सोमवार, मार्च 15, 2010

होता रहा जब राख मेरा घर मेरे आगे

होता रहा जब राख मेरा घर मेरे आगे
रोता ही रहा मेरा मुक़द्दर मेरे आगे

ख़ुशबू तो कई रंग की लाया है सवेरा
बिखरा है मगर शाम का मंज़र मेरे आगे

दिल हूँ मैं पता है मुझे क्या है मेरी अज़्मत
कुछ भी नहीं सहरा, ये समन्दर मेरे आगे

हो जाएगी ज़ख़्मी ये अना ही तो है आख़िर
मत फेंकिए इमदाद के गौहर मेरे आगे

ये कैसी हवा है जो कहो उल्टा करे है
फैला दिए आवाज़ के पत्थर मेरे आगे

हमारे जैसा बुरा उसका हाल था ही नहीं

हमारे जैसा बुरा उसका हाल था ही नहीं
मलाल कैसा, उसे तो मलाल था ही नहीं

गिरफ़्त तुम हुए जिसमें वो जाल था ही नहीं
वो हुस्न का था नज़र का कमाल था ही नहीं

ये और बात मुहब्बत हमें है जाँ से मगर
हम उसके सामने झुकते सवाल था ही नहीं

क़रीब जाके समन्दर के प्यासे लौट आए
हमारी प्यास का उसको ख़याल था ही नहीं

किसी भी अक्स के टुकड़े नहीं हुए उसमें
वो आईना था कुछ ऎसा कि बाल था ही नहीं

मिलेंगे ख़ार ही फूलों की चाह में
चमन में आने से पहले ख़्याल था ही नहीं

हमारे चाहने वाले बहुत हैं

हमारे चाहने वाले बहुत हैं
मगर दिल देखिए छाले बहुत हैं

नज़र ठोकर पे ठोकर खा रही है
उजाले हैं मगर काले बहुत हैं

भरोसा इसलिए तुम पर नहीं है
तुम्हारे ख़्वाब हरियाले बहुत हैं

अजी ये ख़ामशी टूटे तो कैसे
ज़ुबानों पर यहाँ ताले बहुत हैं

तमाशा मत बनाओ ज़िन्दगी को
तमाशा देखने वाले बहुत हैं

ये सब अमृत-कलश तुमको मुबारक
हमें तो ज़हर के प्याले बहुत हैं

उलझ कर रह गया हूँ मैं तो
तुम्हारे लफ़्ज़ घुँघराले बहुत हैं

हमने जाना मगर क़रार के बाद

हमने जाना मगर क़रार के बाद
ग़म ही मिलते हैं एतबार के बाद

क्यूँ न सारे चराग़ गुल कर दें
कौन आता है इन्तिज़ार के बाद

ख़ुशबुओं की तलाश बंद करो
फूल खिलते नहीं बहार के बाद

इक नज़र दे गई क़रार मगर
दर्द बढ़ता गया क़रार के बाद

अक्स पूरा नज़र नहीं आता
आईने में किसी दरार के बाद

करना पड़ता है वक़्त का एज़ाज़
हमने जाना मगर ख़ुमार के बाद

हमने कितने ख़्वाब सजाए याद नहीं

हमने कितने ख़्वाब सजाए याद नहीं
कितने आँसू ,आँख में आए याद नहीं

डूबे, उभरे ,फिर डूबे इक दरिया में
कितने ग़ोते हमने खाए याद नहीं

हमने बाँध रखी थी आँखों से पट्टी
उसने क्या-क्या रंग दिखाए याद नहीं

छत पर रात हमारा चाँद नहीं आया
हम कितने तारे गिन पाए याद नहीं

शिकवा ,गिला करना बेमानी लगता है
हमने कितने दर्द छुपाए याद नहीं

पत्थर भी फूलों जैसे लगते थे हमें
कब,किसने, कितने बरसाए याद नहीं

उसकी चाहत को छूने की हसरत में
हमने कितने पर फैलाए याद नहीं

हमको देखो ज़रा क़रीने से

हमको देखो ज़रा क़रीने से
हम नज़र आएँगे नगीने से

तुम मिलो तो निजात मिल जाए
रोज़ मरने से,और जीने से

रोज़ आँखें तरेर लेता है
एक तूफ़ाँ मेरे सफ़ीने से

मेहनतों का सिला मिलेगा तुम्हें
प्यार हो जाएगा पसीने से

कोहरे का गुमान टूट गया
धूप आने लगी है ज़ीने से

अब तो आँसू भी ख़त्म हो आए
कैसे निकलेगी आग सीने से

दिल के ज़ख़्मों को क्या कहें
नाग लिपटे हुए हैं सीने से

वो तो क्या-क्या सितम नहीं करते

वो तो क्या-क्या सितम नहीं करते
हम ही आँखों को नम नहीं करते

आँधियों से हो दुश्मनी तो फिर
लौ चराग़ों की कम नहीं करते

आप की बात देख ली हमने
आप से बात हम नहीं करते

आँसुओं से है दोस्ती लेकिन
दर्द दिल पर रक़म नहीं करते

ऐ मेरे हाथ काटने वालो
सर मेरा क्यूँ क़लम नहीं करते

तोड़ देता है जब कोई दिल को
ग़म तो होता है, ग़म नहीं करते

मेरी क़िस्मत सँवर भी सकती है
आप चश्मे - करम नहीं करते

वहाँ चराग़ यहाँ रौशनी का साया है

वहाँ चराग़ यहाँ रौशनी का साया है
सफ़र के बाद उजाला क़रीब आया है

उड़ा हुआ है बहुत रंग उसके चेहरे का
ये जब है, राज़ से पर्दा नहीं हटाया है

वो इक चांद सभी के लिए है और इक चांद
ख़ुदा ने सिर्फ़ हमारे लिए बनाया है

सिसक रही थीं बड़ी देर से लवें ख़ुद ही
चराग़ तेज़ हवा ने कहाँ बुझाया है

बस एक रुह से बावस्तगी है दुनिया में
ये अपना जिस्म भी अपना नहीं पराया है

लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं

लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं

उनके बयाँ जब बर्छीले हो जाते हैं
बस्ती में ख़ंजर गीले हो जाते हैं

चलती हैं जब सर्द हवाएँ यादों की
ज़ख़्म हमारे दर्दीले हो जाते हैं

जेब में जब गर्मी का मौसम आता है
हाथ हमारे , ख़र्चीले हो जाते हैं

आँसू की दरकार अगर हो जाए तो
याद के बादल रेतीले हो जाते हैं

रंग - बिरंगे सपने दिल में रखना
आँखों में सपने गीले हो जाते हैं

फ़स्ले-ख़िज़ाँ जब आती है तो
फूल जुदा, पत्ते पीले हो जाते हैं

रौशनी की महक जिन चराग़ों में है

रौशनी की महक जिन चराग़ों में है
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है

है दिलों में मुहब्बत जवाँ आज भी
पहले जैसी ही ख़ुशबू गुलाबों में है

प्यार बाँटोगे तो प्यार मिल जाएगा
ये ख़ज़ाना दिलों की दराज़ों में है

आने वाला है तूफ़ान फिर से कोई
ख़लबली-सी बहुत आशियानों में है

तय हुआ है न होगा कभी दोस्तो
फ़ासला वो जो दोनों किनारों में है

ठेस लगती है तो टूट जाते हैं दिल
जान ही कितनी शीशे के प्यालों में है

उसकी क़ीमत समन्दर से कुछ कम नहीं
कोई क़तरा अगर रेगज़ारों में है

रेगिस्तानी आँखों में भी हैं तस्वीरें पानी की

रेगिस्तानी आँखों में भी हैं तस्वीरें पानी की
क्या-क्या पेश करूँ बतलाओ और नज़ीरें पानी की

