गोदें फूलों वाली

आँखें फिर भी ख़ाली ।

चारासाजों की अज़ीयत

चारासाजों की अज़ीयत नहीं देखी जाती
तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती

देने वाले की मशीय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
मांगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती

दिल बहल जाता है लेकिन तेरे दीवानों की
शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती

तमकनत से तुझे रुख़सत तो किया है लेकिन
हमसे उन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती

कौन उतरा है आफ़ाक़ की पिनाहाई में
आईनेख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती

गुमान

मैं कच्ची नींद में हूँ
और अपने नीमख़्वाबिदा तनफ़्फ़ुस में उतरती
चाँदनी की चाप सुनती हूँ
गुमाँ है
आज भी शायद
मेरे माथे पे तेरे लब
सितारे सबात करते हैं

खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता

खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता



कोई ज़ंज़ीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता



बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि ठकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता



ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता



हुआ है सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ, देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता



मेरी शोलामिज़ाजी को वो जन्गल कैसे रास आये
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता

खुली आँखों में सपना जागता है

खुली आँखों में सपना जागता है
वो सोया है के कुछ कुछ जागता है



तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा तन मोर बन के नाचता है



मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है



किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है



सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा
के मेरे घर का कच्चा रास्ता है

ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये

ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वजूद के अंदर उतर न जाये



ख़ुद फूल ने भी होंठ किये अपने नीम-वा
चोरी तमाम रंग की तितली के सर न जाये



इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाये



पलकों को उसकी अपने दुपट्टे से पोंछ दूँ
कल के सफ़र में आज की गर्द-ए-सफ़र न जाये



मैं किस के हाथ भेजूँ उसे आज की दुआ
क़ासिद हवा सितारा कोई उस के घर न जाये

कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की

कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की



कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की



वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की



तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की



उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की

कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये

कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये



हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये



क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिये



सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये



जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिये



तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये

कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी

कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी



बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी



सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी



दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी



उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी



मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी



शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी



उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी

कुछ ख़बर लायी तो है बादे-बहारी उसकी

कुछ ख़बर लायी तो है बादे-बहारी उसकी
शायद इस राह से गुज़रेगी सवारी उसकी

मेरा चेहरा है फ़क़त उसकी नज़र से रौशन
और बाक़ी जो है मज़मून-निगारी उसकी

आंख उठा कर जो रवादार न था देखने का
वही दिल करता है अब मिन्नतो-ज़ारी उसकी

रात में आंख में हैं हल्के गुलाबी डोरे
नींद से पलकें हुई जाती हैं भारी उसकी

उसके दरबार में हाज़िर हुआ यह दिल और फिर
देखने वाली थी कुछ कारगुज़ारी उसकी

आज तो उस पे ठहरती ही न थी आंख ज़रा
उसके जाते ही नज़र मैंने उतारी उसकी

अर्सा-ए-ख़्वाब में रहना है कि लौट आना है
फ़ैसला करने की इस बार है बारी उसकी

कायनात के ख़ालिक़ !

कायनात के ख़ालिक़ !

देख तो मेरा चेहरा

आज मेरे होठों पर

कैसी मुस्कुराहट है

आज मेरी आँखों में

कैसी जगमगाहट है

मेरी मुस्कुराहट से

तुझको याद क्या आया

मेरी भीगी आँखों में

तुझको कुछ नज़र आया

इस हसीन लम्हे को

तू तो जानता होगा

इस समय की अज़मत को

तू तो मानता होगा

हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है

हाँ, कि आज मैंने भी

ज़िन्दगी जनम दी है !

करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये

करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
वो मेरे दिल पे नया ज़ख़्म लगाने आये



मेरे वीरान दरीचों में भी ख़ुश्बू जागे
वो मेरे घर के दर-ओ-बाम सजाने आये



उससे इक बार तो रूठूँ मैं उसी की मानिन्द
और मेरी तरह से वो मुझ को मनाने आये



इसी कूचे में कई उस के शनासा भी तो हैं
वो किसी और से मिलने के बहाने आये



अब न पूछूँगी मैं खोये हुए ख़्वाबों का पता
वो अगर आये तो कुछ भी न बताने आये



ज़ब्त की शहर-पनाहों की मेरे मालिक ख़ैर
ग़म का सैलाब अगर मुझ को बहाने आये

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी

सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी

बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी

वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी

वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी

बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी

अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी

जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी

सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी

कच्चा-सा इक मकां, कहीं आबादियों से दूर

कच्चा-सा इक मकां, कहीं आबादियों से दूर

छोटा-सा इक हुजरा, फ़राज़े-मकान पर

सब्ज़े से झांकती हुई खपरैल वाली छत

दीवारे-चोब पर कोई मौसम की सब्ज़ बेल

उतरी हुई पहाड़ पर बरसात की वह रात

कमरे में लालटेन की हल्की-सी रौशनी

वादी में घूमता हुआ इक चश्मे-शरीर

खिड़की को चूमता हुआ बारिश का जलतरंग

सांसों में गूंजता हुआ इक अनकही का भेद !

एक पैग़ाम

वही मौसम है

बारिश की हंसी

पेड़ों में छन छन गूंजती है

हरी शाख़ें

सुनहरे फूल के ज़ेवर पहन कर

तसव्वुर में किसी के मुस्कराती हैं

हवा की ओढ़नी का रंग फिर हल्का गुलाबी है

शनासा बाग़ को जाता हुआ ख़ुश्बू भरा रस्ता

हमारी राह तकता है

तुलूए-माह की साअत

हमारी मुंतज़िर है

एक दफ़नाई हुई आवाज़

फूलों और किताबों से आरास्ता घर है

तन की हर आसाइश देने वाला साथी

आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला बच्चा

लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंगमहल में

जहां कहीं जाती हूं

बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई

एक आवाज़ बराबर गिरय: करती है

मुझे निकालो !

मुझे निकालो !

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे

गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे

मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे

तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे

बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे

उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे

तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे

उस वक़्त

जब आंख में शाम उतरे

पलकों पे शफ़क फूले

काजल की तरह मेरी

आंखों को धनक छू ले

उस वक़्त कोई उसको

आंखों से मेरी देखे

पलकों से मेरी चूमे

उसने फूल भेजे हैं

उसने फूल भेजे हैं

फिर मेरी अयादत को

एक-एक पत्ती में

उन लबों की नरमी है

उन जमील हाथों की

ख़ुशगवार हिद्दत है

उन लतीफ़ सांसों की

दिलनवाज़ ख़ुशबू है


दिल में फूल खिलते हैं

रुह में चिराग़ां है

ज़िन्दगी मुअत्तर है


फिर भी दिल यह कहता है

बात कुछ बना लेना

वक़्त के खज़ाने से

एक पल चुरा लेना

काश! वो खुद आ जाता

अजनबी!

अजनबी!

कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो

और दर्द हद से गुज़र जाए

आंखें तेरी

बात-बेबात रो रो पड़ें

तब कोई अजनबी

तेरी तन्हाई के चांद का नर्म हाला बने

तेरी क़ामत का साया बने

तेरे ज़्ख़्मों पे मरहम रखे

तेरी पलकों से शबनम चुने

तेरे दुख का मसीहा बने

रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है

रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है

और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है

सोच रही हूं

उनको थामूं

ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं

या अपने कमरे में ठहरूं

चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है

इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है

इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है
चली चलूँ कि जहाँ तक ये साथ रहता है



ज़मीन-ए-दिल यूँ ही शादाब तो नहीं ऐ दोस्त
क़रीब में कोई दरिया ज़रूर बहता है



न जाने कौन सा फ़िक़्रा कहाँ रक़्म हो जाये
दिलों का हाल भी अब कौन किस से कहता है



मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है

अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए

अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए

मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए

दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए

बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए

शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है कि दरख्तों को चढ़ जाए

हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए

अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए

अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ

अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ
एक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या-क्या देखूँ

नींद आ जाये तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ
आँख खुल जाये तो तन्हाई की सहरा देखूँ

शाम भी हो गई धुँधला गई आँखें भी मेरी
भूलनेवाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ

सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ
एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ

मुझ पे छा जाये वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह
अंग-अंग अपना उसी रुत में महकता देखूँ

तू मेरी तरह से यक्ता है मगर मेरे हबीब
जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ

मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस एक बार
ख़्वाब बन कर तेरी आँखों में उतरता देखूँ

तू मेरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात
जाने क्यों तेरे लिये दिल को धड़कता देखूँ

अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात अब के बार रही

अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नज़रों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं

सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ़सराने-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तक़ल्लुफ़न मेरे नज़दीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया


कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने न हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुज़रता है तेरा जान-ए-हयात ?

पहर दिन की अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त-रवी का तुझे भी शिकवा है
ग़म-ए-फ़िराक़ के क़िस्से निशात-ए-वस्ल का ज़िक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते

अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ, बिखरने से न रोके कोई

अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई

काँप उठती हूँ मैं सोच कर तन्हाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम न पढ़ ले कोई

जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई

कैसा सबात है कि रवानी भी साथ है

कैसा सबात है कि रवानी भी साथ है
वापस हैं और नाव में पानी भी साथ है

आसेब कौन सा है तआकुब में शहर के
घर बन रहे हैं नक्ल ए मकानी भी साथ है

यूँ ही नहीं बहार का झोंका भला लगा
ताज़ा हवा के याद पुरानी भी साथ है

हर किस्सागो ने दीदा-ए-बेख्वाब से कहा
इक नींद लाने वाली कहानी भी साथ है

हिज़्रत का एतबार कहाँ हो सके कि जब
छोड़ी हुई जगह की निशानी भी साथ है

मौजें बहम हुई तो किनारा नहीं रहा

मौजें बहम हुई तो किनारा नहीं रहा
आँखों में कोई ख़्वाब दुबारा नहीं रहा

घर बच गया की दूर थे साइका-मिज़ाज
कुछ आसमान का भी इशारा नहीं रहा

भूला है कौन एड़ लगाकर हयात को
रुकना ही रख्श ए जाँ को गंवारा नहीं रहा

जब तक वो बेनिशान रहा दस्तरस में था
खुशनाम हो गया तो हमारा नहीं रहा

गुमगश्ता ए सफ़र को जब अपनी ख़बर मिली
रस्ता दिखाने वाला सितारा नहीं रहा

कैसी घड़ी में तर्क ए सफ़र का ख़्याल है
जब हम में लौट आने का यारा नहीं रहा

शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे

शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे
कोई तो हो जो मेरी जड़ों को पानी दे

अपने सारे मंज़र मुझसे ले ले और
मालिक मेरी आँखों को हैरानी दे

उसकी सरगोशी में भीगती जाए रात
क़तरा-क़तरा तन को नई कहानी दे

उसके नाम पे खुले दरीचे के नीचे
कैसी प्यारी ख़ुशबू रात की रानी दे

बात तो तब है मेरे हर्फ़ में गूँज के साथ
कोई उस लहजे को बात पुरानी दे

शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे

शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे
कोई तो हो जो मेरी जड़ों को पानी दे

अपने सारे मंज़र मुझसे ले ले और
मालिक मेरी आँखों को हैरानी दे

उसकी सरगोशी में भीगती जाए रात
क़तरा-क़तरा तन को नई कहानी दे

उसके नाम पे खुले दरीचे के नीचे
कैसी प्यारी ख़ुशबू रात की रानी दे

बात तो तब है मेरे हर्फ़ में गूँज के साथ
कोई उस लहजे को बात पुरानी दे

चारागर हार गया हो जैसे

चारागर हार गया हो जैसे
अब तो मरना ही दवा हो जैसे

मुझसे बिछड़ा था वो पहले भी मगर
अब के ये ज़ख्म नया हो जैसे

मेरे माथे पे तेरे प्यार का हाथ
रूह पर दस्त ए सबा हो जैसे

यूँ बहुत हंस के मिला था लेकिन
दिल ही दिल में वो ख़फ़ा हो जैसे

सर छुपाएँ तो बदन खुलता है
ज़ीस्त मुफ़लिस की रिदा हो जैसे

पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन

पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन

मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले
कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन

आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी-पहचानी-सी है
आज मेरे नाम लेता है मिरी ताज़ीर कौन

कोई मक़तल को गया था मुद्दतों पहले मगर
है दरे-ख़ेमा पे अब तक सूरते-तस्वीर कौन

मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तशहीर कौन

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समुन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना

यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उससे मगर
जाते जाते उसका वो मुड़कर दुबारा देखना

किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद
ए शब्-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना

क्या क़यामत है कि जिनके नाम पर पसपा हुए
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़आरा देखना

