सोमवार, अप्रैल 13, 2009

रामधारी सिंह दिनकर (१९०८-१९७४) आग की भीख, समर शेष है

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार प्रदेश के बेगूसराय (पुराने मुंगेर) जिले के सिमरिया गांव में एक निम्न मध्यवर्गीय भूमिहार ब्राह्मण किसान परिवार में 23 सिंतबर 1908 को हुआ था। यह ग्राम पुण्यतोया गंगा नदी के पावन उत्तरी तट पर बसा हुआ है। और मिथिलाचंल का एक प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां पूरे उत्तर बिहार समेत नेपाल से तीर्थ यात्री बड़ी संख्या में आते हैं और प्रति वर्ष कार्तिक माह कल्पवास चलता है। किंवदंती यह है कि विवाहोपरांत सीता को विदा कराकर ले जाते समय राम ने इसी स्थान पर गंगा को पार किया था। तभी से यह स्थान सिमरियाघाट के नाम से प्रसद्धि है। इस नाम में से ‘म’ और ’रि’ को हटा दें तो वह ‘सियाघाट’ हो जाता है।

दिनकर जी के पिता का नाम बाबू रविराय (रविसिंह) था और पितामह का नाम शंकर राय था। इनके वंश में भैरवराय नामक एक कवि भी थे जिनकी ब्रजभाषा में लिखित पोथी ‘नगर-विलाप’ है। दिनकर जी की माता का नाम मनरूप देवी था। उस जमाने में सिमरिया गांव के घर–घर में नित्य ‘रामचरितमानस’ का पाठ होता था। उनके पिता जी अपने समाज में मानस के मर्मज्ञ समझे जाते थे और लोगों का ख्याल था कि उनको यह ग्रंथ लगभग पूरी तरह कंठस्थ है। इसी धर्ममय वातावरण में बालक रामधारी का जन्म और लालन-पालन हुआ।जिस समाज में उन्होंने होश संभाला वह साधारण किसानों और खेतिहर मजदूरों का समाज था, जहां अधिकांश लोग निरक्षर और अंधविश्वासी थे।

‘दिनकर’ ने अपने जीवन मूल्य इसी परिवेश में स्थिर किए। इसी वातावरण में उन्होंने अपने साहित्य की दिशा निर्धारित की।1 दिसंबर 1973 को जब दिनकर जी को ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब अपने उद्बोधन में उन्होने कहा था-भगवान ने मुझको जब इस पृथ्वी पर भेजा तो मेरे हाथ में एक हथौड़ा दिया और कहा कि जा तू इस हथौड़े से चट्टान के पत्थर तोड़ेगा और तेरे तोड़े हुए अनगढ़ पत्थर भी कला के समुद्र में फूल के समान तैरेंगे।....मैं रंदा लेकर काठ को चिकनाने नहीं आया था। मेरे हाथ में तो कुल्हाड़ा था जिससे मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा था।....अपने प्रशंसकों के बीच, जिनमें इन पंक्तियों के लेखक से लेकर स्व. जवाहरलाल नेहरू तक शामिल हैं, दिनकर, पौरुष और ललकार के कवि माने जाते हैं।

राम स्वरूप चतुर्वेंदी जैसे प्रशंसा–कृपण आलोचकों ने भी उन्हें उद्बोधन का कवि माना है।दिनकर जब दो साल के थे तभी उनके सर से पिता का साया उठ गया। उनके अग्रज और अनुज–दोनों ने इसीलिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और किसानी में लग गए ताकि दिनकर की पढ़ाई निर्बाध गति से चलती रहे। तेरह वर्ष की उम्र में इनका विवाह हुआ और 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने माध्यमिक परीक्षा पास की। उनका काव्य-सृजन इसी समय शुरू हुआ।सन् 1928 में दिनकर जी ने मैट्रिक पास किया। पूरे प्रांत में हिन्दी विषय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने के कारण उनको ‘भूदेव स्वर्ग-पदक’ प्रदान किया गया था। इसके बाद से सन् 1932 तक वे पटना कॉलेज के छात्र रहे और इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया।दिनकर के छात्र जीवन का समय मोटे तौर पर स्वाधीनता संघर्ष में असहयोग आंदोलन का युग था। उस समय की पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं में इतिहास और संस्कृति, धर्म और दर्शन तथा राजनीति से संबंधित सामग्री ही अधिक पाई जाती थी। उनमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में संबंधित चित्रों, कार्टूनों तथा देश भक्ति पूर्ण कविताओं और गीतों का ही बाहुल्य रहता था। राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता, समाजवाद और साम्यवाद की चारों तरफ धूम थी। इसी समय ‘दिनकर’ राष्ट्रीय नेताओं की सभाओं में जाने लगे थे और यदा-कदा सभा मंचों से ‘वंदे मातरम्’ का गायन भी करने लगे थे।