मिटने से भी मिट न सकेंगी चंद लकीरें पानी की
पत्थर पर मौजूद रहेंगी कुछ तहरीरें पानी की

ख़्वाबों को कतरा-कतरा हो जाना है, बह जाना है
पानी-पानी हो जाती हैं सब ताबीरें पानी कीं

तैरना आत है लेकिन मैं डूब रहा हूँ दरिया में
पानी की ये लहरें हैं या हैं जंज़ीरें पानी की

दिल टूटा तो ख़ून बहेगा आँखों से आँसू की जगह
आँखों को ज़ख़्मी कर देती हैं शमशीरें पानी की

जाम हुए रौशन यूँ जैसे रौशन होते जाएँ चराग़
रंग-बिरंगी हमनें देखी हैं तासीरें पानी की

धुंधला-धुंधला हो जाता है मंज़र जो भी हो 'गुलशन'
आँखों में जब जश्न मनाती हैं तस्वीरें पानी की

राहे उल्फ़त में मुक़ामात पुराने आए

राहे उल्फ़त में मुक़ामात पुराने आए
तुम न आए तो मुझे याद फ़साने आए

वक़्ते-रुख़्सत न दिया साथ ज़ुबाँ ने लेकिन
अश्क बन कर मेरी आँखों में तराने आए

रात के वक़्त हर इक सिम्त थे नक़ली सूरज
साए थे अस्ल जो किरदार निभाने आए

वक़्त आता ही नहीं लौट के ये बात है झूठ
मेरी आँखों में कई गुज़रे ज़माने आए

ज़िन्दगी हार गई हार का मातम न किया
ऐसे लम्हात तो कितने ही न जाने आए

घर मेरा जल गया लेकिन ये तसल्ली है मुझे
आग जो दे के गए आग बुझाने आए

मेरे क़रीब जितने अँधेरे थे हट गए

मेरे क़रीब जितने अँधेरे थे हट गए
उनसे मिला तो मुझसे उजाले लिपट गए

दरिया जो दरमियान था, गहरा न था मगर
पानी में जब पड़े तो मेरे पैर कट गए

आया ख़याले-आशियाँ उड़ते हुए मुझे
फैले हुए हवा में, जो पर थे सिमट गए

मेरा फ़साना तुमने सभी को सुना दिया
वो दर्दो-ग़म जो मेरे थे, हिस्सों में बँट गए

नींदें उचट गईं मेरी आँखों से और फिर
ये हुआ कि ख़्वाब-सलौने उचट गए

देखा जब उसको सामने,रौशन हुए चराग़
दिल के तमाम रास्ते फूलों से पट गए

मिलने-जुलने की शुरुआत कहाँ से होती

मिलने-जुलने की शुरुआत कहाँ से होती
फ़ासले थे तो मुलाक़ात कहाँ से होती

एक बस आग-सी सीने में लिए फिरते रहे
ऎसे बादल थे तो बरसात कहाँ से होती

क़ैद कर ही लिया सूरज को जब आँखों ने तो फिर
दिल की दुनिया में कोई रात कहाँ से होती

राह में बन गई दीवार हया की परतें
बन्द आँखें थीं कोई बात कहाँ से होती

हमको मालूम था, है कौन हमारा दुश्मन
ऎसी सूरत में कोई घात कहाँ से होती

मंज़र क्या पसमंज़र मेरे सामने है

मंज़र क्या पसमंज़र मेरे सामने है फूल नहीं है पत्थर मेरे सामने है

मैं तो अपनी प्यास बुझाने आया था प्यासा एक समंदर मेरे सामने है

जान से जाऊँ या में उसकी बात रखूँ ख़ून में डूबा ख़ंजर मेरे सामने है

साहिल मिल जाए तो पार उतर जाऊँ चारों सम्त समंदर मेरे सामने है

सच खोलूँ तो ख़ून बहेगा सड़कों पर इक झूठा आडंबर मेरे सामने है

सोच रहा हूँ आईने से लोहा लूँ मुझसा एक सिकंदर मेरे सामने है

बहुत ख़फ़ा हैं वो आज हमसे

बहुत ख़फ़ा हैं वो आज हमसे हमें बस इतना जता रहे हैं
हमी से नज़रें मिलाना सीखे हमी से नज़रें चुरा रहे हैं

गिरा-गिरा कर दिलों पे बिजली कमाल अपना दिखा रहे हैं
कभी वो पर्दा उठा रहे हैं,कभी वो पर्दा गिरा रहे हैं

अजब तमाशा है ये मुहब्बत,खिलाए गुल क्या,खु़दा ही जाने
लिखा था हमने जो ख़ूने-दिल से,वो आँसुओं से मिटा रहे हैं

है उनके होठों पे जामे-सेहबा,हमारी क़िस्मत में चन्द आँसू
वो अपना मौसम बना रहे हैं,हम अपने ग़म को भुला रहे हैं

न लफ़्ज़ कोई,न लब पे जुम्बिश कलाम आँखों से हो रहा है
उन्हें हम अपनी सुना रहे हैं,हमें वो अपनी सुना रहे हैं