क़दमों में भी थकान थी घर भी करीब था

क़दमों में भी थकान थी घर भी करीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था

निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए
इस शहर-ए-बे-चिराग़ में किसका नसीब था

आंधी ने उन रुतों को भी बेताज कर दिया
जिनका कभी हुमा-सा परिंदा नसीब था

कुछ अपने आप से ही उसे कशमकश न था
मुझमें भी कोई शख्स उसी का रक़ीब था

पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया
अपनी निगाह में कोई कितना गरीब था

मक़तल से आनेवाली हवा को भी कब मिला
ऐसा कोई दरीचा कि जो बेसलीब था

राग-ओ-पै में कोई लज़्ज़त अज़ब थी

गज़ाल-ए-शौक़ की वहशत अज़ब थी
किसी खुशचश्म से निस्बत अज़ब थी

हुजूम-ए-चश्म-ओ-रुखसार-ओ-दहन में
जो तन्हा कर गई सूरत अज़ब थी

वो तरदीद-ए-वफ़ा तो कर रहा था
मगर उस शख्स की हालत अज़ब थी

मिरी तक़दीर की नैरागियों में
मिरी तदबीर की शिरकत अज़ब थी

सर-ए-मक़तल किसी के पैरहन में
गुलाबी रंग की हिद्दत अज़ब थी

बदन का पहले-पहले आज चखना
राग-ओ-पै में कोई लज़्ज़त अज़ब थी

घर की याद है और दरपेश सफ़र भी है

घर की याद है और दरपेश सफ़र भी है
चौथी सिम्त निकल जाने का डर भी है

लम्हा ए रुखसत के गूंगे सन्नाटे की
एक गवाह तो उसकी चश्म-ए-तर भी है

इश्क को खुद दरयुजागरी मंज़ूर नहीं
माँगने पर आये तो कासा-ए-सर भी है

नए सफ़र पे चलते हुए ये ध्यान रहे
रस्ते में दीवार से पहले दर भी है

बहुत से नामों को अपने सीने में छुपाए
जली हुई बस्ती में एक शज़र भी है

आँखों में थकन धनक बदन पर

आँखों में थकन धनक बदन पर
जैसे शब-ए-अव्वली दुल्हन पर

दस्तक है हवा-ए-शब के तन पर
खुलता है नया दरीचा फ़न पर

रंगों की जमील बारिशों में
उतरी है बहार फूल-बन पर

थामे हुए हाथ रोशनी का
रख आई क़दम ज़मीं गगन पर

शबनम के लबों पे नाचती है
छाया है अजब नशा किरनपर

खुलती नहीं बर्ग-ओ-गुल की आँखें
जादू कोई कर गया चमन पर

ख़ामोशी कलाम कर रही है
जज़्बात की मुहर है सुख़न पर

क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी

क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी

जिसके माथे पे मिरे बख्त का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी

मैंने हाथों को ही पतवार बनाई वर्ना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी

वो कहानी कि सभी सुईयां निकली भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहजादी के अंजाम की थी

ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी

बोझ उठाये हुए फिरती है हमारा अब तक
ए ज़मीं माँ तेरी ये उम्र तो आराम की थी

टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या

टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या

तुम मौज-मौज मिसल-ए-सबा घूमते फिरो
कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या

औरों के हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या

अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या गरज़
सीपी में बन न पाए गुहर , तुमको इससे क्या

तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा दिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या

जाने कब तक रहे ये तरतीब

जाने कब तक रहे ये तरतीब
दो सितारे खिले क़रीब क़रीब

चाँद की रोशनी से उसने लिखी
मेरे माथे पे एक बात अजीब

मैं हमेशा से उसके सामने थी
उसने देखा नहीं तो मेरा नसीब

रूह तक जिसकी आँच आती है
कौन ये शोला-रु है दिल के क़रीब

चाँद के पास क्या खिला तारा
बन गया सारा आसमान रक़ीब

सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई

सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
मिरे वजूद पर तिरी गवाही और हो गई

रफुगरान ए शहर भी कमाल लोग थे मगर
सितारा साज़ हाथ में क़बा ही और हो गई

बहुत से लोग शाम तक किवाड़ खोलकर रहे
फ़कीर-ए-शहर की मगर सदा ही और हो गई

अँधेरे में थे जब तलक ज़माना साज़गार था
चिराग क्या जला दिया हवा ही और हो गई

बहुत संभल के चलने वाली थी पर अब के बार तो
वो गुल खिले कि शोखी-ए-सबा ही और हो गई

न जाने दुश्मनों की कौन बात याद आ गई
लबों तक आते-आते बद्दुआ ही और हो गई

ये मेरे हाथ की लकीरें खिल रहीं थीं या कि खुद
शगुन की रात खुशबु-ए-हिना ही और हो गई

ज़रा सी कर्गसों को आब-ओ-दाना की जो शह मिली
उक़ाब से ख़िताब की अदा ही और हो गई

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक़ हो गए

बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में
कितने बलंद-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए

जुगनू को दिन के वक़्त परखने की जिद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए

लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए

साहिल पे जितने आब गज़ीदा थे सब के सब
दरिया का रुख बदलते ही तैराक हो गए

सूरज दिमाग लोग भी इब्लाग-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब्-ए-फिराक के पेचाक हो गए

जब भी गरीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहज़े हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए

पानियों पानियों जब चाँद का हाला उतरा

पानियों पानियों जब चाँद का हाला उतरा
नींद की झील पे एक ख़्वाब पुराना उतरा

आज़माइश में कहाँ इश्क भी पूरा उतरा
हुस्न के आगे तो तक़दीर का लिक्खा उतरा

धूप ढलने लगी दीवार से साया उतरा
सतह हमवार हुई प्यार का दरिया उतरा

याद से नाम मिटा ज़ेहन से चेहरा उतरा
चाँद लम्हों में नज़र से तिरी क्या क्या उतरा

आज की शब् मैं परीशां हूँ तो यूँ लगता है
आज माहताब का चेहरा भी है उतरा उतरा

मेरी वहशत रम-ए-आहू से कहीं बढ़कर थी
जब मेरी ज़ात में तन्हाई का सहरा उतरा

इक शब्-ए-गम के अँधेरे पे नहीं है मौकूफ
तूने जो ज़ख्म लगाया है वो गहरा उतरा

ज़मीन से रह गया दूर आसमान कितना

ज़मीन से रह गया दूर आसमान कितना
सितारा अपने सफ़र में है खुश गुमान कितना

परिंदा पैकाँ ब दोश परवाज़ कर रहा है
रहा है उसको ख़्याल ए सय्यादगान कितना

हवा का रुख देख कर समंदर से पूछना है
उठायें अब कश्तियों पे हम बादबान कितना

बहार में खुशबुओं का नाम ओ नसब था जिससे
वही शजर आज हो गया बेनिशान कितना

गिरे अगर आइना तो इक ख़ास ज़ाविये से
वर्ना हर अक्स को रहे खुद पे मान कितना

बिना किसी आस के उसी तरह जी रहा है
बिछड़ने वालों में था कोई सख्तजान कितना

वो लोग क्या चल सकेंगे जो उँगलियों पे सोचें
सफ़र में है धूप किस क़दर सायबान कितना

उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे

उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा भरा देखे

गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद सा देखे

मिरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे

तिरे सिवा भी कई रंग खुश नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे

बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे

उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाक़त जो
जब आँखें खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे

तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे

खुली आँखों में सपना झाँकता है

खुली आँखों में सपना झाँकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है

मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है

मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे तेरी रिज़ा से माँगता है

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है

किसी की खोज में फिर खो गया कौन

किसी की खोज में फिर खो गया कौन
गली में रोते-रोते सो गया कौन

बड़ी मुद्दत से तन्हा थे मिरे दुःख
ख़ुदाया मेरे आँसू रो गया कौन

जला आई थी मैं तो आस्तीं तक
लहू से मेरा दामन धो गया कौन

जिधर देखूँ खड़ी है फ़स्ल-ए-गिरिया
मिरे शहरों में आँसू बो गया कौन

अभी तक भाईयों में दुश्मनी थी
ये माँ के ख़ूँ का प्यासा हो गया कौन

शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे

वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे

जो मुँह से बोलेगा उसका ‘निदान’ कर देंगे




वे आस्था के सवालों को यूं उठायेंगे

खुदा के नाम तुम्हारा मकान कर देंगे




तुम्हारी ‘चुप’ को समर्थन का नाम दे देंगे

बयान अपना, तुम्हारा बयान कर देंगे




तुम उन पे रोक लगाओगे किस तरीके से

वे अपने ‘बाज’ की ‘बुलबुल’ में जान कर देंगे




कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक

तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे




वे शेखचिल्ली की शैली में, एक ही पल में

निरस्त अच्छा-भला ‘संविधान’ कर देंगे




तुम्हें पिलायेंगे कुछ इस तरह धरम-घुट्टी

वे चार दिन में तुम्हें ‘बुद्धिमान’ कर देंगे

फूल के बाद फलना ज़रूरी लगा

फूल के बाद फलना ज़रूरी लगा,
भूमिकाएँ बदलना ज़रूरी लगा।


दर्द ढलता रहा आँसुओं में मगर

दर्द शब्दों में ढलना ज़रूरी लगा।

'कूपमंडूक' छवि को नमस्कार कर,
घर से बाहर निकलना ज़रूरी लगा।


अपने द्वंद्वों से दो-चार होते हुए,

हिम की भट्टी में जलना ज़रूरी लगा।

मोमबत्ती से उजियारे की चाह में,
मोम बन कर पिघलना ज़रूरी लगा।


उनके पैरों से चलकर न मंज़िल मिली,

अपने पाँवों पे चलना ज़रूरी लगा।

आदमीयत की रक्षा के परिप्रेक्ष्य में
विश्व-युद्धों का टलना ज़रूरी लगा।

मुस्कुराना भी एक चुम्बक है

मुस्कुराना भी एक चुम्बक है,
मुस्कुराओ, अगर तुम्हें शक है!


उसको छू कर कभी नहीं देखा,

उससे सम्बन्ध बोलने तक है।

डाक्टर की सलाह से लेना,
ये दवा भी ज़हर-सी घातक है।


दिन में सौ बार खनखनाती है

एक बच्चे की बंद गुल्लक है।

उससे उड़ने की बात मत करना,
वो जो पिंजरे में अज बंधक है।


हक्का-बक्का है बेवफ़ा पत्नी,

पति का घर लौटना अचानक है!

'स्वाद' को पूछना है 'बंदर' से,
जिसके हाथ और मुँह में अदरक है।

गगन तक मार करना आ गया है

गगन तक मार करना आ गया है,
समय पर वार करना आ गया है ।



उन्हें......कविता में बौनी वेदना को,
कुतुब-मीनार करना आ गया है !



धुएँ की स्याह चादर चीरते ही,
घुटन को पार करना आ गया है ।



अनैतिक व्यक्ति के अन्याय का अब,
हमें प्रतिकार करना आ गया है ।



खुले बाजार में विष बेचने को,
कपट व्यवहार करना आ गया है ।



हम अब जितने भी सपने देखते हैं,
उन्हें साकार करना आ गया है ।



शिला छूते ही, नारी बन गई जो,
उसे अभिसार करना आ गया है

मुस्कानों की सेल लगी है चेहरों पर

चित्रलिखित मुस्कान सजी है चेहरों पर,
मुस्कानों की सेल लगी है चेहरों पर ।



शहरों में, चेहरों पर भाव नहीं मिलते,
भाव-हीनता ही पसरी है चेहरों पर ।



लोग दूसरों की तुक-तान नहीं सुनते,
अपना राग, अपनी डफली है चेहरों पर ।



दोस्त ठहाकों की भाषा ही भूल गए,
एक खोखली हँसी लदी है चेहरों पर ।



लोगों ने जो भाव छिपाए थे मन में,
उन सब भावों की चुगली है चेहरों पर ।



मीठे पानी वाली नदियाँ सूख गई,
खारे पानी की नद्दी है चेहरों पर ।



एक गैर-मौखिक भाषा है बहुत मुखर,
शब्दों की भाषा गूँगी है चेहरों पर ।

सपने अनेक थे तो मिले स्वप्न-फल अनेक

सपने अनेक थे तो मिले स्वप्न-फल अनेक,
राजा अनेक, वैसे ही उनके महल अनेक।



यूँ तो समय-समुद्र में पल यानी एक बूंद,
दिन, माह, साल रचते रहे मिलके पल अनेक।



जो लोग थे जटिल, वो गए हैं जटिल के पास
मिल ही गए सरल को हमेशा सरल अनेक।



झगडे हैं नायिका को रिझाने की होड के,
नायक के आसपास ही रहते हैं खल अनेक।



बिखरे तो मिल न पाएगी सत्ता की सुन्दरी,
संयुक्त रहके करते रहे राज दल अनेक।



लगता था-इससे आगे कोई रास्ता नहीं,
कोशिश के बाद निकले अनायास हल अनेक।



लाखों में कोई एक ही चमका है सूर्य-सा
कहने को कहने वाले मिलेंगे ग़ज़ल अनेक।

आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला

आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला,
रोने के बाद भी, मेरी आँखों में जल मिला।