उन दिनों पटने से प्रकाशित होने वाली ‘देश’ पत्रिका तथा कन्नौज से प्रकाशित ‘प्रतिभा’ पत्रिका में ‘दिनकर’ की कविताएं स्थान पाने लगी थीं। ‘देश के संस्थापक डॉ. राजेंद्र थे जो स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बने। उनकी पहली कविता जबलपुर से प्रकाशित ‘छात्र-सहोदर’ में छपी थी, जिसके संपादक पं. मातादीन शुक्ल थे। उसी जमाने में बेगूसराय (दिनकर का गृह जिला) से ‘प्रकाश’ नामक पत्रिका प्रकाशित होती थी जिसमें दिनकर की कविताएं प्रमुखता से छपा करती थीं। कहते हैं कि इसी समय उन्होंने अपना उपनाम ‘दिनकर’ रखा। उनके पिता का नाम भी ‘रवि’ था। इस प्रकार अपने ही शब्दों में वे ‘रवि के पुत्र दिनकर हुए।’सन् 1933 में बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन भागलपुर में हुआ। उसकी अध्यक्षता सुप्रसिद्ध इतिहासविद् और पुराविद् डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने की थी। उसी अधिवेशन में ‘दिनकर’ ने अपनी ‘हिमालय के प्रति’ कविता पढ़ी तो समस्त हिन्दी जगत में एकाएक उनका नाम फैल गया। उसी सम्मेलन में वे डॉ. जायसवाल के संपर्क में आए। उन्होंने ही इनकी प्रतिभा को अपने प्रेम और प्रोत्साहन से सींचा। उस समय जायसवाल जी की पुस्तक ‘हिन्दी पॉलिटी’ की चारों तरफ चर्चा थी। स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए संगति और उस माहौल का परिणाम यह निकला कि दिनकर की साहित्य साधना पर इतिहास तथा राष्ट्रवादी विचारधारा का पहले से ही चढ़ा हुआ रंग कुछ और गाढ़ा हो गया।सन् 1930-35 की अवधि में दिनकर ने जितनी देशभक्ति से परिपूर्ण क्रांतिकारी कविताएं रचीं उनका संग्रह 1935 में ‘रेणुका’ नाम से निकला। इस काव्य संग्रह का पूरे हिन्दी जगत् में उत्साह के साथ स्वागत किया गया। फिर सन् 1938 में ‘धुंधार’ निकली। अब तक दिनकर’ का प्रचंड तेज समस्त हिन्दी साहित्यकाश में फैल चुका था। इनका पहला प्रबंध काव्य’ ‘कुरुक्षेत्र’ सन् 1946 में निकला जिसमें हिंसा-अहिंसा, युद्ध और शांति आदि समस्याओं पर उनके गहन विचारों का अनुवाद कन्नड़ और तेलुगु आदि भाषाओं में हो चुका है।

फिर सन् 1952 में ‘रश्मिरथी’ नामक खंडकाव्य जो महाभारत के उपेक्षित महानायक कर्ण के जीवन पर आधारित है। इसने दिनकर की लोकप्रियता को सर्वाधिक ऊंचाई दी। इन काव्यों के अंश हिन्दी भाषी जनता की जिह्वा पर उक्तियों की तरह चढ़े हुए हैं—
जिसके पास गरल हो।उसको क्या जो दंतहीन, विष रहित, विनीत, सरल हो।
दिनकर की कोई 32 काव्य कृतियां एक-एक कर प्रकाश में आईं। लेकिन ‘उर्वशी’ (1961) महाकाव्य को उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता है, उसके लिए सन् 1973 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। उनकी गद्य रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें सन् 1959 में साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। इनकी कई रचनाओं का अंग्रेजी, रूसी, स्पेनिश आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।उनका व्यक्तिगत जीवन संघर्षों, उपलब्धियों और दायित्वों से भरा रहा। स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। सन् 1934 में सरकारी नौकरी में गए और सन् 1942 तक सब–रजिस्ट्रार के पद पर रहे, जमीन–जायदाद और शादी-ब्याह से संबंधित दस्तावेजों का पंजीयन करना था। सन् 1947 में वे बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में उपनिदेशक बने। इसके बाद से उनके जीवन में पदों और सम्मानों की बाढ़ सी आ गई।स्नातकोत्तर उपाधि से रहित होने के बावजूद उन्हें महाविद्यालय में हिन्दी का अध्यापक नियुक्त किया गया। यह उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का सम्मान था। बारह वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य रहे। फिर भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। इसके बाद भारत सरकार के गृहमंत्रालय में हिन्दी सलाहकार मनोनीत हुए। सन् 1971 में वे सारे पदभारों से मुक्त होकर पटना चले आए।इस बीच सन् 1959 में उन्हें ‘पद्मभूषण की उपाधि प्रदान की गई। सन् 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी।लिट. की मानद उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, पश्चिम जर्मनी और रूस के साथ-साथ चीन, मिस्त्र और मॉरीशस आदि देशों का भी भ्रमण किया। इस क्रम में बड़े-बड़े राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से उनकी निकटता बढ़ी।इस पूरे दौर में एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार का दायित्व उनके कंधों पर रहा। उन्होंने अपने हाथों दस कन्याओं का विवाह रचाया, जिसमें उनकी दो पुत्रियां, छह भतीजियां तथा दो पोतियां शामिल हैं। इसको वे अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि मानते थे।

