बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

रहीम के दोहे

|| 1 ||
एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।

|| 2 ||
कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग ।
यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।

|| 3 ||
खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।

|| 4 ||
छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात ।।

|| 5 ||
जे गरीब सो हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताइ जोग ।।

|| 6 ||
जे अंचल दीपक दुरयौ, हन्यौ सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु हवै जात ।।

|| 7 ||
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगे, बढ़े अँधेरो होय ।।

|| 8 ||
टूटे सुजन मनाइये, जो टुटे सौ बार ।
रहिमन फिरि-फिरि पोइए, टुटे मुक्ताहार ।।

|| 9 ||
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।

|| 10 ||
बड़े बड़ाई नहिं करैं, बड़े न बोलें बोल ।
रहिमन हिरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।

|| 11 ||
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटि समुद्र की, रावन बसयौ परोस ।।

|| 12 ||
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।

|| 13 ||
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट हवै जात ।
नारायन हूँ को भयौ, बावन अँगुर गात ।।

|| 14 ||
कह रहीम संपति सगे बनत बहुत बहु रीत ।
बिपत-कसौटी जो कसे, तेई साँचे मीत ।।

|| 15 ||
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि ।।

|| 16 ||
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।

|| 17 ||
तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।।

|| 18 ||
रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिए धाइ ।
ना जाने केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।

|| 19 ||
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ।।

|| 20 ||
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
साँचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।।

महाकवि सूरदास के पद

मैया मैं नहिं माखन खायौ |
ख्याल परैँ ये सखा रावैं मिलि, मेरैं मुख लपटायौ |
देखि तुही सींके पर भाजन ऊँचैँ धरि लटकायौ |
हौँ जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसे करि पायौ |
मुख दधि पौंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पोठि दुरायौ |
डारि साँटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहिँ कंठ लगायौ |
बाल-बिनोद- मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ |
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव विरंचि नहिं पायौ ||

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मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसोँ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ।
कहा करौं इहि रिस के मारै खेसन हौँ नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात।
गोरे नंद, जसोदा गोरी, तु कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुसुकात।
तू मोहाँ कौ मारन सीखी, दाउहि कबहु न खीझै।
मोहन-मुख रिस की ये बातैँ, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिँ गोधन की सौँ, हौ माता तू पूत।


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सखि री नंद-नंदन देखु।
घूरि-धूसर जटा जुटली, हरि किए हर-भैषु।
नील पाट पिरोइ मनि-मन, फनिग धोखे जाइ।
खुन खुना कर, हँसत हरि, हर नचत डमरु बजाइ।
जलज माल गुपाल पहिरे, कहा कहौँ बनाइ।
मुंड-माला मनौ हर-गर ऐसी सोभा पाइ।
स्वाति सुत-माला विराजत स्याम तन इंहि भाइ।
मनौ गंगा गौरि-डर हर लइ कंठ लगाइ।
केहरी-नख निरखि हिरदै, रहीँ नारि विचारि।
बाल-ससि मनु माल ते ले, उर धरयौ त्रिपुरारि।
देखि अंद अनंग झझक्यौ, नंद सुत हर जान।
सूर के हिरदै बसौ नित, स्याम सिव कौ घ्यान||


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जसोदा हरि पालनै झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं वैगहि आवै, तोको कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँद लेत है, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जान मौन हवै रहि-रहि, करि-करि सैन बतावै।
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुर्लभ, सो नंद भामिनी पावै।।


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किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद के आंगन, बिंब पकरिबै धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौ पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत दवै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।
कनक भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करि-करि प्रतिपद, प्रतिमनि वसुधा, कमल बैठकि साजति।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावत।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पिलावत।।

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सोभिक कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत, रेनु-तनु-मंडित मुख दधि लेप किए।
चारु कपोल लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुपगन, मादक मधुहिं पिए।
कठुला-कंठ वज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहि सुख, का सत कल्प जिए।।


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चरन कमल बंदौ हरि राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे कौ सब कुछ दरसाइ।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बंदौ तिहिं पांइ।।


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अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यौ गुंगे मीठे पल कौ रस अंकरगत ही भावै।
परम स्वाद सबरी सु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौ अगम-अगोचर सो जानै जो पावै।
रूप-रेख गुन-जाति जुगति-बिनु निरालंब कित धावै।
सब विधि अगम बिचारहिँ तातै सूर सगुन-पद गावै।।

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अब कैं राखि लेहु भगवान।
हौ अनाथ बैठ्यो द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान।
ताकैँ डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान।
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिँ, जय जय कृपानिधान।।