दिल है उसी के पास,हैं साँसें उसी के पास

दिल है उसी के पास,हैं साँसें उसी के पास
देखा उसे तो रह गईं आँखें उसी के पास

बुझने से जिस चराग़ ने इन्कार कर दिया
चक्कर लगा रही हैं हवाएँ उसी के पास

मज़हब का नाम दीजिए या कोई और नाम
सब जा रही हैं दोस्तो राहें उसी के पास

वो दूर तो बहुत है मगर इसके बावजूद
गुज़री हैं फ़ुर्क़तों की भी रातें उसी के पास

उसको पता नहीं है वफ़ा क्या है,क्या जफ़ा
हम छोड़ आए दिल की किताबें उसी के पास

दिल को सुकून दीदा-ए-तर ने नहीं दिया

दिल को सुकून दीदा-ए-तर ने नहीं दिया
ज़ख़्मों को नम हवाओं ने भरने नहीं दिया

दामन पे आँसुओं को बिखरने नहीं दिया
दरिया को साहिलों से उभरने नहीं दिया

हमने ग़मों के साथ गुज़ारी है ज़िन्दगी
मंज़र कोई ख़ुशी का नज़र ने नहीं दिया

ये और बात मिल गई मंज़िल हमें मगर
मंज़िल का नक्श राहगुज़र ने नहीं दिया

तूफ़ाँ तो बरख़िलाफ़ था उसका गिला नहीं
मौजों ने भी तो मुझको उभरने नहीं दिया

तुमने कितनी क़समें खाईं याद करो

तुमने कितनी क़समें खाईं याद करो
हम थे तुम्हारी ही परछाईं याद करो

फूल बहुत ख़ुशबू देते थे चाहत के
कलियाँ फिर कैसे कुम्हलाईं याद करो

पहले था ख़ामोश मुहब्बत का दरिया
लहरें फिर कैसी लहराईं याद करो

कितनी सुहानी थी वो रंगों की दुनिया
रातें फिर कितनी गहराईं याद करो

कितने वादे कितने इरादे थे दिल में
भूल गए तुम सब कुछ साईं याद करो

जो ख़त लिखे हुए थे किताबों में रह गए

जो ख़त लिखे हुए थे किताबों में रह गए
आँखों में जितने ख़्वाब थे आँखों में रह गए

ऐसी हवा चली कि बुझाती गई चराग़
यानी उजाले क़ैद चराग़ों में रह गए

गु्मनाम हो गए कई चेहरे जो आम थे
जो चेहरे आफ़्त्ताब थे यादों में रह गए

फ़स्ले-ख़िज़ाँ ने तोड़ लीं कलियाँ उमीद की
खिलने से अबके फूल बहारों में रह गए

सुलझा रही थी ज़िन्दगी उलझे हुए सवाल
आई क़ज़ा सवाल क़तारों में रह गए

जहाँ भी आबो-दाना हो गया है

जहाँ भी आबो-दाना हो गया है
वहीं अपना ठिकाना हो गया है

हमारे ख़्वाब का ताबीर से अब
तअ'र्रूफ़ ग़ायबाना हो गया है

हम अपने दिल का सौदा कर तो लेते
मगर दुश्मन ज़माना हो गया है

खिलौने के लिए करता नहीं ज़िद
मेरा बच्चा सयाना हो गया है

लिखा था उसने जो परदेस जाकर
वो ख़त भी अब पुराना हो गया है

गुज़ारे के लिए एक आशियाना कम नहीं होता

गुज़ारे के लिए एक आशियाना कम नहीं होता
महल वालों से छप्पर का ठिकाना कम नहीं होता

मेरे घर जो भी आता है वो बरकत साथ लाता है
परिन्दे छत पे आते हैं तो दाना कम नहीं होता

बहाना ढूँढते हैं आप मिलने का न जाने क्या
हक़ीक़त ये है मिलने का बहाना कम नहीं होता

मुहब्बत ऎसी दौलत है कि जो दिन रात बढ़ती है
लुटाए जाइए लेकिन ख़ज़ाना कम नहीं होता

ज़ुबाँ से बात कह देना बहुत लाज़िम नहीं
अमीरे-शह्र से आँखें मिलाना कम नहीं होता

ख़ुशबुओं की तरह जो बिखर जाएगा

ख़ुशबुओं की तरह जो बिखर जाएगा
अक़्स उसका दिलों में उतर जाएगा

दर्द से रोज़ करते रहो गुफ़्तगू
ज़ख़्म गहरा भी हो तो वो भर जाएगा

वो न ख़ंजर से होगा न तलवार से
तीर नज़रों का जो काम कर जाएगा

हसरतों के चराग़ों को रौशन करो
दिल तुम्हारा उजालों से भर जाएगा

वक़्त कैसा भी हो वो ठहरता नहीं
जो बुरा वक़्त है वो गुज़र जाएगा

धड़कनों की तरह चल रही है घड़ी
एक दिन वक़्त यानी ठहर जाएगा

ज़िन्दगी से मुहब्बत बहुत हो गई
जाने कब दिल से मरने का डर जाएगा

कौन अपना है ये चेहरों से नहीं जानते हैं

कौन अपना है ये चेहरों से नहीं जानते हैं
हम तो नाबीना हैं आवाज़ से पहचानते हैं

घूम लेते हैं जहाँ भर में कहीं जाए बग़ैर
हम वो आवारा हैं जो ख़ाक नहीं छानते हैं

बात निकलेगी जो मुँह से तो बिखर जाएगी
आप इस शहर के लोगों को नहीं जानते हैं

सामना करते हैं तूफ़ान का जी-जान से हम
हम सफ़ीने पे कभी पाल नहीं तानते हैं

झूठ बोलें ये मुनासिब तो नहीं लगता मगर
सच अगर साफ़ कहें लोग बुरा मानते हैं

काश ! अपना भी कोई चाहने वाला हो जाए

काश ! अपना भी कोई चाहने वाला हो जाए
ज़िन्दगी जीने का अंदाज़, निराला हो जाए

इसक़दर तीरगी फैली है ज़मीं पर यारो
चाँद जो छत से उतर आए, तो काला हो जाए

मैं अगर चाहूँ तो, मिट जाए ग़रीबी मेरी
मेरी क़िस्मत में भी सोने का निवाला हो जाए

रौशनी कब से नज़रबंद है आँखों में तेरी
तू नज़र अपनी, उठादे तो उजाला हो जाए

रोज़ दिल तेरे लिए ये ही दुआ करता है
ऐ ग़ज़ल मेरी तेरा हुस्न दुबाला हो जाए

क़ीमती हो न हो सौग़ात से डर लगता है

क़ीमती हो न हो सौग़ात से डर लगता है
मुझको ग़मख़ेज़ रवायात से डर लगता है

आईना ऎब निकाले है बराबर मुझमें
ख़ुद से मिलना है मुलाक़ात से डर लगता है

जीने-मरने का कोई ख़ौफ़ नहीं था पहले
अब ये आलम है कि हर बात से डर लगता है

डूबने से मैं बचा लेता हूँ सूरज का वुजूद
ख़ुदग़रज हूँ कि मुझे रात से डर लगता है

बूंदा-बांदी से हरज कोई नहीं, हो जाए
तेज़ होती हुई बरसात से डर लगता है

कर लिए मैंने मौहब्बत में अना के टुकड़े

कर लिए मैंने मौहब्बत में अना के टुकड़े
रह गए पास मेरे मेरी वफ़ा के टुकड़े

रूठने की उसे आदत थी मनाने की मुझे
आ गए मुझमें भी कुछ उसकी अदा के टुकड़े

रौशनी पर कोई तलवार नहीं चल सकती
चाहे कर दीजिए कितने भी ज़िया के टुकड़े

ये तो मालूम नहीं कितनी सज़ा है लेकिन
और कम हो गए कुछ अपनी सज़ा के टुकड़े

डूबने वाले को इक चाह यही रहती है
काश! मिल जाएँ कुछ ऎसे में हवा के टुकड़े

उसने एक बार कभी दिल से पुकारा था मुझे
आज भी गूँज रहे हैं वो सदा के टुकड़े

आंधियाँ चलती रहीं उड़ते रहे पैराहन
दूर होते रहे जिस्मों से हया के टुकड़े

टूटने से मेरी बच जाए ये साँसों की लड़ी
मुझको मिल जाएँ कहीं से जो दुआ के टुकड़े

उम्र भर जिस आईने की जुस्तजू करते रहे

उम्र भर जिस आईने की जुस्तजू करते रहे
वो मिला तो हम नज़र से गुफ़्तगू करते रहे

ज़ख़्म पर वो ज़ख़्म देते ही रहे दिल को मगर
हम भी तो कुछ कम न थे हम भी रफ़ू करते रहे

बुझ गए दिल में हमारे जब उमीदों के चराग़
रौशनी जुगनू बहुत से चारसू करते रहे

वो नहीं मिल पाएगा मालूम था हमको मगर
जाने फिर क्यूँ हम उसी की आरज़ू करते रहे

आपने तहज़ीब के दामन को मैला कर दिया
आप दौलत के नशे में तू ही तू करते रहे

ख़ुशबुएँ पढ़कर नमाज़ें हो गईं रुख़्सत मगर
फूल शाख़ों पर ही शबनम से वुज़ू करते रहे

