फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है
मुट्ठी में पिघलता यथार्थ
घुसपैठी लहरों से
सीपियों सा
टूटने लगा है
फरेबी बादल
उड़ेल देता है
ढेर सारी स्याही
आकाश में ......
मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है
समय की खोह में
कहीं गुम हुआ मन
दरारों भरे आईने से
कई - कई सूरतों में
बंटकर
उड़ाता है हंसीं ......
किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़
गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ
बूढ़ा मल्लाह मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाक़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं .....
तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ाता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!
गुरुवार, मार्च 11, 2010
हथेली पे उगा सच.....
वह लाल दुपट्टा.....
(१)
बरसों पहले
जो तुम
इक धूप का टुकड़ा
मेरे आँगन में
रोप गए थे
अब उसमें
मुहब्बत के बीज
उगने लगे हैं
शायद अबके
नागफनी खिल उठे .......!!
(२)
आज
न जाने क्या बात हुई
छितरे बादल
आवारा टुकड़ियों में
चाँद से
अटखेलियाँ करते रहे
मैंने रोशनदान से झाँका
रात भी करवट बदल
सोने का बहाना
कर रही थी ......!!
(३)
आज ये
दोपहर की
लम्बी सांसें
न जाने क्यों
उम्मीद के धागे
बुनने लगीं है
रब्बा....!
वह लाल दुपट्टा आज भी कहीं
मेरे पास पड़ा है ....!!
वह तेरा ही नाम था जो गिर गया था हाथों से
आज फ़िर
रात के साये बहुत गहरे हैं
मन की तहों में छिपी
बेपनाह मोहब्बत ....
अपने आप को क़त्ल करती
खामोश हो गई है....
आँखें ....
एक गहरी साँस लेती हैं
इक खामोश आवाज़
कट कर गिरती है
पंखे से.....
रब्बा....!
मैं तुलसी के नीचे
जलते दीये सी पाक़
कितनी खोखली हो गई हूँ आज
कि अब ....
इन बनते- बिगड़ते लफ़्जों में
अपने ही जन्म का पल
बेमानी लगने लगा है ...
आह....!
न जाने क्यों यह परिंदा
रोता है रातों में ....
कहीं यह भी किसी वहशतजदा
रूह का कज़्फ़1 तो नहीं ....?
सामने कागज़ पर
मेरा कटा बाजू पड़ा है
और वहशत है कि क़र्ज़ख्वाह2 सी
चिखती रही सीढियों से .......
आज फ़िर शब्दों ने
अपने आप को
क़त्ल किया है ....
कुछ सच्चाइयां नग्न खडी थीं
पर वहशत ने यूँ परदा डाला
के बदन ....
हैरत की गठरी बन गया ...
ज़ज्बात ...
भीगते रहे बूंदों में
वजूद मिट्टी के बर्तन सा
तिड़कता गया
बस .....
दर्द मुस्काता रहा आंखों में
तसल्ली देता रहा
देख कलाइयों को
जहाँ लहू का एक कतरा
अपना तवाजुन3
खो बैठा था ....
वह तुम्हीं तो थे
जो दर्द में भी
तहजीब सिखलाते रहे थे जीने की
पर खुदा से दुआ मांगते वक्त
वह तेरा नाम ही था
जो गिर गया था
हाथों से ....!!!
1 कज़्फ़ - दुराचार का आरोप लगाना
2 कर्जख्वाह -ऋण इच्छुक
3 तवाजुन -संतुलन
वजूद तलाशती औरत .....
शीशे की दीवारों में कैद
इक मछली
धीरे-धीरे तलाशती है
अपना वजूद
उसके वजूद के बुलबुले
ऊपर उठते हैं
और ऊपर उठकर
दम तोड़ देते हैं
जानी -पहचानी
ये मछली मुझे
हर औरत के चेहरे में
नजर आती
रेगिस्तान में
मृग -मरीचिका सी
भागती-फिरती
नंगी- गीलीं
परछाइयों के बीच
अपने वजूद को तलाशती
सुनहरी,रुपहली
सुंदर मछली ....
एक्वेरियम में
बिछाई गई बजरी
समुंदरी पेड़ - पौधे
लाल,भूरे रंग के
छोटे-बड़े पत्थरों के बीच
गीले सवालों में खड़ी
अपने अस्तित्व को तलाशती
जूते की गिरफ्त में कराहती
किसी तड़पती कोख में
दम तोड़ती
हवा के बंद टुकड़े सी
कमरे में सिसकती
बाज़ारों में अपना
जिस्म नुचवाती
हँसी की कब्र में
उतर जाती है
किसी बिलबिलाते
चेहरे का
निवाला बनने .....
वह नहीं बन पाती
सीता-सावित्री
वह बनती है
खजुराहो की मैथुन मूर्ति
शीशे की दीवारों में कैद
वह आज भी
कटघरे में खड़ी है
न्याय के लिए ...
आज के कवियों की
कविता की तरह
संभोग की पृष्ठभूमि पर टंगी
वह अपना वजूद तलाशती है
शिखर पर पहुँचने का वजूद
स्त्री होने का वजूद
जी भर .......
साँस ले पाने का वजूद.....
वक़्त की नफासत.....
बरसों पहले
जीवन मर्यादाएं
धूसर धुन्धल चित्र लिए
हस्तरेखाओं की तंग घाटियों में
हिचकोले खाती रहीं.....
ऊबड़-खाबड़
बीहड़ों में भटकती
गहरी निस्सारता लेकर
कैद में छटपटाती
आंखों में कातरता
भय और बेबसी की
अवांछित भीड़ लिए
इक तारीकी पूरे वजूद में
उतरती रही ......
वक्त नफ़ासत पूर्ण तरीके से
सीढ़ियों पर बैठा
तस्वीर बनाता रहा ...
तारों को
छू पाने की कोशिश में
न जाने कितने लंबे समय
और संघर्षों से
गुजर जाना पड़ा .....
आज मैंने
अंधियारों को चीरकर
चाँद से बातें करना
सीख लिया है
रातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है मुझे
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना
समुंदरी लहरों के बीच
सीपी में बैठी एक बूंद का
मोती बन जाना
उड़ते हुए पन्ने में
किसी नज़्म का
चुपचाप आकर
मेरी गोद में
गिर जाना
आज जब
दूर दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
धैर्य सहलाता है घाव
हवाएं शंखनाद करतीं हैं
तब मैं ....
वे तमाम तपते हर्फ़
तुम्हारी हथेली पे रख
पूछती हूँ
उन सारे सवालों के
जवाब ...........!!
रब्बा! यह कैसा सच है तेरा.....
रब्बा !
यह कैसा इंसाफ है तेरा
आज जब एक सतायी हुई औरत
मुर्दा आंखों में
अन्तिम सांसें ले रही थी
तब भी तुम वहीं
ख़ामोश खड़े थे
उसकी देह की निचुड़ी दीवारें
अपने अन्दर
दफ़्न कर ले गईं थीं
वे सारे सवालात
जो अब मेरे सीने में
धधक रहे हैं
जानती हूँ ;
धीरे-धीरे कैसे टूटी थी वो
कई बार जब हम मिलते
मैं पूछती : "...कैसी हो तुम ? "
वह हंस देती "....जैसी तुम हो ! "
हम दोनों मुस्कुरा जातीं
मुखालिफ़* स्थितियों से लड़ना
परिस्थितियों से समझौता करना
जिसमें न जाने कितनी बार
धराशायी होकर गिरी थी वह
क्रूर झोंका जब भ्रम तोड़ता
उसकी किरचें
संभाले नहीं संभलती
हर क्षण उसके अन्दर
जैसे कुछ दरक जाता
ज़िन्दगी के
कितने ही पैने रूप
देखे थे उसने
नित छलनी कर देने वाली
भाषा के सलीबों पे चढ़ती
बड़ी बड़ी इमारतों सी
ढह जाती
रात भर
करवटें बदलती
पीड़ा से कराहती
आंखों में उगी वितृष्णा
रिक्तता , अकेलापन
उसे भीतर तक
खोखला कर जाता
एक गहरी अकूबत
सीने में भरभरा उठती
और इक दिन
हथियार डाल दिए थे उसने
उसने नहीं देह ने
कभी ज्वर
कभी थकावट
कभी सर दर्द
कभी उल्टी
कभी.......!