हिन्दी के ‘उर्वशी’, ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘रश्मिरथी’ समेत 33 काव्य-कृतियों के रचयिता और ‘राष्ट्रकवि’ के विशेषण से विभूषित डॉ। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ एक उत्कृष्ट गद्यकार भी थे। उनकी पुस्तकों की कुल संख्या 60 बताई जाती है, जिनमें सत्ताइस गद्यग्रंथ हैं। इनमें आधी पुस्तकों में निबंध या निबंध के ढंग की चीजें संकलित हैं। प्रकाशन वर्ष के अनुसार इनका क्रम है-मिट्टी की ओर (1946), अर्धनारीश्वर (1952), रेती के फूल (1954), हमारी सांस्कृतिक एकता (1954), राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता (1958), काव्य की भूमिका (1958), पंत, प्रसाद और मैथिली शरण (1958), वेणुवन (1958), धर्म, नैतिकता और विज्ञान (1959), वर-पीपल (1961), शुद्ध कविता की खोज (1966), साहित्यमुखी (1968), भारतीय एकता (1970), आधुनिक बोध (1973), विवाह की मुसीबतें (1974) आदि। इनके अतिरिक्त–देश–विदेश (1957), लोकदेव नेहरू (1965), राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधी जी (1968) जैसी कृतियां भी हैं, जिनमें यात्रा-वृतांत व संस्मरण आदि के बीच–बीच में वैचारिक निबंध गुम्फित हैं। इन संकलनों में दिनकर जी के लगभग एक सौ पच्चीस निबंध संकलित हैं। उपर्युक्त सूची से पता चलता है कि दिनकर जी सन् 1940 के आसपास गद्य लेखन की ओर गंभीरता से प्रवृत्त हुए। उनका पहला संकलन ‘मिट्टी की ओर’ 1946 में प्रकाशित हुआ। जबकि कविता लेखन वे 15-16 वर्ष की अवस्था से ही करने लगे थे। उस समय वे माध्यमिक विद्यालय के छात्र थे।उनकी पहली कविता 1924-25 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘छात्र-सहोदर’ में छपी थी। दिनकर की पहली काव्य पुस्तक ‘प्रण-भंग सन् 1929 में प्रकाशित हुई थी। यह ‘महाभारत’ के कथानक पर आधारित थी। इस समय उनकी अवस्था 21 वर्ष की थी।पद्य से गद्य की ओर प्रवृत्त होने में दिनकर जी ने लगभग 20 वर्षों का समय लिया। प्राचीन मनीषियों ने भी गद्यं कवीणां निकषं वदन्ति ! अनुमान होता है कि दिनकर ने लगभग दो दशकों की काव्य–साधना के बाद पूरे आत्मविश्वास के साथ गद्य के क्षेत्र में प्रवेश लिया। तभी तो उनका गद्य इतना प्रगल्भ, परिमार्जित और प्रभावोत्पादक बन पड़ा है। बाद की पीढ़ियों के कवियों-लेखकों के लिए यह एक अनुकरणीय बात है।इस ग्रंथ–सूची से यह भी पता चलता है कि वर्ष 1958-59 में दिनकर का गद्य–लेखन अपने उत्कर्ष पर था। इस साल उनके 5 निबंध संग्रह प्रकाशित हुए। ‘मिट्टी की ओर’ उनका पहला और ‘विवाह की मुसीबतें’ अंतिम निबंध संकलन माना जाता है। इस संबंध में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि लेखक का विवाह 1920-21 में हुआ था जब उनकी अवस्था 13 वर्ष की थी। लेकिन विवाह की मुसीबतें नामक यह संकलन सन् 1974 में अर्थात उनके विवाह के लगभग 54 वर्ष बाद प्रकाश में आया। उनकी पत्नी का नाम श्रीमती श्यामवती थी।

हिन्दी के विद्यार्थियों और सामान्य पाठकों के बीच भी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का कवि रूप ही अधिक उजागर है। जबकि उनका गद्यकार रूप भी कम उज्जवल नहीं है। उनके निबंधों का यह संकलन तैयार करवाकर नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। इसके लिए दिनकर के सभी प्रेमियों को ट्रस्ट का आभारी होना चाहिए।रचना संसार के साथ-साथ दिनकर का जीवन वृत्त भी दिलचस्प है। पाठकों को उनके निबंधों में व्यक्त विचारों और भावनाओं की पृष्ठभूमि को समझने में उनके जीवन वृत्त से सहूलियत होगी। हिन्दी साहित्याकाश के अपने समय के इस जाज्वल्यमान नक्षत्र की दीप्ति समय के अंतराल के साथ कुछ अर्चिचत–सी हो गई है।


प्रमुख कृतियां:

गद्य रचनाएं: मिट्टी की ओर, रेती के फूल, वेणुवन, साहित्यमुखी, काव्य की भूमिका, प्रसाद पंत और मैथिलीशरणगुप्त, संस्कृति के चार अध्याय। पद्य रचनाएं: रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी , परशुराम की प्रतिज्ञा, उर्वशी, हारे को हरिनाम ।


...............आग की भीख- दिनकर.....................



धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।


ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।

वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?


...............समर शेष है.....................





समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।

तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध



...............बालिका से वधु .....................




माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी,
पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी।
लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी,
यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

पीला चीर, कोर में जिसकी चकमक गोटा-जाली,
चली पिया के गांव उमर के सोलह फूलोंवाली।
पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल चितवन में,
आँसू में भींगी माया चुपचाप खड़ी आंगन में।

आँखों में दे आँख हेरती हैं उसको जब सखियाँ,
मुस्की आ जाती मुख पर, हँस देती रोती अँखियाँ।
पर, समेट लेती शरमाकर बिखरी-सी मुस्कान,
मिट्टी उकसाने लगती है अपराधिनी-समान।

भींग रहा मीठी उमंग से दिल का कोना-कोना,
भीतर-भीतर हँसी देख लो, बाहर-बाहर रोना।
तू वह, जो झुरमुट पर आयी हँसती कनक-कली-सी,
तू वह, जो फूटी शराब की निर्झरिणी पतली-सी।

तू वह, रचकर जिसे प्रकृति ने अपना किया सिंगार,
तू वह जो धूसर में आयी सुबज रंग की धार।
मां की ढीठ दुलार! पिता की ओ लजवंती भोली,
ले जायेगी हिय की मणि को अभी पिया की डोली।

कहो, कौन होगी इस घर तब शीतल उजियारी?
किसे देख हँस-हँस कर फूलेगी सरसों की क्यारी?
वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे पहला फल अर्पण-सा?
झुकते किसको देख पोखरा चमकेगा दर्पण-सा?

किसके बाल ओज भर देंगे खुलकर मंद पवन में?
पड़ जायेगी जान देखकर किसको चंद्र-किरन में?
महँ-महँ कर मंजरी गले से मिल किसको चूमेगी?
कौन खेत में खड़ी फ़सल की देवी-सी झूमेगी?

बनी फिरेगी कौन बोलती प्रतिमा हरियाली की?
कौन रूह होगी इस धरती फल-फूलों वाली की?
हँसकर हृदय पहन लेता जब कठिन प्रेम-ज़ंजीर,
खुलकर तब बजते न सुहागिन, पाँवों के मंजीर।

घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन उँगली की पोरों पर,
प्रिय की याद झूलती है साँसों के हिंडोरों पर।
पलती है दिल का रस पीकर सबसे प्यारी पीर,
बनती है बिगड़ती रहती पुतली में तस्वीर।

पड़ जाता चस्का जब मोहक प्रेम-सुधा पीने का,
सारा स्वाद बदल जाता है दुनिया में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहागिन, यह मेरा वरदान;
हरसिंगार की टहनी-से फूलें तेरे अरमान।

जगे हृदय को शीतल करनेवाली मीठी पीर,
निज को डुबो सके निज में, मन हो इतना गंभीर।
छाया करती रहे सदा तुझको सुहाग की छाँह,
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे हो प्रियतम की बाँह।

पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी के दिन-दिन त्यौहार,
उर का प्रेम फूटकर हो आँचल में उजली धार।

पटकथा- धूमिल की सबसे लंबी कविता

जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी
और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
खून के अँधेर में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
मैंने सोचा !

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आजादी…
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
खुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-जा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया। वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
बच्चे। तारों पर
चिडि़याँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुये
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…

घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा–
वन महोत्सव…
और देर तक
हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा–
कि मेरे भीतर
वक्त का सामना करने के लिये
औसतन ,जवान खून है
मगर ,मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।

इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था…
सूर्य,हमारा सपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…
इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफ़हम इरादे थे

सुन्दर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा। मैं खुद को
समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।

मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था

यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब की भीड़ बढ़ती रही।
चौराहे चौड़े होते रहे।
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनायेँ चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम
उतार पर होता था।
हमारा संशय
हमें कोंचता था।
हम उत्तेजित होकर
पूछते थे
यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
जुबान से कम जूतों से
ज्यादा पाटते थे

कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग-
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवायें मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।’

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।

फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद ,नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।

जनता क्या है?
एक शब्द…
सिर्फ एक शब्द है
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

दरअसल,
अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का
नाम है- तटस्थता। ...

यहाँ कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त हैं।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है...

हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है...

मैं सोचता रहा
और घूमता रहा-
टूटे हुये पुलों के नीचे
वीरान सड़कों पर आँखों के
अंधे रेगिस्तानों में
फटे हुये पालों की
अधूरी जल-यात्राओं में
टूटी हुई चीज़ों के ढेर में
मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ
ढूँढता रहा।

अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के
बिस्तरों में/ नुमाइशों में
बाजारों में /गाँवों में
जंगलों में /पहाडों पर
देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को
बार-बार टेरता रहा
जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शान्ति दे और
मेरे भीतर-बाहर का ज़हर
खुद पी सके।
–और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त
…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…
मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया
जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
कन्धों पर लुढ़क रहा था,
किसी झनझनाते चाकू की तरह
खुलकर,कड़ा हो गया…
अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की
यह घटना
इस देश की परम्परा की -
एक बेमिशाल कड़ी थी
लेकिन इसे साहस मत कहो
दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
गाय की घृणा थी...