उपयोग के लिए उन्हें झुग्गी भी चाहिए,
झुग्गी के आसपास ही उनका महल मिला।



आश्वस्त हो गए थे वो सपने को देख कर,
सपने से ठीक उल्टा मगर स्वप्न-फल मिला।



इक्कीसवीं सदी में ये लगता नहीं अजीब,
नायक की भूमिका में लगातार खल मिला।



पूछा गया था प्रश्न पहेली की शक्ल म,
लेकिन, कठिन सवाल का उत्तर सरल मिला।



उसको भी कैद कर न सकी कैमरे की आँख,
जीवन में चैन का जो हमें एक पल मिला।



ऐसे भी दृश्य देखने पडते हैं आजकल,
कीचड की कालिमा में नहाता कमल मिला।

दबंगों की अनैतिकता अलग है

दबंगों की अनैतिकता अलग है,
उन्हें अन्याय की सुविधा, अलग है।



डराते ही नहीं अपराध उनको,
महल का गुप्त दरवाजा अलग है।



जिसे तुम व्यक्त कर पाए न अब तक,
वो दोनों ओर की दुविधा अलग है।



पतंगें कब लगीं आजाद पंछी,
पतंगों की तरह उडना अलग है।



जिसे महसूस करता हूँ मैं अक्सर,
तुम्हारी देह की दुनिया अलग है।



है स्वाभाविक किसी दुश्मन की चिन्ता,
निजी परछाईं से डरना अलग है।



वो चाहे छन्द हो या छन्द-हीना,
हमारे दौर की कविता अलग है।

उन्हें देखा गया खिलते कमल तक

उन्हें देखा गया खिलते कमल तक,
कोई झाँका नहीं झीलों के तल तक।



तो परसों, फिर न उसकी राह तकना,
जो भूला आज का, लौटा न कल तक।



न जाने, कब समन्दर आ गए हैं,
हमारी अश्रु-धाराओं के जल तक।



सियासत में उन्हीं की पूछ है अब,
नहीं सीमित रहे जो एक दल तक।



यही तो टीस है मन में लता के,
हुई पुष्पित, मगर, पहुँची न फल तक।


हजारों कलयुगी शंकर हैं ऐसे-
पचाना जानते हैं जो गरल तक।



जो बारम्बार विश्लेषण करेगा,
पहुँच ही जाएगा वो ठोस हल तक।

हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं

हमारे भय पे पाबंदी लगाते हैं
अंधेरे में भी जुगनू मुस्कुराते हैं



बहुत कम लोग कर पाते हैं ये साहस
चतुर चेहरों को आईना दिखाते हैं



जो उड़ना चाहते हैं उड़ नहीं पाते
वो जी भर कर पतंगों को उड़ाते हैं



नहीं माना निकष हमने उन्हें अब तक
मगर वो रोज़ हमको आज़माते हैं



उन्हें भी नाच कर दिखलाना पड़ता है
जो दुनिया भर के लोगों को नचाते हैं



बहुत से पट कभी खुलते नहीं देखे
यूँ उनको लोग अक्सर खटखटाते हैं



हमें वो नींद में सोने नहीं देते
हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं

सब की आँखों में नीर छोड़ गए

सब की आँखों में नीर छोड़ गए
जाने वाले शरीर छोड़ गए



राह भी याद रख नहीं पाई
क्या कहाँ राहगीर छोड़ गए



लग रहे हैं सही निशाने पर
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए



हीर का शील भंग होते ही
रांझे अस्मत पे चीर छोड़ गए



एक रुपया दिया था दाता ने
सौ दुआएं फ़क़ीर छोड़ गए



उस पे क़बज़ा है काले नागों का
दान जो दान-वीर छोड़ गए



हम विरासत न रख सके क़ायम
जो विरासत कबीर छोड़ गए

घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए

घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए



अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए



मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए



धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए



होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए



इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए



बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.

अँधेरे की सुरंगों से निकल कर

अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
गए सब रोशनी की ओर चलकर



खड़े थे व्यस्त अपनी बतकही में
तो खींचा ध्यान बच्चे ने मचलकर



जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया था
सदन में आ गए कपड़े बदलकर



अधर से हो गई मुस्कान ग़ायब
दिखाना चाहते हैं फूल—फलकर



लगा पानी के छींटे से ही अंकुश
निरंकुश दूध हो बैठा, उबलकर



कली के प्यार में मर—मिटने वाले
कली को फेंक देते हैं मसलकर



घुसे जो लोग काजल—कोठरी में
उन्हें चलना पड़ा बेहद सँभलकर

बहुत कम लोग घर को फूँक कर घर से निकलते हैं

वो हिम्मत करके पहले अपने अन्दर से निकलते हैं
बहुत कम लोग , घर को फूँक कर घर से निकलते हैं

अधिकतर प्रश्न पहले, बाद में मिलते रहे उत्तर
कई प्रति-प्रश्न ऐसे हैं जो उत्तर से निकलते हैं

परों के बल पे पंछी नापते हैं आसमानों को
हमेशा पंछियों के हौसले ‘पर’ से निकलते हैं

पहाड़ों पर व्यस्था कौन-सी है खाद-पानी की
पहाड़ों से जो उग आते हैं,ऊसर से निकलते हैं

अलग होती उन लोगों की बोली और बानी भी
हमेशा सबसे आगे वो जो ’अवसर’ से निकलते हैं

किया हमने भी पहले यत्न से उनके बराबर क़द
हम अब हँसते हुए उनके बराबर से निकलते हैं

जो मोती हैं, वो धरती में कहीं पाए नहीं जाते
हमेशा कीमती मोती समन्दर से निकलते हैं

महान लोगों ने उसको महान कर डाला

महान लोगों ने उसको महान कर डाला
ज़मीन था जो उसे आसमान कर डाला

निशा के साथ जो घटना घटी थी थाने में
उषा को उसने बहुत सावधान कर डाला

उसे ज़ुबान मिली थी वो बोलता भी था
सुअवसरों ने उसे बेज़ुबान कर डाला

वह अपने आप को सब से अलग समझता था
अकाल ने उसे सबके समान कर डाला

वो गर्म शाल जो उपहार में मिली थी उसे
उसे भी उसने भिखारिन को दान कर डाला

तीर ने जब कमान से देखा

दृश्य उड़ते विमान से देखा
बाढ़ को इत्मीनान से देखा

उसने सत्ता के अश्व पर चढ़
कर
जो भी देखा वो शान से देखा

मेरी आँखें चली गईं जबसे
मैंने दुनिया को कान से देखा

फ़ाइलों ने विकास का चेहरा
आँकड़ों की ज़ुबान से देखा

मैंने दिन भर की उसकी मेहनत को
रात भर की थकान से देखा

सेठ साहब ने झोंपड़ी का कद
अपने ऊँचे मकान से देखा

तीर होना तभी हुआ सार्थक
तीर ने जब कमान से देखा

कितने सपनों को आँजकर आया

कितने सपनों को आँजकर आया
गाँव जब भी महानगर आया

मेरे सिर पर जो हाथ उसने रखा
तो अनायास कण्ठ भर आया

वो निकष पर निकल गया पीपल
शुद्ध सोने-सा जो नज़र आया

उड़ते पंछी को रोकना चाहा
तो मेरे हाथ एक पर आया

सच्चे जोहरीच्का हाथ लगते ही
रूप पुखराज का निखर आया

मैने मुड़कर उधर नहीं देखा
जिस झरोखे से उसका स्वर आया

जो कभी दूर ले गया था मुझे
रास्ता वो ही मेरे घर आया

हंस का इम्तिहान बाकी है

हंस का इम्तिहान बाकी है
एक ऊँची उड़ान बाकी है

मेरे पैरों तले धरा न सही
शीश पर आसमान बाकी है

सूखे पनघट के घाट पर अब तक
रस्सियों का निशान बाकी है

गाँव में खण्डहर की सूरत में
उस हवेली की शान बाकी है

उसका रुँधने लगा गला लेकिन
आँसुओं की ज़ुबान बाकी है

आँकड़ों के सिवा, गरीबों पर
झुग्गियों का बयान बाकी है

यात्रा खत्म हो गई लेकिन
यात्रा की थकान बाकी है

आदमी से बड़े जंगली जानवर

जंगलों से चले जंगली जानवर
शहर में आ बसे जंगली जानवर

आदमी के मुखौटे लगाए हुए
हर कदम पर मिले जंगली जानवर

आप भी तीसरी आँख से देखकर
खुद ही पहचानिए जंगली जानवर

एक औरत अकेली मिली जिस जगह
मर्द होने लगे जंगली जानवर

आप पर भी झपटने ही वाला है वो
देखिए...देखिए..जंगली जानवर!

बन्द कमरे के एकान्त में प्रेमिका
आपको क्या कहे-जंगली जानवर!

आजकल जंगलों में भी मिलते नहीं
आदमी से बड़े जंगली जानवर

बंदिशों की सज़ा से डरता है

बंदिशों की सज़ा से डरता है
आदमी दासता से डरता है

जो दीये की शिखा से जल बैठा
वो दीये की शिखा से डरता है

वक्त केवल पिरामिडों जैसी
सदियों लम्बी कला से डरता है

आगे खतरा हो जिससे शोषण का
रूप उसकी कृपा से डरता है

जिसकी सूरत कभी नहीं देखी
आदमी उस खुदा से डरता है

हो जहाँ वास्तव में जन-सत्ता
उसका शासक प्रजा से डरता है

रोग डरता नहीं दवाओं से
रोग केवल दुआ से डरता है

हम बीस-तीस सालों में कितने बदल गए

हम बीस-तीस सालों में कितने बदल गए
अब तो हमारे बीच के रिश्ते बदल गए

अपराधियों ने लोगों के चेहरे चुरा लिए
चेहरे चुरा लिए तो मुखौटे बदल गए

बच्चे हमारी बातों पए हँसते हैं आजकल
उनकी किशोर आँखों के सपने बदल गए

इस राजनीति में भी बहुत दाँव-पेंच हैं
अब राजनीति के भी करिश्मे बदल गए

फ़ैशन भी क्या अजीब है कुछ सोचती नहीं
तन तो वही पुराना है कपड़े बदल गए

इन्सान से तो पहले ही विश्वास उठ गया
विश्वास किसका कीजिए, कुत्ते बदल गए

पन्द्रह ही बरस दूर है इक्कीसवीं सदी
इस बीसवीं सदी के भी चश्मे बदल गए

क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत

क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत
यौन शोषण की युगों लम्बी कथा औरत

अपहरण कर ले गए रावण कभी बिल्ला
कल सिया तो आज गीता चोपड़ा औरत

आज भी मामा या सौतेले पिता के हाथ
बेच दी जाती है बूढ़े को युवा औरत

एक कवि ही था, कहा जिसने उसे ‘श्रद्धा’
आम मर्दों ने सदा ली अन्यथा औरत

कल सती हो कर जली थी आज पति के हाथ
बन गई जीवित जलाने की ‘प्रथा’ औरत

अम्ल होते रहे क्षार होते रहे

अम्ल होते रहे क्षार होते रहे
प्रतिक्रियाऒं को तैयार होते रहे

किसको फ़ुरसत है, अमराइयों में मिले
बन्द कमरों में अभिसार होते रहे

वक्त की झील में स्व्वार्थ की नाव पर
उनके सिद्धान्त भी पार होते रहे

हमने तलवार फिर भी उठाई नहीं
शुत्रु के वार पर वार होते होते रहे

वे चमत्कार को देख ही न सके
जिनके सम्मुख चमत्कार होते रहे

नहीं अब शेष स्पर्धा उड़ानों में

नहीं अब शेष स्पर्धा उड़ानों में
पतंगें उड़ रही हैं वायुयानों में

बयानों पर अधिक विश्वास मत करना
बहुत कम तथ्य होता है बयानों में

भला अब कौन अस्मत को बचाएगा
दरोगा कर रहे हैं रेप थानों में

जो हीरे हार में जड़कर चमकते हैं
कभी देखा भी है उनको खदानों में?