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी
और फ़िर
एक दिन पता चला
उसे कैंसर है
ब्रेन कैंसर
वह भी अन्तिम स्टेज पर
वह खुश थी
बेहद खुश
उसकी उखड़ी सांसों में
इक सुकून सा घुल गया था
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुआं-धुआं सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!
रखा चूम कर फूल तेरे कदमों पे.....
ऊँची सफ़ेद बर्फीली पहाडियां
धरती के स्वर्ग कश्मीर की वादियाँ
आज हैं रक्त-रंजित
तोपों के धमाकों से
थर्रा रही.....
खौफ़ और आग का धुंआ बना
इक कहानी तवारिख की ....
दुल्हन की तरह सजे शिकारे
सैलानियों को लेकर
जो डल झील थी इतराती
आज पत्ती-पत्ती, हर शाख़
है खौफज़दा .....
जो सरज़मीं कश्मीर की
जन्नत की तस्वीर थी
है वहाँ सन्नाटा
महक है चरों तरफ़
बारूद की .......
मौन, निशब्द
शालीमार और गुलमर्ग
दर्द से कराहते
कह रहे हैं दास्तां
सैकड़ों मारे गए बेगुनाह
वतन परस्तों की ....
मेरी दुआ
तेरे रख्शे करम
अए वीर जवानों
मेरे हिस्से की चंद खुशियाँ भी
तुझे मयस्सर
रखा चूम कर फूल
तेरे क़दमों पे
भुला न पाएंगे शहादत
तेरी जवानी की ......!!!!
यह कैसी आजा़दी है?
अभी-अभी बम के धमाको़ से
चीख़ उठा है शहर
बच्चे, बूढे,जवान
खून से लथपथ
अनगिनत लाशों का ढेर
इस हृदय वारदात की
कहानी कह रहा है
ओह!
यह कैसी आजा़दी है
जो घोल रही है
मेरे और तुम्हारे बीच
खौ़फ, आग और विष का धुआँ?
हमारे होठों पे थिरकती हंसी को
समेटकर
दुबक गई है
किसी देशद्रोही की जेब में
और हम
चुपचाप देख रहे हैं
अपने सपनों को
अपने महलों को
अपनी आकांक्षाओं को
बारूद में जलकर
राख़ में बदलते हुए
मोहब्बत का निग़ार है नज़्म.....
मानो तो ख़ुदा की इबादत का साज़ है नज़्म
बेबस खामोशी की आवाज है नज़्म
किसी कब्र में सिसकती मोहब्बत की निगार[1] है नज़्म
आशिकों की रूह से निकली पुकार है नज़्म
हवाओं का भी रुख मोड़ दे वो तूफ़ान है नज़्म
दिल में छुपे दर्द की ज़ुबान है नज़्म
बेंध दे सीना पत्थरों का वो औज़ार है नज़्म
शायर और आशिकों की मज़ार है नज़्म
चट्टानों पर लिखा इश्क का पैगाम है नज़्म
न भूले सदियों तक 'हकीर' वो इलहाम[2] है नज़्म
शब्दार्थ:
↑ प्रतिमा, मूर्ति
↑ देववाणी
मैं तेरा दीवाना हूँ .....
(1)
तोहफ़ा
रात आसमां कुछ सितारे
झोली में भर कर ले आया
मैंने कहा ......
मेरा सितारा तो मेरे पास है
वह बोला ......
पर वो तुझे रौशनी नहीं देता
ये तुझे रौशनी भी देंगे ,
और रास्ता भी ....
मैंने पूछा कौन हैं ये ....?
तेरी नज्मों के दीवाने
वो मुस्कुराया ......!!
(२)
साथी
कुछ लफ्ज़ कमरे में
इधर-उधर बिखरे पड़े थे
मैंने छूकर देखा ....
सभी दम तोड़ चुके थे
सिर्फ़ एक लफ्ज़ जिंदा था
मैंने उसे पलट कर देखा
वह ' दर्द ' था .....
मैंने उसे उठाया
और सीने से लगा लिया .....!!
(३)
दर्द का शिकवा
वह इक कोने में बैठा
सिसक रहा था ....
मैंने पूछा .....
' क्यों रो रहे हो साथी ....? '
वह बोला ......
वे तुम्हें मुझसे
छीन लेना चाहते हैं .....!!
(४)
दीवाना
वह झुक कर
धीमें से बोला .....
मैं तेरा दीवाना हूँ ' हक़ीर '
और मेरे लबों को चूम लिया
मैंने पलकें खोलीं तो देखा
वह दर्द था .......!!!
बोलते पत्थर,चार कविताएँ.....
(१)
बोलते पत्थर ........
जब कभी छूती हूँ मैं
इन बेजां पत्थरों को
बोलने लगते हैं
ज़िन्दगी की अदालत में
थके- हारे ये पत्थर
भयग्रसित
मेरी पनाह में आकर
टूटते चले गए
बोले......
कभी धर्म के नाम पर
कभी जातीयता के नाम पर
कभी प्रांतीयता के नाम पर
कभी ज़र,जोरू, जमीन के नाम पर
हम ..............
सैंकडों चीखें अपने भीतर
दबाये बैठे हैं ........!!
(२)
मन्दिर मस्जिद विवाद ....
वह ....
कुछ कहना चाह रहा था
मैंने झुक कर
उसकी आवाज़ सुनी
वह कराहते हुए धीमें से बोला......
मैं तो बरसों से चुपचाप
इन दीवारों का बोझ
अपने कन्धों पर
ढो रहा था
फ़िर......
मुझे क्यों तोड़ा गया ....?
मैंने एक ठंडी आह भरी
और बोली, मित्र .......
अब तेरे नाम के साथ
इक और नाम जुड़ गया था
'मन्दिर' होने का नाम ......!!
(३)
भ्रूण हत्या ......
मन्दिर में आसन्न भगवान से
मैंने पूछा .......
तुम तो पत्थर के हो ....
फ़िर तुम्हें किस बात गम ....?
तुम क्यों यूँ मौन बैठे हो......??
वह बोला .......
जहां मैं बसता हूँ
उन कोखों में नित
न जाने कितनी बार
कत्ल किया जाता हूँ मैं .....!!
(४)
आतंक के बाद ......
सड़क के बीचो- बीच
पड़े कुछ पत्थरों ने ...
मुझे हाथ के इशारे से रोका
और कराहते हुए बोले.....
हमें जरा किनारे तक छोड़ दो मित्र
मैंने देखा .....
उनके माथे से
खून रिस रहा था
मैंने पूछा ....
'तुम्हारी ये हालत....?'
वे आह भर कर बोले .....
तुम इंसानों के किए गुनाह ही
इन माथों से बहते हैं .....!!
बेजुबां हैं क्यूँ लोग यहाँ......
फिजां में उठ रही लपट सी क्यों है
ये भगदड़ सी क्यों शहर में मची है
ये ताज क्यूँ जला आज आग में
यहाँ इंसानियत क्यों दिलों में मरी है.....
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है.....
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है.....
आदमी ही आदमी का दुश्मन बना क्यों
बीच चौराहे पे क्यूँ ये गोली चली है
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है......!?!
प्रत्युत्तर
हाँ;
मैं चाहती हूँ
सारे आसमां को
आलिंगन में
भर लूँ...
हाँ;
मैं चाहती हूँ
चंद खुशियाँ
कुछ दिन और
समेट लूँ...
पर;
मेरे आसमां में
न कोई तारा है
न आफ़ताब...
वह तो रिक्त है
शुन्य सा
भ्रम है
क्षितिज सा...
मेरी कल्पनाओं का
कोई इमरोज नहीं
न ही कोई अन्य
चित्रकार...
कसूर
धड़कनों का नहीं
कसूर नजरों का था
कुछ तुम्हारी
कुछ मेरी...
इन बेवजह
धड़कती धड़कनों को
समेटना तो मुझे
बखूबी आता है...
बरसों से
मदिरा के प्यालों में
डूबो-डूबो कर
इन्हें ही तो
पीती आई हूँ...
हाँ;
इतना तो सच है
आज तुम्हारे ही लिए
मैंने इन शब्दों
को बाँधा है...
किसी
उपनाम से ही सही
तुम्हारे प्रत्युत्तरों को
ढूंढा करूँगी मैं
इन्हीं पन्नों में...