मगर उसके तुरन्त बाद
मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी
अपने इतिहास की
जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने
विस्मय से देखा कि ताशकन्द में
समझौते की सफेद चादर के नीचे
एक शान्तियात्री की लाश थी
और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पडो़सी ने
मात खायी थी।
मगर मैं फिर वहीं चला गया
अपने जुनून के अँधेरे में
फूहड़ इरादों के हाथों
छला गया।
वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग
भूखों मर रहे थे
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
अब न तो कोई किसी का खाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है
हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सरलता को भुलाकर
मतलब के अँधेरे में
सुला दिया है।
सहानुभूति और प्यार
अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये
एक आदमी दूसरे को,अकेले –
अँधेरे में ले जाता है और
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
गुजरते हुये देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद
डपटकर पैसा वसूलता है
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है

अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
मैंने देखा कि
इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ
और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर
लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं
जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफिर
अपना रास्ता भटक जाते हैं।

उन्होंने किसी चीज को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
‘बि ख र’ गया है
उनका व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुये कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों मेंभूख और शहरों में
अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं

भूख से मरा हुआ आदमी/
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है
और गाय
सबसे सटीक नारा है
देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी ,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफलताओं में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोरकर जगा रही थी
अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुये मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा-’तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो। मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो। इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं। इसे बदलो।
मुझे लगा-आवाज़
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है...

मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं-सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गयी है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।

आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
छोटी है। इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।

मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है

और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
जिसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज है
इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को
आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो-
कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
वहाँ चलो।उनका साथ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी मदद करो और साबित करो
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’

मैं पूरी तत्परता से
उसे सुन रहा था
एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं
जो मेरी सीमाएँ थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मुझमें भी आग है-
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
बनी रहे।
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
और विरोध में उठे हुये हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
फैलने की हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योंकि हर बार
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है।
मैं खुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने
उन तमाम लोगों की
असफलताओं को
सोच रहा था
जो मेरे नजदीक थे।
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था,नोंच रहा था
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
मैंने आदमी के भीतर की मैल
देख ली थी। मेरा सिर
भिन्ना रहा था
मेरा हृदय भारी था
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
थोड़ी देर के लिये
बचना चाह रहा था
जो अपनी पैनी आँखों से
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
थाह रहा था
प्रस्तावित भीड़ में
शरीक होने के लिये
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर
खींच लिया और मैं
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
धड़ाम से-
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
मत-पेटियों के
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
सिर्फ एक शोर है
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
और अँधेरे में गाड़ दी है
आंखों की रोशनी।
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
मैंने देखा हर तरफ
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
गुट से गुट टकरा रहे हैं
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं
श्रीमान्‌ किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ रोगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ रोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
आँखों के अन्धे हैं
घर के कंगाल हैं
गूँगे हैं
बहरे हैं
उथले हैं,गहरे हैं।
गिरते हुये लोग हैं
अकड़ते हुये लोग हैं
भागते हुये लोग हैं
पकड़ते हुये लोग हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
असंख्य रोग हैं
और उनका एकमात्र इलाज-
चुनाव है।

लेकिन मुझे लगा कि
एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये
न उन्हें मलाल है,न भय है
न लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…

मैं यह सब देख ही रहा था
कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस।
वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित- सा
पड़ा था-
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था
खून और आँसू से तर चेहरा
मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
उसकी आवाज में उतर आया था-
‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्हें उजाले से जोड़ा है
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
इसी तरह तोड़ा है
मगर समय गवाह है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’

सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
जैसे किसी जले हुये जंगल में
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी- भरी
ऐसी आवाज़ है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं…
अपने हैं…
अपने हैं…
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ

किसी का भय नहीं है।
‘तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ
चलो। इससे पहले कि वे
गलत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
काले बाजा़र हों
उनसे मिलो।उन्हें बदलो।
नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना
एक खूनी विचार है
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है।
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जहाँ वर्तमान
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
वह टुकड़ा हूँ
जो आदमी की शिराओं में
बहते हुये खू़न को
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और
देखो कि लोग…

मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में
एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
काटते हुये मैं चीख पड़ा-
‘हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह
किसको कहा था। शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को
हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है

मेरी नींद टूट चुकी थी
मेरा पूरा जिस्म पसीने में
सराबोर था। मेरे आसपास से
तरह-तरह के लोग गुजर रहे थे।
हर तरफ हलचल थी,शोर था।
और मैं चुपचाप सुनता हूँ
हाँ शायद -
मैंने भी अपने भीतर
(कहीं बहुत गहरे)
‘कुछ जलता हुआ सा ‘ छुआ है
लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है
नींद में हुआ है
और तब से आजतक
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं
हफ्तों पर हफ्ते तह किये हैं
अपनी परेशानी के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई खास फ़र्क़ नहीं है
ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है

हाँ ,यह सही है कि इन दिनों
कुछ अर्जियाँ मँजूर हुई हैं
कुछ तबादले हुये हैं
कल तक जो थे नहले
आज
दहले हुये हैं

