वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
जो मुँह से बोलेगा उसका ‘निदान’ कर देंगे
वे आस्था के सवालों को यूं उठायेंगे
खुदा के नाम तुम्हारा मकान कर देंगे
तुम्हारी ‘चुप’ को समर्थन का नाम दे देंगे
बयान अपना, तुम्हारा बयान कर देंगे
तुम उन पे रोक लगाओगे किस तरीके से
वे अपने ‘बाज’ की ‘बुलबुल’ में जान कर देंगे
कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक
तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे
वे शेखचिल्ली की शैली में, एक ही पल में
निरस्त अच्छा-भला ‘संविधान’ कर देंगे
तुम्हें पिलायेंगे कुछ इस तरह धरम-घुट्टी
वे चार दिन में तुम्हें ‘बुद्धिमान’ कर देंगे
शनिवार, फ़रवरी 20, 2010
वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
फूल के बाद फलना ज़रूरी लगा
फूल के बाद फलना ज़रूरी लगा,
भूमिकाएँ बदलना ज़रूरी लगा।
दर्द ढलता रहा आँसुओं में मगर
दर्द शब्दों में ढलना ज़रूरी लगा।
'कूपमंडूक' छवि को नमस्कार कर,
घर से बाहर निकलना ज़रूरी लगा।
अपने द्वंद्वों से दो-चार होते हुए,
हिम की भट्टी में जलना ज़रूरी लगा।
मोमबत्ती से उजियारे की चाह में,
मोम बन कर पिघलना ज़रूरी लगा।
उनके पैरों से चलकर न मंज़िल मिली,
अपने पाँवों पे चलना ज़रूरी लगा।
आदमीयत की रक्षा के परिप्रेक्ष्य में
विश्व-युद्धों का टलना ज़रूरी लगा।
मुस्कुराना भी एक चुम्बक है
मुस्कुराना भी एक चुम्बक है,
मुस्कुराओ, अगर तुम्हें शक है!
उसको छू कर कभी नहीं देखा,
उससे सम्बन्ध बोलने तक है।
डाक्टर की सलाह से लेना,
ये दवा भी ज़हर-सी घातक है।
दिन में सौ बार खनखनाती है
एक बच्चे की बंद गुल्लक है।
उससे उड़ने की बात मत करना,
वो जो पिंजरे में अज बंधक है।
हक्का-बक्का है बेवफ़ा पत्नी,
पति का घर लौटना अचानक है!
'स्वाद' को पूछना है 'बंदर' से,
जिसके हाथ और मुँह में अदरक है।
गगन तक मार करना आ गया है
गगन तक मार करना आ गया है,
समय पर वार करना आ गया है ।
उन्हें......कविता में बौनी वेदना को,
कुतुब-मीनार करना आ गया है !
धुएँ की स्याह चादर चीरते ही,
घुटन को पार करना आ गया है ।
अनैतिक व्यक्ति के अन्याय का अब,
हमें प्रतिकार करना आ गया है ।
खुले बाजार में विष बेचने को,
कपट व्यवहार करना आ गया है ।
हम अब जितने भी सपने देखते हैं,
उन्हें साकार करना आ गया है ।
शिला छूते ही, नारी बन गई जो,
उसे अभिसार करना आ गया है
मुस्कानों की सेल लगी है चेहरों पर
चित्रलिखित मुस्कान सजी है चेहरों पर,
मुस्कानों की सेल लगी है चेहरों पर ।
शहरों में, चेहरों पर भाव नहीं मिलते,
भाव-हीनता ही पसरी है चेहरों पर ।
लोग दूसरों की तुक-तान नहीं सुनते,
अपना राग, अपनी डफली है चेहरों पर ।
दोस्त ठहाकों की भाषा ही भूल गए,
एक खोखली हँसी लदी है चेहरों पर ।
लोगों ने जो भाव छिपाए थे मन में,
उन सब भावों की चुगली है चेहरों पर ।
मीठे पानी वाली नदियाँ सूख गई,
खारे पानी की नद्दी है चेहरों पर ।
एक गैर-मौखिक भाषा है बहुत मुखर,
शब्दों की भाषा गूँगी है चेहरों पर ।
सपने अनेक थे तो मिले स्वप्न-फल अनेक
सपने अनेक थे तो मिले स्वप्न-फल अनेक,
राजा अनेक, वैसे ही उनके महल अनेक।
यूँ तो समय-समुद्र में पल यानी एक बूंद,
दिन, माह, साल रचते रहे मिलके पल अनेक।
जो लोग थे जटिल, वो गए हैं जटिल के पास
मिल ही गए सरल को हमेशा सरल अनेक।
झगडे हैं नायिका को रिझाने की होड के,
नायक के आसपास ही रहते हैं खल अनेक।
बिखरे तो मिल न पाएगी सत्ता की सुन्दरी,
संयुक्त रहके करते रहे राज दल अनेक।
लगता था-इससे आगे कोई रास्ता नहीं,
कोशिश के बाद निकले अनायास हल अनेक।
लाखों में कोई एक ही चमका है सूर्य-सा
कहने को कहने वाले मिलेंगे ग़ज़ल अनेक।
आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला
आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला,
रोने के बाद भी, मेरी आँखों में जल मिला।
उपयोग के लिए उन्हें झुग्गी भी चाहिए,
झुग्गी के आसपास ही उनका महल मिला।
आश्वस्त हो गए थे वो सपने को देख कर,
सपने से ठीक उल्टा मगर स्वप्न-फल मिला।
इक्कीसवीं सदी में ये लगता नहीं अजीब,
नायक की भूमिका में लगातार खल मिला।
पूछा गया था प्रश्न पहेली की शक्ल म,
लेकिन, कठिन सवाल का उत्तर सरल मिला।
उसको भी कैद कर न सकी कैमरे की आँख,
जीवन में चैन का जो हमें एक पल मिला।
ऐसे भी दृश्य देखने पडते हैं आजकल,
कीचड की कालिमा में नहाता कमल मिला।
दबंगों की अनैतिकता अलग है
दबंगों की अनैतिकता अलग है,
उन्हें अन्याय की सुविधा, अलग है।
डराते ही नहीं अपराध उनको,
महल का गुप्त दरवाजा अलग है।
जिसे तुम व्यक्त कर पाए न अब तक,
वो दोनों ओर की दुविधा अलग है।
पतंगें कब लगीं आजाद पंछी,
पतंगों की तरह उडना अलग है।
जिसे महसूस करता हूँ मैं अक्सर,
तुम्हारी देह की दुनिया अलग है।
है स्वाभाविक किसी दुश्मन की चिन्ता,
निजी परछाईं से डरना अलग है।
वो चाहे छन्द हो या छन्द-हीना,
हमारे दौर की कविता अलग है।
उन्हें देखा गया खिलते कमल तक
उन्हें देखा गया खिलते कमल तक,
कोई झाँका नहीं झीलों के तल तक।
तो परसों, फिर न उसकी राह तकना,
जो भूला आज का, लौटा न कल तक।
न जाने, कब समन्दर आ गए हैं,
हमारी अश्रु-धाराओं के जल तक।
सियासत में उन्हीं की पूछ है अब,
नहीं सीमित रहे जो एक दल तक।
यही तो टीस है मन में लता के,
हुई पुष्पित, मगर, पहुँची न फल तक।
हजारों कलयुगी शंकर हैं ऐसे-
पचाना जानते हैं जो गरल तक।
जो बारम्बार विश्लेषण करेगा,
पहुँच ही जाएगा वो ठोस हल तक।
हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं
हमारे भय पे पाबंदी लगाते हैं
अंधेरे में भी जुगनू मुस्कुराते हैं
बहुत कम लोग कर पाते हैं ये साहस
चतुर चेहरों को आईना दिखाते हैं
जो उड़ना चाहते हैं उड़ नहीं पाते
वो जी भर कर पतंगों को उड़ाते हैं
नहीं माना निकष हमने उन्हें अब तक
मगर वो रोज़ हमको आज़माते हैं
उन्हें भी नाच कर दिखलाना पड़ता है
जो दुनिया भर के लोगों को नचाते हैं
बहुत से पट कभी खुलते नहीं देखे
यूँ उनको लोग अक्सर खटखटाते हैं
हमें वो नींद में सोने नहीं देते
हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं
सब की आँखों में नीर छोड़ गए
सब की आँखों में नीर छोड़ गए
जाने वाले शरीर छोड़ गए
राह भी याद रख नहीं पाई
क्या कहाँ राहगीर छोड़ गए
लग रहे हैं सही निशाने पर
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए
हीर का शील भंग होते ही
रांझे अस्मत पे चीर छोड़ गए
एक रुपया दिया था दाता ने
सौ दुआएं फ़क़ीर छोड़ गए
उस पे क़बज़ा है काले नागों का
दान जो दान-वीर छोड़ गए
हम विरासत न रख सके क़ायम
जो विरासत कबीर छोड़ गए
घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए
अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए
मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए
धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए
होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए
इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए
बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.
अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
गए सब रोशनी की ओर चलकर
खड़े थे व्यस्त अपनी बतकही में
तो खींचा ध्यान बच्चे ने मचलकर
जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया था
सदन में आ गए कपड़े बदलकर
अधर से हो गई मुस्कान ग़ायब
दिखाना चाहते हैं फूल—फलकर
लगा पानी के छींटे से ही अंकुश
निरंकुश दूध हो बैठा, उबलकर
कली के प्यार में मर—मिटने वाले
कली को फेंक देते हैं मसलकर
घुसे जो लोग काजल—कोठरी में
उन्हें चलना पड़ा बेहद सँभलकर
बहुत कम लोग घर को फूँक कर घर से निकलते हैं
वो हिम्मत करके पहले अपने अन्दर से निकलते हैं
बहुत कम लोग , घर को फूँक कर घर से निकलते हैं
अधिकतर प्रश्न पहले, बाद में मिलते रहे उत्तर
कई प्रति-प्रश्न ऐसे हैं जो उत्तर से निकलते हैं
परों के बल पे पंछी नापते हैं आसमानों को
हमेशा पंछियों के हौसले ‘पर’ से निकलते हैं
पहाड़ों पर व्यस्था कौन-सी है खाद-पानी की
पहाड़ों से जो उग आते हैं,ऊसर से निकलते हैं
अलग होती उन लोगों की बोली और बानी भी
हमेशा सबसे आगे वो जो ’अवसर’ से निकलते हैं
किया हमने भी पहले यत्न से उनके बराबर क़द
हम अब हँसते हुए उनके बराबर से निकलते हैं
जो मोती हैं, वो धरती में कहीं पाए नहीं जाते
हमेशा कीमती मोती समन्दर से निकलते हैं
महान लोगों ने उसको महान कर डाला
महान लोगों ने उसको महान कर डाला
ज़मीन था जो उसे आसमान कर डाला
निशा के साथ जो घटना घटी थी थाने में
उषा को उसने बहुत सावधान कर डाला
उसे ज़ुबान मिली थी वो बोलता भी था
सुअवसरों ने उसे बेज़ुबान कर डाला
वह अपने आप को सब से अलग समझता था
अकाल ने उसे सबके समान कर डाला
वो गर्म शाल जो उपहार में मिली थी उसे
उसे भी उसने भिखारिन को दान कर डाला
तीर ने जब कमान से देखा
दृश्य उड़ते विमान से देखा
बाढ़ को इत्मीनान से देखा
उसने सत्ता के अश्व पर चढ़
कर
जो भी देखा वो शान से देखा
मेरी आँखें चली गईं जबसे
मैंने दुनिया को कान से देखा
फ़ाइलों ने विकास का चेहरा
आँकड़ों की ज़ुबान से देखा
मैंने दिन भर की उसकी मेहनत को
रात भर की थकान से देखा
सेठ साहब ने झोंपड़ी का कद
अपने ऊँचे मकान से देखा
तीर होना तभी हुआ सार्थक
तीर ने जब कमान से देखा
कितने सपनों को आँजकर आया
कितने सपनों को आँजकर आया
गाँव जब भी महानगर आया
मेरे सिर पर जो हाथ उसने रखा
तो अनायास कण्ठ भर आया
वो निकष पर निकल गया पीपल
शुद्ध सोने-सा जो नज़र आया
उड़ते पंछी को रोकना चाहा
तो मेरे हाथ एक पर आया
सच्चे जोहरीच्का हाथ लगते ही
रूप पुखराज का निखर आया
मैने मुड़कर उधर नहीं देखा
जिस झरोखे से उसका स्वर आया
जो कभी दूर ले गया था मुझे
रास्ता वो ही मेरे घर आया
हंस का इम्तिहान बाकी है
हंस का इम्तिहान बाकी है
एक ऊँची उड़ान बाकी है
मेरे पैरों तले धरा न सही
शीश पर आसमान बाकी है
सूखे पनघट के घाट पर अब तक
रस्सियों का निशान बाकी है
गाँव में खण्डहर की सूरत में
उस हवेली की शान बाकी है
उसका रुँधने लगा गला लेकिन
आँसुओं की ज़ुबान बाकी है
आँकड़ों के सिवा, गरीबों पर
झुग्गियों का बयान बाकी है
यात्रा खत्म हो गई लेकिन
यात्रा की थकान बाकी है
आदमी से बड़े जंगली जानवर
जंगलों से चले जंगली जानवर
शहर में आ बसे जंगली जानवर
आदमी के मुखौटे लगाए हुए
हर कदम पर मिले जंगली जानवर
आप भी तीसरी आँख से देखकर
खुद ही पहचानिए जंगली जानवर
एक औरत अकेली मिली जिस जगह
मर्द होने लगे जंगली जानवर
आप पर भी झपटने ही वाला है वो
देखिए...देखिए..जंगली जानवर!
बन्द कमरे के एकान्त में प्रेमिका
आपको क्या कहे-जंगली जानवर!