ताकि
उत्तर-प्रत्युत्तर के
इन्हीं सिलसिलों में
किन्हीं और शब्दों को
बाँध पाऊँ...
पत्थर होता इंसान
दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्म् है औ,
शब्द तार तार है
एक बूँद पीठ सेंककर
धुआँ-धुआँ सी उड चली
वक्त की मुरदा उम्मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं
प्रेम,स्नेह,नीर पत्तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्तक धडकनों की बेकार है
घर,बाग,ठूँठ से जंगल
सर्द-शुष्क बियाबान से हैं खडे
सँघर्षो की इस आग में
पत्थर हुए इँसान हैं
नज़्में.....
१)
ज़िन्दगी इक ज़हर थी
जिसमें खुद को घोलकर
इन नज्मों ने
हर रोज़ पिया है
जिसका रंग
जिसका स्वाद
इसके अक्षरों में
सुलगता है
(२)
ज़ख्मों पर
उभर आए थे कुछ खुरंड
जिन्हें ये हर रोज़
एक-एक कर
उतारती हैं
(३)
इक हँसी
जो बरसों से कैद थी
ताबूत के अन्दर
उसका ये मांगती हैं
मुआवजा
(४)
कटघरे में खड़ी हैं
कई सवालों के साथ
के बरसों से सीने में दबी
मोहब्बत ने
खुदकशी क्यों की ....??
(५)
कुछ फूल थे गजरे के
जो आँधियों से बिखर गए थे
उन्हें ये हर रोज़
एक-एक कर चुनती हैं
(६)
शाख़ से झड़े हुए पत्तों का
शदीद दर्द है
जो वक्त- बे -वक्त
मुस्कुरा उठता है
चोट खाकर
( शदीद -तेज )
(७)
उन कहकहों का उबाल हैं
जो चीखें नंगे पाँव दौड़ी हैं
कब्रों की ओर
(८)
इक वहशत जो
बर्दाश्त से परे थी
इन लफ्ज़ों में
घूंघट काढे बैठी है
(९)
खामोशी का लफ्ज़ हैं
जो चुपके-चुपके
बहाते हैं आंसू
ख्वाहिशों का
कफ़न ओढे
१०)
जब-जब कैद में
कुछ लफ्ज़ फड़फड़ाते हैं
कुछ कतरे लहू के
सफहों पर
टपक उठते हैं
(११)
ये नज्में .....
उम्मीद हैं ....
दास्तां हैं ....
दर्द हैं .....
हँसी हैं ....
सज़दा हैं .....
दीन हैं .....
मज़हब हैं ....
ईमान हैं ....
खुदा .....
और ....
मोहब्बत का जाम भी हैं ....!!
रात जुगनुओं ने इश्क का जाम भरा.....
रात जुगनुओं ने इश्क़ का जाम भरा
तारे सेहरा बांधे दुल्हे से सजने लगे
सबा का इक झोंका उड़ा ले गया चुपके से
चाँदनी सपनों की पालकी में जा बैठी !
शब ने मदहोशी का आलम बुना
आसमां नीली चादर बिछाने लगा
मुहब्बत का मींह बरसाया बादलों ने
चाँद आशिकी का गीत गाने लगा !
हुश्न औ' इश्क नशेमंद आँखों में
प्रीत की कब्रों में सजते रहे
कभी चिनवाये गए जिंदा दीवारों में
कभी चनाब के पानी में बहते रहे !
धुआँ धुआँ है आसमाँ.....
लुटी-लुटी हैं सरहदें
धुआं - धुआं है आसमां
डरी - डरी हैं बस्तियां
डरा-डरा सा है समां
फूल दीखते नहीं किसी शजर पे
ज़ख्म उगे हैं हर शाख़ पे
ये कैसी जमीं है जहां
उगती हैं फसल के बदले गोलियाँ
डरी-डरी है .............
सहमी-सहमी सी है सबा
चाँद का भी रंग उड़ा
ये कौन लिए जा रहा है
मेरे शहर की रौशनियाँ
डरी- डरी हैं...........
धमकी , धमाके , लूट ,कत्ल ,अपहरण
है चारो ओर अम्नो-चैन की बर्बादियाँ
बेखौफ फिरते हैं आतताई लिए हाथों में खंजर
है मेरे हाथों में खूं से सनी रोटियाँ
डरी-डरी हैं.............
ज़र , ज़मीं , मज़हब, सिहासत , मस्लहत
इन मजहबों के झगड़े में
खुदा भी हुआ है लहू-लुहाँ
बता मैं कैसे मनाऊँ
ज़श्ने-आज़ादी ऐ 'हक़ीर '
रोता है दिल देख ...
उन लुटे घरों की तन्हाईयाँ
डरी- डरी हैं ............
लुटी-लुटी हैं ............!!!
दुहाई है! ऐ जिस्म से खेलने वाले इंसानों...
अभी तो ताज़ा थे ज़ख्म
पिछले वर्ष के
जब इन्हीं सडकों पर निर्वस्त्र
घसीटी गई थी
घर की लाज
और आज
ठीक एक वर्ष बाद
एक और गहरा जख्म...?
एक के बाद एक
छ: मिनट में छ: धमाके
ओह! इतनी दरिंदगी...?
इतनी निर्दयता...?
रक्तरंजित सड़कों पर
बिखरी पडी़ हैं लाशें
क्षत-विक्षत अंगों का बाजार लगा है
क्रोध,आक्रोश, धुआँ,बारूद, आगज़नी
चारो ओर कैसा ये सामान सजा है...?
आह..! मन आहत है भीतर तक
क्यों मर गई हैं हमारी संवेदनाएं...?
क्यों मर गई है हमारी मानवता...?
मुझे माफ करना
ऐ दर्द में कराहते इंसानों
मुझे माफ करना
अय बारूद में जलकर तड़पते इंसानो
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने मानव रुप में जन्म लिया
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने इस धरती पर जन्म लिया...
दुहाई है!
ऐ मानव जिस्म़ से खेलने वाले इंसानो...!
दुहाई है
ऐ रब की बनाई दुनियाँ में
आग लगाने वाले इंसानो...!
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम सिसकियों की
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम आहों की...
जो आज तुम्हारी वजह से
यतीम कहलाये जा रहे हैं...
दर्द के टुकड़े
फेंके हुए लफ़्ज
धूप की चुन्नी ओढे़
अपने हिस्से का
जाम पीते रहे
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए.
दर्द की दवा........
तमाम रात मैं
अधमुंदी आंखों से
तारों की लौ में
टूटे शब्दों पर टंगी
अपनी नज़म
ढूंढती रही .....
मुस्कानों का खून कर
ज़िन्दगी भी जैसे
चलते - चलते
ख़ुद अपने ही कन्धों पर
सर रख
रो लेना चाहती है ....
मैंने
रात के आगोश में डूबते
सूरज से पुछा
चाँद तारों से पुछा
अंगडाई लेती
बहारों से पुछा
सभी ने
अंधेरे में रिस्ते
मेरे ज़ख्मों को
और कुरेदना चाहा ....
मैंने अधमुंदी पलकें
खोल दीं
गर्द का गुब्बार
झाड़ दिया
और अपनी
बिखरी नज्मों को
समेटकर
सीने से लगा लिया ....
यही तो है
मेरे दर्द की दवा
मैंने उन्हें चूमा
और अपने जिस्म का
सारा सुलगता लावा
उसमें भर दिया ....!!
दर्द.....
१)
ढोलक की ताल पर
वह मटकी
पाँवों में घुंघरु
छ्नछ्नाये
उभार
थरथराये
ज़ुबां
होंठों पे फिराई
चुम्बन
उछले
दर्द हाट में
बिकने लगा .....!!
(२)
पूरी दुनियां में
जैसे उस वक्त रात थी
वह अपनी दोनों
खाली कलाइयों को
एकटक देखती है
और फ़िर सामने पड़ी
चूड़ियों को ....
तभी
वक्त आहिस्ता से
दरवाज़ा खोल बाहर आया
कहने लगा ....
नचनिया सिर्फ़ भरे हुए
बटुवे को देखतीं हैं
कलाइयों को नहीं...
दर्द ने करवट बदली
और आंखों के रस्ते
चुपचाप ....
बाहर चला गया ....!!
