मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

कहाँ आँसूओं की ये सौग़ात होगी / बशीर बद्र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी थकी , अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चांदनी
न बुझे ख़राबे की रोशनी, कभी बेचराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिल-ओ-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो

कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कभी डर न हो

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