आजकल जंगलों में भी मिलते नहीं
आदमी से बड़े जंगली जानवर
बंदिशों की सज़ा से डरता है
बंदिशों की सज़ा से डरता है
आदमी दासता से डरता है
जो दीये की शिखा से जल बैठा
वो दीये की शिखा से डरता है
वक्त केवल पिरामिडों जैसी
सदियों लम्बी कला से डरता है
आगे खतरा हो जिससे शोषण का
रूप उसकी कृपा से डरता है
जिसकी सूरत कभी नहीं देखी
आदमी उस खुदा से डरता है
हो जहाँ वास्तव में जन-सत्ता
उसका शासक प्रजा से डरता है
रोग डरता नहीं दवाओं से
रोग केवल दुआ से डरता है
हम बीस-तीस सालों में कितने बदल गए
हम बीस-तीस सालों में कितने बदल गए
अब तो हमारे बीच के रिश्ते बदल गए
अपराधियों ने लोगों के चेहरे चुरा लिए
चेहरे चुरा लिए तो मुखौटे बदल गए
बच्चे हमारी बातों पए हँसते हैं आजकल
उनकी किशोर आँखों के सपने बदल गए
इस राजनीति में भी बहुत दाँव-पेंच हैं
अब राजनीति के भी करिश्मे बदल गए
फ़ैशन भी क्या अजीब है कुछ सोचती नहीं
तन तो वही पुराना है कपड़े बदल गए
इन्सान से तो पहले ही विश्वास उठ गया
विश्वास किसका कीजिए, कुत्ते बदल गए
पन्द्रह ही बरस दूर है इक्कीसवीं सदी
इस बीसवीं सदी के भी चश्मे बदल गए
क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत
क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत
यौन शोषण की युगों लम्बी कथा औरत
अपहरण कर ले गए रावण कभी बिल्ला
कल सिया तो आज गीता चोपड़ा औरत
आज भी मामा या सौतेले पिता के हाथ
बेच दी जाती है बूढ़े को युवा औरत
एक कवि ही था, कहा जिसने उसे ‘श्रद्धा’
आम मर्दों ने सदा ली अन्यथा औरत
कल सती हो कर जली थी आज पति के हाथ
बन गई जीवित जलाने की ‘प्रथा’ औरत
अम्ल होते रहे क्षार होते रहे
अम्ल होते रहे क्षार होते रहे
प्रतिक्रियाऒं को तैयार होते रहे
किसको फ़ुरसत है, अमराइयों में मिले
बन्द कमरों में अभिसार होते रहे
वक्त की झील में स्व्वार्थ की नाव पर
उनके सिद्धान्त भी पार होते रहे
हमने तलवार फिर भी उठाई नहीं
शुत्रु के वार पर वार होते होते रहे
वे चमत्कार को देख ही न सके
जिनके सम्मुख चमत्कार होते रहे
नहीं अब शेष स्पर्धा उड़ानों में
नहीं अब शेष स्पर्धा उड़ानों में
पतंगें उड़ रही हैं वायुयानों में
बयानों पर अधिक विश्वास मत करना
बहुत कम तथ्य होता है बयानों में
भला अब कौन अस्मत को बचाएगा
दरोगा कर रहे हैं रेप थानों में
जो हीरे हार में जड़कर चमकते हैं
कभी देखा भी है उनको खदानों में?
पलायन गाँव से भी करगए तो क्या
शहर के गुण नहीं आए किसानों में
इसे तुम लोग कैसे कैद कर लोगे
ये खुश्बू है उड़ेगी आसमानों में
हुआ था वृक्ष पहले या कि पहले बीज
बहस अब तक छिड़ी है बुद्धिमानों में
भूख जैसे सवाल, मत पूछो
भूख जैसे सवाल, मत पूछो
देश का हालचाल मत पूछो!
इस प्रजातन्त्र की व्यवस्था में
तंत्र की ढील-ढाल, मत पूछो
मूल्य इतने गिरे मनुजता के
हँस रहा था दलाल, मत पूछो
उन जहाजों का डू्ब जाना ही
थी समन्दर की चाल, मत पूछो
देश की राजनीति में यारो,
पिछले सैंतीस साल, मत पूछो
है उसकी आँखों में नफ़रत या प्यार, पढ़ लेना
है उसकी आँखों में नफ़रत या प्यार, पढ़ लेना
ये आदमी है , इसे बार-बार, पढ़ लेना
ये जिन्दगी का खतरनाक मोड़ है, प्यारे
यहाँ लिखा है कहीं होशियार,पढ़ लेना
वो रहनुमा नहीं , बहरूपिया लगा है मुझे
हैं उसके पास मुखौटे हज़ार,पढ़ लेना
जो जंगलों से शहर का शिकार करते हैं
कहीं है वे भी किसी के शिकार,पढ़ लेना
जो राजनीति जुड़ी है तुम्हारी रोटी से
उसे किताबों से आगे भी, यार, पढ़ लेना
एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच
एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच
फँस गया है काँच का घर पत्थरों के बीच
दिन दिहाड़े रेप, हत्या, रहजनी , डाके
हादसा है जिन्दगी इन मंजरों के बीच
है बहुत मशहूर बन्दर-बाँट रोटी की
आप कैसे फँस गए इन बन्दरों के बीच !
हाँ सियासत रोज ही पंछी उड़ाती है
किन्तु रख देती है टाइम-बम परों के बीच
लोग कपड़े की तरह बुनने लगे गज़लें
क्योंकि गजलें आ फँसी हैं बुनकरों के बीच
लोग जितने मिले- ‘स्वर’ बदलते हुए
लोग जितने मिले, ‘स्वर’ बदलते हुए
वक्त के साथ तेवर बदलते हुए
हर नए साल के संग पुराने हुए
लोग पिछला कैलेण्डर बदलते हुए
अपने सामान बच्चों व पत्नी सहित
हम भटकते रहे घर बदलते हुए
ऊँची -ऊँची उड़ानों के उन्माद में
रोज पंछी मिले पर बदलते हुए
आदमी फिर भी पूरा बदलता नहीं
जिन्दगी भर निरन्तर बदलते हुए
एक-से वक्त्व्य नारे एक-से
एक-से वक्त्व्य नारे एक-से
हैं लुटेरों के इशारे एक-से
भूख झुग्गी में लगे या खान में
भूख दिखलाती है तारे एक-से
आपके कुछ वोट पाने के लिए
हाथ लोगों ने पसारे एक-से
गाँव से लेकर शहर तक बेधड़क
नोट चलते हैं करारे एक-से
धर्म के हों या किसी सरकार के
किन्तु हैं कानून सारे एक-से
घर के अन्दर देखकर या घर के बाहर देखकर
घर के अन्दर देखकर या घर के बाहर देखकर
थक गया है आदमी खुद को निरंतर देखकर
न्याय-घर में भी बदल सकते हैं दर्पण के बयान
मूल अपराधी के संकेतों में पत्थर देखकर
चीखने की भी यहाँ पंछी को आज़ादी नहीं
चाकुओं के हाथ में अपने कटे पर देखकर
उसको तालाबों के किस्सों में मज़ा आता नहीं
जो अभी लौटा है अपने घर समन्दर देखकर
दोस्तों से राय लेना व्यर्थ लगता है मुझे
दोस्त मुझको राय देते हैं मेरा स्वर देखकर
खूनी हथियारों की बिक्री के नए माहौल में
हँस रहे हैं शस्त्र- विक्रेता कबूतर देखकर
दो रोटी के अलावा चार की बातें नहीं करते
दो रोटी के अलावा चार की बातें नहीं करते
करोड़ों लोग कोठी -कार की बातें नहीं करते
बरस में एक दीवाली-अमावस के अलावा हम
अमावस से कभी उजियार की बातें नहीं करते
यहाँ इस देश में कुछ आदिवासी क्षेत्र ऐसे हैं
जहाँ के नागरिक सरकार की बातें नहीं करते
जहाँ पर देह नारी या पुरुष की गैर-हाज़िर हो
शहर
के लोग ऐसे प्यार की बातें नहीं करते
जिन्हें बिकना है जीवन में हजारों बार बिकना है
वे अपने मूल्य या बाज़ार की बातें नहीं करते
हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में
हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में
आदमी उलझा रहा केवल विवादों में
लोग संसद में विगत सैंतीस वर्षों से
कर रहे हैं भुखमरी को हल विवादों में
आपने देखे नहीं दो सम्प्रदायों के
लोग हो जाते हैं जब पागल विवादों में
कोर्ट में वादी व प्रतिवादी बहस के बीच
न्याय होता है बहुत घायल विवादों में
अब वहाँ पर बाँध बँध पाना असम्भव है
फँस गया है उस नदी का जल विवादों में
हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में
हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में
आदमी उलझा रहा केवल विवादों में
लोग संसद में विगत सैंतीस वर्षों से
कर रहे हैं भुखमरी को हल विवादों में
आपने देखे नहीं दो सम्प्रदायों के
लोग हो जाते हैं जब पागल विवादों में
कोर्ट में वादी व प्रतिवादी बहस के बीच
न्याय होता है बहुत घायल विवादों में
अब वहाँ पर बाँध बँध पाना असम्भव है
फँस गया है उस नदी का जल विवादों में
यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों
यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों
किराए पर यहाँ पर हैं हज़ारों
ये सत्ता की सियासत का शहर है
यहाँ हर ओर अजगर हैं हज़ारों
मुकद्दार का सिकन्दर मैं नहीं हूँ
मुकद्दर के सिकन्दर हैं हज़ारों
लड़ानी हैं जिन्हें अपनी बटेरें
उन्हीं के पास तीतर हैं हज़ारों
अकेले में मैं अक्सर सोचता हूँ
बदलते क्यों मेरे स्वर हैं हज़ारों
नहीं दिखते कहीम वे तीन बन्दर
यूँ गांधी जी के बंदर हैं हज़ारों
है मेरी लेखनी कविता की गागर
मेरी गागर में सागर हैं हज़ारों
यह शहर कब रुका है सड़कों पर
यह शहर कब रुका है सड़कों पर
आदमी भागता है सड़कों पर
पूरी बेरोजगार पीढ़ी की
दौड़-प्रतियोगिता है सड़कों पर
इसलिए घर-मकान निर्जन है
क्योंकि मेला लगा है सड़कों पर
मन में डर है कहीं भी लुटने का
सहमी-सहमी हवा है सड़कों पर
सड़कें सड़कों में हो रही हैं गुम
आदमी लापता है सड़कों पर
इन्द्रधनुषी किशोर सपनों का
आईना टूटता है सड़कों पर
गूँगा आक्रोश बंद कमरों का
कूद कर आ गया है सड़कों पर
ना-नुकर में तमाम सड़कें हैं
ना-नुकर में तमाम सड़कें हैं
उस नज़र में तमाम सड़कें हैं
गाँव में तो गिनी चुनी दस थीं
इस शहर में तमाम सड़कें हैं
रोज अपराध करने वाले के
मूक डर में तमाम सड़कें हैं
वो गनहगार छूट जाएगा
न्याय-घर में तमाम सड़कें हैं
जो गरीबों की बात करता है
उसके स्वर में तमाम सड़कें हैं
शाम को मुम्बई ,सुबह दिल्ली
रात भर में तमाम सड़कें हैं
मुट्ठियों में रेत भरकर चुप रहे
मुट्ठियों में रेत भरकर चुप रहे
लोग मरु-थल से गुजरकर चुप रहे
धूप,मिट्टी,जल हवा दुश्मन हुए
बीज धरती पर बिखरकर चुप रहे
पहले डरते थे तो चिल्लाते भी थे
किछ दिनों से लोग डरकर चुप रहे
जुल्म होते देखना आदत बनी
लोग सड़कों पर ठहरकर चुप रहे
अंतत:
वे लोग बम-से फट पड़े
जो हृदय में आग धरकर चुप रहे
वो स्वयं से मिला-जुला ही नहीं
वो स्वयं से मिला-जुला ही नहीं
वो जो दर्पण को देखता ही नहीं
ये सदा उसकी कूटनीति रही
जो कहा वो कभी किया ही नहीं
मेरे जीवन से जो चला ही गया
उसको फिर मुड़के देखना ही नहीं
जो भी कहना था कह दिया तुमने
मेरे कहने को कुछ बचा ही नहीं
उसको संदेह की है वीमारी
और संदेह की दवा ही नहीं
किसी निष्कर्ष के घर तक नहीं पहुँचे
किसी निष्कर्ष के घर तक नहीं पहुँचे
भटकते प्रश्न उत्तरतक नहीं पहुँचे
पहुँच जाते तो हम भी तोड़ लेते फल
हमारे हाथ तरुवर तक नहीं पहुँचे
नदी देखी है, हमने ताल देखे हैं
नहीं, हम लोग सागर तक नहीं पहुँचे
वे कैसे सीख लें सम्मान की भाषा
कभी जो लोग आदर तक नहीं पहुँचे
हमारे शीश पर भी है गगन की छत
अभी हम लोग छप्पर तक नहीं पहुँचे
जो उलझे प्रेम के संदर्भ ग्रंथों में
कभी वे ढाई आखर तक नहीं पहुंचे
हमारा स्वप्न है दो जून की रोटी
हमारे स्वप्न अम्बर तक नहीं पहुँचे
रूढ़ियों का किला पुराना है
रूढ़ियों का किला पुराना है
जिसमें बैठा खुदा पुराना है
रूप लुटता था,रूप लुटता है
लूट का सिलसिला पुराना है
औरतों के चरित्र को लेकर
मर्द का सोचना पुराना है
मौका मिलते ही सिर उठाएगा
आदनी भेड़िया पुराना है
रेप के केस में गवाह बिना
कोर्ट का फ़ैसला पुराना है
यौन-अपराध को हवा देता
काम का देवता पुराना है
आज के युग में काल गर्ल सही
तन का पेशा बड़ा पुराना है
निश्चय के साथ घर से निकलना कठिन तो है
निश्चय के साथ घर से निकलना कठिन तो है
मुट्ठी में आग बाँध के चलना कठिन तो है
बन जाएगा यह काम बदलने से शक्ल को
लेकिन ,जनाब, शक्ल बदलना कठिन तो है
संगीत-साधना में जो बैजू न बन सका
पत्थर का उसके सुर से ,पिघलना कठिन तो है
दुनिया के लाभ के लिए, नदियों की शक्ल में
हिम-गिरि के अंग-अंग-सा गलना कठिन तो है
मरु-थल में भी जो फूले-फले हैं,उन्हें नमन
मरु-थल के बीच फूलना फलना कठिन तो है.