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प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढ़ौ।
और पतित तुम जसे तारे, तिनहौं मैं लिखि काढ़ौ।
जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ, टेरि कहत होँ यातौं।
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौ घटि कातौं।
कै प्रभु हारि मानि के बैठौ, कै करौ बिरद सही।
सूर पतित जौ झूठ कहत है, देखौ खोजि बही।।

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मीराबाई के पद

मन रे पासि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल- कोमल त्रिविध - ज्वाला- हरन।
जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र- पद्वी- हान।।
जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन।
जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।
जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।
जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।

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आलि री मेरे नैना बान पड़ी

कद की ठाड़ी पन्थ निहारूँ
अपने भवन खड़ी

आलि री मेरे नैना बान पड़ी

चित चढ़ी मेरे माधुरी मूरत
उर बिच आन अड़ी

आलि री मेरे नैना बान पड़ी

मीरा गिरधर हाथ बिकानी
लोग कहे बिगड़ी

आलि री मेरे नैना बान पड़ी

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तुलसीदास को मीराबाई के पत्र :-


स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।


मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-

जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।

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अमीर खुसरो की रचनाएं

कह-मुकरियाँ

खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
क्यों सखी साजन !
ना सखी कुत्ता !

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जब वह मोरे मंदिर आए,
सोते मुझको आन जगाए ;
पढ़त फिरत वो बिराह के आच्छर
आए सखी साजन? ना सखी मच्छर!

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ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद।
ऐ सखी साजन? ना सखी, चांद!

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आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा।
ऐ सखी साजन? ना सखी, पंखा!

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लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा।
ऐ सखी साजन? ना सखी, जाड़ा!

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वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल।
ऐ सखी साजन? ना सखी, ढोल!

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सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार।
ऐ सखी साजन? ना सखी, हार!

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पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार।
ऐ सखी साजन? ना सखी, बुखार!

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सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना।
ऐ सखी साजन? ना सखी, सपना!

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बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम।
ऐ सखी साजन? ना सखी, राम!

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*कविता

जब यार देखा नैन भर
जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर ।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर ।

जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर ।

मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर ।

खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।



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*गीत और कव्वालियाँ

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाएके
प्रेम भटी का मधवा पिलाके मतवारी करलीनी रे
गोरी गोरी बय्यां हरी हरी चूरीयां
बय्यां पकड़ धरलीनी रे मोसे नैना मिलाएके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रेजवा
अपनी सी करलीनी रे मो से नैना मिलाएके
खुसरो निजाम के बल बल जाईय्ये
मोहे सुहागन कीनी रे मो से नैना मिलाएके

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बहुत कठिन है डगर पनघट की ।
कैसे मैं भर लाउं मधवा से मटकी ?
पनिया भरन को मैं जो गइ थी ।
दोड़ झपट मोरा मटकी पटकी ।
खुसरो निजाम के बल बल जाईय्ये ।
लाज रखो मोरे घुंघट पट की ।

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तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी ।
सब सखियन में चुनर मेरी मैली,
देख हसें नर नारी, निजाम...
अबके बहार चुनर मोरी रंग दे,
पिया रखले लाज हमारी, निजाम....
सदका बाबा गंज शकर का,
रख ले लाज हमारी, निजाम...
कुतब, फरीद मिल आए बराती,
खुसरो राजदुलारी, निजाम...
कौउ सास कोउ ननद से झगड़े,
हमको आस तिहारी, निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम...

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अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि साबन आया
बेटी तेरा मामु तो बांका री - कि सावन आया


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सकल बन (सघन बन) फूल रही सरसों,
सकल बन (सघन बन) फूल रही....
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार,
और गोरी करत शृंगार,
मलनियां गढवा ले आइं करसों,
सकल बन फूल रही...
तरह तरह के फूल खिलाए,
ले गढवा हातन में आए ।
निजामुदीन के दरवाजे पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सकल बन फूल रही सरसों ।

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*पहेलियाँ

बाला था जब मन को भाया
बड़ा हुआ कुछ काम न आया
सुसरो कह दिया उस का नाव
बूझे नहीं तो छोड़े गाँव
उत्तर - दिया

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एक गुनी ने यह गुन कीना
हरियल पिंजरे मे देदीना
देखो जादूदर का कमाल
डाले हरा निकाले लाल
उत्तर - तोता

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घूम घुमेला लहँगा पहिने,
एक पाँव से रहे खड़ी
आठ हात हैं उस नारी के,
सूरत उसकी लगे परी ।
सब कोई उसकी चाह करे है,
मुसलमान हिन्दू छत्री ।
खुसरो ने यह कही पहेली,
दिल में अपने सोच जरी ।
उत्तर - छतरी