हाँ यह सही है कि
मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सिर्फ़ घास के
सामने होने की मजबूरी है
वर्ना उस भले मानुस को
यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन
और अपने निजी बिस्तर के बीच
कितने जूतों की दूरी है।


हाँ यह सही है कि इन दिनों -चीजों के
भाव कुछ चढ़ गये हैं।अखबारों के
शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।
मन्दी की मार से
पट पड़ी हुई चीज़ें ,बाज़ार में
सहसा उछल गयीं हैं
हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं
सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और-
सच्चे मतभेद के अभाव में
लोग उछल-उछलकर
अपनी जगहें बदल रहे हैं
चढ़ी हुई नदी में
भरी हुई नाव में
हर तरफ ,विरोधी विचारों का
दलदल है
सतहों पर हलचल है
नये-नये नारे हैं
भाषण में जोश है
पानी ही पानी है
पर
की

ड़
खामोश है

मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा़ गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है

नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।...

वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।

भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है। समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।

मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है
जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है...

यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया’ है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।...

मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक –
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं
हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है।

धूमिल साठोत्तरी कविता के धूमकेतु

हिंदी साहित्य की साठोत्तरी कविता के शलाका पुरुष स्व. सुदामा प्रसाद पाण्डेय धूमिल अपने बागी तेवर व समग्र उष्मा के सहारे संबोधन की मुद्रा में ललकारते दिखते हैं। तत्कालीन परिवेश में अनेक काव्यान्दोलनों का दौर सक्रिय था, परंतु वे किसी के सुर में सुर मिलाने के कायल न थे। उन्होंने तमाम ठगे हुए लोगों को जुबान दी। कालांतर में यही बुलन्द व खनकदार आवाज का कवि जन-जन की जुबान पर छा गया।

9 नवंबर 1936 को बनारस के खेवली गांव में जन्मे सुदामा पाण्डेय की प्रारंभिक शिक्षा गांव की प्राथमिक पाठशाला में हुई। हरहुआ के कूर्मि क्षत्रिय इण्टर कालेज से सन् 1953 ई. में हाईस्कूल की परीक्षा पास की। आगे की पढाई के लिए बनारस गये तो, मगर अर्थाभाव के चलते उसे जारी न रख सके। फिर क्या, आजीविका की तलाश में वे काशी से कलकत्ता तक भटकते रहे। नौकरी भी मिली तो लाभ कम, मानसिक यंत्रणा उन पर ज्यादा भारी पडी। वर्षो का सिरदर्द अंतत: ब्रेनट्यूमर बनकर मात्र उनतालिस वर्ष की अल्पायु में ही, उनकी मृत्यु का कारण बना।

सबसे पहली रचना धूमिल ने कक्षा 7 में पढते हुई की। इनकी प्रारंभिक रचनाएं गीत के रूप में मिलती हैं- बांसुरी जल गयी इनके फुटकर व शुरुआती गीतों का संग्रह है, जो आज उपलब्ध नहीं है। उनकी दो कहानियां फिर भी वह जिंदा है और कुसुम दीदी, उनकी मृत्युपरांत 1984 में प्रकाशित हुई। वैसे उनकी अक्षय कीर्ति की आधार बना संसद से सडक तक नामक कविता संग्रह, जो सन् 1971 में प्रकाश में आया।

भय, भूख, अकाल, सत्तालोलुपता, अकर्मण्यता और अन्तहीन भटकाव को रेखांकित करती, आक्रामकता से भरपूर इस संग्रह की सभी कविताएं अपने में बेजोड हैं। पच्चीस कविताओं के इस संग्रह में लगभग सभी रचनाएं तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक परिदृश्य का भी गहराई से परिचय कराती हैं। इस संदर्भ में कवि की समूची राजनैतिक समझ प्रखरता से उभरती है क्योंकि उनकी कविताओं में देहात और शहर, कविकर्म और राजनीति, आस्था और अनास्था, सामाजिकता और असामाजिकता, अहिंसा-हिंसा, ईमानदारी और बेईमानी, जिजीविषा और निराशा आदि प्राय: सभी मानव जीवन से सभ्य-असभ्य अंगों का चित्रण हुआ है। ये सभी चित्रण ठोस सामाजिक यथार्थ के दुर्लभ दस्तावेज हैं। इन कविताओं को पढते हुए ऐसा अनुभव होता है कि मानो कवि हाथ पकडकर कह रहा है- लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, यह जुलूस के पीछे गिर पडा था। (संसद से सडक तक, पृष्ठ 10)

अकाल दर्शन शीर्षक कविता में कवि प्रश्न करता है- भूख कौन उपजाता है? चतुर आदमी जवाब दिए बगैर बेतहाशा बढती आबादी की ओर इशारा करता है। कवि इस कविता के मार्फत उन लोगों को तलाशता है जो देश के जंगल में भेडिये की तरह लोगों को खा रहे हैं और शोषित उन्हीं की जय-जयकार करने में जुटे हैं। एक दूसरी जोरदार कविता मित्र कवि राजकमल चौधरी के लिए लिख देश का नग्न यथार्थ प्रस्तुत किया है। धूमिल ने राजकमल की हिम्मत के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए लिखा है- वह एक ऐसा आदमी था जिसका मरना/कविता से बाहर नहीं है। (वही, पृष्ठ 73)