बर्फ की देह जल रही है कहीं
बर्फ की देह जल रही है कहीं
धीरे-धीरे पिघल रही है कहीं
यूँ तो जीवन की भिन्न मुश्किल है
किन्तु कितनी सरल रही है कहीं
आज की राजनीति की रंभा
दिल कहीं,दल बदल रही है कहीं
एक सोलह बरस की लड़की में
पूरी औरत मचल रही है कहीं
गाँव से इस शहर में आते ही
ये सड़क तेज़ चल रही है कहीं
तेरी बातों में आस्था की चमक
मेरी मुश्किल का हल रही है कहीं
छोड़ कर अम्न के कबूतर को
ये सदी हाथ मल रही है कहीं
सत्य के तन के कई टुकड़े हुए
सत्य के तन के कई टुकड़े हुए
एक दर्पन के कई टुकड़े हुए
स्वार्थ छोटे जब बड़े होने लगे
मूल आँगन के कई टुकड़े हुए
रूप यदि भूलों का का अल्बम बन गया
रूप के मन के कई टुकड़े हुए
हो गए जिस रोज़ पति-पत्नी अलग
मूक बचपन के कई टुकड़े हुए
धर्म पर इतने मतान्तर हो गए
ईश -वन्दन के कई टुकड़े हुए
जिनके शीशे के घर रहे थे वहाँ
जिनके शीशे के घर रहे थे वहाँ
वे ही पत्थर से डर रहे थे वहाँ
एक कमरा धुएँ से बोझिल था
और वे रात भर रहे थे वहाँ
जिस शहर को न भूख मार सकी
लोग नफर से मर रहे थे वहाँ
रमता जोगी था बहता पानी था
किन्तु दोनों ठहर रहे थे वहाँ
लोग कानून पढ़ रहे थे इधर
और अपराध कर रहे थे वहाँ
हर कहानी परेशान है
हर कहानी परेशान है
जिन्दगानी परेशान है
पोथियों के अहंकार से
मूढ़ ज्ञानी परेशान है
रेडियो और अखबार में
राजधानी परेशान है
पात्र का रूप धरते हुए
रोज पानी परेशान है
शक्ल ब्रह्माण्ड की सोच कर
बुद्धिमानी परेशान है
मुश्किल से मुझको आपके घर का पता लगा
मुश्किल से मुझको आपके घर का पता लगा
घर का पता लगा तो हुनर का पता लगा
अंकों के अर्थ शून्य ने आकर बदल दिए
भारत से सारे जग को सिफ़र का पता लगा
जंगल को छोड़ना ही सुरक्षित लगा उसे
चीते को जब से शेरे-बबर का पता लगा
उसने निकाह करने से इन्कार कर दिया
जब उसको तीन लाख मेहर का प्ता लगा
कितने हज़ार डर हैं हरएक आदमी के साथ
क्या आपको भी आपके डर का पता लगा?
टिड्डी दलों -से टूट पड़े चींटियॊं के दल
जैसे ही चींटियॊ को शकर का पता लगा
मंत्रों की शक्ति पर मुझे विश्वास हो गया
जब से मुझे ग़ज़ल के असर का पता लगा
यात्रा है तो मन मगन भी है
यात्रा है तो मन मगन भी है
साथ मेरे मेरी थकन भी है
सोचने के लिए धरा ही नहीं
सोचने के लिए गगन भी है
गाँव से एक कोस चलते ही
एक जंगल है जो सघन भी है
रेडियो की खबर है, दंगे में
सौ मरे शहर में अमन भी है
तुम ग़ज़ल गा रही हो कुछ ऐसे
मुझको लगता है यह भजन भी है
ज़िन्दगी खुरदुरी नहीं केवल
ज़िन्दगी रेशमी सपन भी है
बुद्धि हर बार भूल जाती है
व्यक्ति के पास एक मन भी है
यात्रा है तो मन मगन भी है
यात्रा है तो मन मगन भी है
साथ मेरे मेरी थकन भी है
सोचने के लिए धरा ही नहीं
सोचने के लिए गगन भी है
गाँव से एक कोस चलते ही
एक जंगल है जो सघन भी है
रेडियो की खबर है, दंगे में
सौ मरे शहर में अमन भी है
तुम ग़ज़ल गा रही हो कुछ ऐसे
मुझको लगता है यह भजन भी है
ज़िन्दगी खुरदुरी नहीं केवल
ज़िन्दगी रेशमी सपन भी है
बुद्धि हर बार भूल जाती है
व्यक्ति के पास एक मन भी है
यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी
यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी
बड़ी उलझी है अन्तर की कहानी
शिलालेखों को पढ़ना सीख पहले
तभी समझेगा पत्थर की कहनी
रसोई में झगड़ते ही हैं बर्तन
यही है यार, हर घर की कहानी
कहाँ कब हाथ लग जाए अचानक
अनिश्चित ही है अवसर की कहानी
नदी को अन्तत: बनना पड़ा है
किसी बूढे़ समन्दर की कहानी
बातों से , सिर्फ़ बातों से ऐसा किया गया
बातों से , सिर्फ़ बातों से ऐसा किया गया
लोगों के सामने उसे नंगा किया गया
इस राजनीति द्वारा महज़ वोट के लिए
जलते हुए सवालॊ को पैदा किया गया
वो भीख माँगता ही नहीं था , इसीलिए
उस फूल जैसे बच्चे को अंधा किया गया
पानी ठहर न जाए कहीं उसकी देह पर
उस खुरदरे घड़े को भी चिकना किया गया
झंडे के स्वास्थ्य पर कोई इसका असर नहीं
ऊँचा किया गया उसे नी़चा किया गया
तालाब तल की कलमुँहीं कीचड़ को छेड़ कर
उस स्वच्छ जल को व्यर्थ ही गंदा किया गया
पत्थर विरोध करने से डरते हैं आज भी
जिन पत्थरों पे चाकू को पैना किया गया
रेप बड़की हुई मगर घर में
रेप बड़की हुई मगर घर में
घुस गया है अजीब डर घर
बूढ़े माँ-बाप ‘गाँव’ लगते हैं
जब से बच्चे हुए शहर घर में
छोटी ननदी की आँख लड़ने की
सिर्फ़ भाभी को है खबर घर में
जब से अफसर बना बड़ा बेटा
झुक गया है पिता का स्वर घर में
सबके चूल्हे हैं,यार,निट्टी के
व्यर्थ तू झाँकता है घर-घर में
कंठ को तैयार करना सीख जाते हैं
कंठ को तैयार करना सीख जाते हैं
लोग जयजयकार करना सीख जाते हैं
आज समझौतों के युग में सर्द अँगारे
बर्फ़-सा व्यवहार करना सीख जाते हैं
लोग अपने स्वार्थ, अपने लाभ की ख़ातिर
भेड़ियों से प्यार करना सीख जाते हैं
जो कमल के फूल पाना चाहत्रे हैं -वे
कीच को स्व्वीकार करना सीख जाते हैं
लोग जिन डंडों से अपने सोर बचाते हैं
लोग उनसे वार करना सीख जाते हैं
बन्द पुस्तक को खोलती है हवा
बन्द पुस्तक को खोलती है हवा
बात करती है बोलती है हवा
जो भी उड़ने की बात करता है
उसके पंखों को तोलती है हवा
आदमी, पेड़ ,पशु ,परिन्दों में
साँस-संगीत घोलती है हवा
कौन है जो हवा को बाँध सके
इक चुनौती-सी डोलती है हवा
बन्द कमरे में सभ्य लोगों के
नंगे पन को टटोलती है हवा
सिर से ऊपर गुज़र गया पानी
सिर से ऊपर गुज़र गया पानी
उसकी आँखों में भर गया पानी
’एक्स-रे’ की रिपोर्ट कहती है
फेफड़ों में उतर गया पानी
आग जो काम कर नहीं पाई
वे बड़े काम कर गया पानी
उनकी आँखों में कैसी लाज-शरम
जिनकी आँखों का मर गया पानी
कितनी नावें नदी में डूब गयीं
किन्तु हर बार तर गया पानी
जिन्दगी आहत है आँगन में
जिन्दगी आहत है आँगन में
एक पानीपत है आँगन में
हर समय कुछ सीख देने की
बाप को आदत है आँगन में
हर समय तक ये बात शाश्वत है
नील नभ की छत है आँगन में
गर्भ की अपराधिनी ’बेटी’
सब की आगे नत है आँगन में
कल उसे सड़कें भी देखेंगी
जो महाभारत है आँगन में
जिस जुबाँ पर चढ़ गई अधिकार की भाषा
जिस जुबाँ पर चढ़ गई अधिकार की भाषा
उसको फिर आती नहीं है प्यार की भाषा
पत्रिकाओं के जगत में चल नहीं पाती
खास लहए में बँधी अखबार की भाषा
इन प्रजा तन्त्रीय राजाओं की चाउखट पर
फूलता-फलती रही दरबार की भाषा
ये महानगरीय जीवन का करिश्मा है
भूल बैठे हम सुखी परिवार की भाषा
मोम की गुड़िया समझ लेती है छुअनों से
साथ में लेटे हुए अंगार की भाषा
इनकी बातों में विरोधी दल का का लहजा है
और उनके पास है सरकार की भाषा
सभ्यता के कौन से युग में खड़े हैं हम
बोलते हैं युद्ध के बाज़ार की भाषा.
रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक
रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक
न पहुँचाओ उन्हें उसकी मंगेतर तक
समय का फेर था- तब शेर बन्दी था
तो उसको घुड़कियाँ देते थे बन्दर तक
नहीं पहुँचे तो केवल हम नहीं पहुँचे
सभी पहुँचे थे आलीजाह के दर तक
पराए घर के अन्दर झाँकने वाले
कभी झाँका है अपने घर के अन्दर तक?
ये किस शिल्पी के हाथों का करिश्मा है
जो जीवित हो उठा बेजान पत्थर तक
महत्वाकांक्षी पति के इशारे पर
गई थी कल भी वो साहब के बिस्तर तक
कुएँ की दृष्ति उनको तंग लगती है
जो दुनिया देख आए हैं समन्दर तक
स्वप्न तो सूर्य की किरन का है
स्वप्न तो सूर्य की किरन का है
मित्र, यह रास्ता अगन किरन का है
उससे मिलता नहीं है मन मेरा
प्रश्न तो सिर्फ मेरे मन किरन का है
आमजन को समझ नहीं आता
जो गजलकार आमजन का है
हर तरफ शून्य-शून्य दिखता है
सामने रास्ता गगन किरन का है
मन से वोदूसरे की है अब तक
सिर्फ मालिक वो उसके तन का है
अम्न लाएगा अस्त्र-शस्त्रों से
वो फरिश्ता उसी अमन का है
मेरे शेरों की कहन है अपनी
और असली मजा कहन का है
एक जैसा है आदमी का दु:ख
आपका, मेरा, हर किसी का दु:ख
एक जैसा है आदमी का दु:ख
बन न जाए वो रोज की पीड़ा
आज जो है कभी-कभी का दु:ख
स्वच्छ सड़कें समझ नहीं सकतीं
गंदी बस्ती की उस गली का दु:ख
पीर अपनी पहाड़ लहती है
धूप क्या जाने चाँदनी का दु:ख
शेष फिर भी बहुत अँधेरे हैं
हाँ,यही तो है रोशनी का दु:ख
विष असर कर रहा है किश्तों में
विष असर कर रहा है किश्तों में
आदमी मर रहा है किश्तों में
उसने इकमुश्त ले लिया था ऋण
व्याज को भर रहा है किश्तों में
एक अपना बड़ा निजी चेहरा
सबके भीतर रहा है किश्तों में
माँ ,पिता ,पुत्र,पुत्र की पत्नी
एक ही घर रहा है किश्तों में
एटमी अस्त्र हाथ में लेकर
आदमी डर रहा है किश्तों में
अंग प्रत्यंग को हिला डाला
अंग प्रत्यंग को हिला डाला
यात्रा ने बहुत थका डाला
बर्फ-से आदमी को भी आखिर
व्यंग्य-वाणों ने तिलमिला डाला
काल ने सागरों को पी डाला
काल ने पर्वतों को खा डाला
फिर वो क्यों रोज याद आती है
मैंने जिस शक्ल को भुला डाला
एक तीली दिया जलाती है
एक तीली ने घर जला डाला
स्वप्न में भी न कल्पना की थी
वक्त ने वो भी दिन दिखा डाला
अंतता: आँख डबडबा आई
उसने इतना अधिक हँसा डाला
धूप, मिट्टी हवा को भूल गए
धूप, मिट्टी, हवा को भूल गए
बीज अपनी धरा को भूल गए
ज़िन्दगी की मरीचिकाओं में
लोग अपनी दिशा को भूल गए
पद प्रतिष्ठा ने इतना बौराया
पुत्र अपने पिता को भूल गए
जिसके जलने से ज्योति जन्मी है
दीप उस वर्तिका को भूल गए
अपनीमिट्टी की गन्ध भूले तो
लोग अपनी कला को भूल गए
इतने निर्भर हुए दवाओं पर
स्वास्थ्य की प्रार्थना को भूल गए
वोट की राजनीति में अन्धे
देश की एकता को भूल गए.
किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के
किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के
ये शे’र हैं अँधेरों से लड़ते जहीर के
मैं आम आदमी हूँ तुम्हारा ही आदमी
तुम,काश, देख पाते मेरे दिल को चीर के
सब जानते हैं जिसको सियासत के नाम से
हम भी कहीं निशाने हैं उस खास तीर के
चिन्तन ने कोई गीत लिखा या गज़ल कही
जन्मे हैं अपने आप ही दोहे कबीर के
हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे मगर
बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के
उम्र के साथ मौसम बदलते रहे
उम्र के साथ मौसम बदलते रहे
तुम बदलते रहे हम बदलते रहे
जितनी उपयोगिता जिसकी आँकी गई
उसके अनुसार ही क्रम बदलते रहे
आदमी के इधर स्वार्थ बदले, उधर
उसके हाथों के परचम बदलते रहे
ज़िन्दगी के महायुद्ध में, उम्र-भर
आदमी के पराक्रम बदलते रहे
जितनी उजियार की भीड़ जुटती गई
उसके अनुसार ही तम बदलते रहे
उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे
उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे
उम्र-भर शत्रुताओं में उलझे रहे
किसने समझी है अपनी सही भूमिका
सब गलत भूमिकाओं में उलझे रहे
एक में भी न माहिर हुए इसलिए
लोग सोलह कलाओं में उलझे रहे
अब उन्हें ठोस धरती सुहाती नहीं
जो हमेशा हवाओं में उलझे रहे
आज भी लोक सम्मत है नारी दहन
लोग बर्बर प्रथाओं में उलझे रहे
दृष्टि कैसे हो उनकी सकारात्मक
जो सदा वर्जनाओं में उलझे रहे
लोग कागज़, रबर, पेंसिल थामकर
कागज़ी योजनाओं में उलझे रहे
हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छौने की
हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छौने की
एक हूक-उठती है तब आँसू से मुँह धोने की
क्या देंगे सम्मान उसे वो जो उपहास उड़ाते हैं
औसत क़द वालों ने कब पीड़ा समझी है बौने की
अँधियारा घिरते ही वो तन की दूकान सजाती है
इसीलिए वो बाट जोहती है अंधियारा होने की
और कब तलक मन के अन्दर पीड़ा रख कर मुस्काएँ
कभी-कभी इच्छा होने लगती है खुल कर रोने की
जीवन है अनमोल इसे उत्साह सहित जीना सीखें
आप आदमी हो कर भी बातें करते हैं ढोने की
थक कर चूर बदन को पत्थर का बिस्तर भी काफ़ी है
वर्ना सिलवट भी चुभने लगती है नर्म बिछौने की
बात ज़रा-सी है लेकिन इसपर विचार आवश्यक है
जगमग कमरे ने कब चिन्ता की अँधियारे कोने की
घर की तू-तू ,मैं-मैं, बाहर के लोगों तक आ पहुँची
घर की तू-तू ,मैं-मैं, बाहर के लोगों तक आ पहुँची
अणु-सी छोटी बात, अंत में, विस्फोटों तक आ पहुँची
सुन्दर और असुन्दर को हम चमड़ी से तय करते हैं
सुन्दरता की प्रचलित भाषा गोरों तक आ पहुँची
एक समय वो भी था जब थे राजनीति में क़द वाले
गिरते-गिरते राजनीति की छत बौनों तक आ पहुँची
पहले चोरी और डकैती दोनों अलग कलाएँ थीं
जाने कैसे आज डकैती भी चोरों तक आ पहुँची
तन खरीद लेते थे लेकिन मन ख़रीदना मुश्किल था
अब तो आत्मा की खरीद भी कुछ नोटों तक आ पहुँची
जो उड़ते हैं उड़ानें साथ रहती हैं
जो उड़ते हैं उड़ानें साथ रहती हैं
उड़ानों की थका नें साथ रहती हैं
कई ऐसे भी विक्रेता मिले हमको
सदा जिनके दुकानें साथ रहती हैं
बहुत-सी तितलियाँ जासूस होती हैं
मुहब्बत के बहाने साथ रहती हैं
पुरातन और नूतन पीढ़ियाँ अक्सर
परस्पर शस्त्र ताने साथ रहती हैं
पहुँच जाते हैं चोटी पर जो पर्वत की
वहाँ से भी ढलानें साथ रहती हैं
बाल बच्चे सयाने हुए
बाल बच्चे सयाने हुए
दिन-ब-दिन हम पुराने हुए
गाँव में तो ठिकाना भी था
शहर में बेठिकाने हुए
चाँदनी धूप में आ गई
बाल जब भी सुखाने हुए
राजनीतिज्ञ बुनते रहे
नागरिक ताने-बाने हुए
छत के नीचे भी बैठे हैं लोग
छतरियाँ अपनी थामे हुए
लोग जब भी असावधान हुए
लोग जब भी असावधान हुए
तन या मन से लहु-लुहान हुए
प्यार की गंध खत्म होते ही
ज़िन्दा घर भूतहा मकान हुए
उनको भाई उड़ान की भाषा
जिनकी मुठ्ठी में आसमान हुए
जब भी चहकी है कोई ’पामेला’
तो खड़े संसदों के कान हुए
हम प्रजा वे हमारे राजा हैं
तीर हम और वे कमान हुए
सच को सच भी तो नहीं कह पाए
इसलिए लोग बेजुबान हुए
ज़िन्दगी भर हमारे काम आए
अनुभवों से जो हम को ज्ञान हुए
जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बनकर
जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बनकर
तिमिर की आँख में चुभता है किरकिरी बनकर
छिपी थी कुण्ठा की कालोंच उसके मन में कहीं
निकल रही है वो बातों में गन्दगी बनकर
मैं उससे कैसे कहूँ , उठिए मेरे बिस्तर से
वो मेरी शैया पे लेटी है चाँदनी बनकर
वो प्यार था या जुनूँ था या कोई सम्मोहन
समंदरों की तरफ़ चल पड़े नदी बनकर
ये दण्ड भोगना पड़ता है ख़ास होने का
वो जी न पाया कभी आम आदमी बनकर
रोना भी अगर चाहूँ तो रोने नहीं देते
रोना भी अगर चाहूँ तो रोने नहीं देते
वे लोग मुझे आँख भिगोने नहीं देते
ये प्यार है या कोई सज़ा सोच रहा हूँ
मैं सोना भी चाहूँ तो ये सोने नहीं देते
वे रोज़ ही कहते हैं ये सब खेत हैं मेरे
खेतों में मगर बीज वो बोने नहीं देते
चलना भी अगर चाहूँ तो ले आते हैं कारें
वे मुझको मेरा बोझ भी ढोने नहीं देते
यादों के जहाज़ों को लिए घूम रहा हूँ
यादों को समन्दर में डुबोने नहीं देते
प्रश्न जब भी उछाले गए
प्रश्न जब भी उछाले गए
दोष हम पर ही डाले गए
आलकल साँप बिल की जगह
आस्तीनों में पाले गए
सूर्य के डूबते साथ ही
बस्तियों से उजाले गए
एक शालीन- से व्यंग्य को
आपतो अन्यथा ले गए
पूछ काँधों की होने लगी
केश जब भी सम्हाले गए
बाद में लोग सिक्के बने
पहले साँचों में ढाले गए
आज भी संत संसार से
स्वर्ण की ओर टाले गए
व्यक्त होने की बहुत क्रोध ने तैयारी की
व्यक्त होने की बहुत क्रोध ने तैयारी की
वो सहन कर गया, उसने ये समझदारी की
काम हाथों को नहीं फिर भी लगे कम्प्यूटर
यूँ समस्या हुई हल देश में बेकारी की
कुछ डरी-सहमी-सी ,कुछ लाज से सिमटी -सिकुड़ी
एक तस्वीर अलग ही है यहाँ नारी की
काम चोरी भी मेरे मुल्क की बीमारी है
जब भी मौका मिला हर हाथ ने मक्कारी की
बात वेतन की नहीं बात है अधिकारों की
शान देखी नहीं तुमने ज़िला-अधिकारी की
कोई जुड़ता नहीं इस युग में बिना मतलब के
स्वार्थ था, इसलिए उसने भी मेरी यारी की
आम लोगों के लिए देश में ‘क्यू’ ही ‘क्यू’ है
खास लोगों ने प्रतीक्षा ही न की बारी की
घर के अंतिम बरतनों को बेचकर
घर के अंतिम बर्तनों को बेचकर
चल पड़े हम बंधनों को बेचकर
अब न जीवित भी रहे तो ग़म नहीं
सोचते हैं धड़कनों को बेचकर
सत्य से पीछा छुड़ा आए हैं हम
अपने घर के दरपनों को बेचकर
चाहते हैं वक्त पर बरसात भी
लोग हरियाले वनों को बेचकर
होटलों में काम करने आ गए
बाल-बच्चे बचपनों को बेचकर
आपको कुछ खास मिल पाया नहीं
दो टके में सज्जनों को बेचकर
आ गए हैं लौटकर बाज़ार से
लोग अपनी गरदनों को बेचकर
जुलूसों से मिले श्री-हीन चेहरे
जुलूसों से मिले श्री-हीन चेहरे
पराजित-से थके-से दीन चेहरे
बहुत शालीनता के बाद भी अब
नज़र आते नहीं शालीन चेहरे
उठाकर फेंकने के बाद उतरे
जो कुर्सी पर हुए आसीन चेहरे
घिनौनी हो गईं रंगीन शामें
बहुत अश्लील ये रंगीन चेहरे
कभी तन कर खड़े होते नहीं हैं
मुझे लगते रहे कालीन चेहरे
किसी भी काम में लगता नहीं मन
बहुत दुर्लभ हुए तल्लीन चेहरे
मेरे परिचित हज़ारों में हैं, लेकिन
हैं गहरे मित्र दो या तीन चेहरे
लोग सन्देह करते रहे
लोग सन्देह करते रहे
कल्पनाओं में मरते रहे
झंडा-बरदार के हाथ में
झंडा बनकर फहरते रहे
दौड़ना उनको आया नहीं
हर क़दम पर ठहरते रहे
रोज महफ़िल सजाते हुए
रिक्तत्ताओं को भरते रहे
जिसको छू भी न पाए कभी
उसको सपनों में वरते रहे
दरपनों से डरे भे बहुत
दर्पनों से सँवरते रहे
उम्र भर उस कथा प्रेत-से
बाँस चढ़ते-उतरते रहे
क्रोध रोके रुका ही नहीं
क्रोध रोके रुका ही नहीं
मुठ्ठियों में बँधा ही नहीं
कैसे मंज़िल पे पहुँचेगा वो
आजतक जो चला ही नहीं
बाँटते-बाँटते कर्ण की
गाँठ में कुछ बचा ही नहीं
कितने सालों से घर में कोई
खिलखिलाकर हँसा ही नहीं
एड्स या कैंसर की तरह
शक की कोई दवा ही नहीं
जो लिपट न सकी पेड़ से
सच कहूँ वो लता ही नहीं
ऋण सभी पर रहा साँस का
मरते दम तक चुका ही नहीं
वो जाकर क्यों नहीं लौटा अभी तक
वो जाकर क्यों नहीं लौटा अभी तक
सताती है यही चिन्ता अभी तक
अकेला हूँ मैं वो भी है अकेली
है दोनों ही तरफ़ दुविधा अभी तक
वो दुर्घटना से इतना डर गया है
न चीखा और न रोया अभी तक
हमारे देश में वोटों की कीमत
समझ पाई नहीं जनता अभी तक
पहाड़ों से वो क्या टकरा सकेगा
जो ख़ुद से ही नहीं जूझा अभी तक
हमारे बीच तन के भी अलावा
बची है प्यार की उष्मा अभी तक
अमन के गीत गाकर भी अमन को
न समझी एटमी दुनिया अभी तक
उन्हीं की बाट मंज़िल जोहती है
जो बढ़ते हैं कलाकारी से आगे
निकल जाते हैं तैयारी से आगे
तुम्हें कुछ क्यों नज़र आता नहीं है
तुम्हारी चार-दीवारी से आगे
सुनो तुम ‘मातहत’ हो मेरी मानो
चलो मत अपने अधिकारी से आगे
करो जलते शहर की कल्पना भी
घृणा की एक चिंगारी से आगे
तुम्हारे पास उत्तर हो तो बोलो
रहे क्यों नर सदा नारी से आगे
हज़ारों लोग लाइन में खड़े हैं
हमारी -आपकी बारी से आगे
उन्हीं की बाट मंज़िल जोहती है
निकलते हैं जो दुश्वारी से आगे
मुखर होने लगीं अनबन की बातें
मुखर होने लगीं अनबन की बातें
सड़क पर आ गईं आँगन की बातें
हज़ारों उलझनें हैं साथ तेरे
तुम्हें बतलाऊँ किस उलझन की बातें
घिरा रहता है जो दरबारियों से
उसे कड़वी लगीं ‘दर्पन’ की बातें
मैं उससे कुछ नहीं कहता कभी भी
हैं उसपर व्यक्त मेरे मन की बातें
जहाँ दो जून की रोटी भी मुश्किल
वहाँ पर संतुलित भोजन की बातें
भुजंगों के प्रसंगों को घटा कर
न पूरी होंगी चन्दन वन की बातें
दूर तक पानी ही पानी है
दूर तक पानी ही पानी है
ये समन्दर की कहानी है
अपने ही घर में लगाएँ आग
ये कहाँ की बुद्धिमानी है
हर तरफ़ संदेह है, शक है
हर कदम पर सावधानी है
राज-पथ है, राज-नेता हैं
देश की ये राजधानी है
आप चिंतित क्यों नहीं होंगे
आपकी बिटिया सयानी है
प्यास शबनम से नहीं बुझती
प्यास का उपचार पानी है
आपकी कविता नई होगी
आपकी भाषा पुरानी है
ख़ूबसूरत ‘तितलियों’ से डर लगा
मैं कभी उड़ता नहीं था ‘पर’ लगा
वो विचारों से बहुत संकीर्ण था
साँस लेना भी वहाँ दूभर लगा
हाथ में उसके नहीं जादू कोई
वो मुझे बातों का जादूगर लगा
जिसकी छत ने मुझको अपनापन दिया
वो अपरचित घर भी अपना घर लगा
मैं कभी उसको समझ पाया नहीं
वो कभी धरती कभी अंबर लगा
वर्ना तेरी बात ख़ाली जाएगी
कोई बंधन मत हवाओं पर लगा
याद आया वो कमल का फूल है
जल में रह कर, जल से ऊपर लगा
जीतकर भी पराजित हुए
जीतकर भी पराजित हुए
स्वप्न सारे तिरोहित हुए
हम सदा उत्तरों की जगह
प्रश्न बन कर उपस्थित हुए
ज़िन्दगी के महायुद्ध में
रोज़ ही रक्त रंजित हुए
सुन्दरी से शिला बन गए
हम अहिल्या-से शापित हुए
तन कहीं,मन कहीं,धन कहीं
हर तरह से विभाजित हुए
कोयले से रही दोस्ती
इसलिए हम कलंकित हुए
वक्त की धार में उम्र-भर
चींटियों-से प्रवाहित हुए
अनुभवों की पाठशाला ने सिखाया है बहुत
अनुभवों की पाठशाला ने सिखाया है बहुत
जो सिखाया वो मेरे काम आया है बहुत
लाख रुपये में खरीदा था पिता ने मेरा वर
वो मेरा अर्द्धांग हो कर भी पराया है बहुत
आप जिसकी धीरता गंभीरता पर मुग्ध हैं
उस समन्दर ने जहाज़ों को डुबाया है बहुत
धीरे-धीरे वो कुशल नृत्यांगन्ना बन ही गई
वक्त ने उस एक औरत को नचाया है बहुत
मेरे आँगन में खड़ा है पेड़ हरसिंगार का
जब भी छेड़ा है उसे तो खिलखिलाया है बहुत
अब वो पंछी ही नहीं आज़ाद होना चाहता
मैंने उस पंछी को पिंजरे से उड़ाया है बहुत
भितरघातें मुझे करना नहीं आता
भितरघातें मुझे करना नहीं आता
मुझे उसकी तरह लड़ना न्हीं आता
कोई मुझे देख ही ले, इसलिए उठकर
किसी के पास आईना नहीं आता
मैं आदम हूँ मैं तन कर झुक भी जाता हूँ
वो पर्वत है, उसे झुकना नहीं आता
लजाती है लजाकर मुस्कुराती है
कली को फूल-सा हँसना नहीं आता
नदी बनकर जो चलती है हिमालय से
समंदर तक उसे रुकना नहीं आता
जो पंखों के बिना उड़ते हैं, गिरते हैं
मैं थलचर हूँ मुझे उड़ना नहीं आता
लोग रण में उतर भी जाते हैं
लोग रण में उतर भी जाते हैं
युद्ध के बीच डर भी जाते हैं
जन्म लेते हैं स्वप्न आँखों में
और आँखों में मर भी जाते हैं
अपना घर भूलता नहीं कोई
लोग घर छोड़कर भी जाते हैं
बाँध कैसा है डूब में जिसकी
गाँव तो क्या शहर भी जाते हैं
हमने ऐसी उड़ान देखी है
जिसमें पंछी के पर भी जाते हैं
लक्ष्य की ओर, तीर हो जैसे
लोग कुछ दौड़ कर भी जाते हैं
वक्त देता है घाव भी लेकिन
वक्त से घाव भर भी जाते हैं
आग जैसे ज्वलंत प्रश्नों में
आग जैसे ज्वलंत प्रश्नों में
देश उलझा अनंत प्रश्नों में
सुर्ख टेसू सवाल करते हैं
घिर गया है वसंत प्रश्नों में
अपने-अपने महत्व को लेकर
कैसे उलझे हैं संत प्रश्नों में
उत्तरों को भी चोट आई है
हो गई है भिड़ंत प्रश्नों में
हम तो छोटे सवाल हैं, साहब!