(३)
लालटेन की
धीमी रोशनी में
उसने वक्त से कहा -
मैं जीवन भर तेरी
सेवा करुँगी
मुझे यहाँ से ले चल
वक्त हंस पड़ा
कहने लगा -
मैं तो पहले से ही
लूला हूँ ....
आधा घर का
आधा हाट का ....!!
तुम भी पूछना चाँद से
जब तुम
लौट जाओगे
मैं पलटूँगी
मौसम के पन्ने
यादों की चिट्ठी से
भर लूँगी
मुठ्ठी में बादल...
कुछ भीगे अक्षर
तपती देह पर रखकर
मैं खोलूँगी
रंगो की चादर...
पूछूँगी उनसे
हवाओं के दोष पर
बहते बादलों का पता
सूरज वाले मंत्र
और स्पर्श के
उन एहसासों को
जो जिंदा होगें
तुम्हारे सीने पर
'ओम' बनकर...
तुम भी पूछना
चाँद से
ताबूतों में बंद
हवाओं ने
कफ़न ओढा़ या नहीं...
तलाश.....
अक्सर सोचती हूँ
खुद को बहलाती हूँ
कि शायद....
छुटे हुए कुछ पल
दोबारा जन्म ले लें ....
दुःख, अपमान,क्षोभ और हार
एहसासों भरे निष्कासन का द्वंद
नाउम्मीदी के बाद भी
आहिस्ता-आहिस्ता बनाते हैं
संभावनाओं के मंजर .....
पिघलते दिल के दरिया में
इक अक्स उभरता है
किसी अदृश्य और अनंत स्रोत से बंधा
इक जुगनुआयी आस का
टिमटिमाता दिया ......
बेचैन उलझनों की गिरफ्त
प्रतिपल भीतर तक धंसी
उम्मीदों को
बचाने की नाकाम कोशिश में
टकरा-टकरा जातीं हैं
एक बिन्दु से दुसरे बिन्दु तक ......
तभी.....
वादियों से आती है इक अरदास
सहेज जाती है
मेरे पैरों के निशानात
बाँहों में लेकर रखती है
ज़ख्मों पर फाहे
सहलाती है खुरंड
आहात मन की कुरेदन
तलाशने लगती है
श्मशानी रख में
दबी मुस्कान.......!!
तखरीव का बादल
कोलतार सी पसरी रात
उम्मीदों के लहू में लिथडी़
बुदबुदा के कहती है
कोई दो घूंट पीला दे
दर्द का जा़म
दबोच रहा है
जैसे कोई गला
खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में
पथराई आँखों में है यथावत
इक मर्माहत प्यास
सूखे गलों में
अटकी पडी़ हैं
अधजली आवाजें
विश्वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में
लील गया है सन्नाटा
स्वभाविक स्वाद
शब्द अटके पडे़ हैं
अधरों में
अवसाद और प्रताड़ना की
कातिल अभिव्यक्ति
है सडा़ध सिसकते
शयनकक्षों में
खौ़फ और दहशत
है अपने साये की
जु़म्बिश का
फूलों की ख्वाहिशें
डूब गई हैं
गिरते बुर्जों में
तखरीव का बादल
बरस रहा है
दर्द की बूँद लिए.
१.तखरीव- विनाश
जो देते हैं दर्द उन ग़मों से क्या सिला रखना.....
जो देते हैं दर्द उन ग़मों से क्या सिला रखना
बहा दो अश्कों से न उन्हें दिल में दबा रखना
वो भला क्या समझेंगे मोहब्बत की बातें
जिनकी है अदा हर दिल को ख़फा रखना
बेच दी हो जिसने गैरत भी अपनी
क्या उनके लिए दिल में गिला रखना
आ चल चलें कहीं दिल को बहलाने
जरुरी है हर ज़ख्म को खुला रखना
मिल जायेंगे इस जहाँ में सैंकडों हमसफ़र
प्यार के फूल 'हक़ीर' दिल में खिला रखना
जो जंजीरें खुलीं
रात आसमाँ के घर नज़्म मेहमाँ बनी
चाँदनी रातभर साथ जाम पीती रही
बादलों ने जिस्म़ से जँज़ीरें जो खोलीं
नज़्म सिमटकर हुई छुईमुई-छुईमुई
ख्वाबों ने नज़्मों का ज़खीरा बुना
हरफ रातभर झोली में सजते रहे
नज्म़ टाँकती रही शब्द आसमाँ में
आसमाँ जिस्म़ पे ग़ज़ल लिखता रहा
वक्त पलकों की कश्ती पे होके सवार
इश्क के रास्तों से गुज़रता रहा
तारों ने झुक के जो छुआ लबों को
नज़्म शरमा के हुई छुईमुई-छुईमुई
जब मैं पैदा हुई .....
धुंध के पल्ले में लिपटी
वो इक जालिम रात थी
जब मैं पैदा हुई
वो इक काली रात थी
चीखों से
तड़प उठी थी निर्जनता
हवा सनसनाती
अर्गला रही थी
अचानक मिट्टी की
कोख जली और
इक नार पैदा हुई ....
रंगों में
इक आग सी फ़ैल गई
बुलबुल कीरने[1] पाने लगी
कब्र में सोये कंकाल
फड़फड़ा उठे ....
और मेरी माँ की आंखों में
एक निराश सी मुस्कुराहट
कांप गई थी ......
जब मैंने आँखें खोलीं
सपनों की पिटारी
जंजीरों में सजी थी
सामने ज़िन्दगी
मुँह-फाड़े
अपाहिज सी
खड़ी थी ......
इक हौल
छाती में उठा
चाँद ने भी
हौका भरा
और मैं ....
मिट्टी सी
खामोश हो गई ...
वो इक जालिम रात थी
जब मैं पैदा हुई
वो इक काली रात थी ....!!
शब्दार्थ:
↑ विलाप
जब दर्द ने रो लेना चाहा ........
ऐ ज़िन्दगी !
पता नहीं तू भी
क्या क्या खेल खेलती है ....
आज बरसों बाद
जब दर्द ने
ख़ुद मेरे ही कंधों पर
सर रख रो लेना चाहा है
तब
मेरी जीस्त के
तल्खियात भरे सफहों में
न प्रेम से भीगे वो शब्द हैं
न उन्स* भरे वो हाथ
अब एसे में
तुम ही कहो
मै कैसे उसे
सांत्वना दूँ ........!?!
उन्स*= स्नेह
जन्मदिन मुबारक हो अमृता .....
रात ....
बहुत गहरी बीत चुकी है
मैं हाथों में कलम लिए
मग्मूम सी बैठी हूँ ....
जाने क्यूँ ....
हर साल ...
यह तारीख़
यूँ ही ...
सालती है मुझे.....
पर तू तो ...
खुदा की इक इबारत थी
जिसे पढ़ना ...
अपने आपको
एक सुकून देना है ...
अँधेरे मन में ...
बहुत कुछ तिड़कता है
मन की दीवारें
नाखून कुरेदती हैं तो...
बहुत सा गर्म लावा
रिसने लगता है ...
सामने देखती हूँ
तेरे दर्द की ...
बहुत सी कब्रें...
खुली पड़ी हैं...
मैं हाथ में शमा लिए
हर कब्र की ...
परिक्रमा करने लगती हूँ ....
अचानक
सारा के खतों पर
निगाह पड़ती है....
वही सारा ....
जो कैद की कड़ियाँ खोलते-खोलते
कई बार मरी थी .....
जिसकी झाँझरें कई बार
तेरी गोद में टूटी थीं ......
और हर बार तू
उन्हें जोड़ने की...
नाकाम कोशिश करती.....
पर एक दिन
टूट कर...
बिखर गयी वो ....
मैं एक ख़त उठा लेती हूँ
और पढने लगती हूँ .......
"मेरे बदन पे कभी परिंदे नहीं चहचहाये
मेरी सांसों का सूरज डूब रहा है
मैं आँखों में चिन दी गई हूँ ...."
आह.....!!
कैसे जंजीरों ने चिरागों तले
मुजरा किया होगा भला ....??
एक ठहरी हुई
गर्द आलूदा साँस से तो
अच्छा था .....
वो टूट गयी .......
पर उसके टूटने से
किस्से यहीं
खत्म नहीं हो जाते अमृता ...