आईने क्या जानते हैं क्या बताएँगे मुझे
आईने ख़ुद नक़्ल मेरी हू-ब-हू करते रहे

उन्हें अब ज़ख़्म सीना आ गया है

उन्हें अब ज़ख़्म सीना आ गया है
हमें भी जेहर पीना आ गया है

हक़ीक़त ये है तूफ़ाँ की बदौलत
किनारे पर सफ़ीना आ गया है

मेरी आँखें मुक़द्दस हो गई हैं
इन आँखों में मदीना आ गया है

अजी ये ओस की बूंदें नहीं हैं
ये फूलों को पसीना आ गया है

हमें अब मौत से डर क्या लगेगा
हमें क़िस्तों में जीना आ गया है

किनारे पर वो देखो आस्माँ के
उजाला झीना-झीना आ गया है

इक परिन्दा आज मेरी छत पे मंडराया तो है

इक परिन्दा आज मेरी छत पे मंडराया तो है
डूबती आँखों में कोई अक्स गहराया तो है

देखिए अंजाम क्या होता है इस आग़ाज़ का
आज इक शीशा किसी पत्थर से टकराया तो है

डूबने वाले को तिनके का सहारा ही बहुत
एक साया-सा धुंधलके में नज़र आया तो है

नेकियाँ इंसान की मरती नहीं मरने के बाद
ये बुज़ुर्गों ने किताबों में भी फ़रमाया तो है

आहटें सुनता रहा हूँ देर तक क़दमों की मैं
कोई मेरे साथ चल कर दूर तक आया तो है

धूप के साए में खु़द को समझाता हूँ यूँ
छत नहीं सर तो क्या सूरज का सरमाया तो है

आवाज़ सुनी मेरी न रूदाद किसी ने

आवाज़ सुनी मेरी न रूदाद किसी ने
तरजीह न दी मुझको तेरे बाद किसी ने

परवाज़ से उसकी ये गुमाँ हो तो रहा था
पिंजरे से किया है उसे आज़ाद किसी ने

आता ही नहीं सामने पर्दे से निकलकर
वैसे उसे देखा भी है, इक-आद किसी ने

आँखों में उभर आया उसी वक़्त कोई अक़्स
जिस वक़्त किया मुझको कहीं याद किसी ने

दामन मेरा ख़ुशियों से सराबोर है यानी
की होगी मेरे वास्ते फ़रियाद किसी ने

इस शहर का अफ़साना कोई ख़ास नहीं है
आबाद किसी ने किया बरबाद किसी ने

आँखों वाले धोका खाने वाले हैं

आँखों वाले धोका खाने वाले हैं
बेपर्दा वो सामने आने वाले हैं

यादों का मौसम बरसाती होता है
पानी लेकर बादल आने वाले हैं

मैं अपनी परछाईं से डर जाता हूँ
अपने हैं, जो लोग डराने वाले हैं

बदला है वो और न बदलेगा शायद
उसके वो ही हाल पुराने वाले हैं

दरिया देख रहा है कितनी हसरत से
लेकिन हम कब प्यास बुझाने वाले हैं

जादूगर आँखों से जादू करता है
सबके सब पत्थर हो जाने वाले हैं

हम तो अपने मन के राजा हैं 'गुलशन'
हम किसकी बातों में आने वाले हैं

आँखें जब ख़ामोशी गाने लगती हैं

आँखें जब ख़ामोशी गाने लगती हैं
दरपन से आवाज़ें आने लगती हैं

दिल में क़ैद तमन्नाओं को मत करना
दीवारों से सर टकराने लगती हैं

साहिल पर मिलता है सुकूँ दिल को लेकिन
लहरें हैं, एहसान जताने लगती हैं

मैंने ख़्वाबों की बस्ती को छोड़ दिया
आँखें ही तो हैं अलसाने लगती हैं

ऎसा ही होता है चाँदनी रातों में
यादें आकर दिल बहलाने लगती हैं

टूटे और पुराने घर में कौन रहे
खंडहर में रातें गहराने लगती हैं

कितना मुश्किल होता है राहें तकना
अर्ज़ ये है आँखें पथराने लगती हैं

आँखें भी पाग़ल हो जाती हैं शायद
कैसे-कैसे ख़्वाब सजाने लगती हैं

अब चलो ये भी ख़ता की जाए

अब चलो ये भी ख़ता की जाए
दिल के दुशमन से वफ़ा की जाए

वो ही आए न बहारें आईं
क्या हुई बात पता की जाए

है इसी वक़्त ज़रूरत उसकी
बावुज़ू हो के दुआ की जाए

ज़ुल्म भरपूर किए हैं तूने
अब अनायत भी ज़रा की जाए

दर्दे-दिल है ये मज़ा ही देगा
दर्दे-सर हो तो दवा की जाए

हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं

हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|

रास्ते कारवाँ के साथ रहे,
मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं|

अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|

इन को आँधि में ही बिखरना था,
बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं|

उस गली ने ये सुन के सब्र किया,
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं|

हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,
हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं|

जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका

जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका|
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका|

जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं|
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं|

फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|

चार सू मेहरबाँ है चौराहा

चार सू मेहरबाँ है चौराहा
अजनबी शहर अजनबी बाज़ार
मेरी तहवील में हैं समेटे चार
कोई रास्ता कहीं तो जाता है
चार सू मेहरबाँ है चौराहा

ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ

ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|

ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|

अब त'मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|

आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|

ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ|

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे|
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे|

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा,
यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे|

बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो,
दीवारें गिर जाती होंगी आँगन रह जाते होंगे|

मेरी साँस उखड़ते ही सब बैं करेंगे रोएंगे,
यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे|

यारो कुछ तो बात बताओ उस की क़यामत बाहों की,
वो जो सिमटते होंगे इन में वो तो मर जाते होंगे|

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही घमजे
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं

कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मैं

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे

कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे

कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे

अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे

ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे

कल रात बहुत ग़ौर् किया है सो हम ए
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे

हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई

हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
शौक़ में कुछ नहिण गया शौक़ की ज़िंदगी गई

तेरा फिराक़ जान-ए-जां ऐश था क्या मेरे लिए
यानी तेरे फिराक़ में खूब शराब पी गई

तेरे विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल कह थी खराब और खराब की गई

एक ही हादसा तो है और वो यह कह आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई

बाद भी तेरे जान-ए-जां दिल में रहा अजब समाँ
याद रही तेरी यहाँ फिर तेरी याद भी गई

दिल ने वफ़ा के नाम पर

दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया

कैसे कहें के तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया

तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया

जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया

जिस को भी शेख़-ओ-शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया

निस्बत-ए-इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जेहन भी बे-उलामा नहीं किया

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर बसर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो

तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो


मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो


मैं ने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैं ने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो

यह गम क्या दिल की आदत है? नहीं तो

यह गम क्या दिल की आदत है? नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो

है वो इक ख्वाब-ए-बे ताबीर इसको
भुला देने की नीयत है? नहीं तो

किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है ? नहीं तो

किसी सूरत भी दिल लगता नहीं? हाँ
तू कुछ दिन से यह हालत हैं? नहीं तो

तेरे इस हाल पर हैं सब को हैरत
तुझे भी इस पर हैरत है? नहीं तो

वो दरवेशी जो तज कर आ गया.....तू
यह दौलत उस की क़ीमत है? नहीं तो

हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हकायत है ? नहीं तो

अज़ीयत नाक उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत है? नहीं तो

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था मलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अंगड़ाई शरमाई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की खुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है

हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम

हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम,
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं,

तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम,
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं,

तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो आज़ाब में,
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं,

ख़ामोशी कह रही है

ख़ामोशी कह रही है, कान में क्या
आ रहा है मेरे, गुमान में क्या

अब मुझे कोई, टोकता भी नहीं
यही होता है, खानदान में क्या

बोलते क्यों नहीं, मेरे हक़ में
आबले पर गये, ज़ुबान में क्या

मेरी हर बात, बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ, मेरे बयान में क्या