हैं यहाँ भी महंत प्रश्नों में
जिसको अपना कह सकूँ ,बस्ती में ऐसा घर न था
जिसको अपना कह सकूँ ,बस्ती में ऐसा घर न था
नील अम्बर लके सिवा सर पर कोई छप्पर न था
अपने बारे में कहीं कोई ग़लतफ़हमी न थी
कोई खुशफहमी का चश्मा मेरी आँखों पर न था
आइनों के व्यंग्य उसको इसलिए सहने पड़े
क्योंकि उसके हाथ में अधिकार का पत्थर न था
देखते ही जिसको तुम पीछे हटे थे दस कदम
मुझ सपेरे के लिए वो दोस्त था विषधर न था
ये तो सच है - अनवरत चलता रहा वो आदमी
उसके तन का बोझ, लेकिन' उसके पैरों पर न था
वो ज़हर पी तो गया लेकिन पचा पाया नहीं
क्योंकि वो सुकरात था भगवान शिव शंकर न था
इस व्यवस्था में लड़ना बहुत मुश्किल नहीं
किंतु वो कम लड़ने वाला आदमी कायर न था
नींद भी देता है सपने भी दिखा देता है
नींद भी देता है, सपने भी दिखा देता है
मैं अगर जागना चाहूँ तो सज़ा देता है
ये ज़रूरी नहीं वो ठीक पता हो लेकिन
जिसने पूछा है पता, उसको पता देता है
उसको बातों से समझ पाना बहुत मुश्किल है
शाप देता है तो लगता है दुआ देता है
प्रश्न सुनता तो है उत्तर नहीं देता लेकिन
बात ही बात में प्रश्नों को उड़ा देता है
सिर उठाते हुए पौधे को कुचल देता है
आत्म-सम्मान को मिट्टी में मिला देता है
मुल्क के रोग को समझा ही नहीं नीम हकीम
रोग 'क्षय' का हो तो 'छाजन' की दवा देता है
उसके भाषण को समझता है वो या उसका ख़ुदा
तीसरा कोई नहीं जानता क्या देता है
पैर अपने थे मगर उनके इशारों पर चले
पैर अपने थे मगर उनके इशारों पर चले
लोग कठ पुतली-से घिर्री और तारों पर चले
हम धरा के पुत्र थे,हम कीच में लिपटे रहे
हम नहीं वो लोग जो चन्दा-सितारों पर चले
नित नये नारों को गढ़ लेते हैं अवसर देख कर
राजनैतिक रूप से वे सिर्फ़ नारों पर चले
गीतकारों के लिए गायक ज़रूरी हो गये
और गायक भी सदा संगीतकारों पर चले
हम अविश्वासी सही, लेकिन डरे हैं आप भी
ऐसे सौदे कब भला मैखिक करारों पर चले
पाँव पैदल उनको उनको चलना ही नहीं आया कभी
वायुयानों से उतरते ही वे कारों पर चले
पेड़ से टूटे न थे तो दर-ब-दर भटके न थे
पेड़ से हो कर अलग पत्ते बयारों पर चले
जिधर कामनाएँ थीं, वे अपने मन के आधीन हुए
जिधर कामनाएँ थीं, वे अपने मन के आधीन हुए
फिर माया-जल में ही जीवित रहने वाली मीन हुए
वे विनम्र हो कर भी दिख सकते थे खूब स्वाभिमानी
अति विनम्रता के कारण वे हद से ज़्यादा दीन हुए
खेल-खेल में दिल का सौदा कर बैठी थी वो लड़की
बात बढ़ी तो ऐसे ही मसले बेहद संगीन हुए
राजनीति में सत्ता वाली कुर्सी कम मिल पाती है
इसी लिए वे सत्ता वालों के घर की कालीन हुए
तुमने दो से चार बनाए और चार से आठ किए
हम तो हम थे-एक हुए,दो हुए और फिर तीन हुए
वे अफ़सर थे उन्हें मुफ़्त मे मिल जाती थी लाल-परी
इसी लिए वे धीरे-धीरे परियों के शौकीन हुए
यूँ तो उम्र हमारी है चालीस बरस से कुछ ऊपर
हम कबीर शैली में लिखने के कारण प्राचीन हुए
जो बेहद मुश्किल लगता था उसको भी आसान किया
जो बेहद मुश्किल लगता था उसको भी आसान किया
हमने सपनों को सच कर लेने का अनुसंधान किया
इस कलियुग के दानवीर कर्णों की गाथा मत पूछो
जितना भी काला धन था वो मुक्त -हस्त से दान किया
आँखों में आँसू का झरना,अधरों पर मुस्कानें हैं
औरय्त ने इस द्वन्द्व-युद्ध में ख़ुद को लहु-लुहान किया
हमको चलना है लेकिन यह राजनीति तय करती है
हमने तो केवल नेता के कहने पर प्रस्थान किया
यह बदलाव कहाँ से आया कैसे आया, ज्ञात नहीं
प्रतिभा से ज़्यादा लोगों ने पैसे का सम्मान किया
धर्म-युद्ध की बात न करना धर्म-युद्ध आसान नहीं
धर्म-युद्ध की बात न करना धर्म-युद्ध आसान नहीं
धर्म-युद्ध करने वालों का इस युग में सम्मान नहीं
वो ऐसा व्यवहार न जाने क्यों करता है पत्नी से
जैसे उस औरत का उस के जीवन में स्थान नहीं
ये हो सकता है हम वे रेखाएँ खींच नहीं आये
हम अपने मुख-मण्डल की रेखाओं से अन्जान नहीं
हथियारों की होड़ विश्व को उस हद तक ले आई है
ऐसा कोई देश नहीं जो हथियारों की खान नहीं
जाने क्यों वो तितली हर दर्शक को नंगी लगती है
यह कहना भी मुश्किल है उसके तन पर परिधान नहीं
इसी लिए हम एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं
उसके कर में धनुष नहीं है मेरे कर में बान नहीं
जैसा फ़ीड करोगे वैसे उत्तर देगा कम्प्यूटर
कम्प्यूटर को आँख नहीं है, कम्प्यूटर को कान नहीं
जब भी औरत ने अपनी सीमा रेखा को पार किया
जब भी औरत ने अपनी सीमा- रेखा को पार किया
पार-गमन से पहले ख़ुद को कितने दिन तैयार किया
जनता को सहने की आदत है सब कुछ सह लेती है
किसी कष्ट को ले कर जनता ने कब हाहाकार किया
वो कारोबारी दिमाग था, सागर -तट पर जा बैठा
लहरें गिन-गिनकर भी उसने लाखों का व्यापार किया
द्वन्द्व-युद्ध जैसा ,कुछ मन के अन्दर चलता रहता है
क्यों चलता रहता है , तुमने इस पर कभी विचार किया?
वे केवल आरोपों की भाषा में बातें करते हैं
अच्छे कामों का भी, उन लोगों न्रे ग़लत प्रचार किया
जितनी ताक़त होगी उतना ही तो बोझ उठाएगा
उसने जो भी किया , स्वयं की क्षमता के अनुसार किया
निर्बल कोई भी हो, औरत, हरिजन अथवा शीशमहल
निर्बल पर ताक़तवर ने, हर युग में, अत्याचार किया
भीड़ में सबसे अलग ,सबसे जुदा चलता रहा
भीड़ में सबसे अलग ,सबसे जुदा चलता रहा
अंत में हर चलने वाला ‘एकला’ चलता रहा
रात भर चलते रहे सपने,यहाँ तक ठीक है
ये न पूछो—रात भर सपनों में क्या चलता रहा
रुक गए हम लोग, इस कारण ही पीछे रह गए,
हम रुके लेकिन, हमारा रास्ता चलता रहा
कौन अच्छा है, बुरा है कौन, इसमें मत उलझ
ये तो दुनिया है, यहाँ अच्छा-बुरा चलता रहा
तीन अक्षर वासना को एक कमरा चाहिए
ढाई आखर प्यार का पंछी खुला चलता रहा
जो पुराना था, उसी में करके थोड़ी काँट-छाँट
हर महीने ही कोई फ़ैशन नया चलता रहा
ज़िन्दगी में सिर्फ ऐसे लोग ही कुछ कर सके,
जिनके सँग ‘करने या मरने’ का नशा चलता रहा.
तीर कुछ इस तरह चलाते हैं
तीर कुछ इस तरह चलाते हैं
हम बहुत बार चूक जाते हैं
हाँ, कई बार जुगनुओं की तरह
अश्रु आँखों में झिलमिलाते हैं
लोग आँखों से सुन भी लेते हैं
फूल जिस वक़्त खिलखिलाते हैं
जिनके दस-बीस नाम होते हैं
वे पचीसों पते बताते हैं
अपने बिस्तर पे सो गए लेकिन
लोग सपनों में जाग जाते हैं
आप काग़ज़ के फूल हैं शायद
मुस्कुराते ही मुस्कुराते हैं !
लोग जिन रास्तों से दूर गए
वे ही रस्ते करीब लाते हैं.
जिसको चाहा उसी के साथ रहे
जिसको चाहा उसी के साथ रहे
नाव बन कर नदी के साथ रहे
है निरापद न ज़िन्दगी कोई
हादसे हर किसी के साथ रहे
आगे बढ़ने के कुछ निजी नुस्ख़े
हर सफल आदमी के साथ रहे
एक पत्नी सजी रही घर में
वो उधर प्रेयसी के साथ रहे
जो कमल कीच से दिखे ऊपर
मूलत: गन्दगी के साथ रहे
मोह-माया लगी रही जब तक
साँप भी केंचुली के साथ रहे
खुद से मिल कर भी मिल नहीं पाए
हम किसी अजनबी के साथ रहे.
धड़कता रहता है दिल साँस चलती रहती है
धड़कता रहता है दिल साँस चलती रहती है
नदी हमेशा लहू में उछलती रहती है
मैं ठोस रहना भी चाहूँ तो रह नहीं पाता
वो हिम की शैली में पल-पल पिघलती रहती है
ये राजनीति है - इसमें कई अजूबे हैं
समुद्र-जल में यहाँ दाल गलती रहती है
तमाम लोग उसे छल रहे हैं धन दे कर
वो रूप रंग से लोगों को छलती रहती है
मैं जो कहूँगा- वही बात मान लोगे तुम
मुझे तुम्हारी यही बात खलती रहती है
सिखा दिया है उसे ठोकरों ने चलना भी
वो गिरती रहती है गिर कर सम्हलती रहती है
मैं जानता हूँ कि चश्मा बदलने वाला है
समय के साथ, नज़र भी बदलती रहती है.
कूप-मण्डूक घर में रहे
कूप-मण्डूक घर में रहे
कल्पना के सफ़र में रहे
चैन से सो न पाए कभी
इस कदर लोग डर में रहे
बन रहे हैं जो खुद सुर्खियाँ
वे निरंतर सफ़र में रहे
जितने सूरजमुखी फूल थे
ख़ूब ख़ुश दोपहर में रहे
वो जो निर्णय नहीं ले सके
द्वैत उनके ही स्वर में रहे
दृष्टि-दोषों की मत पूछिए
हम सभी की नज़र में रहे
लोग विषधर नहीं थे मगर
विषधरों के असर में रहे.
