सोमवार, अप्रैल 20, 2009

जन्मभूमि- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सुरसरि सी सरि है कहा मेरू सुमेर समान।
जन्मभूमि सी भू नहीं भूमंडल में आन।।

प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।।

पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।
मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।।

आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।
जन्मभूमि जलजात के बने रहे जन भौंर।।

कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।
जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।।

उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।
सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।।

उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।
जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।।

योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।
सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।।

फलद कल्पतरू तुल्य है सारे विटप बबूल।
हरि पद रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।।

जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।
अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।।

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की छोटी रचनाएँ

निर्मम संसार


वायु के मिस भर भरकर आह।
ओस मिस बहा नयन जलधार।
इधर रोती रहती है रात।
छिन गये मणि मुक्ता का हार।।१।।

उधर रवि आ पसार कर कांत।
उषा का करता है शृंगार।
प्रकृति है कितनी करुणा मूर्ति।
देख लो कैसा है संसार।।२।।


मतवाली ममता


मानव ममता है मतवाली।
अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली।
अपनी ही रंगत में रंगकर रखती है मुँह लाली।
ऐसे ढंग कहा वह जैसे ढंगों में हैं ढाली।
धीरे धीरे उसने सब लोगों पर आँखें डाली।
अपनी सी सुन्दरता उसने कहीं न देखी-भाली।
अपनी फुलवारी की करती है वह ही रखवाली।
फूल बिखेरे देती है औरों पर उसकी गाली।
भरी व्यंजनों से होती है उसकी परसी थाली।
कैसी ही हो, किन्तु बहुत ही है वह भोलीभाली।।१।।


फूल


रंग कब बिगड़ सका उनका
रंग लाते दिखलाते हैं।
मस्त हैं सदा बने रहते।
उन्हें मुसुकाते पाते हैं।।१।।

भले ही जियें एक ही दिन।
पर कहा वे घबराते हैं।
फूल ह सते ही रहते हैं।
खिला सब उनको पाते हैं।।२।।


विवशता


रहा है दिल मला करे।
न होगा आ सू आये।
सब दिनों कौन रहा जीता।
सभी तो मरते दिखलाये।।१।।

हो रहेगा जो होना है
टलेगी घड़ी न घबराये।
छूट जायेंगे बंधन से।
मौत आती है तो आये।।२।।


प्यासी आँखें


कहें क्या बातें आँखों की।
चाल चलती हैं मनमानी।
सदा पानी में डूबी रह।
नहीं रख सकती हैं पानी।।१।।

लगन है रोग या जलन है।
किसी को कब यह बतलाया।
जल भरा रहता है उनमें।
पर उन्हें प्यासी ही पाया।।२।।


आँसू और आँखें


दिल मसलता ही रहता है।
सदा बेचैनी रहती है।
लाग में आ आकर चाहत।
न जाने क्या क्या कहती है।।१।।

कह सके यह कोई कैसे।
आग जी की बुझ जाती है।
कौन सा रस पाती है जो।
आँख आँसू बरसाती है।।२।।

सरिता- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहा चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली।।१।।
क्यों दिन रात अधीर बनी सी।
पड़ी धरा पर रहती हो।
दु:सह आतप शीत वात सब
दिनों किस लिये सहती हो।।२।।

कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग भंग कर कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो।।३।।

कौन भीतरी पीड़ाएँ ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती है।।४।।

बहुत दूर जाना है तुमको
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं।।५।।

पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
का टों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो।।६।।

उषा का अवलोक वदन।
किस लिये लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो।।७।।

क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हारे
तन पर पड़ता है छाला।।८।।

संध्या - अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा

विपिन बीच विहंगम वृंद का
कल निनाद विवर्धित था हुआ
ध्वनिमयी विविधा विहगावली
उड़ रही नभ मंडल मध्य थी

अधिक और हुई नभ लालिमा
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
सकल पादप पुंज हरीतिमा
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई

झलकते पुलिनो पर भी लगी
गगन के तल की वह लालिमा
सरित और सर के जल में पड़ी
अरुणता अति ही रमणीय थी।।

अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
किरण पादप शीश विहारिणी
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।

ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
कलित कानन केलि निकुंज को
मुरलि एक बजी इस काल ही
तरणिजा तट राजित कुंज में।।

बादल - अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

सखी,
बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करुणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।।

वे विविध रूप धारण कर
नभ तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।।

वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदुभी वादन
चपला को रहे नचाते।।

वे पहन कभी नीलांबर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम वितान थे तनते।।

बहुश: खंडों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।।

वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियाँ पिन्हाते।।

वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय दृश्य दिखाते।।

घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति विहीन कर, दिन को
थे अमा समान बनाते।।

कर्मवीर - अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नही
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।।

जो कभी अपने समय को यों बिताते है नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते है नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये।।

व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।

एक बूँद - अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

दैव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा।
में बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।

आँख का आँसू- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया

ओस की बूँदें कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती है खंजनों की लड़कियाँ

या` जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय` था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया।।

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला

ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे

आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े

हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया।
यों किसी का है नही खोते भरम
आँसुओं तुमने कहो यह क्या किया