पलायन गाँव से भी करगए तो क्या
शहर के गुण नहीं आए किसानों में

इसे तुम लोग कैसे कैद कर लोगे
ये खुश्बू है उड़ेगी आसमानों में

हुआ था वृक्ष पहले या कि पहले बीज
बहस अब तक छिड़ी है बुद्धिमानों में

भूख जैसे सवाल, मत पूछो

भूख जैसे सवाल, मत पूछो
देश का हालचाल मत पूछो!

इस प्रजातन्त्र की व्यवस्था में
तंत्र की ढील-ढाल, मत पूछो

मूल्य इतने गिरे मनुजता के
हँस रहा था दलाल, मत पूछो

उन जहाजों का डू्ब जाना ही
थी समन्दर की चाल, मत पूछो

देश की राजनीति में यारो,
पिछले सैंतीस साल, मत पूछो

है उसकी आँखों में नफ़रत या प्यार, पढ़ लेना

है उसकी आँखों में नफ़रत या प्यार, पढ़ लेना
ये आदमी है , इसे बार-बार, पढ़ लेना

ये जिन्दगी का खतरनाक मोड़ है, प्यारे
यहाँ लिखा है कहीं होशियार,पढ़ लेना

वो रहनुमा नहीं , बहरूपिया लगा है मुझे
हैं उसके पास मुखौटे हज़ार,पढ़ लेना

जो जंगलों से शहर का शिकार करते हैं
कहीं है वे भी किसी के शिकार,पढ़ लेना

जो राजनीति जुड़ी है तुम्हारी रोटी से
उसे किताबों से आगे भी, यार, पढ़ लेना

एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच

एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच
फँस गया है काँच का घर पत्थरों के बीच

दिन दिहाड़े रेप, हत्या, रहजनी , डाके
हादसा है जिन्दगी इन मंजरों के बीच

है बहुत मशहूर बन्दर-बाँट रोटी की
आप कैसे फँस गए इन बन्दरों के बीच !

हाँ सियासत रोज ही पंछी उड़ाती है
किन्तु रख देती है टाइम-बम परों के बीच

लोग कपड़े की तरह बुनने लगे गज़लें
क्योंकि गजलें आ फँसी हैं बुनकरों के बीच

लोग जितने मिले- ‘स्वर’ बदलते हुए

लोग जितने मिले, ‘स्वर’ बदलते हुए
वक्त के साथ तेवर बदलते हुए

हर नए साल के संग पुराने हुए
लोग पिछला कैलेण्डर बदलते हुए

अपने सामान बच्चों व पत्नी सहित
हम भटकते रहे घर बदलते हुए

ऊँची -ऊँची उड़ानों के उन्माद में
रोज पंछी मिले पर बदलते हुए

आदमी फिर भी पूरा बदलता नहीं
जिन्दगी भर निरन्तर बदलते हुए

एक-से वक्त्व्य नारे एक-से

एक-से वक्त्व्य नारे एक-से
हैं लुटेरों के इशारे एक-से

भूख झुग्गी में लगे या खान में
भूख दिखलाती है तारे एक-से

आपके कुछ वोट पाने के लिए
हाथ लोगों ने पसारे एक-से

गाँव से लेकर शहर तक बेधड़क
नोट चलते हैं करारे एक-से

धर्म के हों या किसी सरकार के
किन्तु हैं कानून सारे एक-से

घर के अन्दर देखकर या घर के बाहर देखकर

घर के अन्दर देखकर या घर के बाहर देखकर
थक गया है आदमी खुद को निरंतर देखकर

न्याय-घर में भी बदल सकते हैं दर्पण के बयान
मूल अपराधी के संकेतों में पत्थर देखकर

चीखने की भी यहाँ पंछी को आज़ादी नहीं
चाकुओं के हाथ में अपने कटे पर देखकर

उसको तालाबों के किस्सों में मज़ा आता नहीं
जो अभी लौटा है अपने घर समन्दर देखकर

दोस्तों से राय लेना व्यर्थ लगता है मुझे
दोस्त मुझको राय देते हैं मेरा स्वर देखकर

खूनी हथियारों की बिक्री के नए माहौल में
हँस रहे हैं शस्त्र- विक्रेता कबूतर देखकर

दो रोटी के अलावा चार की बातें नहीं करते

दो रोटी के अलावा चार की बातें नहीं करते
करोड़ों लोग कोठी -कार की बातें नहीं करते

बरस में एक दीवाली-अमावस के अलावा हम
अमावस से कभी उजियार की बातें नहीं करते

यहाँ इस देश में कुछ आदिवासी क्षेत्र ऐसे हैं
जहाँ के नागरिक सरकार की बातें नहीं करते

जहाँ पर देह नारी या पुरुष की गैर-हाज़िर हो
शहर
के लोग ऐसे प्यार की बातें नहीं करते

जिन्हें बिकना है जीवन में हजारों बार बिकना है
वे अपने मूल्य या बाज़ार की बातें नहीं करते

हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में

हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में
आदमी उलझा रहा केवल विवादों में

लोग संसद में विगत सैंतीस वर्षों से
कर रहे हैं भुखमरी को हल विवादों में

आपने देखे नहीं दो सम्प्रदायों के
लोग हो जाते हैं जब पागल विवादों में

कोर्ट में वादी व प्रतिवादी बहस के बीच
न्याय होता है बहुत घायल विवादों में

अब वहाँ पर बाँध बँध पाना असम्भव है
फँस गया है उस नदी का जल विवादों में

हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में

हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में
आदमी उलझा रहा केवल विवादों में

लोग संसद में विगत सैंतीस वर्षों से
कर रहे हैं भुखमरी को हल विवादों में

आपने देखे नहीं दो सम्प्रदायों के
लोग हो जाते हैं जब पागल विवादों में

कोर्ट में वादी व प्रतिवादी बहस के बीच
न्याय होता है बहुत घायल विवादों में

अब वहाँ पर बाँध बँध पाना असम्भव है
फँस गया है उस नदी का जल विवादों में

यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों

यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों
किराए पर यहाँ पर हैं हज़ारों

ये सत्ता की सियासत का शहर है
यहाँ हर ओर अजगर हैं हज़ारों

मुकद्दार का सिकन्दर मैं नहीं हूँ
मुकद्दर के सिकन्दर हैं हज़ारों

लड़ानी हैं जिन्हें अपनी बटेरें
उन्हीं के पास तीतर हैं हज़ारों

अकेले में मैं अक्सर सोचता हूँ
बदलते क्यों मेरे स्वर हैं हज़ारों

नहीं दिखते कहीम वे तीन बन्दर
यूँ गांधी जी के बंदर हैं हज़ारों

है मेरी लेखनी कविता की गागर
मेरी गागर में सागर हैं हज़ारों

यह शहर कब रुका है सड़कों पर

यह शहर कब रुका है सड़कों पर
आदमी भागता है सड़कों पर

पूरी बेरोजगार पीढ़ी की
दौड़-प्रतियोगिता है सड़कों पर

इसलिए घर-मकान निर्जन है
क्योंकि मेला लगा है सड़कों पर

मन में डर है कहीं भी लुटने का
सहमी-सहमी हवा है सड़कों पर

सड़कें सड़कों में हो रही हैं गुम
आदमी लापता है सड़कों पर

इन्द्रधनुषी किशोर सपनों का
आईना टूटता है सड़कों पर

गूँगा आक्रोश बंद कमरों का
कूद कर आ गया है सड़कों पर

ना-नुकर में तमाम सड़कें हैं

ना-नुकर में तमाम सड़कें हैं
उस नज़र में तमाम सड़कें हैं

गाँव में तो गिनी चुनी दस थीं
इस शहर में तमाम सड़कें हैं

रोज अपराध करने वाले के
मूक डर में तमाम सड़कें हैं

वो गनहगार छूट जाएगा
न्याय-घर में तमाम सड़कें हैं

जो गरीबों की बात करता है
उसके स्वर में तमाम सड़कें हैं

शाम को मुम्बई ,सुबह दिल्ली
रात भर में तमाम सड़कें हैं

मुट्ठियों में रेत भरकर चुप रहे

मुट्ठियों में रेत भरकर चुप रहे
लोग मरु-थल से गुजरकर चुप रहे

धूप,मिट्टी,जल हवा दुश्मन हुए
बीज धरती पर बिखरकर चुप रहे

पहले डरते थे तो चिल्लाते भी थे
किछ दिनों से लोग डरकर चुप रहे

जुल्म होते देखना आदत बनी
लोग सड़कों पर ठहरकर चुप रहे

अंतत:
वे लोग बम-से फट पड़े
जो हृदय में आग धरकर चुप रहे

वो स्वयं से मिला-जुला ही नहीं

वो स्वयं से मिला-जुला ही नहीं
वो जो दर्पण को देखता ही नहीं

ये सदा उसकी कूटनीति रही
जो कहा वो कभी किया ही नहीं

मेरे जीवन से जो चला ही गया
उसको फिर मुड़के देखना ही नहीं

जो भी कहना था कह दिया तुमने
मेरे कहने को कुछ बचा ही नहीं

उसको संदेह की है वीमारी
और संदेह की दवा ही नहीं

किसी निष्कर्ष के घर तक नहीं पहुँचे

किसी निष्कर्ष के घर तक नहीं पहुँचे
भटकते प्रश्न उत्तरतक नहीं पहुँचे

पहुँच जाते तो हम भी तोड़ लेते फल
हमारे हाथ तरुवर तक नहीं पहुँचे

नदी देखी है, हमने ताल देखे हैं
नहीं, हम लोग सागर तक नहीं पहुँचे

वे कैसे सीख लें सम्मान की भाषा
कभी जो लोग आदर तक नहीं पहुँचे

हमारे शीश पर भी है गगन की छत
अभी हम लोग छप्पर तक नहीं पहुँचे

जो उलझे प्रेम के संदर्भ ग्रंथों में
कभी वे ढाई आखर तक नहीं पहुंचे

हमारा स्वप्न है दो जून की रोटी
हमारे स्वप्न अम्बर तक नहीं पहुँचे

रूढ़ियों का किला पुराना है

रूढ़ियों का किला पुराना है
जिसमें बैठा खुदा पुराना है

रूप लुटता था,रूप लुटता है
लूट का सिलसिला पुराना है

औरतों के चरित्र को लेकर
मर्द का सोचना पुराना है

मौका मिलते ही सिर उठाएगा
आदनी भेड़िया पुराना है

रेप के केस में गवाह बिना
कोर्ट का फ़ैसला पुराना है

यौन-अपराध को हवा देता
काम का देवता पुराना है

आज के युग में काल गर्ल सही
तन का पेशा बड़ा पुराना है

निश्चय के साथ घर से निकलना कठिन तो है

निश्चय के साथ घर से निकलना कठिन तो है
मुट्ठी में आग बाँध के चलना कठिन तो है

बन जाएगा यह काम बदलने से शक्ल को
लेकिन ,जनाब, शक्ल बदलना कठिन तो है

संगीत-साधना में जो बैजू न बन सका
पत्थर का उसके सुर से ,पिघलना कठिन तो है

दुनिया के लाभ के लिए, नदियों की शक्ल में
हिम-गिरि के अंग-अंग-सा गलना कठिन तो है

मरु-थल में भी जो फूले-फले हैं,उन्हें नमन
मरु-थल के बीच फूलना फलना कठिन तो है.

बर्फ की देह जल रही है कहीं

बर्फ की देह जल रही है कहीं
धीरे-धीरे पिघल रही है कहीं

यूँ तो जीवन की भिन्न मुश्किल है
किन्तु कितनी सरल रही है कहीं

आज की राजनीति की रंभा
दिल कहीं,दल बदल रही है कहीं

एक सोलह बरस की लड़की में
पूरी औरत मचल रही है कहीं

गाँव से इस शहर में आते ही
ये सड़क तेज़ चल रही है कहीं

तेरी बातों में आस्था की चमक
मेरी मुश्किल का हल रही है कहीं

छोड़ कर अम्न के कबूतर को
ये सदी हाथ मल रही है कहीं

सत्य के तन के कई टुकड़े हुए

सत्य के तन के कई टुकड़े हुए
एक दर्पन के कई टुकड़े हुए

स्वार्थ छोटे जब बड़े होने लगे
मूल आँगन के कई टुकड़े हुए

रूप यदि भूलों का का अल्बम बन गया
रूप के मन के कई टुकड़े हुए

हो गए जिस रोज़ पति-पत्नी अलग
मूक बचपन के कई टुकड़े हुए

धर्म पर इतने मतान्तर हो गए
ईश -वन्दन के कई टुकड़े हुए

जिनके शीशे के घर रहे थे वहाँ

जिनके शीशे के घर रहे थे वहाँ
वे ही पत्थर से डर रहे थे वहाँ

एक कमरा धुएँ से बोझिल था
और वे रात भर रहे थे वहाँ

जिस शहर को न भूख मार सकी
लोग नफर से मर रहे थे वहाँ

रमता जोगी था बहता पानी था
किन्तु दोनों ठहर रहे थे वहाँ

लोग कानून पढ़ रहे थे इधर
और अपराध कर रहे थे वहाँ

हर कहानी परेशान है

हर कहानी परेशान है
जिन्दगानी परेशान है

पोथियों के अहंकार से
मूढ़ ज्ञानी परेशान है

रेडियो और अखबार में
राजधानी परेशान है

पात्र का रूप धरते हुए
रोज पानी परेशान है

शक्ल ब्रह्माण्ड की सोच कर
बुद्धिमानी परेशान है

मुश्किल से मुझको आपके घर का पता लगा

मुश्किल से मुझको आपके घर का पता लगा
घर का पता लगा तो हुनर का पता लगा

अंकों के अर्थ शून्य ने आकर बदल दिए
भारत से सारे जग को सिफ़र का पता लगा

जंगल को छोड़ना ही सुरक्षित लगा उसे
चीते को जब से शेरे-बबर का पता लगा

उसने निकाह करने से इन्कार कर दिया
जब उसको तीन लाख मेहर का प्ता लगा

कितने हज़ार डर हैं हरएक आदमी के साथ
क्या आपको भी आपके डर का पता लगा?