वो मिले तो ये, पूछना है मुझे
अभी हूँ मैं तेरी, अमान में क्या

शाम ही से, दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुकसान तक, दुकान में क्या

यूं जो तकता है, आसमान को तू
कोई रहता है, आसमान में क्या

ये मुझे चैन, क्यूँ नहीं पड़ता
इक ही शख़्स था, जहान में क्या

हिज्र की पहली शाम के साये

हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे



जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे



मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे



उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे



कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे



कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे



रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे

हर बेज़ुबाँ को शोला-नवा कह लिया करो

हर बेज़ुबाँ को शोला-नवा[1] कह लिया करो
यारो, सुकूत[2] ही को सदा[3] कह लिया करो

ख़ुद को फ़रेब दो कि न हो तल्ख़ ज़िन्दगी
हर संगदिल को जाने-वफ़ा कह लिया करो

गर चाहते हो ख़ुश रहें कुछ बंदगाने-ख़ास[4]
जितने सनम हैं उनको ख़ुदा कह लिया करो

यारो ये दौर ज़ौफ़-ए-बसारत[5] का दौर है
आँधी उठे तो उसको घटा कह लिया करो

इंसान का अगर क़द-ओ-क़ामत[6] न बढ़ सके
तुम उसको नुक़्स-ए-आब-ओ-हवा[7]कह लिया करो

अपने लिए अब एक ही राह-ए-नजात[8] है
हर ज़ुल्म को रज़ा-ए-ख़ुदा[9] कह लिया करो

दिखलाए जा सकें जो न काँटे ज़ुबान के
तुम दास्तान-ए-कर्ब-ओ-बला[10] कह लिया करो

ले-दे के अब यही है निशान-ए-ज़िया[11] क़तील
जब दिल जले तो उसको दिया कह लिया करो
शब्दार्थ:

↑ जिसकी आवाज़ में आग हो
↑ मौन
↑ आवाज़
↑ विशेष उपासक
↑ दृष्टि की कमज़ोरी
↑ डील-डौल
↑ जलवायु का दोष
↑ मुक्ति का रास्ता
↑ ईश्वरेच्छा
↑ दुखों की कहानी
↑ प्रकाश का चिह्न

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं



बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं



मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं



किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं



ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं



ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं



जागा हुआ ज़मीर वो आईना है
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

शाम के साँवले चेहरे को निखारा जाये

शाम के साँवले चेहरे को निखारा जाये
क्यों न सागर से कोई चाँद उभारा जाये



रास आया नहीं तस्कीं का साहिल कोई
फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाये



मेहरबाँ तेरी नज़र, तेरी अदायें क़ातिल
तुझको किस नाम से ऐ दोस्त पुकारा जाये



मुझको डर है तेरे वादे पे भरोसा करके
मुफ़्त में ये दिल-ए-ख़ुशफ़हम न मारा जाये



जिसके दम से तेरे दिन-रात दरख़्शाँ थे "क़तील"
कैसे अब उस के बिना वक़्त गुज़ारा जाये

शम्मअ़-ए-अन्जुमन

मैं ज़िन्दगी की हर-इक साँस को टटोल चुकी
मैं लाख बार मुहब्बत के भेद खोल चुकी
मैं अपने आपको तनहाइयों में तोल चुकी
मैं जल्वतों में2 सितारों के बोल बोल चुकी
-मगर कोई भी न माना



वफा़ के दाम3 बिछाए गए क़रीने से4
मगर किसी ने भी रोका न मुझको जीने से
किसी ने जाम चुराए हैं मेरे सीने से
किसी ने इत्र निचोड़ा मेरे पसीने से
-किसी को ग़ैर न जाना



मेरी नज़र की गिरह खुल गई तो कुछ भी न था
जो बाज़ुओं में कहीं तुल गई तो कुछ भी न था
मेरे लबों से5 शफ़फ़6 धुल गई तो कुछ भी न था
जवाँ रही, सो रही, घुल गई तो कुछ भी न था।
-कि लुट चुका था ख़ज़ाना



रही न साँस में ख़ुशबू तो भाग फूट गए
गया शबाब7 तो अपने पराए छूट गए
कोई तो छोड़ गए कोई मुझको लूट गए
महल गिरे सो गिरे, झोंपडे भी टूट गए
-रहा न कोई ठिकाना

1.महफ़िल का दीपक (सुन्दरी) 2.सबके सामने। 3.जाल। 4.सुरीति से। 5.होंठों से। 6.उषा की लाली। 7.यौवन।

वो दिल ही क्या

वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे



रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे



ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे



सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे



ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे

वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें

वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें
वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें



ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई
ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैनें



कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़
अगर चिराग़ बुझा, दिल जला लिया मैनें



कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था
वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैनें



"क़तील" जिसकी अदावत में एक प्यार भी था
उस आदमी को गले से लगा लिया मैनें

वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें

वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें
वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें



ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई
ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैनें



कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़
अगर चिराग़ बुझा, दिल जला लिया मैनें



कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था
वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैनें



"क़तील" जिसकी अदावत में एक प्यार भी था
उस आदमी को गले से लगा लिया मैनें

इस जगह प्यार करना मना है

लिख दिया अपने दर पे किसी ने, इस जगह प्यार करना मना है
प्यार अगर हो भी जाए किसी को, इसका इज़हार करना मना है

उनकी महफ़िल में जब कोई आये, पहले नज़रें वो अपनी झुकाए
वो सनम जो खुदा बन गये हैं, उनका दीदार करना मना है

जाग उठ्ठेंगे तो आहें भरेंगे, हुस्न वालों को रुसवा करेंगे
सो गये हैं जो फ़ुर्क़त के मारे, उनको बेदार करना मना है

हमने की अर्ज़ ऐ बंदा-परवर, क्यूँ सितम ढा रहे हो यह हम पर
बात सुन कर हमारी वो बोले, हमसे तकरार करना मना है

सामने जो खुला है झरोखा, खा न जाना क़तील उसका धोखा
अब भी अपने लिए उस गली में, शौक-ए-दीदार करना मना है

रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में

रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में



वो जिन के आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में



ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में



तलाश उनको हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उनसे
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में

रक़्स करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में

रक़्स करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में
हमने ख़ुश होके भँवर बाँध लिये पावों में



उन को भी है किसी भीगे हुए मंज़र की तलाश
बूँद तक बो न सके जो कभी सहराओं में



ऐ मेरे हम-सफ़रों तुम भी थाके-हारे हो
धूप की तुम तो मिलावट न करो चाओं में



जो भी आता है बताता है नया कोई इलाज
बट न जाये तेरा बीमार मसीहाओं में



हौसला किसमें है युसुफ़ की ख़रीदारी का
अब तो महंगाई के चर्चे है ज़ुलैख़ाओं में



जिस बरहमन ने कहा है के ये साल अच्छा है
उस को दफ़्नाओ मेरे हाथ की रेखाओं में



वो ख़ुदा है किसी टूटे हुए दिल में होगा
मस्जिदों में उसे ढूँढो न कलीसाओं में



हम को आपस में मुहब्बत नहीं करने देते
इक यही ऐब है इस शहर के दानाओं में



मुझसे करते हैं इस लिये कुछ लोग हसद
क्यों मेरे शेर हैं मक़बूल हसीनाओं में

यों लगे दोस्त तेरा मुझसे ख़फ़ा हो जाना

यों लगे दोस्त तेरा मुझसे ख़फ़ा हो जाना
जिस तरह फूल से ख़ुश्बू का जुदा हो जाना



अहल-ए-दिल से ये तेरा तर्क-ए-त'अल्लुक़
वक़्त से पहले असीरों का रिहा हो जाना



यों अगर हो तो जहाँ में कोई काफ़िर न रहे
मो'अजुज़ा तेरे वादे का वफ़ा हो जाना



ज़िन्दगी मैं भी चलूँगा तेरे पीछे-पीछे
तू मेरे दोस्त का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हो जाना