जाने और कितनी सारायें हैं
जिनके खिलौने टूट कर
उनके ही पैरों में चुभते रहे हैं ...
मन भारी सा हो गया है
मैं उठ कर खिड़की पर जा खड़ी हुई हूँ
कुछ फांसले पर कोई खड़ा है ....
शायद साहिर है .. .....
नहीं ... नहीं ...... .
यह तो इमरोज़ है .....
हाँ इमरोज़ ही तो है .....
कितने रंग लिए बैठा है . ...
स्याह रात को ...
मोहब्बत के रंग में रंगता
आज तेरे जन्मदिन पर
एक कतरन सुख की
तेरी झोली डाल रहा है .....
कुछ कतरने और भी हैं
जिन्हें सी कर तू
अपनी नज्मों में पिरो लेती है
अपने तमाम दर्द .... ...
जब मरघट की राख़
प्रेम की गवाही मांगती है
तो तू...
रख देती है
अपने तमाम दर्द
उसके कंधे पर ...
हमेशा-हमेशा के लिए ....
कई जन्मों के लिए .....
तभी तो इमरोज़ कहते हैं ....
तू मरी ही कहाँ है ....
तू तो जिंदा है .....
उसके सीने में....
उसकी यादों में .....
उसकी साँसों में .....
और अब तो ....
उसकी नज्मों में भी...
तू आने लगी है ....
उसने कहा है ....
अगले जन्म में
तू फ़िर आएगी ....
मोहब्बत का फूल लिए ....
जरुर आना अमृता
इमरोज़ जैसा दीवाना
कोई हुआ है भला ......!!
"जन्मदिन मुबारक हो अमृता"
जख़्मों के दस्तावेज़
दस बरसों के फासले में
जिन्दगी बस अंगुलियाँ काटती रही
समूची दानवता
मेरे आंगन की मिट्टी में
गीत लिखती रही
और मैं
रेत में सरकते रिस्तों को
घूँट घूँट पीती रही
हम दोंनो की बीच की हवा का
यूँ अचानक खा़मोश हो जाना
और फिर दरारों में बदल जाना
मेरे लिए
कोई अनहोनी बात न थी
न मैं टूटी थी
बस एक और अध्याय
जुड गया था नज्म़ में
धुँए का एक गुब्बार सा उठा
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड गया
पन्नों पर
कई बार हमारी बेबुनियादी बहस
मेरी सोच में पिसती रहती
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख़्मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
मेरा सब्र कश्तियों में डूबने लगा था
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्यों और मान्यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती रहती
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
लफ्ज़ तालों में दम तोड देते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्ते से चुपचाप
बह उठता,पर-
मौत पास आकर रूठ जाती
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
और फिर इक दिन
तेज साँसों ने कसकर मेरा हाथ पकडा
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लाँघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बँद मुठ्ठी खोल दी थी
बरसों के इतिहास में उस दिन तुम
पहली बार
मेरे लिए सुर्ख गुलाब लेकर आए थे
झुठ,फरेब और मक्कारी से सना
वह गुलाब, जिसमें तुम
अपने चेहरे का सारा खौ़फ
छिपा देना चाहते थे
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी
मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्म़ से रस्सियाँ खोलने लगी!
गीत चिता के
मैंने तसब्बुर में तराशकर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी
न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज़्म
आँखों से शबनम बहा बैठी
मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी
झाड़ती रही जिस्म से
ताउम्र दर्द के जो पत्ते
उन्हीं पत्तों से मैं
घर अपना सजा बैठी
मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !
क्षणिकायें
1
ज़ख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे ज़ख्मों की
मौत न हुई...
2
दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा...
3
टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
ज़ख्मों को
जाने और कितना
रुलाएंगे...
4
शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।
5
सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...
6
वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्ज़ों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
7
गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...
8
दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
ज़ख्म...
9
तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...
10
तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...
11
किस उम्मीद में...
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रोशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...
12
सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...
बिजलियों के टुकडे़
बरस कर
कुछ इस तरह मुस्कुराये
जैसे हंसी की खुदकुशी पर
मनाया हो जश्न
चाँद की लावारिश सी रौशनी
झाँकती रही खिड़कियों से
सारी रात...
रात के पसरे अंधेरों में
पगलाता रहा मन
लाशें जलती रहीं
अविरूद्ध साँसों में
मन की तहों में
कहीं छिपा दर्द
खिलखिला के हंसता रहा
सारी रात...
थकी निराश आँखों में
घिघियाती रही मौत
वक्त की कब्र में सोये
कई मुर्दा सवालात
आग में नहाते रहे
सारी रात...
जिंदगी और मौत का फैसला
टिक जाता है
सुई की नोंक पर
इक घिनौनी साजि़श
रचते हैं अंधेरे
एकाएक समुन्दर की
इक भटकती लहर
रो उठती है दहाडे़ मारकर
सातवीं मंजिल से
कूद जाती हैं विखंडित
मासूम इच्छाएं
मौत झूलती रही पंखे से
सारी रात...
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...
कश्मकश
इक अजीब सी
कश्मकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ
लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ ...
बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....
चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात्
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....
एक कोशिश
हंसी की इक
फिजूल सी कोशिश में
कई बार मैं
उसके चेहरे को टटोलती
जालों को उतारने की
नाकाम कोशिश में
बादबन[1]खोलती
पर हवायें
और मुखालिफ़[2] हो जातीं
इर्द-गिर्द के घेरे
और कस जाते...
आँखें
एक लम्हे के लिए
आस की लौ में
चमक उठतीं
और दूसरे ही पल
तेज धूप की आंच लिए
बेमौसम की बरसात में
बोझल हो जातीं...
इक नक़्श उभरता
चेहरा टूटता
जख़्म हंसते
आसमां फिर एक
झूठी कहानी गढने लगता...
मैं...
पढने की कोशिश करती
मुझे यकीन था
वो लड़खडा़येगा
सख़्त चट्टानों से टकराकर
सच उसके चेहरे पर
छलक आयेगा...
मैं पूछती
तुम्हें याद है....
इक बार जब तुम गिर पडे़ थे...
ऊपरी सीढी़ से....?
उसने कहा...
नहीं..
मुझे कुछ याद नहीं..
मैं कभी नहीं गिरा..
मैं गिरना नहीं जानता
मैं निरंतर चलना जानता हूँ
आखिरी सीढी़ तक...
मैंने फिर कहा...
जानते हो यह तुम्हारे
चेहरे पर का जख़्म.....?
नहीं.......
मै किसी अतीत से नहीं बँधा
गिरना और चोट लगना
एक स्वभाविक क्रिया है
न वह अतीत है
न वर्तमान...
ज़िंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता...
मैंने
फिर एक कोशिश की...
कहा...
कुछ बोझ मुझे दे दो
हम साथ-साथ चलेंगें तो
हवायें सिसकेंगी नहीं...!
हुँह...!
तुम्हारी यही तो त्रासदी है
ज़िंदगी भर
गिरने का रोना...
खोने का रोना...
पाने का रोना...
दर्द का रोना...
रोना और सिर्फ रोना...
मैंने देखा
उसके चेहरे के निशान
कुछ और गहरे हो गए थे
अब कमरे में घुटन साँसे लेने लगी थी
मुझे अजीब सी कोफ्त होने लगी
खिड़की अगर बंद हो तो
अंधेरे और सन्नाटे
और सिमट आते हैं
मैंने उठकर
बंद खिड़की खोल दी
सामने देखा...
धूप की हल्की सी किरण में
मकडी़ इक नया जाल
बुन रही थी....!!
शब्दार्थ:
↑ हवाओं के बन्धन
↑ विरोधी
कफ़न में सिला ख़त ......
तेरे आँगन की मिट्टी से
उड़कर
जो हवा आई है
साथ अपने
कई सवालात लाई है
अब न
अल्फाज़ हैं मेरे पास
न आवाज़ है
खामोशी
कफ़न में सिला ख़त
लाई है ...............
तेरे रहम
नोचते हैं जिस्म मेरा
तेरी दुआ
आसमाँ चीरती है
देह से बिछड़ गई है
अब रूह कहीं
तन्हाई अंधेरों का अर्थ
चुरा लाई है ..............
दरख्तों ने की है
मक्कारी किसी फूल से
कैद में जिस्म की
परछाई है
झांझर भी सिसकती है
पैरों में यहाँ
उम्मीद जले कपड़ों में
मुस्कुराई है ............