टिड्डी दलों -से टूट पड़े चींटियॊं के दल
जैसे ही चींटियॊ को शकर का पता लगा

मंत्रों की शक्ति पर मुझे विश्वास हो गया
जब से मुझे ग़ज़ल के असर का पता लगा

यात्रा है तो मन मगन भी है

यात्रा है तो मन मगन भी है
साथ मेरे मेरी थकन भी है

सोचने के लिए धरा ही नहीं
सोचने के लिए गगन भी है

गाँव से एक कोस चलते ही
एक जंगल है जो सघन भी है

रेडियो की खबर है, दंगे में
सौ मरे शहर में अमन भी है

तुम ग़ज़ल गा रही हो कुछ ऐसे
मुझको लगता है यह भजन भी है

ज़िन्दगी खुरदुरी नहीं केवल
ज़िन्दगी रेशमी सपन भी है

बुद्धि हर बार भूल जाती है
व्यक्ति के पास एक मन भी है

यात्रा है तो मन मगन भी है

यात्रा है तो मन मगन भी है
साथ मेरे मेरी थकन भी है

सोचने के लिए धरा ही नहीं
सोचने के लिए गगन भी है

गाँव से एक कोस चलते ही
एक जंगल है जो सघन भी है

रेडियो की खबर है, दंगे में
सौ मरे शहर में अमन भी है

तुम ग़ज़ल गा रही हो कुछ ऐसे
मुझको लगता है यह भजन भी है

ज़िन्दगी खुरदुरी नहीं केवल
ज़िन्दगी रेशमी सपन भी है

बुद्धि हर बार भूल जाती है
व्यक्ति के पास एक मन भी है

यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी

यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी
बड़ी उलझी है अन्तर की कहानी

शिलालेखों को पढ़ना सीख पहले
तभी समझेगा पत्थर की कहनी

रसोई में झगड़ते ही हैं बर्तन
यही है यार, हर घर की कहानी

कहाँ कब हाथ लग जाए अचानक
अनिश्चित ही है अवसर की कहानी

नदी को अन्तत: बनना पड़ा है
किसी बूढे़ समन्दर की कहानी

बातों से , सिर्फ़ बातों से ऐसा किया गया

बातों से , सिर्फ़ बातों से ऐसा किया गया
लोगों के सामने उसे नंगा किया गया

इस राजनीति द्वारा महज़ वोट के लिए
जलते हुए सवालॊ को पैदा किया गया

वो भीख माँगता ही नहीं था , इसीलिए
उस फूल जैसे बच्चे को अंधा किया गया

पानी ठहर न जाए कहीं उसकी देह पर
उस खुरदरे घड़े को भी चिकना किया गया

झंडे के स्वास्थ्य पर कोई इसका असर नहीं
ऊँचा किया गया उसे नी़चा किया गया

तालाब तल की कलमुँहीं कीचड़ को छेड़ कर
उस स्वच्छ जल को व्यर्थ ही गंदा किया गया

पत्थर विरोध करने से डरते हैं आज भी
जिन पत्थरों पे चाकू को पैना किया गया

रेप बड़की हुई मगर घर में

रेप बड़की हुई मगर घर में
घुस गया है अजीब डर घर

बूढ़े माँ-बाप ‘गाँव’ लगते हैं
जब से बच्चे हुए शहर घर में

छोटी ननदी की आँख लड़ने की
सिर्फ़ भाभी को है खबर घर में

जब से अफसर बना बड़ा बेटा
झुक गया है पिता का स्वर घर में

सबके चूल्हे हैं,यार,निट्टी के
व्यर्थ तू झाँकता है घर-घर में

कंठ को तैयार करना सीख जाते हैं

कंठ को तैयार करना सीख जाते हैं
लोग जयजयकार करना सीख जाते हैं

आज समझौतों के युग में सर्द अँगारे
बर्फ़-सा व्यवहार करना सीख जाते हैं

लोग अपने स्वार्थ, अपने लाभ की ख़ातिर
भेड़ियों से प्यार करना सीख जाते हैं

जो कमल के फूल पाना चाहत्रे हैं -वे
कीच को स्व्वीकार करना सीख जाते हैं

लोग जिन डंडों से अपने सोर बचाते हैं
लोग उनसे वार करना सीख जाते हैं

बन्द पुस्तक को खोलती है हवा

बन्द पुस्तक को खोलती है हवा
बात करती है बोलती है हवा

जो भी उड़ने की बात करता है
उसके पंखों को तोलती है हवा

आदमी, पेड़ ,पशु ,परिन्दों में
साँस-संगीत घोलती है हवा

कौन है जो हवा को बाँध सके
इक चुनौती-सी डोलती है हवा

बन्द कमरे में सभ्य लोगों के
नंगे पन को टटोलती है हवा

सिर से ऊपर गुज़र गया पानी

सिर से ऊपर गुज़र गया पानी
उसकी आँखों में भर गया पानी

’एक्स-रे’ की रिपोर्ट कहती है
फेफड़ों में उतर गया पानी

आग जो काम कर नहीं पाई
वे बड़े काम कर गया पानी

उनकी आँखों में कैसी लाज-शरम
जिनकी आँखों का मर गया पानी

कितनी नावें नदी में डूब गयीं
किन्तु हर बार तर गया पानी

जिन्दगी आहत है आँगन में

जिन्दगी आहत है आँगन में
एक पानीपत है आँगन में

हर समय कुछ सीख देने की
बाप को आदत है आँगन में

हर समय तक ये बात शाश्वत है
नील नभ की छत है आँगन में

गर्भ की अपराधिनी ’बेटी’
सब की आगे नत है आँगन में

कल उसे सड़कें भी देखेंगी
जो महाभारत है आँगन में

जिस जुबाँ पर चढ़ गई अधिकार की भाषा

जिस जुबाँ पर चढ़ गई अधिकार की भाषा
उसको फिर आती नहीं है प्यार की भाषा

पत्रिकाओं के जगत में चल नहीं पाती
खास लहए में बँधी अखबार की भाषा

इन प्रजा तन्त्रीय राजाओं की चाउखट पर
फूलता-फलती रही दरबार की भाषा

ये महानगरीय जीवन का करिश्मा है
भूल बैठे हम सुखी परिवार की भाषा

मोम की गुड़िया समझ लेती है छुअनों से
साथ में लेटे हुए अंगार की भाषा

इनकी बातों में विरोधी दल का का लहजा है
और उनके पास है सरकार की भाषा

सभ्यता के कौन से युग में खड़े हैं हम
बोलते हैं युद्ध के बाज़ार की भाषा.

रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक

रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक
न पहुँचाओ उन्हें उसकी मंगेतर तक

समय का फेर था- तब शेर बन्दी था
तो उसको घुड़कियाँ देते थे बन्दर तक

नहीं पहुँचे तो केवल हम नहीं पहुँचे
सभी पहुँचे थे आलीजाह के दर तक

पराए घर के अन्दर झाँकने वाले
कभी झाँका है अपने घर के अन्दर तक?

ये किस शिल्पी के हाथों का करिश्मा है
जो जीवित हो उठा बेजान पत्थर तक

महत्वाकांक्षी पति के इशारे पर
गई थी कल भी वो साहब के बिस्तर तक

कुएँ की दृष्ति उनको तंग लगती है
जो दुनिया देख आए हैं समन्दर तक

स्वप्न तो सूर्य की किरन का है

स्वप्न तो सूर्य की किरन का है
मित्र, यह रास्ता अगन किरन का है

उससे मिलता नहीं है मन मेरा
प्रश्न तो सिर्फ मेरे मन किरन का है

आमजन को समझ नहीं आता
जो गजलकार आमजन का है

हर तरफ शून्य-शून्य दिखता है
सामने रास्ता गगन किरन का है

मन से वोदूसरे की है अब तक
सिर्फ मालिक वो उसके तन का है

अम्न लाएगा अस्त्र-शस्त्रों से
वो फरिश्ता उसी अमन का है

मेरे शेरों की कहन है अपनी
और असली मजा कहन का है

एक जैसा है आदमी का दु:ख

आपका, मेरा, हर किसी का दु:ख
एक जैसा है आदमी का दु:ख

बन न जाए वो रोज की पीड़ा
आज जो है कभी-कभी का दु:ख

स्वच्छ सड़कें समझ नहीं सकतीं
गंदी बस्ती की उस गली का दु:ख

पीर अपनी पहाड़ लहती है
धूप क्या जाने चाँदनी का दु:ख

शेष फिर भी बहुत अँधेरे हैं
हाँ,यही तो है रोशनी का दु:ख

विष असर कर रहा है किश्तों में

विष असर कर रहा है किश्तों में
आदमी मर रहा है किश्तों में

उसने इकमुश्त ले लिया था ऋण
व्याज को भर रहा है किश्तों में

एक अपना बड़ा निजी चेहरा
सबके भीतर रहा है किश्तों में

माँ ,पिता ,पुत्र,पुत्र की पत्नी
एक ही घर रहा है किश्तों में

एटमी अस्त्र हाथ में लेकर
आदमी डर रहा है किश्तों में

अंग प्रत्यंग को हिला डाला

अंग प्रत्यंग को हिला डाला
यात्रा ने बहुत थका डाला

बर्फ-से आदमी को भी आखिर
व्यंग्य-वाणों ने तिलमिला डाला

काल ने सागरों को पी डाला
काल ने पर्वतों को खा डाला

फिर वो क्यों रोज याद आती है
मैंने जिस शक्ल को भुला डाला

एक तीली दिया जलाती है
एक तीली ने घर जला डाला

स्वप्न में भी न कल्पना की थी
वक्त ने वो भी दिन दिखा डाला

अंतता: आँख डबडबा आई
उसने इतना अधिक हँसा डाला

धूप, मिट्टी हवा को भूल गए

धूप, मिट्टी, हवा को भूल गए
बीज अपनी धरा को भूल गए

ज़िन्दगी की मरीचिकाओं में
लोग अपनी दिशा को भूल गए

पद प्रतिष्ठा ने इतना बौराया
पुत्र अपने पिता को भूल गए

जिसके जलने से ज्योति जन्मी है
दीप उस वर्तिका को भूल गए

अपनीमिट्टी की गन्ध भूले तो
लोग अपनी कला को भूल गए

इतने निर्भर हुए दवाओं पर
स्वास्थ्य की प्रार्थना को भूल गए

वोट की राजनीति में अन्धे
देश की एकता को भूल गए.

किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के

किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के
ये शे’र हैं अँधेरों से लड़ते जहीर के

मैं आम आदमी हूँ तुम्हारा ही आदमी
तुम,काश, देख पाते मेरे दिल को चीर के

सब जानते हैं जिसको सियासत के नाम से
हम भी कहीं निशाने हैं उस खास तीर के

चिन्तन ने कोई गीत लिखा या गज़ल कही
जन्मे हैं अपने आप ही दोहे कबीर के

हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे मगर
बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के

उम्र के साथ मौसम बदलते रहे

उम्र के साथ मौसम बदलते रहे
तुम बदलते रहे हम बदलते रहे

जितनी उपयोगिता जिसकी आँकी गई
उसके अनुसार ही क्रम बदलते रहे

आदमी के इधर स्वार्थ बदले, उधर
उसके हाथों के परचम बदलते रहे

ज़िन्दगी के महायुद्ध में, उम्र-भर
आदमी के पराक्रम बदलते रहे

जितनी उजियार की भीड़ जुटती गई
उसके अनुसार ही तम बदलते रहे

उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे

उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे
उम्र-भर शत्रुताओं में उलझे रहे

किसने समझी है अपनी सही भूमिका
सब गलत भूमिकाओं में उलझे रहे

एक में भी न माहिर हुए इसलिए
लोग सोलह कलाओं में उलझे रहे

अब उन्हें ठोस धरती सुहाती नहीं
जो हमेशा हवाओं में उलझे रहे

आज भी लोक सम्मत है नारी दहन
लोग बर्बर प्रथाओं में उलझे रहे

दृष्टि कैसे हो उनकी सकारात्मक
जो सदा वर्जनाओं में उलझे रहे

लोग कागज़, रबर, पेंसिल थामकर
कागज़ी योजनाओं में उलझे रहे

हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छौने की

हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छौने की
एक हूक-उठती है तब आँसू से मुँह धोने की

क्या देंगे सम्मान उसे वो जो उपहास उड़ाते हैं
औसत क़द वालों ने कब पीड़ा समझी है बौने की

अँधियारा घिरते ही वो तन की दूकान सजाती है
इसीलिए वो बाट जोहती है अंधियारा होने की

और कब तलक मन के अन्दर पीड़ा रख कर मुस्काएँ
कभी-कभी इच्छा होने लगती है खुल कर रोने की

जीवन है अनमोल इसे उत्साह सहित जीना सीखें
आप आदमी हो कर भी बातें करते हैं ढोने की

थक कर चूर बदन को पत्थर का बिस्तर भी काफ़ी है
वर्ना सिलवट भी चुभने लगती है नर्म बिछौने की

बात ज़रा-सी है लेकिन इसपर विचार आवश्यक है
जगमग कमरे ने कब चिन्ता की अँधियारे कोने की

घर की तू-तू ,मैं-मैं, बाहर के लोगों तक आ पहुँची

घर की तू-तू ,मैं-मैं, बाहर के लोगों तक आ पहुँची
अणु-सी छोटी बात, अंत में, विस्फोटों तक आ पहुँची

सुन्दर और असुन्दर को हम चमड़ी से तय करते हैं
सुन्दरता की प्रचलित भाषा गोरों तक आ पहुँची

एक समय वो भी था जब थे राजनीति में क़द वाले
गिरते-गिरते राजनीति की छत बौनों तक आ पहुँची

पहले चोरी और डकैती दोनों अलग कलाएँ थीं
जाने कैसे आज डकैती भी चोरों तक आ पहुँची

तन खरीद लेते थे लेकिन मन ख़रीदना मुश्किल था
अब तो आत्मा की खरीद भी कुछ नोटों तक आ पहुँची

जो उड़ते हैं उड़ानें साथ रहती हैं

जो उड़ते हैं उड़ानें साथ रहती हैं
उड़ानों की थका नें साथ रहती हैं

कई ऐसे भी विक्रेता मिले हमको
सदा जिनके दुकानें साथ रहती हैं

बहुत-सी तितलियाँ जासूस होती हैं
मुहब्बत के बहाने साथ रहती हैं

पुरातन और नूतन पीढ़ियाँ अक्सर
परस्पर शस्त्र ताने साथ रहती हैं

पहुँच जाते हैं चोटी पर जो पर्वत की
वहाँ से भी ढलानें साथ रहती हैं

बाल बच्चे सयाने हुए

बाल बच्चे सयाने हुए
दिन-ब-दिन हम पुराने हुए

गाँव में तो ठिकाना भी था
शहर में बेठिकाने हुए

चाँदनी धूप में आ गई
बाल जब भी सुखाने हुए

राजनीतिज्ञ बुनते रहे
नागरिक ताने-बाने हुए

छत के नीचे भी बैठे हैं लोग
छतरियाँ अपनी थामे हुए

लोग जब भी असावधान हुए

लोग जब भी असावधान हुए
तन या मन से लहु-लुहान हुए

प्यार की गंध खत्म होते ही
ज़िन्दा घर भूतहा मकान हुए

उनको भाई उड़ान की भाषा
जिनकी मुठ्ठी में आसमान हुए

जब भी चहकी है कोई ’पामेला’
तो खड़े संसदों के कान हुए

हम प्रजा वे हमारे राजा हैं
तीर हम और वे कमान हुए

सच को सच भी तो नहीं‍ कह पाए
इसलिए लोग बेजुबान हुए

ज़िन्दगी भर हमारे काम आए
अनुभवों से जो हम को ज्ञान हुए

जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बनकर

जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बनकर
तिमिर की आँख में चुभता है किरकिरी बनकर

छिपी थी कुण्ठा की कालोंच उसके मन में कहीं
निकल रही है वो बातों में गन्दगी बनकर

मैं उससे कैसे कहूँ , उठिए मेरे बिस्तर से
वो मेरी शैया पे लेटी है चाँदनी बनकर

वो प्यार था या जुनूँ था या कोई सम्मोहन
समंदरों की तरफ़ चल पड़े नदी बनकर

ये दण्ड भोगना पड़ता है ख़ास होने का
वो जी न पाया कभी आम आदमी बनकर

रोना भी अगर चाहूँ तो रोने नहीं देते

रोना भी अगर चाहूँ तो रोने नहीं देते
वे लोग मुझे आँख भिगोने नहीं देते

ये प्यार है या कोई सज़ा सोच रहा हूँ
मैं सोना भी चाहूँ तो ये सोने नहीं देते

वे रोज़ ही कहते हैं ये सब खेत हैं मेरे
खेतों में मगर बीज वो बोने नहीं देते

चलना भी अगर चाहूँ तो ले आते हैं कारें
वे मुझको मेरा बोझ भी ढोने नहीं देते

यादों के जहाज़ों को लिए घूम रहा हूँ
यादों को समन्दर में डुबोने नहीं देते

प्रश्न जब भी उछाले गए

प्रश्न जब भी उछाले गए
दोष हम पर ही डाले गए

आलकल साँप बिल की जगह
आस्तीनों में पाले गए

सूर्य के डूबते साथ ही
बस्तियों से उजाले गए

एक शालीन- से व्यंग्य को
आपतो अन्यथा ले गए

पूछ काँधों की होने लगी
केश जब भी सम्हाले गए

बाद में लोग सिक्के बने
पहले साँचों में ढाले गए

आज भी संत संसार से
स्वर्ण की ओर टाले गए

व्यक्त होने की बहुत क्रोध ने तैयारी की

व्यक्त होने की बहुत क्रोध ने तैयारी की
वो सहन कर गया, उसने ये समझदारी की

काम हाथों को नहीं फिर भी लगे कम्प्यूटर
यूँ समस्या हुई हल देश में बेकारी की

कुछ डरी-सहमी-सी ,कुछ लाज से सिमटी -सिकुड़ी
एक तस्वीर अलग ही है यहाँ नारी की

काम चोरी भी मेरे मुल्क की बीमारी है
जब भी मौका मिला हर हाथ ने मक्कारी की

बात वेतन की नहीं बात है अधिकारों की
शान देखी नहीं तुमने ज़िला-अधिकारी की

कोई जुड़ता नहीं इस युग में बिना मतलब के
स्वार्थ था, इसलिए उसने भी मेरी यारी की

आम लोगों के लिए देश में ‘क्यू’ ही ‘क्यू’ है
खास लोगों ने प्रतीक्षा ही न की बारी की