जाने वो कौन सी कैफ़ियत-ए-ग़मख़्वारी है
मेरे पीते ही "क़तील" उसको नशा हो जाना

ये मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे

ये मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
कि संग तुझपे गिरे और ज़ख़्म आये मुझे



वो महरबाँ है तोप इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे



मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही दोपहर न भाये मुझे



मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरहना शहर में कोई नज़र न आये मुझे



वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे



मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे

यूँ चुप रहना ठीक नहीं कोई मीठी बात करो

यूँ चुप रहना ठीक नहीं कोई मीठी बात करो
मोर चकोर पपीहा कोयल सब को मात करो



सावन तो मन बगिया से बिन बरसे बीत गया
रस में डूबे नग़्मे की अब तुम बरसात करो



हिज्र की इक लम्बी मंज़िल को जानेवाला हूँ
अपनी यादों के कुछ साये मेरे साथ करो



मैं किरनों की कलियाँ चुनकर सेज बना लूँगा
तुम मुखड़े का चाँद जलाओ रौशन रात करो



प्यार बुरी शय नहीं है लेकिन फिर भी यार "क़तील"
गली-गली तक़सीम न तुम अपने जज़बात करो

यारो किसी क़ातिल से कभी प्यार न माँगो

यारो किसी क़ातिल से कभी प्यार न माँगो
अपने ही गले के लिये तलवार न माँगो



गिर जाओगे तुम अपने मसीहा की नज़र से
मर कर भी इलाज-ए-दिल-ए-बीमार न माँगो



खुल जायेगा इस तरह निगाहों का भरम भी
काँटों से कभी फूल की महकार न माँगो



सच बात पे मिलता है सदा ज़हर का प्याला
जीना है तो फिर जीने के इज़हार न माँगो



उस चीज़ का क्या ज़िक्र जो मुम्किन ही नहीं है
सहरा में कभी साया-ए-दीवार ना माँगो

यह मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे

यह मोजज़ा[1] भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे
कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख़्म आए मुझे

मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही दोपहर न भाए मुझे

ब-रंग-ए-ऊद [2] मिलेगी उसे मेरी ख़ुश्बू
वो जब भी चाहे बड़े शौक़ से जलाए मुझे

मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरह्ना [3] शहर में कोई नज़र न आए मुझे

वही तो सब से ज़्यादा है नुक्ताचीं मेरा
जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाए मुझे

मैं अपने दिल से निकालूँ ख़्याल किस-किस का
जो तू नहीं तो कोई और याद आए मुझे

ज़माना दर्द के सहरा तक आज ले आया
गुज़ार कर तेरी ज़ुल्फ़ों के साए -साए मुझे

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यों नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माए मुझे

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ ‘क़तील’
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाए मुझे

शब्दार्थ:

↑ प्रतिबन्ध
↑ अगरबती की तरह
↑ नंगा, ख़ाली

मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा

मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा



पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा



लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है
पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जायेगा



दिन में हँसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं
एक भयानक सपना मुझको सारी रात डरायेगा



मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको सर मेरा झुक जायेगा



सूख गई जब इन आँखों में प्यार की नीली झील
तेरे दर्द का ज़र्द समन्दर काहे शोर मचायेगा

मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम

मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम



आँसू छलक छलक के सतायेंगे रात भर
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम



जब दूरियों की आग दिलों को जलायेगी
जिस्मों को चाँदनी में भिगोया करेंगे हम



गर दे गया दग़ा हमें तूफ़ान भी "क़तील"
साहिल पे कश्तियों को डूबोया करेंगे हम

बेचैन बहारों में क्या-क्या है

बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है
जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है



कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया
हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है



तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने
मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है



कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ
जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है



कुछ तू ही मुझे अब समझा दे ऐ कुफ़्र दुहाई है तेरी
क्यूँ शेख़ के दामन से मुझको इमान की ख़ुश्बू आती है



डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ
अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है

प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं

प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं



बेरुख़ी इससे बड़ी और भला क्या होगी
एक मुद्दत से हमें उस ने सताया भी नहीं



रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं



सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं



तुम तो शायर हो "क़तील" और वो इक आम सा शख़्स
उसने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं

प्यार की राह में ऐसे भी मक़ाम आते हैं

प्यार की राह में ऐसे भी मक़ाम आते हैं |
सिर्फ आंसू जहाँ इन्सान के काम आते हैं ||

उनकी आँखों से रखे क्या कोई उम्मीद-ए-करम |
प्यास मिट जाये तो गर्दिश में वो जाम आते हैं ||

ज़िन्दगी बन के वो चलते हैं मेरी सांस के साथ |
उनको ऐसे भी कई तर्ज़-ए-खराम आते हैं ||

हम न चाहें तो कभी शाम के साए न ढलें |
हम तड़पे हैं तो सुबहों के सलाम आते हैं ||

कुव्वत-ए-दस्त-ए-तलब का नहीं जिन को इदराक |
तेरे दर से वही बे-नील मराम आते हैं ||

मुंह छुपा लेते हैं ग़म हज़रात-ए-नासेह की तरह |
जब भी मैखाने में रिंदान-ए-कराम आते हैं ||

हम पे हो जाएँ न कुछ और भी रातें भारी |
याद अक्सर वो हमें अब सर-ए-शाम आते हैं ||

छिन गए हम से जो हालात की राहों में क़तील |
उन हसीनों के हमें अब भी पयाम आते हैं ||

पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये

पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये
फिर जो निगाह-ए-यार कहे मान जाइये



पहले मिज़ाज-ए-राहगुज़र जान जाइये
फिर गर्द-ए-राह जो भी कहे मान जाइये



कुछ कह रही है आपके सीने की धड़कने
मेरी सुनें तो दिल का कहा मान जाइये



इक धूप सी जमी है निगाहों के आस पास
ये आप हैं तो आप पे क़ुर्बान जाइये



शायद हुज़ूर से कोई निस्बत हमें भी हो
आँखों में झाँक कर हमें पहचान जाइये

परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ

परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ



हँसो और हँसते-हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमें ये रात भारी है सितारों तुम तो सो जाओ



तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हमने हारी है सितारों तुम तो सो जाओ



कहे जाते हो रो-रो के हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारों तुम तो सो जा



हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ



हमें भी नींद आ जायेगी हम भी सो ही जायेंगे
अभी कुछ बेक़रारी है सितारों तुम तो सो जाओ

निगाहों में ख़ुमार आता हुआ महसूस होता है

निगाहों में ख़ुमार आता हुआ महसूस होता है
तसव्वुर[1] जाम छलकाता हुआ महसूस होता है

ख़िरामे- नाज़[2] -और उनका ख़िरामे-नाज़ क्या कहना
ज़माना ठोकरें खाता हुआ महसूस होता है

ये एहसासे-जवानी को छुपाने की हसीं कोशिश
कोई अपने से शर्माता हुआ महसूस होता है

तसव्वुर[3] एक ज़ेहनी जुस्तजू[4] का नाम है शायद
दिल उनको ढूँढ कर लाता हुआ महसूस होता है