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राजा प्यासा क्यों ?
गदहा उदासा क्यों ?
उत्तर - लोटा न था ।

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कबीर के दोहे

||1||
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥

||2||
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

||3||
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

||4||
साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥

||5||
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

|6||
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

||7||
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

||8||
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

||9||
तिनका कबहुँ ना निंदयें, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

||10||
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाय ।
बिलहारी गुरु आपनो, गोरिनेद दियो बताय ॥

||11||
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥

||12||
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥

||13||
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

||14||
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥

||15||
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सॴचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

||16||
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हिर रुठे गुरु ठौर है, गुरु रुठ नहीं ठौर ॥

||17||
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हिर नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥

||18||
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥

||19||
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥

||20||
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

||21||
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥

||22||
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥

||23||
आय हैं सो जाएँगे, राजा रक फकीर ।
एक सिंहासन चिढ़ चले, एक बँधे जात जजीर ॥

||24||
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

||25||
माँगन मरण समान है, मित माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥

||26||
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

||27||
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥

||28||
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥

||29||
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रुप, बरसे अमृत धार ॥

||30||
पितवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पितवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥

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भूख

आँख खुल गयी मेरी
हो गया मैं फिर ज़िन्दा
पेट के अँघेरों से
ज़हन के धुँधलकों तक
एक साँप के जैसा
रेंगता ख़याल आया
आज तिसरा दिन है---आज तिसरा दिन है।

इक अजीब ख़ामोशी
मुंजमिद है कमरे में
एर फ़र्श और इक छत
और चारदीवारें
मुझसे बैतआल्लुक़ सब
सब मिरे तमाशाई
सामने की खिड़की से
तेज़ धूप की किरनें
आ रही हैं बिस्तर पर
चुभ रही हैं चेहरे में
इस क़दर नुकीली हैं
जैसे रिश्तेदारों के
तंज़ मेरी ग़ुरबत पर
आँख फुल गयी मेरी
आज खोखला हूँ में
सिर्फ़ ख़ोल बाक़ी है
आज मेरे बिस्र में
लेटा है मेरा ढाँचा
अपनी मुर्दा आँखों से
देखता है कमरे को
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है।

दोपहर की गर्मी में
बेइरादा क़दमों से
इस सड़क पे चलता हूँ
तंग-सी सड़क पर हैं
दोनों सस्त दूकानें
ख़ाली ख़ाली आँखों से
हर दुकान का तख़्ता
सिर्फ़ देख सकता हूँ
अब पढ़ा नहीं जाता
लोग आते जाते हैं
पास से गुज़रते हैं
फिर भी कितने घुँधले हैं
सब है जैसे बेचेहरा
शोर इन दूकानों का
राह चलती इक गाली
रेडियो की आवाज़ें
दूर की सदाएँ हैं
आ रही है मीलों से
जो भी सुन रहा हूँ मैं
जो भी देखता हूँ मैं
ख़्वाब जैसा लगता है
है भी और नहीं भी है
दोपहर की गर्मी में
बेइरादा कदमों से
इक सड़क पे चलता हूँ
सामने के नुक्कड़ पर
नल द्खायी देता है
सख़्त क्यों है ये पानी
क्यों गले में फँसता है
मेरे पेट में जैसे
घुँसा एक लगता है
आ रहा है चक्कर-सा
जिस्म पर पसीना है
अब सकत नहीं बाक़ी
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है।

हर तरफ़ अँधेरा है
घाट पर अकेला हूँ
सीढ़ियाँ हैं पत्थर की
सीढ़ियों पे लेटा हूँ
अब मैं उठ नहीं सकता
आसमाँ को तकता हूँ
आसमाँ की थाली में
चाँद एक रोटी है
झुक रही हैं अब पलकें
डूबता है ये मंज़र
है ज़मीन गर्दिश में

मेरे घर में चूल्हा था
रोज़ खाना पकता था
रोटियाँ सुनहरी हैं
गर्म गर्म ये खाना
खुल नहीं नहीं आँखें
क्या मैं मरनेवाला हूँ
माँ अजीब थी मेरी
रोज़ अपने हाथों से
मुझको वो खिलाती थी
कौन सर्द हाथों से
छू रहा है चेहरे को
इक निवाला हाथी का
इक निवाला घोड़े का
इक निवाला भालू का
मौत है कि बेहोशी
जो भी है ग़नीमत है
आज तीसरा दिन था,
आज तीसरा दिन था।

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