घर के अंतिम बरतनों को बेचकर

घर के अंतिम बर्तनों को बेचकर
चल पड़े हम बंधनों को बेचकर

अब न जीवित भी रहे तो ग़म नहीं
सोचते हैं धड़कनों को बेचकर

सत्य से पीछा छुड़ा आए हैं हम
अपने घर के दरपनों को बेचकर

चाहते हैं वक्त पर बरसात भी
लोग हरियाले वनों को बेचकर

होटलों में काम करने आ गए
बाल-बच्चे बचपनों को बेचकर

आपको कुछ खास मिल पाया नहीं
दो टके में सज्जनों को बेचकर

आ गए हैं लौटकर बाज़ार से
लोग अपनी गरदनों को बेचकर

जुलूसों से मिले श्री-हीन चेहरे

जुलूसों से मिले श्री-हीन चेहरे
पराजित-से थके-से दीन चेहरे

बहुत शालीनता के बाद भी अब
नज़र आते नहीं शालीन चेहरे

उठाकर फेंकने के बाद उतरे
जो कुर्सी पर हुए आसीन चेहरे

घिनौनी हो गईं रंगीन शामें
बहुत अश्लील ये रंगीन चेहरे

कभी तन कर खड़े होते नहीं हैं
मुझे लगते रहे कालीन चेहरे

किसी भी काम में लगता नहीं मन
बहुत दुर्लभ हुए तल्लीन चेहरे

मेरे परिचित हज़ारों में हैं, लेकिन
हैं गहरे मित्र दो या तीन चेहरे

लोग सन्देह करते रहे

लोग सन्देह करते रहे
कल्पनाओं में मरते रहे

झंडा-बरदार के हाथ में
झंडा बनकर फहरते रहे

दौड़ना उनको आया नहीं
हर क़दम पर ठहरते रहे

रोज महफ़िल सजाते हुए
रिक्तत्ताओं को भरते रहे

जिसको छू भी न पाए कभी
उसको सपनों में वरते रहे

दरपनों से डरे भे बहुत
दर्पनों से सँवरते रहे

उम्र भर उस कथा प्रेत-से
बाँस चढ़ते-उतरते रहे

क्रोध रोके रुका ही नहीं

क्रोध रोके रुका ही नहीं
मुठ्ठियों में बँधा ही नहीं

कैसे मंज़िल पे पहुँचेगा वो
आजतक जो चला ही नहीं

बाँटते-बाँटते कर्ण की
गाँठ में कुछ बचा ही नहीं

कितने सालों से घर में कोई
खिलखिलाकर हँसा ही नहीं

एड्स या कैंसर की तरह
शक की कोई दवा ही नहीं

जो लिपट न सकी पेड़ से
सच कहूँ वो लता ही नहीं

ऋण सभी पर रहा साँस का
मरते दम तक चुका ही नहीं

वो जाकर क्यों नहीं लौटा अभी तक

वो जाकर क्यों नहीं लौटा अभी तक
सताती है यही चिन्ता अभी तक

अकेला हूँ मैं वो भी है अकेली
है दोनों ही तरफ़ दुविधा अभी तक

वो दुर्घटना से इतना डर गया है
न चीखा और न रोया अभी तक

हमारे देश में वोटों की कीमत
समझ पाई नहीं जनता अभी तक

पहाड़ों से वो क्या टकरा सकेगा
जो ख़ुद से ही नहीं जूझा अभी तक

हमारे बीच तन के भी अलावा
बची है प्यार की उष्मा अभी तक

अमन के गीत गाकर भी अमन को
न समझी एटमी दुनिया अभी तक

उन्हीं की बाट मंज़िल जोहती है

जो बढ़ते हैं‍ कलाकारी से आगे
निकल जाते हैं तैयारी से आगे

तुम्हें कुछ क्यों नज़र आता नहीं है
तुम्हारी चार-दीवारी से आगे

सुनो तुम ‘मातहत’ हो मेरी मानो
चलो मत अपने अधिकारी से आगे

करो जलते शहर की कल्पना भी
घृणा की एक चिंगारी से आगे

तुम्हारे पास उत्तर हो तो बोलो
रहे क्यों नर सदा नारी से आगे

हज़ारों लोग लाइन में खड़े हैं
हमारी -आपकी बारी से आगे

उन्हीं की बाट मंज़िल जोहती है
निकलते हैं जो दुश्वारी से आगे

मुखर होने लगीं अनबन की बातें

मुखर होने लगीं अनबन की बातें
सड़क पर आ गईं आँगन की बातें

हज़ारों उलझनें हैं साथ तेरे
तुम्हें बतलाऊँ किस उलझन की बातें

घिरा रहता है जो दरबारियों से
उसे कड़वी लगीं ‘दर्पन’ की बातें

मैं उससे कुछ नहीं कहता कभी भी
हैं उसपर व्यक्त मेरे मन की बातें

जहाँ दो जून की रोटी भी मुश्किल
वहाँ पर संतुलित भोजन की बातें

भुजंगों के प्रसंगों को घटा कर
न पूरी होंगी चन्दन वन की बातें

दूर तक पानी ही पानी है

दूर तक पानी ही पानी है
ये समन्दर की कहानी है

अपने ही घर में लगाएँ आग
ये कहाँ की बुद्धिमानी है

हर तरफ़ संदेह है, शक है
हर कदम पर सावधानी है

राज-पथ है, राज-नेता हैं
देश की ये राजधानी है

आप चिंतित क्यों नहीं होंगे
आपकी बिटिया सयानी है

प्यास शबनम से नहीं बुझती
प्यास का उपचार पानी है

आपकी कविता नई होगी
आपकी भाषा पुरानी है

ख़ूबसूरत ‘तितलियों’ से डर लगा

मैं कभी उड़ता नहीं था ‘पर’ लगा

वो विचारों से बहुत संकीर्ण था
साँस लेना भी वहाँ दूभर लगा

हाथ में उसके नहीं जादू कोई
वो मुझे बातों का जादूगर लगा

जिसकी छत ने मुझको अपनापन दिया
वो अपरचित घर भी अपना घर लगा

मैं कभी उसको समझ पाया नहीं
वो कभी धरती कभी अंबर लगा

वर्ना तेरी बात ख़ाली जाएगी
कोई बंधन मत हवाओं पर लगा

याद आया वो कमल का फूल है
जल में रह कर, जल से ऊपर लगा

जीतकर भी पराजित हुए

जीतकर भी पराजित हुए
स्वप्न सारे तिरोहित हुए

हम सदा उत्तरों की जगह
प्रश्न बन कर उपस्थित हुए

ज़िन्दगी के महायुद्ध में
रोज़ ही रक्त रंजित हुए

सुन्दरी से शिला बन गए
हम अहिल्या-से शापित हुए

तन कहीं,मन कहीं,धन कहीं
हर तरह से विभाजित हुए

कोयले से रही दोस्ती
इसलिए हम कलंकित हुए

वक्त की धार में उम्र-भर
चींटियों-से प्रवाहित हुए

अनुभवों की पाठशाला ने सिखाया है बहुत

अनुभवों की पाठशाला ने सिखाया है बहुत
जो सिखाया वो मेरे काम आया है बहुत

लाख रुपये में खरीदा था पिता ने मेरा वर
वो मेरा अर्द्धांग हो कर भी पराया है बहुत

आप जिसकी धीरता गंभीरता पर मुग्ध हैं
उस समन्दर ने जहाज़ों को डुबाया है बहुत

धीरे-धीरे वो कुशल नृत्यांगन्ना बन ही गई
वक्त ने उस एक औरत को नचाया है बहुत

मेरे आँगन में खड़ा है पेड़ हरसिंगार का
जब भी छेड़ा है उसे तो खिलखिलाया है बहुत

अब वो पंछी ही नहीं आज़ाद होना चाहता
मैंने उस पंछी को पिंजरे से उड़ाया है बहुत

भितरघातें मुझे करना नहीं आता

भितरघातें मुझे करना नहीं आता
मुझे उसकी तरह लड़ना न्हीं आता

कोई मुझे देख ही ले, इसलिए उठकर
किसी के पास आईना नहीं आता

मैं आदम हूँ मैं तन कर झुक भी जाता हूँ
वो पर्वत है, उसे झुकना नहीं आता

लजाती है लजाकर मुस्कुराती है
कली को फूल-सा हँसना नहीं आता

नदी बनकर जो चलती है हिमालय से
समंदर तक उसे रुकना नहीं आता

जो पंखों के बिना उड़ते हैं, गिरते हैं
मैं थलचर हूँ मुझे उड़ना नहीं आता

लोग रण में उतर भी जाते हैं

लोग रण में उतर भी जाते हैं
युद्ध के बीच डर भी जाते हैं

जन्म लेते हैं स्वप्न आँखों में
और आँखों में मर भी जाते हैं

अपना घर भूलता नहीं कोई
लोग घर छोड़कर भी जाते हैं

बाँध कैसा है डूब में जिसकी
गाँव तो क्या शहर भी जाते हैं

हमने ऐसी उड़ान देखी है
जिसमें पंछी के पर भी जाते हैं

लक्ष्य की ओर, तीर हो जैसे
लोग कुछ दौड़ कर भी जाते हैं

वक्त देता है घाव भी लेकिन
वक्त से घाव भर भी जाते हैं

आग जैसे ज्वलंत प्रश्नों में

आग जैसे ज्वलंत प्रश्नों में
देश उलझा अनंत प्रश्नों में

सुर्ख टेसू सवाल करते हैं
घिर गया है वसंत प्रश्नों में

अपने-अपने महत्व को लेकर
कैसे उलझे हैं संत प्रश्नों में

उत्तरों को भी चोट आई है
हो गई है भिड़ंत प्रश्नों में

हम तो छोटे सवाल हैं, साहब!
हैं यहाँ भी महंत प्रश्नों में

जिसको अपना कह सकूँ ,बस्ती में ऐसा घर न था

जिसको अपना कह सकूँ ,बस्ती में ऐसा घर न था
नील अम्बर लके सिवा सर पर कोई छप्पर न था

अपने बारे में कहीं कोई ग़लतफ़हमी न थी
कोई खुशफहमी का चश्मा मेरी आँखों पर न था

आइनों के व्यंग्य उसको इसलिए सहने पड़े
क्योंकि उसके हाथ में अधिकार का पत्थर न था

देखते ही जिसको तुम पीछे हटे थे दस कदम
मुझ सपेरे के लिए वो दोस्त था विषधर न था

ये तो सच है - अनवरत चलता रहा वो आदमी
उसके तन का बोझ, लेकिन' उसके पैरों पर न था

वो ज़हर पी तो गया लेकिन पचा पाया नहीं
क्योंकि वो सुकरात था भगवान शिव शंकर न था

इस व्यवस्था में लड़ना बहुत मुश्किल नहीं
किंतु वो कम लड़ने वाला आदमी कायर न था

नींद भी देता है सपने भी दिखा देता है

नींद भी देता है, सपने भी दिखा देता है
मैं अगर जागना चाहूँ तो सज़ा देता है

ये ज़रूरी नहीं वो ठीक पता हो लेकिन
जिसने पूछा है पता, उसको पता देता है

उसको बातों से समझ पाना बहुत मुश्किल है
शाप देता है तो लगता है दुआ देता है

प्रश्न सुनता तो है उत्तर नहीं देता लेकिन
बात ही बात में प्रश्नों को उड़ा देता है

सिर उठाते हुए पौधे को कुचल देता है
आत्म-सम्मान को मिट्टी में मिला देता है

मुल्क के रोग को समझा ही नहीं नीम हकीम
रोग 'क्षय' का हो तो 'छाजन' की दवा देता है

उसके भाषण को समझता है वो या उसका ख़ुदा
तीसरा कोई नहीं जानता क्या देता है

पैर अपने थे मगर उनके इशारों पर चले

पैर अपने थे मगर उनके इशारों पर चले
लोग कठ पुतली-से घिर्री और तारों पर चले

हम धरा के पुत्र थे,हम कीच में लिपटे रहे
हम नहीं वो लोग जो चन्दा-सितारों पर चले

नित नये नारों को गढ़ लेते हैं अवसर देख कर
राजनैतिक रूप से वे सिर्फ़ नारों पर चले

गीतकारों के लिए गायक ज़रूरी हो गये
और गायक भी सदा संगीतकारों पर चले

हम अविश्वासी सही, लेकिन डरे हैं आप भी
ऐसे सौदे कब भला मैखिक करारों पर चले

पाँव पैदल उनको उनको चलना ही नहीं आया कभी
वायुयानों से उतरते ही वे कारों पर चले

पेड़ से टूटे न थे तो दर-ब-दर भटके न थे
पेड़ से हो कर अलग पत्ते बयारों पर चले

जिधर कामनाएँ थीं, वे अपने मन के आधीन हुए

जिधर कामनाएँ थीं, वे अपने मन के आधीन हुए
फिर माया-जल में ही जीवित रहने वाली मीन हुए

वे विनम्र हो कर भी दिख सकते थे खूब स्वाभिमानी
अति विनम्रता के कारण वे हद से ज़्यादा दीन हुए

खेल-खेल में दिल का सौदा कर बैठी थी वो लड़की
बात बढ़ी तो ऐसे ही मसले बेहद संगीन हुए

राजनीति में सत्ता वाली कुर्सी कम मिल पाती है
इसी लिए वे सत्ता वालों के घर की कालीन हुए

तुमने दो से चार बनाए और चार से आठ किए
हम तो हम थे-एक हुए,दो हुए और फिर तीन हुए

वे अफ़सर थे उन्हें मुफ़्त मे मिल जाती थी लाल-परी
इसी लिए वे धीरे-धीरे परियों के शौकीन हुए

यूँ तो उम्र हमारी है चालीस बरस से कुछ ऊपर
हम कबीर शैली में लिखने के कारण प्राचीन हुए

जो बेहद मुश्किल लगता था उसको भी आसान किया

जो बेहद मुश्किल लगता था उसको भी आसान किया
हमने सपनों को सच कर लेने का अनुसंधान किया

इस कलियुग के दानवीर कर्णों की गाथा मत पूछो
जितना भी काला धन था वो मुक्त -हस्त से दान किया

आँखों में आँसू का झरना,अधरों पर मुस्कानें हैं
औरय्त ने इस द्वन्द्व-युद्ध में ख़ुद को लहु-लुहान किया

हमको चलना है लेकिन यह राजनीति तय करती है
हमने तो केवल नेता के कहने पर प्रस्थान किया

यह बदलाव कहाँ से आया कैसे आया, ज्ञात नहीं
प्रतिभा से ज़्यादा लोगों ने पैसे का सम्मान किया

धर्म-युद्ध की बात न करना धर्म-युद्ध आसान नहीं

धर्म-युद्ध की बात न करना धर्म-युद्ध आसान नहीं
धर्म-युद्ध करने वालों का इस युग में सम्मान नहीं

वो ऐसा व्यवहार न जाने क्यों करता है पत्नी से
जैसे उस औरत का उस के जीवन में स्थान नहीं

ये हो सकता है हम वे रेखाएँ खींच नहीं आये
हम अपने मुख-मण्डल की रेखाओं से अन्जान नहीं

हथियारों की होड़ विश्व को उस हद तक ले आई है
ऐसा कोई देश नहीं जो हथियारों की खान नहीं

जाने क्यों वो तितली हर दर्शक को नंगी लगती है
यह कहना भी मुश्किल है उसके तन पर परिधान नहीं

इसी लिए हम एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं
उसके कर में धनुष नहीं है मेरे कर में बान नहीं

जैसा फ़ीड करोगे वैसे उत्तर देगा कम्प्यूटर
कम्प्यूटर को आँख नहीं है, कम्प्यूटर को कान नहीं

जब भी औरत ने अपनी सीमा रेखा को पार किया

जब भी औरत ने अपनी सीमा- रेखा को पार किया
पार-गमन से पहले ख़ुद को कितने दिन तैयार किया

जनता को सहने की आदत है सब कुछ सह लेती है
किसी कष्ट को ले कर जनता ने कब हाहाकार किया

वो कारोबारी दिमाग था, सागर -तट पर जा बैठा
लहरें गिन-गिनकर भी उसने लाखों का व्यापार किया

द्वन्द्व-युद्ध जैसा ,कुछ मन के अन्दर चलता रहता है
क्यों चलता रहता है , तुमने इस पर कभी विचार किया?

वे केवल आरोपों की भाषा में बातें करते हैं
अच्छे कामों का भी, उन लोगों न्रे ग़लत प्रचार किया

जितनी ताक़त होगी उतना ही तो बोझ उठाएगा
उसने जो भी किया , स्वयं की क्षमता के अनुसार किया

निर्बल कोई भी हो, औरत, हरिजन अथवा शीशमहल
निर्बल पर ताक़तवर ने, हर युग में, अत्याचार किया

भीड़ में सबसे अलग ,सबसे जुदा चलता रहा

भीड़ में सबसे अलग ,सबसे जुदा चलता रहा
अंत में हर चलने वाला ‘एकला’ चलता रहा

रात भर चलते रहे सपने,यहाँ तक ठीक है
ये न पूछो—रात भर सपनों में क्या चलता रहा

रुक गए हम लोग, इस कारण ही पीछे रह गए,
हम रुके लेकिन, हमारा रास्ता चलता रहा

कौन अच्छा है, बुरा है कौन, इसमें मत उलझ
ये तो दुनिया है, यहाँ अच्छा-बुरा चलता रहा

तीन अक्षर वासना को एक कमरा चाहिए
ढाई आखर प्यार का पंछी खुला चलता रहा

जो पुराना था, उसी में करके थोड़ी काँट-छाँट
हर महीने ही कोई फ़ैशन नया चलता रहा

ज़िन्दगी में सिर्फ ऐसे लोग ही कुछ कर सके,
जिनके सँग ‘करने या मरने’ का नशा चलता रहा.

तीर कुछ इस तरह चलाते हैं

तीर कुछ इस तरह चलाते हैं
हम बहुत बार चूक जाते हैं

हाँ, कई बार जुगनुओं की तरह
अश्रु आँखों में झिलमिलाते हैं

लोग आँखों से सुन भी लेते हैं
फूल जिस वक़्त खिलखिलाते हैं

जिनके दस-बीस नाम होते हैं
वे पचीसों पते बताते हैं

अपने बिस्तर पे सो गए लेकिन
लोग सपनों में जाग जाते हैं

आप काग़ज़ के फूल हैं शायद
मुस्कुराते ही मुस्कुराते हैं !