रात ने तलाक
दे दिया है सांसों को
बदन में इक ज़ंजीर सी
उतर आई है
वह देख सामने
मरी पड़ी है कोई औरत
शायद वह भी किसी हकीर की
परछाई है ................!!
ख़त
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे कागज़ की सतरों को
शापमुक्त करती रहीं...
शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अर्थियों में सजती रहती...
इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...
यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं
जो मुहब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से
मैं रुई सी हल्की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्पर्श से
कली से फूल बन गई थी...
इमरोज़!
तुमने कहा है-
कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रोशनी भी
तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि ज़िंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि ज़िंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
ज़िंदगी सुख भी थी …
उदास सी इक शाम
उदास सी इक शाम
खिड़की पे उतर आई है
मौत इक कदम चल कर
कुछ और करीब आई है
चलो अच्छा है
अब न सहना होगा
लंबी रातों का दर्द
न अब देह बेवहज
दर्द के बीज बोयेगी
लो मैंने खोल दी है
आसमां की चादर
रंगीन धागों में इक किरण
कफ़न सिल लाई है
उम्मीदों के पत्ते
गम की बावली में डुबोकर
जिन्दगी
वेश्या सी मुस्कुराई है।
इस दर्द को कैसे अलग करूँ.....
नहीं ......
इस बार मैं अपने चेहरे का दर्द
नहीं पिरोऊंगी शब्दों में
मैं आईने के पास आ खड़ी होती हूँ
और फिर जोर से हंस पड़ती हूँ
तुझे तो लोगों से सिर्फ सहानुभूति चाहिए
चेहरा पूछता है .....
क्या यही सच्चाई है ...?
तभी आईने में बचपन का एक
डरा , सहमा चेहरा उभर आता है
वह मासूम सी भयभीत खड़ी है
शायद तब वह बलात्कार जैसे शब्द से
परिचित नहीं थी .......
तभी वह शख्स पास आता है ....
देखो .... तुम किसी से कुछ नहीं कहोगी
नहीं कहोगी न....?
हाँ ...!
मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी
मुझे किसी से सहानुभूति नहीं चाहिए
मष्तिष्क में घटनाएँ तेजी से बदलने लगतीं हैं ....
आतिशबाजी ,शोर,धुआं ,चीख जैसे
एक साथ हजारों मिसाइलें सी चलने लगीं हों ....
आँखें खौफ से फ़ैल जाती हैं
एक कंपकंपी पूरे वजूद में सरसरा जाती है
अन्दर का सच नंगा होकर बाहर आना चाहता है
पर यह सब तो संस्कारों के खिलाफ हो जायेगा
ओह .....! ये संस्कार .....! !
सुनो.....
कमजोर और ज़ज्बाती मत बनो
अपने हक के लिए लड़ना सीखो
पर वह खुद जुल्म सहते - सहते
मौत से न लड़ पाई....
वह ब्रेन कैंसर मर गई ...
तभी वह जोर से चिल्लाई .....
हाँ ...मैं डायन हूँ ....
मैं सब को मार डालूंगी ....
खून पी जाउंगी सब का...
लोग उसे डायन कह कर पीट रहे थे
पर वह डायन नहीं थी
वह सदमें से पागल हो गई थी
उसका पति ...
रोज शराब पीकर उसी के सामने
एक नई औरत के साथ सोता था
विरोध किया तो डायन हो गई
मष्तिष्क में फिर अंधाधुंध
गोलियाँ सी चलने लगीं थीं
आँखों में दर्द नाच उठा
पुतलियाँ फ्रिज सी हो गयीं ....
धुआं-धुआं से दृश्य गुम होने लगे
सामने कुछ शब्द बिखरे पड़े थे
हजारों जालों में लिपटे
मैं साफ करने लगती हूँ ....
दीदी है ....
आग में जलती हुई ....
मैं चीखती हूँ, चिल्लाती हूँ , पूछती हूँ ...
' दीदी ऐसा क्यों किया...? '
पर वह मौन है , कुछ नहीं कहती
बिलकुल मौन ,पथराई आँखों में
मेरे सारे सवालों के जवाब बंद हैं
" शब्दों का हूनर " ,
" दर्द का ब्रांड "," संस्कार "
मुझे वो सारी टिप्पणियाँ
स्मरण हो आती हैं ......
सोचती हूँ ....
इस दर्द को ख़ुद से कैसे अलग करूँ
कैसे अलग करूँ ....!!
आजुर्दगी .....
सामने खुला आसमां औ'
बे रौनक सी ये चाँदनी
जैसे कह रही हो कोई
दर्द भरी कहानी
मौन निशब्द ये तारे
हैं कवियों की सुंदर कल्पना
पर छुपी इनके रूख पर
आजुर्दगी* किसी ने न जानी
शब क्यूँ है रोती
अंधेरे की ओट में
शबनम की ये बूंदें
कहती किसके गम की कहानी ?
कौन जाने ये बुलबुल
गा रही गीत खुशी के ?
या दर्द- ए -फ़िराक* में
कह रही कथा जुबानी ?
जाने आहटें ये कैसी
रातों में हैं सबा की हैं
या किसी तड़पती रूह की
कथा है कोई पुरानी
राहत - ए-दौर को हुई मुद्दतें
सुर्ख रंग पडा अब ज़र्द है
हर एक शख्स में मुझको
नजर आती अपनी ही कहानी ....!!
१) आजुर्दगी-रंज
२)दर्द- ए -फ़िराक - वियोग का दुःख
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा....
अब न जाने कितना गम़ उन्हें पीना होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्तों किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा
अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग-गुलाल होगा
खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा
गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा
रातों को हुई होगी जो सन्नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्ता उन्हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्हें निगाहें
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा
अतीत का कोहरा ......
ख़राशीदा[1] शाम
कंदील रोशनी में
एहसास की धरती पर
उगाती है पौधे
कसैले बीजों के.....
वक़्त की इक आह
नहीं बन पायी कभी आकाश
ज़ब्त करती रही भावनाएं,
उत्तेजनाएं,अपना प्यार
और सौन्दर्य
इक तल्ख़[2]मुस्कान लिए.....
सपनो के चाँद पर
उड़ते रहे वहशी बादल
इक खुशनुमा रंगीन जी़स्त[3]
बिनती है बीज दर्द के
मन के पानी में
तैर जाती हैं कई ...
खुरदरी, पथरीली,नुकीली,
बदहवास,हताश
परछाइयाँ.....
आँखें अतीत का कोहरा लिए
छाँटती हैं अंधेरे
स्मृतियों की आकृति में
गढ़ उठते हैं
कई लंबे संवाद
कटु उक्तियाँ.....
कठोर वर्जनाएं
आँखों की बौछार में
मांगती हैं जवाब
प्रश्न लगाते हैं ठहाके
कानून उड़ने लगता है
पन्नों से.....
आदिम युग की रिवायतें[4]
स्त्री यंत्रणाएं
समाज की नीतियाँ
विद्रूपताएँ
वर्तमान युग में सन्निहित
मेरे भीतर की स्त्री को
झकझोर देती हैं...
जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....