न बदले मन से, सतह पर ज़रूर बदलेगा
न बदले मन से, सतह पर ज़रूर बदलेगा
ये सख़्त बर्फ़ का पत्थर ज़रूर बदलेगा
वो बन के बदलियाँ बरसेगा, मीठे पानी की
मुझे पता था-समंदर ज़रूर बदलेगा
ये बात सोच रही है वो कितने सालों से
वो कुछ महीनों के अन्दरज़रूर बदलेगा
मैं जानता था मिझे इसका ज्ञान था पहले
दिए वचन से, वो विषधर ज़रूर बदलेगा
पुराने घर से बदलना तो एक सपना था
वो अपने घर से निकलकर ज़रूर बदलेगा
वो एकमुश्त कभी भी बदल नहीं सकता
समय के साथ निरंतर ज़रूर बदलेगा
कभी तो अम्न की रुत आएगी ज़माने में
कभी तो युद्ध का तेवर ज़रूर बदलेगा.
बाज के हमले निरंतर हो गए
बाज के हमले निरंतर हो गए
रोज़ ही घायल कबूतर हो गए
अपनी मर्ज़ी से भी भागी लड़कियाँ
इस तरह लाखों ‘स्वयंवर’ हो गए
कुछ परिस्थितियाँ ही ऐसी थीं कि हम
पत्थरों के बीच पत्थर हो गए
जैसे-जैसे शाम पास आती गई
चाँदनी-से, धूप के स्वर हो गए
गोद में जिनको खिलाया था कभी
वो मेरे कद के बरबर हो गए
जब समंदर में समाए जल-प्रपात
यूँ लगा ‘सागर में गागर’ हो गए
आजतक ज़िन्दा है दुनिया में ‘कबीर’
ऐसे सर्जक भी अनश्चर हो गए.
सपनों में भी दृश्य ये पाया जाता है
सपनों में भी दृश्य ये पाया जाता है
मजबूरी का लाभ उठाया जाता है
फट पड़ने की सीमा तक गुब्बारों का
लोगों द्वारा कण्ठ दबाया जाता है
आम चुनावों तक सोता है ‘कुम्भकरण’
हर चुनाव में उसे जगाया जाता है
हाथी -घोड़ों की शैली में जगह-जगह
दूल्हों का बाज़ार लगाया जाता है
जिनको ठगना है,उन लोगों को अक्सर
पहले बातों में उलझाया जाता है
दोहे अथवा शे’र सुनाकर निर्बल को
संकेतों में भी धमकाया जाता है
करनी का विश्लेषण लोग नहीं करते
किस्मत को ही ढाल बनाया जाता है.
और भी खुश लुटेरे हुए
और भी खुश लुटेरे हुए
इतने गहरे अँधेरे हुए
याद आते ही मन में मेरे
दु:ख के बादल घनेरे हुए
ताल में सड़ गईं मछलियाँ
इसलिए चुप मछेरे हुए
कल जो शाही महल थे वो आज
भूत-प्रेतों के डेरे हुए
जब बहस व्यक्तिगत हो गई
शब्द-शर ‘तेरे’ ‘मेरे’ हुए
नागिनें द्वैत में फँस गईं
इतने ज़्यादा सपेरे हुए
हम गरीबों के संग भूखके
रोज़ ही, सात फेरे हुए.
हवा से पेड़ से या आदमी से
हवा से पेड़ से या आदमी से
कई बातें न कह पाए किसी से
वो जिसने ‘उर्वशी’ देखी नहीं है
वो तुलना कर रहा है ‘उर्वशी’ से
मैं अक्सर इस विषय में सोचता हूँ-
कमल जन्मा है कैसे गन्दगी से?
वो दुश्मन था मुझे तब डर नहीं था
मैं अब डरता हूँ उसकी दोस्ती से
नदी भी पार कर पाया नहीं है
वो केवल अपने मिश्चय की कमी से
हुआ है झील के पानी से कम्पन
तुम्हारी उस ज़रा-सी कंकरी से
महायुद्धों के ख़तरे कब टलेंगे
चलो,मैं पूछता हूँ आप ही से !
जब तक चुप रहता है,वो आसान दिखाई देता है
जब तक चुप रहता है, वो आसान दिखाई देता है
बात शुरू हो जाए तो तूफ़ान दिखाई देता है
उस पंछी में उड़ने की इच्छा अथवा उत्साह नहीं
जीवित हो कर भी, बिल्कुल बेजान दिखाई देता है
विक्रय की शैली में अपना रूप सजाने वाला वो
मुझको तो चलती-फिरती दूकान दिखाई देता है
फ़ैशन के कारण तन से आवश्यक कपड़े ग़ायब हैं
लज्जा के कारण तन पर परिधान दिखाई देता है
वो जो अपने घर मुझको मेहमान बना कर लाया है
वो ख़ुद ही अपने घर में मेहमान दिखाई देता है
जिस बेरहमी से पैसे को ख़र्च किया आयोजक ने
उसके कारण ही, वो धन ‘अनुदान’ दिखाई देता है
धूल-धूसरित, दुर्गम, सुविधाहीन गाँव की आँखों में
मुझको एक समूचा हिन्दोस्तान दिखाई देता है.
उसको घर लौट आना ही था
उसको घर लौट आना ही था
घोंसले में ठिकाना ही था
कैमरा ‘फ़ेस’ करते हुए
आदतन मुस्कुराना ही था
बूढ़े तोते पढ़ें न पढ़ें
शिक्षकों को पढ़ाना ही था
तन से व्यापार करती थी जो
रूप उसका खज़ाना ही था
शत्रु पर वार करना भी था
और ख़ुद को बचाना ही था
रोशनी घर में घुसते हुए
आँख को चौंधियाना ही था
मुक्ति के पक्षधर के लिए
ज़िन्दगी क़ैदख़ाना ही था.
एक दो तीन के बाद में चार हो
एक दो तीन के बाद में चार हो
जो भी जीवन में हो सिलसिलेवार हो
शेर ऐसे कहो जो चुभें तीर-से
साथ ही तीर की दूर तक मार हो
प्यार करने का अधिकार सबको मिले
प्यार पाने का भी सबको अधिकार हो
बर्फ़ होने न पाए ये संवेदना
हर समय साथ में सुर्ख़ अंगार हो
जैसे चिड़ियों ने दी थी विमानों की ज़िद
उस तरह कल्पनाओं का विस्तार हो
ऐसी सरकार चुनकर न आए कभी
वो जो उन्मादियों की तरफ़दार हो
फिर तो सागर को भी पार कर लेंगे हम
नाव हो और हाथों में पतवार हो.
कई ख़ुशबू भरी बातों से मिलकर
कई ख़ुशबू भरी बातों से मिलकर
शहर लौटे हैं देहातों से मिलकर
कोई षड्यंत्र करना चाहती है
अमा की रात, बरसातों से मिलकर
हमारी ये बड़ी दुनिया बसी है
कई नस्लों, कई ज़ातों से मिलकर
शहर कितना भयानक हो गया था
तुम्हारे ‘दल’ के उत्पातों से मिलकर
वो बूढ़ा पेड़ तन-मन से हरा है
टहनियों के हरे पातों से मिलकर
गवाहों को बदल सकती है भाषा
उस अपराधी की सौगातों से मिलकर
कई आयात के रस्ते खुले हैं
किसी ‘तितली’ के निर्यातों से मिलकर.
जब तलक फूल के वंशधर शेष हैं
जब तलक फूल के वंशधर शेष हैं
हर तरफ़, खुश्बुओं के नगर शेष हैं
इसलिए हो न पाई तरल वेदना
आँसुओं में कहीं हिम-शिखर शेष हैं
कैद में भी उड़ानें असंभव नहीं
अनगिनत कल्पनाओं के ‘पर’ शेष हैं
माँग सकती है दशरथ से कुछ भी कभी
कैकई के अभी तीन ‘वर’ शेष हैं
कद्र तब तक ही होगी हुनरमन्द की
सामने जब तलक बेहुनर शेष हैं
दल-बदल से यही एक अन्तर पड़ा-
जो इधर से गए वो उधर शेष हैं
एक भी मोर्चा बन्द होगा नहीं
हर तरफ़ ज़िन्दगी के समर शेष हैं.
कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई
कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई
बात आई -गई हो गई
बूंद, जिस क्षण नदी में गिरी
वो उसी क्षण नदी हो गई
कीच में घुस रहे थे कमल
हाँ, तभी रोशनी हो गई
कर्म कुछ और कुछ है कथन
नीति यूँ दोगली हो गई
एक सूखे हुए पेड़ की
शाख कैसे हरी हो गई
रात भर अपना तन बेचना
रोज़ की ज़िन्दगी हो गई
ढाई आखर की जाने कहाँ
तर्क से दुश्मनी हो गई.
ख़ुद-ब-ख़ुद हो गए आकाश के सपनों से अलग
ख़ुद-ब-ख़ुद हो गए आकाश के सपनों से अलग
लोग,जिस दिन हुए, उड़ने के इरादों से अलग
मैं तो कहता हूँ -ये व्यापार है सीधा-सीधा
प्यार करना है तो हो जाइए शर्तों से अलग
आपने देखे नहीं लोगों के असली चेहरे
लोग हो जाते हैं जब अपने मुखौटों से अलग
भाव शब्दों में बसे रहते हैं प्राणों की तरह
शब्द को कर नहीं पाया कोई भावों से अलग
मुझको झीलों में भी आईने नज़र आते हैं
मुझको आईने भी लगते नहीं झीलों से अलग.
वे अपनी हार, मुकद्दर के साथ जोड़ेंगे
वे लोग धरती को अंबर के साथ जोड़ेंगे
नदी का नाम समंदर के साथ जोड़ेंगे
बिना परों की उड़ानों का ज़िक्र कैसे हो
उड़ान को वो सदा ‘पर’के साथ जोड़ेंगे
हो चाहे बीस की लड़की को साठ साल का वर
मगर,वे रिश्ता बड़े घर के साथ जोड़ेंगे
बटेर को वे कबूतर से जोड़ते ही नहीं
बटेर को सदा तीतर के साथ जोड़ेंगे
वे अपनी करनी पे लज्जित कभी नहीं होंगे
वे अपनी हार, मुकद्दर के साथ जोड़ेंगे
दिन में सौ बार आने लगा
दिन में सौ बार आने लगा
ख़ुद पे धिक्कार आने लगा
देह को बेचते-बेचते
देह-व्यापार आने लगा
एक दो तीन के बाद में
ख़ुद-ब-ख़ुद चार आने लगा
उस फलों से लदे वृक्ष के
मन में आभार आने लगा
आजकल रूप के स्वप्न में
वो लगातार आने लगा
कोई आए न आए मगर
रोज़ अख़बार आने लगा
जो भी शामिल हुआ युद्ध में
उसको संहार आने लगा.
मन के अन्दर बैठ गया है
मन के अन्दर बैठ गया है
अनजाना डर बैठ गया है
जाने कब आँखों में आकर
एक समन्दर बैठ गया है
तूफ़ानों से लड़ते-लड़ते
बूढ़ा तरुवर बैठ गया है
शायद उस औरत के मन में
शक का विषधर बैठ गया है
जेठ माअस तक गाते-गाते
नदिया का स्वर बैठ गया है
पत्थर जल पर तैराया तो
तल में जाकर बैठ गया है
उस जन-जन के कलाकार में
मस्त कलंदर बैठ गया है .
वो ठीक एक बजे, रोज़ रात में निकले
वो ठीक एक बजे, रोज़ रात में निकले
शिकारी अपने शिकारों की घात में निकले
कलम के पेट में जब से ‘रिफ़िल’ समाई है
तो कम ही होता है-स्याही दवात से निकले
जो जात-पाँत की बातों से हो हए थे शुरू
वो धीरे-धीरे हमारी ही जात में निकले
कुछ इस तरह से निकलते हैं लोग सड़कों पर
हुजूम जैसे किसी की बरात में निकले
हमारी शक्ल कभी आएनों में कैद हुई
हमारे अक्स कभी जल-प्रपात में निकले
न व्यक्त हो सके उद्गार शब्द से भी कभी
जो भाव मौन-मुखर अश्रुपात से निकले
ये बात और कि तुम स्वाभिमान कहते हो
तुम्हारे दम्भ के स्वर बात-बात में निकले.
फिर भी पहुँचे नहीं धाम तक
फिर भी पहुँचे नहीं धाम तक
हम सुबह से चले शाम तक
अन्वरत नाम की चाह में
हो गए लोग बदनाम तक
आप तो यार, कुछ भी नहीं
हार जाते हैं ‘सद्दाम’ तक
वे बड़े कूटनीतिज्ञ हैं
हँस के सहते हैं इल्ज़ाम तक
काम से हमको रोटी मिली
इस लिए हम गए काम तक
एक ही रत्न अनमोल था
हारकर आ गया दाम तक
आजकल नृत्य के नाम पर
खूब प्रचलित हैं व्यायाम तक.
शिकार होते रहे हैं शिकार हैं अब तक
शिकार होते रहे हैं शिकार हैं अब तक
तमाम लोग सुरक्षा के पार हैं अब तक
पचास पीढ़ियाँ जिन को चुका न पाएँगी
हमारे पुरखों के इतने उधार हैं अब तक
नदी के पाँव में घुँघरू बँधे हुए हैं कहीं
कहीं नदी के सुरों में सितार हैं अब तक
जो गढ़ रहे हैं उसे सिर्फ़ कल्पनाओं में
हाँ इस तरह के भी कुछ मूर्तिकार हैं अब तक
वो एक दल है जो अनुदारवादियों का यहाँ
कुछेक लोग वहाँ भी उदार हैं अब तक
हमारे अश्रू हैं शायद इसी लिए खारे
हमारे मन में समन्दर के ज्वार हैं अब तक
मिटा रहे हैं मगर फिर भी मिट नहीं पाए
तरह-तरह के यहाँ अन्धकार हैं अब तक.