लोग जिन रास्तों से दूर गए
वे ही रस्ते करीब लाते हैं.

जिसको चाहा उसी के साथ रहे

जिसको चाहा उसी के साथ रहे
नाव बन कर नदी के साथ रहे

है निरापद न ज़िन्दगी कोई
हादसे हर किसी के साथ रहे

आगे बढ़ने के कुछ निजी नुस्ख़े
हर सफल आदमी के साथ रहे

एक पत्नी सजी रही घर में
वो उधर प्रेयसी के साथ रहे

जो कमल कीच से दिखे ऊपर
मूलत: गन्दगी के साथ रहे

मोह-माया लगी रही जब तक
साँप भी केंचुली के साथ रहे

खुद से मिल कर भी मिल नहीं पाए
हम किसी अजनबी के साथ रहे.

धड़कता रहता है दिल साँस चलती रहती है

धड़कता रहता है दिल साँस चलती रहती है
नदी हमेशा लहू में उछलती रहती है

मैं ठोस रहना भी चाहूँ तो रह नहीं पाता
वो हिम की शैली में पल-पल पिघलती रहती है

ये राजनीति है - इसमें कई अजूबे हैं
समुद्र-जल में यहाँ दाल गलती रहती है

तमाम लोग उसे छल रहे हैं धन दे कर
वो रूप रंग से लोगों को छलती रहती है

मैं जो कहूँगा- वही बात मान लोगे तुम
मुझे तुम्हारी यही बात खलती रहती है

सिखा दिया है उसे ठोकरों ने चलना भी
वो गिरती रहती है गिर कर सम्हलती रहती है

मैं जानता हूँ कि चश्मा बदलने वाला है
समय के साथ, नज़र भी बदलती रहती है.

कूप-मण्डूक घर में रहे

कूप-मण्डूक घर में रहे
कल्पना के सफ़र में रहे

चैन से सो न पाए कभी
इस कदर लोग डर में रहे

बन रहे हैं जो खुद सुर्खियाँ
वे निरंतर सफ़र में रहे

जितने सूरजमुखी फूल थे
ख़ूब ख़ुश दोपहर में रहे

वो जो निर्णय नहीं ले सके
द्वैत उनके ही स्वर में रहे

दृष्टि-दोषों की मत पूछिए
हम सभी की नज़र में रहे

लोग विषधर नहीं थे मगर
विषधरों के असर में रहे.

न बदले मन से, सतह पर ज़रूर बदलेगा

न बदले मन से, सतह पर ज़रूर बदलेगा
ये सख़्त बर्फ़ का पत्थर ज़रूर बदलेगा

वो बन के बदलियाँ बरसेगा, मीठे पानी की
मुझे पता था-समंदर ज़रूर बदलेगा

ये बात सोच रही है वो कितने सालों से
वो कुछ महीनों के अन्दरज़रूर बदलेगा

मैं जानता था मिझे इसका ज्ञान था पहले
दिए वचन से, वो विषधर ज़रूर बदलेगा

पुराने घर से बदलना तो एक सपना था
वो अपने घर से निकलकर ज़रूर बदलेगा

वो एकमुश्त कभी भी बदल नहीं सकता
समय के साथ निरंतर ज़रूर बदलेगा

कभी तो अम्न की रुत आएगी ज़माने में
कभी तो युद्ध का तेवर ज़रूर बदलेगा.

बाज के हमले निरंतर हो गए

बाज के हमले निरंतर हो गए
रोज़ ही घायल कबूतर हो गए

अपनी मर्ज़ी से भी भागी लड़कियाँ
इस तरह लाखों ‘स्वयंवर’ हो गए

कुछ परिस्थितियाँ ही ऐसी थीं कि हम
पत्थरों के बीच पत्थर हो गए

जैसे-जैसे शाम पास आती गई
चाँदनी-से, धूप के स्वर हो गए

गोद में जिनको खिलाया था कभी
वो मेरे कद के बरबर हो गए

जब समंदर में समाए जल-प्रपात
यूँ लगा ‘सागर में गागर’ हो गए

आजतक ज़िन्दा है दुनिया में ‘कबीर’
ऐसे सर्जक भी अनश्चर हो गए.

सपनों में भी दृश्य ये पाया जाता है

सपनों में भी दृश्य ये पाया जाता है
मजबूरी का लाभ उठाया जाता है

फट पड़ने की सीमा तक गुब्बारों का
लोगों द्वारा कण्ठ दबाया जाता है

आम चुनावों तक सोता है ‘कुम्भकरण’
हर चुनाव में उसे जगाया जाता है

हाथी -घोड़ों की शैली में जगह-जगह
दूल्हों का बाज़ार लगाया जाता है

जिनको ठगना है,उन लोगों को अक्सर
पहले बातों में उलझाया जाता है

दोहे अथवा शे’र सुनाकर निर्बल को
संकेतों में भी धमकाया जाता है

करनी का विश्लेषण लोग नहीं करते
किस्मत को ही ढाल बनाया जाता है.

और भी खुश लुटेरे हुए

और भी खुश लुटेरे हुए
इतने गहरे अँधेरे हुए

याद आते ही मन में मेरे
दु:ख के बादल घनेरे हुए

ताल में सड़ गईं मछलियाँ
इसलिए चुप मछेरे हुए

कल जो शाही महल थे वो आज
भूत-प्रेतों के डेरे हुए

जब बहस व्यक्तिगत हो गई
शब्द-शर ‘तेरे’ ‘मेरे’ हुए

नागिनें द्वैत में फँस गईं
इतने ज़्यादा सपेरे हुए

हम गरीबों के संग भूखके
रोज़ ही, सात फेरे हुए.

हवा से पेड़ से या आदमी से

हवा से पेड़ से या आदमी से
कई बातें न कह पाए किसी से

वो जिसने ‘उर्वशी’ देखी नहीं है
वो तुलना कर रहा है ‘उर्वशी’ से

मैं अक्सर इस विषय में सोचता हूँ-
कमल जन्मा है कैसे गन्दगी से?

वो दुश्मन था मुझे तब डर नहीं था
मैं अब डरता हूँ उसकी दोस्ती से

नदी भी पार कर पाया नहीं है
वो केवल अपने मिश्चय की कमी से

हुआ है झील के पानी से कम्पन
तुम्हारी उस ज़रा-सी कंकरी से

महायुद्धों के ख़तरे कब टलेंगे
चलो,मैं पूछता हूँ आप ही से !

जब तक चुप रहता है,वो आसान दिखाई देता है

जब तक चुप रहता है, वो आसान दिखाई देता है
बात शुरू हो जाए तो तूफ़ान दिखाई देता है

उस पंछी में उड़ने की इच्छा अथवा उत्साह नहीं
जीवित हो कर भी, बिल्कुल बेजान दिखाई देता है

विक्रय की शैली में अपना रूप सजाने वाला वो
मुझको तो चलती-फिरती दूकान दिखाई देता है

फ़ैशन के कारण तन से आवश्यक कपड़े ग़ायब हैं
लज्जा के कारण तन पर परिधान दिखाई देता है

वो जो अपने घर मुझको मेहमान बना कर लाया है
वो ख़ुद ही अपने घर में मेहमान दिखाई देता है

जिस बेरहमी से पैसे को ख़र्च किया आयोजक ने
उसके कारण ही, वो धन ‘अनुदान’ दिखाई देता है

धूल-धूसरित, दुर्गम, सुविधाहीन गाँव की आँखों में
मुझको एक समूचा हिन्दोस्तान दिखाई देता है.

उसको घर लौट आना ही था

उसको घर लौट आना ही था
घोंसले में ठिकाना ही था

कैमरा ‘फ़ेस’ करते हुए
आदतन मुस्कुराना ही था

बूढ़े तोते पढ़ें न पढ़ें
शिक्षकों को पढ़ाना ही था

तन से व्यापार करती थी जो
रूप उसका खज़ाना ही था

शत्रु पर वार करना भी था
और ख़ुद को बचाना ही था

रोशनी घर में घुसते हुए
आँख को चौंधियाना ही था

मुक्ति के पक्षधर के लिए
ज़िन्दगी क़ैदख़ाना ही था.

एक दो तीन के बाद में चार हो

एक दो तीन के बाद में चार हो
जो भी जीवन में हो सिलसिलेवार हो

शेर ऐसे कहो जो चुभें तीर-से
साथ ही तीर की दूर तक मार हो

प्यार करने का अधिकार सबको मिले
प्यार पाने का भी सबको अधिकार हो

बर्फ़ होने न पाए ये संवेदना
हर समय साथ में सुर्ख़ अंगार हो

जैसे चिड़ियों ने दी थी विमानों की ज़िद
उस तरह कल्पनाओं का विस्तार हो

ऐसी सरकार चुनकर न आए कभी
वो जो उन्मादियों की तरफ़दार हो

फिर तो सागर को भी पार कर लेंगे हम
नाव हो और हाथों में पतवार हो.

कई ख़ुशबू भरी बातों से मिलकर

कई ख़ुशबू भरी बातों से मिलकर
शहर लौटे हैं देहातों से मिलकर

कोई षड्यंत्र करना चाहती है
अमा की रात, बरसातों से मिलकर

हमारी ये बड़ी दुनिया बसी है
कई नस्लों, कई ज़ातों से मिलकर

शहर कितना भयानक हो गया था
तुम्हारे ‘दल’ के उत्पातों से मिलकर

वो बूढ़ा पेड़ तन-मन से हरा है
टहनियों के हरे पातों से मिलकर

गवाहों को बदल सकती है भाषा
उस अपराधी की सौगातों से मिलकर

कई आयात के रस्ते खुले हैं
किसी ‘तितली’ के निर्यातों से मिलकर.

जब तलक फूल के वंशधर शेष हैं

जब तलक फूल के वंशधर शेष हैं
हर तरफ़, खुश्बुओं के नगर शेष हैं

इसलिए हो न पाई तरल वेदना
आँसुओं में कहीं हिम-शिखर शेष हैं

कैद में भी उड़ानें असंभव नहीं
अनगिनत कल्पनाओं के ‘पर’ शेष हैं

माँग सकती है दशरथ से कुछ भी कभी
कैकई के अभी तीन ‘वर’ शेष हैं

कद्र तब तक ही होगी हुनरमन्द की
सामने जब तलक बेहुनर शेष हैं

दल-बदल से यही एक अन्तर पड़ा-
जो इधर से गए वो उधर शेष हैं

एक भी मोर्चा बन्द होगा नहीं
हर तरफ़ ज़िन्दगी के समर शेष हैं.

कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई

कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई
बात आई -गई हो गई

बूंद, जिस क्षण नदी में गिरी
वो उसी क्षण नदी हो गई

कीच में घुस रहे थे कमल
हाँ, तभी रोशनी हो गई

कर्म कुछ और कुछ है कथन
नीति यूँ दोगली हो गई

एक सूखे हुए पेड़ की
शाख कैसे हरी हो गई

रात भर अपना तन बेचना
रोज़ की ज़िन्दगी हो गई

ढाई आखर की जाने कहाँ
तर्क से दुश्मनी हो गई.

ख़ुद-ब-ख़ुद हो गए आकाश के सपनों से अलग

ख़ुद-ब-ख़ुद हो गए आकाश के सपनों से अलग
लोग,जिस दिन हुए, उड़ने के इरादों से अलग

मैं तो कहता हूँ -ये व्यापार है सीधा-सीधा
प्यार करना है तो हो जाइए शर्तों से अलग

आपने देखे नहीं लोगों के असली चेहरे
लोग हो जाते हैं जब अपने मुखौटों से अलग

भाव शब्दों में बसे रहते हैं प्राणों की तरह
शब्द को कर नहीं पाया कोई भावों से अलग

मुझको झीलों में भी आईने नज़र आते हैं
मुझको आईने भी लगते नहीं झीलों से अलग.

वे अपनी हार, मुकद्दर के साथ जोड़ेंगे

वे लोग धरती को अंबर के साथ जोड़ेंगे
नदी का नाम समंदर के साथ जोड़ेंगे

बिना परों की उड़ानों का ज़िक्र कैसे हो
उड़ान को वो सदा ‘पर’के साथ जोड़ेंगे

हो चाहे बीस की लड़की को साठ साल का वर
मगर,वे रिश्ता बड़े घर के साथ जोड़ेंगे

बटेर को वे कबूतर से जोड़ते ही नहीं
बटेर को सदा तीतर के साथ जोड़ेंगे

वे अपनी करनी पे लज्जित कभी नहीं होंगे
वे अपनी हार, मुकद्दर के साथ जोड़ेंगे