किसी की नुक़रई[5] पाज़ेब की झंकार के सदक़े
मुझे सारा जहाँ गाता हुआ महसूस होता है

‘क़तील’अब दिल की धड़कन बन गई है चाप[6] क़दमों की
कोई मेरी तरफ़ आता हुआ महसूस होता है

शब्दार्थ:

↑ तसव्वुर
↑ इठलाती हुई चाल
↑ कल्पना
↑ अ‍न्तर्मन की इच्छा
↑ चाँदी की
↑ आहट

नामाबर अपना हवाओं को बनाने वाले

नामाबर[1] अपना हवाओं को बनाने वाले
अब न आएँगे पलट कर कभी जाने वाले

क्या मिलेगा तुझे बिखरे हुए ख़्वाबों के सिवा
रेत पर चाँद की तसवीर बनाने वाले

मैक़दे बन्द हुए ढूँढ रहा हूँ तुझको
तू कहाँ है मुझे आँखों से पिलाने वाले

काश ले जाते कभी माँग के आँखें मेरी
ये मुसव्विर तेरी तसवीर बनाने वाले

तू इस अन्दाज़ में कुछ और हसीं लगता है
मुझसे मुँह फेर के ग़ज़लें मेरी गाने वाले

सबने पहना था बड़े शौक़ से काग़ज़ का लिबास
जिस क़दर लोग थे बारिश में नहाने वाले

छत बना देते हैं अब रेत की दीवारों पर
कितने ग़ाफ़िल[2] हैं नये शहर बसाने वाले

अद्ल [3]की तुम न हमें आस दिलाओ कि यहाँ
क़त्ल हो जाते है ज़‍जीर हिलाने वाले

किसको होगी यहाँ तौफ़ीक़-ए-अना[4] मेरे बाद
कुछ तो सोचें मुझे सूली पे चढ़ाने वाले

मर गये हम तो ये क़त्बे पे लिखा जाएगा
सो गये आप ज़माने को जगाने वाले

दर-ओ-दीवार पे हसरत-सी बरसती है क़तील
जाने किस देस गये प्यार निभाने वाले.
शब्दार्थ:

↑ पत्रवाहक
↑ अज्ञानी
↑ इन्साफ़
↑ अह्म का सामर्थ्य

धूप है रंग है या सदा है

धूप है ,रंग है या सदा है
रात की बन्द मुट्ठी में क्या है

छुप गया जबसे वो फूल-चेहरा
शहर का शहर मुरझा गया है

किसने दी ये दरे-दिल पे दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है

पूछता है वो अपने बदन से
चाँद खिड़की से क्यों झाँकता है

क्यों बुरा मैं कहूँ दूसरों को
वो तो मुझको भी अच्छा लगा है

क़हत[1] बस्ती में है नग़मगी[2] का
मोर जंगल में झनकारता है

वो जो गुमसुम-सा इक शख़्स है ना
आस के कर्ब[3] में मुब्तिला[4] है

आशिक़ी पर लगी जब से क़दग़न[5]
दर्द का इर्तिक़ा[6] रुक गया है

दिन चढ़े धूप में सोने वाला
हो न हो रात-भर जागता है

इस क़दर ख़ुश हूँ मैं उससे मिलकर
आज रोने को जी चाहता है

मेरे चारों तरफ़ मसअलों[7]का
एक जंगल-सा फैला हुआ है

दब के बेरंग जुमलों[8] के नीचे
हर्फ़[9] का बाँकपन मर गया है

बेसबब उससे मैं लड़ रहा हूँ
ये मुहब्बत नहीं है तो क्या है

गुनगुनाया ‘क़तील’ उसको मैंने
उसमें अब भी ग़ज़ल का मज़ा है

शब्दार्थ:

↑ अकाल
↑ संगीत
↑ दु:ख
↑ ग्रस्त
↑ प्रतिबंध
↑ प्रगति
↑ समस्याओं
↑ वाक्यों
↑ शब्द

देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो

देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो |
मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो ||

लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे|
यूँ मेरे दिल में चले आओ के आहट भी न हो||

गुनगुनाती हुई रफ्तार बड़ी नेमत है|
तुम चट्टानों से भी फूटो तो नदी बन के बहो||

ग़म कोई भी हो जवानी में मज़ा देता है|
ग़म-ए-जहाँ जो नहीं है ग़म-ए-दौरान ही सहो||

हो चुके प्यार में रुसवा सर-ए-बाज़ार क़तील|
अब कोई हम को नहीं फ़िक्र जो होना है सो हो||

दुनिया ने हम पे जब कोई इल्ज़ाम रख दिया

दुनिया ने हम पे जब कोई इल्ज़ाम रख दिया
हमने मुक़ाबिल उसके तेरा नाम रख दिया

इक ख़ास हद पे आ गई जब तेरी बेरुख़ी
नाम उसका हमने गर्दिशे-अय्याम[1]रख दिया

मैं लड़खड़ा रहा हूँ तुझे देख-देखकर
तूने तो मेरे सामने इक जाम रख दिया

कितना सितम-ज़रीफ़[2] है वो साहिब-ए-जमाल
उसने जला-जला के लबे-बाम[3] रख दिया

इंसान और देखे बग़ैर उसको मान ले
इक ख़ौफ़ का बशर ने ख़ुदा नाम रख दिया

अब जिसके जी में आए वही पाए रौशनी
हमने तो दिल जला के सरे-आम रख दिया

क्या मस्लेहत-शनास[4] था वो आदमी ‘क़तील’
मजबूरियों का जिसने वफ़ा नाम रख दिया


शब्दार्थ:

↑ समय का चक्कर
↑ हँसी-हँसी में अत्याचार करने वाला
↑ खिड़की पर
↑ चतुर सुजान

दिल को ग़म-ए-हयात गवारा है इन दिनों

दिल को ग़म-ए-हयात[1] गवारा है इन दिनों
पहले जो दर्द था वही चारा है इन दिनों

हर सैल-ए-अश्क़[2] साहिल-ए-तस्कीं[3] है आजकल
दरिया की मौज-मौज किनारा है इन दिनों

यह दिल ज़रा-सा दिल तेरी आँखों में खो गया
ज़र्रे को आँधियों का सहारा है इन दिनों

शम्मओं में अब नहीं है वो पहली-सी रौशनी
शायद वो चाँद अंजुमन-आरा[4] है इन दिनों

तुम आ सको तो शब को बढ़ा दूँ कुछ और भी
अपने कहे में सुबह का तारा है इन दिनों

क़ुर्बां [5]हों जिसके हुस्न पे सौ जन्नतें ‘क़तील’
नज़रों के सामने वो नज़्ज़ारा है इन दिनों
शब्दार्थ:

↑ जीवन का दुख
↑ आँसुओं की बाढ़
↑ संतोष का तट
↑ सभा की शोभा बढ़ाने वाला
↑ भेंट

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह



मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह



सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह



या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है



जीत ले जाये कोई मुझको नसीबों वाला
ज़िन्दगी ने मुझे दाँव पे लगा रखा है



जाने कब आये कोई दिल में झाँकने वाला
इस लिये मैंने ग़िरेबाँ को खुला रखा है



इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहाँ जाते

निकल कर दैर-ओ-क़ाबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इन्साँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाख़ाने[1] की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने को ये समझाने कहाँ जाते

‘क़तील’ अपना मुक़द्दर ग़म से बेग़ाना[2] अगर होता
तो फिर अपने-पराए हमसे पहचाने कहाँ जाते
शब्दार्थ:

↑ शराबख़ाने
↑ अपिरिचित अथवा रहित

तुम पूछो और मैं न बताऊँ

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं



किस को ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं



माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं



ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो
जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं



मेरे ग़मगीं होने पर अहबाब हैं यों हैरान "क़तील"
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं

तीन कहानियाँ

कल रात इक रईस की बाँहों में झूमकर,


लौटी तो घर किसान की बेटी ब-सद मलाल1,
ग़ैज़ो-ग़जब से2 बाप का खूँ खौलने लगा,
दरपेश3 आज भी था मगर पेट का सवाल।



कल रात इक सड़क पे कोई नर्म-नर्म शै,
बेताब मेरे पाँव की ठोकर से हो गई,
मैं जा रहा था अपने खयालात में मगन,
हल्की-सी एक चीख़ फ़ज़ाओं में4 खो गई।



कल रात इक किसान के घर से धुआँ उठा,
बस्ती में ग़लग़ला5-सा हुआ-आग लग गई,
इस रंज से किसान का दिल पाश-पाश था,
रक्साँ6 थी चौधरी के लबों पर मगर हँसी।






1.अत्यन्त दुख के साथ 2.क्रोधवश 3.सम्मुख 4.वातावरण 5.शोर 6.नृत्यशील

जो भी गुंचा तेरे होठों पर खिला करता है

जो भी गुंचा तेरे होठों पर खिला करता है
वो मेरी तंगी-ए-दामाँ का गिला करता है



देर से आज मेरा सर है तेरे ज़ानों पर
ये वो रुत्बा है जो शाहों को मिला करता है



मैं तो बैठा हूँ दबाये हुये तूफ़ानों को
तू मेरे दिल के धड़कने का गिला करता है



रात यों चाँद को देखा है नदी में रक्साँ
जैसे झूमर तेरे माथे पे हिला करता है



कौन काफ़िर तुझे इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल देगा
जो भी करता है मुहब्बत का गिला करता है

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा



तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिये थोड़ी है
इक ज़रा सा ग़म-ए-दौराँ का भी हक़ है जिस पर
मैनें वो साँस भी तेरे लिये रख छोड़ी है
तुझपे हो जाऊँगा क़ुरबान तुझे चाहूँगा



अपने जज़्बात में नग़्मात रचाने के लिये
मैनें धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैं ने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे
प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूँगा



तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों में चिराग़
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये
तुझको छू लूँ तो फिर ऐ जान-ए-तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी ख़ुश्बू आये
तू बहारों का है उनवान तुझे चाहूँगा

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग

मिल भी लेते हैं गले से अपने मतलब के लिए
आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग

है बजा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज
बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग

हो खुशी भी उनको हासिल ये ज़रूरी तो नहीं
गम छुपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग

ये भी देखा है कि जब आ जाये गैरत का मुकाम
अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग

चराग़ दिल के जलाओ कि ईद का दिन है

चराग़ दिल के जलाओ कि ईद का दिन है
तराने झूम के गाओ कि ईद का दिन है



ग़मों को दिल से भुलाओ कि ईद का दिन है
ख़ुशी से बज़्म सजाओ कि ईद का दिन है



हुज़ूर उसकी करो अब सलामती की दुआ
सर-ए-नमाज़ झुकाओ कि ईद का दिन है



सभी मुराद हो पूरी हर एक सवाली की
दुआ को हाथ उठाओ कि ईद का दिन है

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे



मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे



मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे



वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे



तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील"
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे

गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं

गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं



बच निकलते हैं अगर आतिह-ए-सय्याद से हम
शोला-ए-आतिश-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं



ख़ुदनुमाई तो नहीं शेवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा
जिन को जलना हो वो आराअम से जल जाते हैं



शमा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिये
हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं



जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ
जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं



रब्ता बाहम पे हमें क्या न नहेंगे दुश्मन
आशना जब तेरे पैग़ाम से जल जाते हैं

किया है प्यार जिसे

किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह



किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह



बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह



सितम तो ये है कि वो भी ना बन सका अपना
कूबूल हमने किये जिसके गम खुशी कि तरह



कभी न सोचा था हमने "क़तील" उस के लिये
करेगा हमपे सितम वो भी हर किसी की तरह

किया इश्क था जो

किया इश्क था जो बा-इसे रुसवाई बन गया

यारो तमाम शहर तमाशाई बन गया


बिन मांगे मिल गए मेरी आंखों को रतजगे

मैं जब से एक चाँद का शैदाई बन गया


देखा जो उसका दस्त-ए-हिनाई करीब से

अहसास गूंजती हुई शहनाई बन गया


बरहम हुआ था मेरी किसी बात पर कोई

वो हादसा ही वजह-ए-शानासाई बन गया


करता रहा जो रोज़ मुझे उस से बदगुमां

वो शख्स भी अब उसका तमन्नाई बन गया


वो तेरी भी तो पहली मुहब्बत न थी क़तील

फिर क्या हुआ अगर कोई हरजाई बन गया

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते




निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना

तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते




तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की

तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते




चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी

वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते




क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता

तो फर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला, तू बाँहें डाल के बाँहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल, हम भी तो पड़े हैं राहों में



क्या क्या न जफ़ायेँ दिल पे सहीं, पर तुम से कोई शिकवा न किया
इस जुर्म को भी शामिल कर लो, मेरे मासूम गुनाहों में



जहाँ चाँदनी रातों में तुम ने ख़ुद हमसे किया इक़रार-ए-वफ़ा
फिर आज हैं हम क्यों बेगाने, तेरी बेरहम निगाहों में



हम भी हैं वहीं, तुम भी हो वही, ये अपनी-अपनी क़िस्मत है
तुम खेल रहे हो ख़ुशियों से, हम डूब गये हैं आहों में

उफ़ुक़ के उस पार ज़िन्दगी के उदास लम्हे उतार आऊँ

उफ़ुक़[1] के उस पार ज़िन्दगी के उदास लम्हे उतार आऊँ
अगर मेरा साथ दे सको तुम तो मौत को भी उतार आऊँ

कुछ इस तरह जी रहा हूँ जैसे उठाए फिरता हूँ लाश अपनी
जो तुम ज़रा-सा भी दो सहारा तो बारे-हस्ती[2] उतार आऊँ

बदल गये ज़िन्दगी के महवर[3],तवाफ़े-दैरो-हरम[4] कहाँ का
तुम्हारी महफ़िल अगर हो बाक़ी तो मैं भी परवानावार आऊँ

कोई तो ऐसा मुकाम होगा जहाँ मुझे भी सुकूँ मिलेगा
ज़मीं के तेवर बदल रहे हैं तो आस्माँ को सँवार आऊँ

अगरचे[5] इसरार-ए-बेख़ुदी[6] है तुझे भी ज़रपोश महफ़िलों में
मुझे भी ज़िद है कि तेरे दिल में नुक़ूश-ए-माज़ी[7] उभार आऊँ

सुना है एक अजनबी-सी मंज़िल को उठ रहे हैं क़दम तुम्हारे
बुरा न मानो तो रहनुमाई को सरे-रहगुज़ार आऊँ

शब्दार्थ:

↑ क्षितिज
↑ जीवन का बोझ
↑ धुरियाँ
↑ बुतख़ाने और क़ाबे की परिक्रमा
↑ यद्यपि
↑ बेसुध होने का हठ
↑ अतीत के चिह्न

इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है

इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है

यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है

देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है

सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है

बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है

आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है

तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है

अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ

अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको

मैं समंदर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको

ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन

मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको

वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ "क़तील"
शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

वस्ल की रात न जाने क्यूँ इसरार था उनको जाने पर
वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की