बुधवार, अप्रैल 22, 2009

रात के टुकड़ों पे पलना छोड़ दे / वसीम बरेलवी

रात के टुकड़ों पे पलना छोड़ दे
शम्अ से कहना के जलना छोड़ दे

मुश्किलें तो हर सफ़र का हुस्न हैं,
कैसे कोई राह चलना छोड़ दे

तुझसे उम्मीदे- वफ़ा बेकार है,
कैसे इक मौसम बदलना छोड़ दे

मैं तो ये हिम्मत दिखा पाया नहीं,
तू ही मेरे साथ चलना छोड़ दे

कुछ तो कर आदाबे-महफ़िल का लिहाज़,
यार ! ये पहलू बदलना छोड़ दे.

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