शब्दार्थ:
↑ खरोंच लगी
↑ कटु
↑ जिंदगी
↑ परम्पराएं
सिलसिला ये दोस्ती का
सिलसिला ये दोस्ती का हादसा जैसा लगे
फिर तेरा हर लफ़्ज़ मुझको क्यों दुआ जैसा लगे।
बस्तियाँ जिसने जलाई मज़हबों के नाम पर
मज़हबों से शख़्स वो इकदम जुदा जैसा लगे।
इक परिंदा भूल से क्या आ गया था एक दिन
अब परिंदों को मेरा घर घोंसला जैसा लगे
घंटियों की भाँति जब बजने लगें ख़ामोशियाँ
घंटियों का शोर क्यों न ज़लज़ला जैसा लगे।
बंद कमरे की उमस में छिपकली को देखकर
ज़िंदगी का ये सफ़र इक हौसला जैसा लगे।
आत्मा परमात्मा की व्यंजना है
आत्मा परमात्मा की व्यंजना है
क्या पता ये सत्य है या कल्पना है
देश को क्या देखते हो पोस्टर में
आदमी देखो मुकम्मल आइना है
क्या गिरेगा पेड़ वो इन आन्धियो से
जिसकी जड़ में गाँव भार की प्रार्थना है
उसके सपनों को शरण मत दीजिएगा
इनको आखिर बाढ़ में ही डूबना है
इन अन्धेरो को अभी रखना नज़र में
क्योंकि इनमें सूर्य की सम्भावना है
क्या खुशी देखिए
क्या खुशी देखिए, क्या ग़मी देखिए
ख़त्म होता हुआ आदमी देखिए
ज़िन्दगी मिल न पाई हमें भीड़ में
खो गई है किधर ज़िन्दगी देखिए
ओढ़कर वो अन्धेरा जिए उम्र भार
पास जिनके रही रोशनी देखिए
ख़्त्म आपके रिश्ते सभी हो गए
हर बशर है यहाँ अजनबी देखिए
प्यास होती है कैसी पता तो चले
मेरी आँखो में सूखी नदी देखिए
तुम दयारों से निकलो
तुम दयारों से निकलो, बाहर तो आओ घर से
कुछ हाल-चाल जानो, परिचय तो हो शहर से
वैसे तो आदमी है, समझो तो है अज़ूबा
वो जो खड़ा हुआ है टूटी कमर से
आतंक को पढ़ाया अपनी तरह से सबने
हर देश में खुले हैं इस तौर के मदरसे
ये खेत तो हमारा पहले ही झील में था
इन बादलो से पूछो, तुम क्यों यहाँ पे बरसे
किससे कहें हवा के हाथों में क्यों है खंज़र
बस ज़ख़्म ही मिले हैं जब भी गए ज़िधर से
अब ज़ुबाँ मत खोल
अब ज़ुबाँ मत खोल तेरी बानगी ले जाएगा
एक लम्हा फिर से तेरी हर खुशी ले जाएगा
वक़्त के इस हादसे को रोक ले वरना यही
हसरतों का आसमाँ, दिल की हँसी ले जाएगा
तू अन्धेरे को अगर बेजान ही कहता रहा
देख लेना एक दिन ये रोशनी ले जाएगा
जिस पे तुझ को है भरोसा हो न हो यूँ एक दिन
जेब में रख के वो तेरी हर कमी ले जाएगा
हो नहीं पाएगा मुमकिन लौटना ख़ुद में कभी
इक यहीं अहसास मेरी ज़िन्दगी ले जाएगा
काटने से पर
काटने से पर परिन्दों के समस्या हल न हो
देख तो इनके परों में फिर नया जंगल न हो
मैं पहाड़ो तक गया था दोस्तो ये देखने
घूमता प्यासा वहाँ मेरी तरह बादल न हो
तू जिसे आँसू समझकर हँस रहा है व्यर्थ में
देख तो उसके ज़िगर में जज़्ब गंगाजल न को
उसकी मुठ्ठी बन्द है अहसास पत्थर का न कर
क्या खबर उसमें कहीं इक छटपटाता पल न हो
हादसा जब हो चुका तो लाज़मी थीं चुप्पियाँ
क्योंकि शासन चाहता था शहर में हलचल न हो
इन परिन्दों का नहीं है
इन परिन्दों का नहीं है ज़ोर कुछ तूफानो पर
लौट कर आना है इनको फिर इसी जलयान पर
ज़िन्दगी चिथड़ो में लिपटी भूख को बहला रही
और हम फिर भी फिदा हैं अधमरे इमान पर
हरिया, ज़ुम्मन और ज़ोसफ़ सबके सब बेकार हैं
फख़्र हम कैसे करें फिर आज के विग्यान पर
ज़िन्दगी यूँ तो गणित है पर गणित-सा कुछ भी नहीं
चल रही है इसकी गाड़ी अब महज़ अनुमान पर
जिसको इज़्ज़त कह रहे हो दर हक़ीक़त कुछ नहीं
हर नज़र है आपके बस कीमती सामान पर
हमसे कुछ मत पूछिए
आज तो बाज़ार में इस बात के चर्चे बड़े हैं
कीमतें आकाश पर हैं, हम ज़मीं पर ही पड़े हैं
आप कैसे पढ़ सकेंगे उनके चेहरे की ज़बीं
जब ज़बीं पर पोस्टर ही पोस्टर चिपके पड़े हैं
एक ही शहतीर पर बीमार मज़िल है खड़ी
और सब खम्बे तो बस तीमारदारी में खड़े हैं
जिस जगह पर था हमें अपनी हिफाज़त का यक़ी
उस जगह पर आज लाखों डर अचानक आ खड़े हैं
इस कदर पाबन्दियों में मत अकेले जाइए
हमसे कुछ मत पूछिए क़ानून के पहरे कड़े हैं
कब किधर जाती है रात
रफ़्ता-रफ़्ता द्वार से यों ही गुज़र जाती है रात
मैंने देखा झील पर जाकर बिखर जाती है रात।
मैं मिलूँगा कल सुबह इस रात से जाकर ज़रूर
जानता हूँ बन-सँवर कर कब किधर जाती है रात।
हर कदम पर तीरगी है, हर तरफ़ एक शोर है
हर सुबह एकाध रहबर कत्ल कर जाती है रात।
जैसे बिल्ली चुपके-चुपके सीढ़ियाँ उतरे कहीं
आसमाँ से ज़िंदगी में यों उतर जाती है रात।
एक चिड़िया कुछ दिनों से पूछती है 'अश्वघोष'
सिर्फ़ इक आहट को सुनके क्यों सिहर जाती है रात।
झूठ की है कोठियाँ ही कोठियाँ
झूठ की है कोठियाँ ही कोठियाँ
एक कमरा तक नहीं सच का यहाँ
और कितने दिन रुलाएँगी बता
आदमी की ज़ात को ये रोटियाँ
कौन कितना आसमाँ देखेगा अब
फ़ैसला इसका करेंगी खिड़कियाँ
बन्दरों ने बाँट ली दौलत सभी
देखती रह गई सब बिल्लियाँ
कुम मिलाकर ये मिला इस दौर में
भय, थकन, कुंठा, निराशा, सिसकियाँ
हर ओर अन्धेरा है
हर ओर अन्धेरा है, अंजाम तबाही है
ये आग तो लगनी थी, जिसने भी लगाई है
अब हम भी अन्धेरे में उस आग को ढुंढेगे
जो आग चराग़ों ने पलकों पे उठाई है
वो यार हैं मुद्दत से कल राज़ खुलेगा ये
रहज़न का मुकादमा है, रहबर की गवाही है
हँसने के लिए पहले रोने का सबक सीखो
ये बात हमें कल ही अश्क़ो ने बताई है
उस शोख हसीना के पैकल में अदब देखा
चेहरा है गज़ल उसका, मुस्कान रुबाई है
हादसा-दर-हादसा
हादसा-दर-हादसा-दर-हादसा होता हुआ
क्या कभी देखा किसी ने आसमाँ रोता हुआ
ये ज़मीं प्यासी है फिर भी जानकर अनजान-सा
हुक़्मराँ-सा एक बादल रह गया सोता हुआ
मेरी आँखों में धुआँ है और कानों में है शोर
सोच की बैसाखियों पर जिस्म को ढोता हुआ
एक दरिया कल मिला था राजधानी में हमें
आदमी के ख़ून से अपना बदन धोता हुआ
चल रहा हूँ जानकर भी अजनबी हैं सब यहाँ
प्यार की हसरत में एक पहचान को बोता हुआ
रोज़मर्रा वही इक ख़बर देखिए
रोज़मर्रा वही इक ख़बर देखिए
अब तो पत्थर हुआ काँच-घर देखिए
सड़के चलने लगीं आदमी रुक गया
हो गया अपाहिज़ सफ़र देखिए
सारा आकाश अब इनके सीने में है
काटकर इनके परिन्दों के पर देखिए
मैं हकीकत न कह दूँ कहीं आपसे
मुझको खाता है हरदम ये डर देखिए
धूप आती है न इनमें, न ठंड़ी हवा
खिड़कियाँ हो गई बेअसर देखिए।
एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए
एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए
हम बने है दूसरों के घर बनाने के लिए
बन चुकी पूरी इमारत आपका कब्ज़ा हुआ
हम तरसते ही रहे बस आशियाने के लिए
जेब मे रखकर वो चेहरे को हमारे चल दिए
जानते है, जा रहे है फिर न आने के लिए
बिजलियाँ चमकें, गिरें, हमको नहीं परवाह अब
नींव तो रख जाएँगे हम आशियाने के लिए
उसने एक दीपक जलाया, ये भी तो कुछ कम नहीं
कुछ तो कोशिश की अन्धेरे को मिटाने के लिए
द्वार खोलो दौड़कर आ गया अख़बार
द्वार खोलो दौड़कर आ गया अख़बार
छटपटाती चेतना पर छा गया अख़बार
हर बशर खुशहाल है इस भुखमरी में भी
आँकड़ो की मारफ़त समझा गया अख़बार
कल मरीं कुछ औरतें स्टोव से जलकर
आज उनकी राख को जला गया अख़बार
हर तरफ ख़ामोशियों के रेंगते अजगर
एक सुर्ख़ी फेंककर दिखला गया अख़बार
कल पुलिस की लाठियों से मर गया बुधिया
लाश ग़ायब है अभी बतला गया अख़बार
एक गहरा दर्द
एक गहरा दर्द छलता जा रहा है
आदमी का दम निकलता जा रहा है
आ रही है क्रांतियाँ बुल्ड़ोज़रों से
देश का नक्शा बदलता जा रहा है
हाथ उनके ख़ून में भीगे हुए हैं
फ़र्ज़ वहशत में बदलता जा रहा है
ग्रीष्म में भी चल रही ठंडी हवाएँ
चेतना का जिस्म गलता जा रहा है
ऐ मेरे हमराज़, बढ़कर रोक ले
रोशनी को तम निगलता जा रहा है
रोज़ होती है यहाँ हलचल कोई
रोज़ होती है यहाँ हलचल कोई
टूटता है आईना हर पल कोई
राह भटके इन परिन्दों के लिए
ढूँढ़ना होगा नया जंगल कोई
नाच उठतीं क़ागज़ों की कश्तियाँ
आ गया होता इधर बादल कोई
देश तो ये अब जलेगा शर्तिया
क्या करेगी आपकी दमकल कोई
बेवजह मत घूमिए यूँ 'अश्वघोष'
फाँस लेगी आपको दलदल कोई
मैं फँस गया हूँ
मैं फँस गया हूँ अबके ऐसे बबाल में
फँसती है जैसे मछली, कछुए के जाल में।
उस आदमी से पूछो रोटी के फ़लसफ़े को
जो ढूँढता है रोटी पेड़ों की छाल में।
रूहों को क़त्ल करके क़ातिल फ़रार है
ज़िन्दा है गाँव तब से मुर्दों के हाल में।
जो गन्दगी से उपर जन-मन को ख़ुश करें
ऐसे कमल ही रोपिए संसद के ताल में।
गर मुफ़लिसी का मोर्चा तुमको है जीतना
कुछ ओर तेज़ी लाइए ख़ूँ के उबाल में।
जो भी सपना
जो भी सपना तेरे-मेरे दरमियाँ रह जाएगा
बस वही इस ज़िन्दगी की दास्ताँ रह जाएगा
कट गए है हाथ तो आवाज़ से पथराव कर
याद सबको यार मेरे ये समाँ रह जाएगा।
भूख है तो भूख का चर्चा भी होना चाहिए
वरना घुट कर सबके भीतर ये धुआँ रह जाएगा।
ये धुँधलके हैं समय के तू अभी परवाज़ कर
फट गया गर यूँ ही बादल, तू कहाँ रह जाएगा।
जो भी पूछे ये अदालत बोल देना बेझिझक
तू न रह पाया तो क्या तेरा बयाँ रह जाएगा।
बदली नहीं है अब तक तकदीर रोशनी की
बदली नहीं है अब तक तकदीर रोशनी की।
बन-बन के रह गई है तस्वीर रोशनी की।
ख़ूनी हवा से कह दो बद हरकतों को छोड़े
हालत हुई है अब तो गम्भीर रोशनी की।
उल्लेख तक को तरसे घनघोर अँधेरे भी
लिखी गई है जब-जब तहरीर रोशनी की।
गुमनाम ये अँधेरे आ जाएँ बाज़ वरना
भारी पड़ेगी उनको शमशीर रोशनी की।
तुम दीप तो जलाओ हर ओर अँधेरा है
कुछ तो नज़र में आए तासीर रोशनी की।
पाँच वर्षों का मुकम्मल दीजिए पहले हिसाब
पाँच वर्षों का मुकम्मल दीजिए पहले हिसाब।
फिर करेंगे हम दुबारा वोट का वादा जनाब।
आप तो संसद में बैठे ऐश ही कारते रहे
और ख़ाली पेट हमने भूख का देखा अज़ाब।
जब तलक हम एक थे ख़ुशहाल थे, आबाद थे
आप ने जब फूट डाली हो गए ख़ाना-ख़राब।
ये नया मौसम हमें कुछ रास आया था मगर
आपके ही मालियों ने नोच डाले सब गुलाब।
आपने सोचा कि फिर से डगमगा जाएँगे हम
अब न बहकाएगी हमको आपकी देसी शराब।
ज़िन्दगी मछली है
ज़िन्दगी मछली है जैसे मुफ़लिसी के जाल में।
कूद जाने को तड़पती है समय के जाल में।
जेब का इतिहास ही तो पेट का भूगोल है,
ये समझना-जानना है आपको हर हाल में।
जो मिली इमदाद उसको खा गए सरपंच जी,
देर तक चर्चा हुआ ये गाँव की चौपाल में।
न्याय की आशा न करना, चौधरी से गाँव के
वो तो बस एक भेड़िया है आदमी की खाल में।
भूख भी क्या चीज है. गुस्सा भी है, फ़रियाद भी
भूख ने ही चेतना को बल दिया हर काल में।
तू बता ये देश भइये किस तरह आज़ाद है
तू बता ये देश भइये किस तरह आज़ाद है।
जब कि इसका हर बशर मेरी तरह नाशाद है।
अब भी नंगा नाच घर-घर मुफ़लिसी का हो रहा,
आज भी रोटी यहाँ पर चन्द का अनुवाद है।
गर्दिशों में कर दिया था जिसने अपना सब हवन,
देख ले इन खण्डहरों में वो सदी आबाद है।
बोलने की छूट है तो बोलकर उसको दिखा,
काट लेगा वो जीभ तेरी वो बड़ा ज़ल्लाद है।
दिन-दहाड़े हो रहे अगवा हमारे हैसले,
मेरे सीने में यही तो दर्द है, असवाद है।
कुछ क़ाज़ियों के बीच में मुर्ग़ी हलाल है
कुछ क़ाज़ियों के बीच में मुर्ग़ी हलाल है।
बस ये हमारे देश की ज़िन्दा मिसाल है।
चीलें मिलेंगी पेट को बिल्कुल भरे हुए,
पर आदमी को देखिए वो तंगहाल है।
क्यों भेड़ियों का राज है संसद के सहन में,
ज़हनों में आज सबके यही एक सवाल है।
यूँ तो सज़ा के गाँव को वो घर में ख़ुश हुए,
लगता है जैसे गाँव तो अब भी बवाल है।
बदलेगा ये निज़ाम भी बदलेगा एक दिन,
वो दिन नहीं है दूर ये मेरा ख़याल है।
पेट की इस आग को
पेट की इस आग को इज़्हार तक लेकर चलो।
इस हक़ीक़त को ज़रा सरकार तक लेकर चलो।
मुफ़लिसी भी, भूख भी, बीमारियाँ भी इसमें हैं,
अब तो इस रूदाद को व्यवहार तक लेकर चलो।
डूबना तो है सफ़ीना, क्यों न ज़ल्दी हो ये काम
तुम सफ़ीने को ज़रा मँझधार तक लेकर चलो।
बँट गए क्यों दिल हमारे, तज़्किरा बेकार है
क्यूँ न इस अहसास को आधार तक लेकर चलो।
हाँ, इसी धरती पर छाएँगी अभी हरियालियाँ
हौसला बरसात की बौछार तक लेकर चलो।
न मंदिर में सनम होते / नौशाद लखनवी
न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता
न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-पा होता
घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-दिल हरा होता
बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता
तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लॉट गये
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ कहा होता