द्वन्द्व को पार करना बड़ी बात है
द्वन्द्व को पार करना बड़ी बात है
अपने दुख से उबरना बड़ी बात है
जंगलों -जंगलों, पर्वतों-पर्वतों
गंध बनकर बिखरना बड़ी बात है
रूप में अपनी परछाई को देखकर
दर्पनों का का सँवरना बड़ी बात है
लोग नासूर कह कर डराने लगे
उन दिनों, घाव भरना बड़ी बात है
अपने आतंक के राज्य को त्याग कर
‘सिरफिरों’ का सुधरना बड़ी बात है
शे’र सुन कर समझने का दावा न कर
शायरी में उतरना बड़ी बात है
अपनी सीमा को पहचान कर भी कभी
हद से आगे गुज़रना बड़ी बात है.
ऐसे जीना तो सज़ा है कोई
ऐसे जीना तो सज़ा है कोई
जैसे जीता है हाशिया कोई
नाक की सीध में चले रहिए
मंज़िलों का नहीं पता कोई
यह सियासत भी खेल जैसी है
कोई राजा बना, प्रजा कोई
पतझरों का निकल गया मैसम
ठूँठ होने लगा हरा कोई
देख लेना निकल ही आएगा
इससे आगे भी रास्ता कोई
पद-प्रतिष्ठा शराब जैसी है
हमपे छाने लगा नशा कोई
सारी दुनिया से मिल लिए लेकिन
एक ख़ुद से न मिल सका कोई.
रोज तूफान आकर डराते रहे
रोज तूफान आकर डराते रहे
फिर भी, पंछी उड़ानों पे जाते रहे
एक पागल नदी के बहाने सही
हिमशिखर के भी सागर से नाते रहे
लोग सो कर भी सोते नहीं आजकल,
रात सपनों में जग कर बिताते रहे
मन से दोनों निकट आ न पाए कभी
रोज तन से जो नजदीक आते रहे
वे जो चुपचाप गुस्से को पीते रहे
मुठ्ठियाँ भींचकर कसमसाते रहे
झूठ, सच की तरह बोलने का हमें
राजनीतिज्ञ जादू सिखाते रहे
अंतत: देह उसकी सड़क बन गई
लोग आते रहे, लोग जाते रहे !
तुमसे होगा यूँ मिलना कभी
तुमसे होगा यूँ मिलना कभी
स्वप्न में भी न सोचा कभी
लाभ पर बेचने के लिए
हमने कुछ न खरीदा कभी
सोचने से तो होती नहीं
हल किसी की समस्या कभी
उनके दामन में भी दाग हैं
जिनका दामन था उजला कभी
अर्थ करना कठिन हो गया
मर्द-औरत का रिश्ता कभी
रोकने से भी रुकता नहीं
बीच पर्वत पे झरना कभी
उसको है आजतक इन्तिजार
आएगा, आने वाला कभी.
तुमसे होगा यूँ मिलना कभी
तुमसे होगा यूँ मिलना कभी
स्वप्न में भी न सोचा कभी
लाभ पर बेचने के लिए
हमने कुछ न खरीदा कभी
सोचने से तो होती नहीं
हल किसी की समस्या कभी
उनके दामन में भी दाग हैं
जिनका दामन था उजला कभी
अर्थ करना कठिन हो गया
मर्द-औरत का रिश्ता कभी
रोकने से भी रुकता नहीं
बीच पर्वत पे झरना कभी
उसको है आजतक इन्तिजार
आएगा, आने वाला कभी.
लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे
लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे
अपने अंदर के ‘घमासानों’ में मरने से डरे
घर के अंदर आपके, वैभव की जगमग देखकर
कीमती कालीन पर हम पाँव धरने से डरे
कौन झरना चाहता है जिन्दगी की शाख से
मुस्कुराते फूल ,मन ही मन बिखरने से डरे
कीर्ति के सर्वोच्च पर्वत के शिखर पर बैठ कर
ख्यातिनामा लोग, फिर नीचे उतरने से डरे
हल्के—फुल्के चुट्कुलों की बात मैं करता नहीं
उनके सम्मुख,व्यंग्य चेहरे पर उभरने से डरे!
फिर कोई आकर कुरेदेगा हरे कर जाएगा
इसलिए भी तो हमारे जख्म भरने से डरे
अब सुधरने की कहीं कोई भी गुंजाइश नहीं
सोचकर ये बात, अपराधी सुधरने से डरे.
मन में साहस काठी में बल लेकर आए हैं
मन में साहस काठी में बल लेकर आए हैं
हम सूने जीवन में हलचल लेकर आए हैं
आदम की पीड़ा भी सागर जैसी लगती है
आँसू,आँखों में खारा जल लेकर आए हैं
तुम बीते कल के किस्सों को लेकर बैठ गये
हम देखो, आने वाला कल लेकर आए हैं
उन लोगों से बोलो मेहनत करके भी देखें
जो बातों में सिर्फ ‘करमफल’ ले कर आए हैं
भूख गरीबी हल करने के भाषन दिए बिना
हम बंजर खेतों में ‘हल’ लेकर आए हैं !
इन लोगों की बातों पर विश्वास न कर लेना
जो ‘तस्बीहें’ और ‘कमंडल’ लेकर आए हैं
वायुयान की सुविधा वाले उड़कर आ पहुँचे
हम तो खुद को पैदल-पैदल लेकर आए हैं.
वे मुश्किलों में भी हँसने की बात करते हैं
वे मुश्किलों में भी हँसने की बात करते हैं
जो फूल हैं वो महकने की बात करते हैं
मैं अपनी सीमा से बाहर कभी नहीं जाता
वो हद से आगे गुजर ने की बात करते हैं
जो शुद्ध सोना नहीं हैं, वे लोग ही अक्सर
कसौटियों को परखने की बात करते हैं
हम अपने रात के सपनों को भूल जाते हैं
वे रोज रात के सपने की बात करते हैं
जो अवसरों की महत्ता बता रहे हैं मुझे
समय के साथ बदलने की बात करते हैं
वो चल रहे हैं, मगर, दूसरे के पैरों पर
हम अपने पाँव पे चलने की बात करते हैं
जो खेलते रहे लोगों की भावनाओं से
वो भावना को समझने की बात करते हैं
हमें कहीं न कहीं , ये गुमान रहना है
हमें कहीं न कहीं , ये गुमान रहना है
सफर के साथ सफर की थकान रहना है
यूँ तीर की भी जरूरत तुम्हें तभी तक है
तुम्हारे हाथ में जब तक कमान रहना है
हमारी चादरें छोटी, शरीर लम्बे हैं
बस, इसलिए ही बहुत खींच तान रहना है
मैं ‘खास’ हूँ, ये जताने के वास्ते केवल
तुम्हारे मुँह के निकट, मेरे कान रहना है !
अतीत लौट के वापस कभी नहीं आता
हमारे साथ सदा वर्तमान रहना है
हमारे मुँह में किसी और की जुबान न हो
कुछ इस तरह भी हमें सावधान रहना है
‘प्रजा’ के ‘तंत्र’ में ‘राजा’ से कम नहीं हो तुम
तुम्हारी मुठ्ठी में हिन्दोस्तान रहना है
जन-कथाओं के नायक बनें
जन-कथाओं के नायक बनें
‘राम’ खुशबू-से व्यापक बनें
मनचली तितलियों के लिए
फूल ही सिर्फ चुंबक बनें
यार, कितना मज़ा आएगा—
हम भी बच्चों की गुल्लक बनें !
जो स्वयं रह न पाए सचेत
आज वे भी सचेतक बनें
उसने मिट्टी के बर्तन गढ़े
हम भी शेरों के सर्जक बनें
मंच के मोह को त्याग कर
आप भी आम-दर्शक बनें !
जिसने मुश्किल में दी प्रेरणा
लोग उसके प्रशंसक बनें.
जो पुराना घाव था, फिर से हरा होने लगा
जो पुराना घाव था, फिर से हरा होने लगा
पीर से रिश्ता पुराना था, नया होने लगा
घर से निकले तो अपरिचय के कई बंधन खुले
मित्रता परिचय का लम्बा दायरा होने लगा
उम्र, स्थितियाँ,परिस्थितियाँ सभी का था असर
वृक्ष बरगद का, तने से खोखला होने लगा
जो कभी कुर्सी पे बैठा ही नहीं,उस व्यक्ति को
एक साधारण-सी कुर्सी से नशा होने लगा
दोनों मिलकर गा रहे थे ,दोनों सुर में लीन थे
गीत जीवन का अचानक बेसुरा होने लगा
कुछ दिनों से हर कला व्यापार बन कर रह गई
हर कला को अपने ग्राहक का पता होने लगा
हर समय द्वन्द्व चलते रहते हैं
हर समय द्वन्द्व चलते रहते हैं
मन के मौसम बदलते रहते हैं
फूल खिलते हैं जिनकी डालों पर
बस वे ही पेड़ फलते रहते हैं
हम कई बार जानते भी नहीं
हम भी लोगों को खलते रहते हैं
जिनको ठोकर से डर नहीं लगता
वे ही गिर कर सम्हलते रहते हैं
शीशमहलों में चलने वालों के
पैर अक्सर फिसलते रहते हैं
सुख से जीने की चाह में हम सब
उम्र भर, खुद को छलते रहते हैं
ऐसे कम ही दिये मिले मुझको
वो जो आँधी में जलते रहते हैं
प्यार लोगों ने जताया , उम्र भर
प्यार लोगों ने जताया , उम्र भर
और मैं भी मुस्कुराया , उम्र भर
संग साये की तरह चलती रही
जिंदगी की मोह-माया , उम्र भर
बंद कमरे में वो रो लेता है रोज
जिसने लोगों को हँसाया , उम्र भर
कुछ तो ऐसे भेद थे अपने ही पास
जिनको ख़ुद से भी छिपाया , उम्र भर
मेरे आँगन में खड़ा वो हरसिंगार
मुक्त मन से खिलखिलाया , उम्र भर
नींद लगते साथ ही दिखता है रोज
एक सपने ने सताया , उम्र भर
फिर भी,लगता है कि कुछ सीखे नहीं
यूँ तो जीवन ने सिखाया,उम्र भर
मन के अंदर गुबार क्यों रखना
मन के अंदर गुबार क्यों रखना
आँधियों-से विचार क्यों रखना
जो लिया आज कल चुका देंगे
जिंदगी भर उधार क्यों रखना
प्यार के मौन को जुबान भी दे
सात पर्दों में प्यार क्यों रखना
हम उजाले में बात करते हैं
इसलिए अंधकार क्यों रखना
आप उत्तर भी दीजिए, साहब—
घर में पीछे से द्वार क्यों रखना?
ले दवा और उसको चलता कर
चार हफ़्ते बुखार क्यों रखना
एक,दो तीन,चार, पाँच सही
सैंकड़ों दोस्त-यार क्यों रखना?
जा रहे हो मगर लौटना
जा रहे हो मगर लौटना
एक दिन अपने घर लौटना
जीतना भी जरूरी नहीं
लौटना हार कर लौटना
मुझको जादू सरीखा लगा—
मौन शब्दों में स्वर लौटना
घर से भागी नदी का हुआ
स्वप्न में रात भर लौटना
उस शिविर में पहुँचने के बाद
है असंभव इधर लौटना
ये तो चिंताजनक है बहुत-
मन की बस्ती में डर लौटना
पिंजरा खुलते ही पंछी उड़े
मुक्त होना है ‘पर’ लौटना
ये सच है देह के बाहर भी देखना होगा
ये सच है देह के बाहर भी देखना होगा
मगर कभी —कभी अंदर भी देखना होगा
दुबक के बैठ गया था जो एक दिन मन में
तुम्हें तुम्हारा वही डर भी देखना होगा
रहोगे कितने दिनों तक किसी के घर मेहमान
नए शहर में, नया घर भी देखना होगा
हमारे जूते के अंदर पहुँच गया कैसे
जो चुभ रहा है, वो कंकर भी देखना होगा
लड़ाने वालों की रणनीति के तहत तुमको
‘बटेर’ के लिए ‘तीतर’ भी देखना होगा !
जो अवसरों के मुताबिक बदलता रहता है
उसे बदलने का अवसर भी देखना होगा
चलोगे ‘धार के विपरीत’ ज़िन्दगी में अगर
तो तुमको धार से लड़कर भी देखना होगा.
हर समय माँ है दुआओं के करीब
हर समय माँ है दुआओं के करीब
जैसे खुशबू हो हवाओं के करीब
शब्द अपने आप गुम होने लगे
जब भी पहुँचे प्रार्थनाओं के करीब
सिर्फ कुछ घंटों का होता है विराग
जो घुमड़ता है चिताओं के करीब
कितनी मुस्तैदी से बैठा है विवेक
आदमी की चेतनाओं के करीब
आँसुओं की धार से ज्यादा मुखर
कुछ नहीं होता व्यथाओं के करीब
जिसमें साहस है वही रुक पाएगा
बैर लेकर , वर्जनाओं के करीब !
एक या दो साल कुछ होते नहीं
हैं कई सदियाँ प्रथाओं के करीब.
पीड़ा से रिश्ता पक्का कर जाता है
पीड़ा से रिश्ता पक्का कर जाता है
जो आता है घाव हरा कर जाता है
तुम कविता में भी लिखते हो गद्य बहुत
वो लेखों तक में कविता कर जाता है
मैं भी उसके साथ कभी रो लेता हूँ
वह भी रोकर दिल हल्का कर जाता है
बादल से सूरज तो क्या लड़ पाएगा
हाँ, कुछ पल सिर पर साया कर जाता है
हम लोगों की खस्ता माली हालत पर
वह खाली – पीली चिंता कर जाता है
बाँट रहा है रोज बताशे बातों के
बातों से मुँह को मीठा कर जाता है
लोग सदा बूढ़े होने से डरते हैं
वक्त आदमी को बूढ़ा कर जाता है.
युद्ध करना कठिन हो गया
युद्ध करना कठिन हो गया
रोज़ मरना कठिन हो गया
विधवा रानी को जौहर से पूर्व—
बन-सँवरना कठिन हो गया
उँचे आसन पे जमने के बाद
खुद उतरना कठिन हो गया
घर की दहलीज को लाँघकर
पाँव धरना कठिन हो गया
उसको मधुमेह था इस लिए
घाव भरना कठिन हो गया
अपनी परछाई के प्रेत से
रोज डरना कठिन हो गया
अनवरत शोर करता हुआ
एक ‘झरना’ कठिन हो गया.
कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
उनके पैरों तले ज़मीन रही
मैं भी उसके लिए मशीन रहा
वो भी मेरे लिए मशीन रही
बन के ‘छत्तीस’ एक घर में रहे
मैं रहा ‘छ:’ वो बन के ‘तीन’ रही
हर कहीं छिद्र देखने के लिए
उनके हाथों में खुर्दबीन रही !
पूरी बाहों की सब कमीजों में
साँप बनकर ही आस्तीन रही
तन से उजली थी रूप की चादर
किंतु मन से बहुत मलीन रही
आदमी हर जगह पुराना था
ज़िन्दगी हर जगह नवीन रही.
कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
उनके पैरों तले ज़मीन रही
मैं भी उसके लिए मशीन रहा
वो भी मेरे लिए मशीन रही
बन के ‘छत्तीस’ एक घर में रहे
मैं रहा ‘छ:’ वो बन के ‘तीन’ रही
हर कहीं छिद्र देखने के लिए
उनके हाथों में खुर्दबीन रही !
पूरी बाहों की सब कमीजों में
साँप बनकर ही आस्तीन रही
तन से उजली थी रूप की चादर
किंतु मन से बहुत मलीन रही
आदमी हर जगह पुराना था
ज़िन्दगी हर जगह नवीन रही.
औघड़ पर्वत के उलझे केशों में रस्ते ढूँढ लिए
औघड़ पर्वत के उलझे केशों में रस्ते ढूँढ लिए
झरने ने जब ‘चरैवेति’ के ठोस इरादे ढूँढ लिए
कभी प्रेम के कभी क्रोध के और कभी मुस्कानों के
सबने अपने चेहरों के अनुकूल मुखौटे ढूँढ लिए
मधुवन में खिलने का जिन फूलों को अवसर नहीं मिला
आँगन-आँगन ऐसे फूलों ने भी गमले ढूँढ लिए
परदे में ,मन की बातों को कह देना आसान लगा
प्रेम-पत्र लिखने वालों ने स्वयं लिफाफे ढूँढ लिए
उन लोगों से, दूर-दूर तक कोई भी संबंध न था
स्वार्थ सिद्ध करने को, कुछ मुँहबोले रिश्ते ढूँढ लिए !
जिन्हें सुनाकर , जीवन में कुछ करने का अहसास जगे
बूढ़े लोगों ने, चुनकर कुछ ऐसे किस्से ढूँढ लिए
एक भरोसा था— जो नदिया को सागर तक ले आया
यही सोचकर, हमने अपने लिए भरोसे ढूँढ लिए.
यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं
यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं
जिस ओर भी गईं, वो हमेशा निडर गईं
‘आदम’ की दृष्टि ‘हव्वा’ से टकराई पहली बार
उस एक पल में सैंकड़ों सदियाँ गुज़र गईं
या तो समय को राह में रुकना पड़ा कहीं
या मेरी ‘रिस्टवाच’ की सुइयाँ ठहर गईं !
उस पार करने वाले के साहस को देखकर
नदियाँ चढ़ी हुईं थीं, अचानक उतर गईं
फूलों को अपनी सीमा में रुकना पड़ा, मगर
ये खुशबुएँ हमेशा हदें पार कर गईं
घर के अन्दर रही, घर के बाहर रही
घर के अन्दर रही, घर के बाहर रही
जिन्दगी की लड़ाई निरंतर रही
सत्य की चिलचिलाती हुई धूप में
एक सपनों की छतरी भी सिर पर रही
वो इधर चुप रही मैं इधर चुप रहा,
बीच में, एक दुविधा बराबर रही
रोक पाई न आँसू सहनशीलता
आँसुओं की नदी बात कहकर रही !
बीज के दोष को देखता कौन है,
उर्वरा भूमि यूँ भी अनुर्वर रही
काम आती नहीं एकतरफ़ा लगन
वो लगन ही फली, जो परस्पर रही
आज भी मोम-सा है ‘अहिल्या’ का मन
देह, शापित ‘अहिल्या’ की पत्थर रही !
वे जो मातम नहीं जानते
वे जो मातम नहीं जानते
आँख है नम, नहीं जानते
कल उन्हें कौन फहराएगा
ये भी परचम नहीं जानते
वे दिमागों के मजदूर हैं
वे परिश्रम नहीं जानते
इसलिए भी सुरक्षित हो तुम
कोई जोखम नहीं जानते !
ये विजेता का संसार है
अंधे अणुबम नहीं जानते
प्यार करने का निश्चित समय
मन के मौसम नहीं जानते
जन्मती है कहाँ रोशनी
आजतक तम नहीं जानते
कभी—कभी हमें ऐसे भी स्वप्न आते हैं
कभी—कभी हमें ऐसे भी स्वप्न आते हैं
जो जागते ही हमें देर तक लजाते हैं
हजार रास्ता रोकें पहाड़ दुनिया के
जो लोग झरने हैं, खुद रास्ता बनाते हैं
हम अपने घर से निकल कर कहीं गये तो नहीं
हमारे द्वन्द्व भी हमको बहुत थकाते हैं !
वे मन के रोगी हैं, उनका इलाज करवाओ
जो सामने पड़े उसका ही दिल दुखाते हैं
हमारे क्रोध का ‘धृतराष्ट्र’ देख पाया कब—
जो फूल हैं ,वो हमेशा ही मुस्कुराते हैं
सुहानुभूति उसी के लिए उपजती है
हम अपनी पीर को जिसके करीब पाते हैं
पड़ा है सोया हुआ वृक्ष बीज के अंदर
समान ‘धूप, हवा,जल’ उसे जगाते हैं
हमारे बीच संशय बढ़ रहे हैं
हमारे बीच संशय बढ़ रहे हैं
उसी अनुपात में भय बढ़ रहे हैं
जिन्हें विज्ञान लगता है अजूबा
उन्हीं आँखों में विस्मय बढ़ रहे हैं
सदन में आ गये ‘धृतराष्ट्र’ चुनकर
कुछ इस कारण भी संजय बढ़ रहे हैं
कमल के फूल कीचड़ में सने हैं
अब ऐसे ही जलाशय बढ़ रहे हैं
जो कानूनों से ऊपर हो गये थे
उन्हीं लोगों में निर्दय बढ़ रहे हैं
कला दिखती नहीं अब स्वाभिमानी
कलाकारों के विक्रय बढ़ रहे हैं
शहर भर से हमारी दोस्ती है
मगर, खुद से अपरिचय बढ़ रहे हैं
उनसे मिलने की आस बाकी है
उनसे मिलने की आस बाकी है
ज़िन्दगी में मिठास बाकी है
रोज़ इतने तनाव सह कर भी
मेरे होंठों पे हास बाकी है
क्या बुझेगी नदी से प्यास उसकी
जिसमें सागर की प्यास बाकी है
आग लगने में देर है केवल
सबके मन में कपास बाकी है
ये कृपा कम नहीं है फ़ैशन की
नारी तन पे लिबास बाकी है !
रोज़ रौंदी गई है पैरों से
अपनी जीवट से घास बाकी है
अस्त्र—शस्त्रों में वो नहीं ताकत
वो जो शब्दों के पास बाकी है.
घर से निकले सुबह, शाम को घर लौटे
घर से निकले सुबह, शाम को घर लौटे
मीठी—मीठी थकन लिए अक्सर लौटे
जब भी लोगों को थोड़ा एकांत मिला
सबके मन में अपने—अपने डर लौटे
दंगों में इतना झुलसा घर का चेहरा
हम अपनी ही देहरी तक आकर लौटे
पंख कटे पंछी की आहत आँखों में
जाने कितनी बार समूचे ‘पर’ लौटे
सोच रहा है बूढ़ा और अशक्त पिता—
बेटे के स्वर में शायद आदर लौटे !
शब्द बेचने में क्या पूँजी लगनी थी
अर्थ लिए ,शब्दों के सौदागर लौटे
हमने जैसे कंकर —पत्थर बोए थे
धरती से वैसे कंकर —पत्थर लौटे.
धीर धरने की बात करते हैं
धीर धरने की बात करते हैं
वो ही डरने की बात करते हैं
पंछियों का सवाल उठते ही
‘पर’ कतरने की बात करते हो
प्यार से बात भी नहीं करते
प्यार करने की बात करते हैं
तेज़— रफ़्तार लोग जीवन में
कब ठहरने की बात करते हैं
दोस्त देते नहीं दिलासा भी
डूब मरने की बात करते हैं
जो बिगड़ने के छोर तक पहुँचे
वे सुधरने की बात करते हैं
जब भी उल्लास की चली चर्चा
लोग ‘झरने’ की बात करते हैं
हमसे पहले हमारी नज़र जाएगी
हम निहारेंगे जिसको , उधर जाएगी
हमसे पहले, हमारी नज़र जाएगी
फूल गमले की हद में खिलेंगे मगर
हर तरफ़ गंध उनकी बिखर जाएगी
रूप को क्या पता था कि उस भूल से
जिंदगी यूँ विवादों से भर जाएगी
जिस जगह तक समाचार जाते नहीं
उस जगह तक हमारी खबर जाएगी!
झील की शांति में गिर पड़ी कंकरी
दूर तक, द्वंद्व बन कर लहर जाएगी
क्रोध करने से वो काम होते नहीं
एक मुस्कान जो काम कर जाएगी
जगमगाएगी दीपावली की तरह
जो अमावस उजाले को ‘वर’ जाएगी
अलग मुस्कान मुद्राएँ अलग हैं
अलग मुस्कान मुद्राएँ अलग हैं
समारोहों की भाषाएँ अलग हैं
जो असफल हैं,अलग है उनकी कुंठा
सफल लोगों की पीड़ाएँ अलग हैं
उन्हें तुम अपनी शैली में न बूझो
मेरे घर की समस्याएँ अलग हैं
जो अस्मत लुटते—लुटते बन गई थीं
वे कुछ ‘साक्षात् दुर्गाएँ’ अलग हैं
अमीरों की निराशा एक पल की
गरीबों की हताशाएँ अलग हैं
जो तर्कों कॊ पराजित कर रही हैं
निरंकुश मन की सेनाएँ अलग हैं
जिन्हें मैं लिख न पाया डायरी में
मेरी खामोश कविताएँ अलग हैं
और कब तक रहें अँधेरे में ?
कितनी क्या देर है सवेरे में
और कब तक रहें अँधेरे में ?
तुमसे मिलना भी हो गया अपराध
आ गये हम भी शक के घेरे में
घर में क्यों घुस नहीं रहे पंछी
साँप बैठा है क्या बसेरे में?
मूक तस्वीर बोलने भी लगे
इतनी ताकत नहीं चितेरे में
कौन से चार हाथ होते हैं
लुटने वाले में या लुटेरे में
संत आने लगे सियासत में
फँस गये वे भी तेरे— मेरे में
हर समय मछलियों की गंध मिली
हर मछेरिन में हर मछेरे में
अधिक नहीं ,वे अधिकतर की बात करते हैं
अधिक नहीं ,वे अधिकतर की बात करते हैं
नदी को छोड़ समंदर की बात करते हैं
हमारे दौर में इन्सान का अकाल रहा
ये लोग फिर भी पयम्बर की बात करते हैं
जिन्हें भरोसा नहीं है स्वयं की मेहनत पर
वे रोज़ ही किसी मन्तर की बात करते हैं
नहीं है नींव के पत्थर का जिक्र इनके यहाँ
ये बेशकीमती पत्थर की बात करते हैं
ये अफसरी भी मनोरोग बन गई आखिर
वो अपने घर में भी दफ्तर की बात करते हैं
मैं कैसे मान लूँ —वो लोग हो गये हैं निडर
जो बार —बार किसी डर की बात करते हैं
वो अपने आगे किसी और को नहीं गिनते
वो सिर्फ अपने ही शायर की बात करते हैं.
शहरी लोगों का जीवन गया
काटते—काटते वन गया
जिन्दगी से हरापन गया
सोच में भी प्रदूषण बढ़ा
इसलिए, शुद्ध चिंतन गया
मंजिलों पर बनीं मंजिलें
गाँव—शैली का आँगन गया
भाई बस्ते उठाने के बाद
नन्हें—मुन्नों से बचपन गया
हम अकेले खड़े रह गए
दोस्तों का समर्थन गया
रूप—यौवन न काम आ सके
इस तरह स्वास्थ्य का धन गया
हर समय दौड़ते —भागते
शहरी लोगों का जीवन गया
शरीफों के मुखौटों में छिपे हैं भेड़िये कितने
शरीफों के मुखौटों में छिपे हैं भेड़िये कितने
हमारे सामने ही हो रहे हैं हादसे कितने
इधर तो जिंदगी के पृष्ट पर शब्दों के उत्सव हैं
उधर उनके निकट ही चुप खड़े हैं हाशिये कितने
किसी को रूप का, धन का, किसी को राजसत्ता का
शराबों के इलावा भी हैं जीवन में नशे कितने
बड़ी मछली का भोजन गई हैं मछलियाँ छोटी
निगल जाते हैं गाँवों को शहर के अजदहे कितने
गवाही दे रही हैं बूढ़े शाही हार की आँखें
पहिनने के लिए आतुर रहे उसको गले कितने.
हर खुशी की आँख में आँसू मिले
हर खुशी की आँख में आँसू मिले
एक ही सिक्के के दो पहलू मिले
कौन अपनाता मिला दुर्गंध को
हर किसी की चाह है ,खुशबू मिले
अपने—अपने हौसले की बात है
सूर्य से भिड़ते हुए जुगनू मिले
रेत से भी तो निकल सकता है तेल
चाहता है वो, कहीं बालू मिले
आँकिए उन्माद मत तूफान का,
सैंकड़ों उखड़े हुए तंबू मिले
जिसने दाना डाल कर पकड़ी बटेर
हाँ, उसी की जेब में चाकू मिले
नाव को खेना तभी संभव हुआ
जब किसी मल्लाह को चप्पू मिले.