इस कृति की सर्वाधिक चर्चित व असरदार रचना मोचीराम है। इस कविता को धूमिल की प्रतिनिधि कविता माना जाता है। जनपक्षधरता के हिमायती कवि ने प्रतीक व बिम्बों के माध्यम से इसे जन-जन से जोडा है- मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बडा है/.. (वही, पृष्ठ 36) मोचीराम के भीतर एक सजग समाजवेत्ता बैठा है, जो महसूस करता है कि जीने के पीछे एक सार्थक उद्देश्य व तर्क तो होना ही चाहिए। वह जिंदगी को किताबों से नापने का कायल नहीं है।

भाषा की रात भी इस संग्रह की एक प्रखर कविता है। इसमें कवि उन चतुर लोगों को अपना निशाना बनाता है, जो तलवार को कलम के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इनकी उदारता में अवसरवाद की गंध है। इसी बहाने वे पूर्व एवं दक्षिण में भाषाई स्तर पर पडी दरार को भी उद्घाटित करते हैं- चंद चालाक लोगों ने.. बहस के लिए/ भूख की जगह/ भाषा को रख दिया है। (वही, 98 पृष्ठ)

धूमिल की अधिकांश कविताओं में कुछ ऐसे शब्द हैं, जो अक्सर मिल जाते हैं जैसे- जंगल, भूख, विदेशी मुद्रा, अमीन, लाल-हरी झण्डियां, फाइलें, विज्ञापन, वारण्ट आदि। ये सीधे तौर पर कवि के राजनीतिक-सामाजिक विमर्श की ओर संकेत करते हैं।

धूमिल अपने परिवेश और जटिल परिस्थितियों के प्रति अत्यन्त सक्रिय हैं। वे कविता के शाश्वत मूल्यों की तलाश करते हैं। वे भाषा, मुहावरों व उक्तियों की सीमाओं से टकराते नजर आते हैं, ताकि कुछ नया दे सकें। इस दृष्टि से वे महत्वपूर्ण हैं कि उन्होंने अपने दौर की कविता को भीड से निकाल जनतांत्रिक बनाया। उसका रुख ही बदल दिया। जनतंत्र का सूर्योदय, मुनासिब कार्यवाई, बारिश में भीगकर और सर्वाधिक लम्बी कविता पटकथा इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।

कल सुनना मुझे सन् 77 में धूमिल के मृत्योपरान्त प्रकाश में आया दूसरा और सशक्त काव्यसंग्रह है। वे हमेशा आत्मसम्मोहन और लेखकीय दादागीरी के खिलाफ रहे। किसी भी कविता को वे पहले सूक्तियों में लिखते थे। असल में बहुत ही अव्यवस्थित और बिखरा-बिखरा उनका कवि कर्म उन्हें अन्य साहित्यकारों से अलग करता है।

इसकी पृष्ठभूमि में उनका गंवई जीवन था। वे घर-घर की समस्याओं, मुकदमेबाजी, पारिवारिक असंगतियों, अंधविश्वास और पिछडेपन का दंश झेलते हुए कविता-रचना के लिए समय निकाल उसी ऊब, उसी हताशा को रेखांकित करते हैं- मेरे गांव में/ वही आलस्य, वही ऊब/ वही कलह, वही तटस्थता/ हर जगह और हर रोज..

(कल सुनना मुझे, पृष्ठ 76)

वे शहर की चतुराई, बेहयाई, छल प्रपंच से परिचित हैं। पूंजीवादी बाजार व्यवस्था को वे अकेले चुनौती देते हैं। वे पहले ऐसे कवि हैं जो आत्महीनता के खिलाफ, पूरे आत्मविश्वास के साथ, कविता के द्वारा जरूरी हस्तक्षेप करते हैं। उनकी कविता जिंदगी के ताप से भरती चलती है और ठहरे हुए आदमी को हरकत में लाकर ही दम लेती है।

सन् 1984 में धूमिल की तीसरी और अंतिम अनूठी काव्यकृति सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र आने पर पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुकी थी। यह संग्रह तत्कालीन साम्राज्यवादी ताकतों को बेनकाब करती है। कवि एक ठोस सैद्धांतिक धरातल पर खडा होकर अव्यवस्था और अमानवीयता के प्रति मुखर हो उठता है। इस अव्यवस्था की जडों को उखाड फेंकने के लिए वह विचारधारा के माध्यम से संघर्ष करता है-

न मैं पेट हूं/ न दीवार हूं/ न पीठ हूं/ अब मैं विचार हूं (सुदामा प्र. पाण्डेय का प्रजातंत्र, पृ. 43)

कवि तमाम तरह की विद्रूपताओं को खुलकर कहता और लिखता है। इसीलिए उन पर आरोप है कि विशेष रूप से नारी के प्रति वितृष्णा से भरा है। ध्यान रहे- यह उनकी सभी कविताओं के साथ जोडकर न देखें तो न्याय होगा। मां और पत्नी के प्रति उनका आत्मीय संबंध लाजवाब है। सच तो यह है कि अतिशय यथार्थ सामने रखकर उन बातों से अश्लीलता के प्रति वितृष्णा पैदा करने की कोशिश भर की है।

इस संबंध में आचार्य प्रवर स्व. विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं- धूमिल के काव्य में काम नहीं है बल्कि कामुकता के प्रति गहरी वितृष्णा है। वह पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की तरह गरिमा के लिए ही कुछ तीखा होना चाहता है। धूमिल के काव्य की जांच इसलिए धूमिल की वास्तविक चिंता की दृष्टि से की जानी शेष है, भाषा के तेवर की, विचार की तीक्ष्णता की चर्चा तो बहुत हो चुकी है।

कवि धूमिल का शिल्प-विधान और भाषा अपने समकालीन सरोकारों, गंवई सुगंध, ईमानदार व्यक्ति की बगैर लपछप की एक अनूठी झलक है। उनकी नजर में कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। वे मानते हैं- एक सही कविता पहले एक सार्थक व्यक्तव्य होती है। यह भी सच है, कि वे भाषा का भ्रम तोडना चाहते हैं। वे जनता की यातना और दुख से उभरी तेजस्वी भाषा में कविताई करना पसंद करते हैं। वे कहते हैं- आज महत्व शिल्प का नहीं, कथ्य का है, सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है। (कविता पर एक वक्तव्य-धूमिल, नया प्रतीक- 78 पृष्ठ 5)

धूमिल की भाषा का संबोधनात्मक प्रयोग भी उन्हें तमाम समकालीन मुलम्मेदार व पाण्डित्य-प्रदर्शन-प्रिय कवियों से अलग व एक विशिष्ट पहचान देता है। उनकी कविता नये विम्ब विधान व नये संदर्भो में जनता के संघर्ष के स्वर में स्वर मिलाती है। इस दृष्टि से उनकी काव्यभाषा सामाजिक संरचना के औचित्य को चुनौती देती है। उनके काव्य बिंब अपने परवर्ती कवियों से पृथक हैं। वे अपनी प्रकृति और प्रस्तुति में अद्भुत हैं-धूप मां की गोद सी गर्म थी। कहकर कवि मां की महिमा को सिर माथे स्वीकारता है। छंदविधान की दृष्टि से उनकी लगभग सभी कविताएं गद्यात्मक लय की ओर झुकी हुई हैं। कविता की एकरसता और लंबाई तोडने के उद्देश्य से वे पंक्तियों को छोटा-बडा करते हैं और तुकों द्वारा तालमेल एवं लय स्थापित करते हैं। हिंदी कविता को नए तेवर देने वाले इस जनकवि का योगदान चिरस्मरणीय है और रहेगा।

कविता के बारे में धूमिल का विचार

एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।

जीवन में कविता की अहमियत

कविता
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।

लेकिन आज के हालात में

कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।

तथा

कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।

बुद्धजीवियों और कवियों के बारे में लिखते हुए सवाल...

आखिर मैं क्या करूँ
आप ही जवाब दो?
तितली के पंखों में
पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में
कौन सा गुल खिला दूँ
जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
हाशिये पर चुटकुला बन रहा है
क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बाँधकर
निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दँ?

आज के समय में प्यार के बारे में धूमिल का विचार...
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के
पहले ही गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुये
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है।

बेकारी, गरीबी, बढ़ती जनसंख्या के बारे में लिखते हुये कहते हैं धूमिल-

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुये कहा-
‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर,खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे हमें
बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

देश में एकता ,क्रान्ति के क्या मायने रह गये हैं:-

वे चुपचाप सुनते हैं
उनकी आँखों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता
वे इस कदर पस्त हैं-
कि तटस्थ हैं
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति -
यहाँ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।

अपराधी तत्वों के मजे हैं आज की व्यवस्था में:-

….और जो चरित्रहीन है
उसकी रसोई में पकने वाला चावल
कितना महीन है।

सबसे प्रसिद्ध कविता पंक्तियां धूमिल ने अपनी लंबी कविता पटकथा में लिखीं हैं।इस कविता में आजादी के बाद से सत्तर के दशक तक का देश के हालात का बेबाक लेखा- जोखा है:-

मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

मोचीराम- धूमिल

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

प्रियंका करेंगी कांग्रेस का उद्धार !

प्रियंका ने नरेंद्र मोदी को जवाब क्या दिया कांग्रेसियों की बांछें खिल गयीं। उन्हें लगता है जैसे प्रियंका कांग्रेस के बचाव में उतरी हैं, जल्द ही सक्रिय राजनीति में उतर जायेंगी। ये अलग बात है कि प्रियंका अब भी रायबरेली अमेठी में पूरी तरह से कमान संभाली हैं। प्रियंका के जवाब को कांग्रेसी सक्रिय राजनीति में आने की पहली सीढ़ी मान रहे हैं। उनके मुताबिक अगर प्रियंका राजनीति में उतरती हैं तो पार्टी में नयी जान आ जायेगी। हालांकि वो जानते हैं कि फैसला प्रियंका को ही करना है। एक अर्से से कार्यकर्ता प्रियंका को राजनीति में लाने की मांग कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके आने से कांग्रेस का उद्धार होगा।