तेरी बातें ही सुनाने आये
दोस्त भी दिल ही दुखाने आये
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आये
ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे
हम तुझे हाल सुनाने आये
इश्क़ तन्हा है सर-ए-मंज़िल-ए-ग़म
कौन ये बोझ उठाने आये
अजनबी दोस्त हमें देख के हम
कुछ तुझे याद दिलाने आये
दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम
काश फिर कोई बुलाने आये
अब तो रोने से भी दिल दुखता है
शायद अब होश ठिकाने आये
क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी
लोग क्यूँ जश्न मनाने आये
सो रहो मौत के पहलू में "फ़राज़"
नींद किस वक़्त न जाने आये
मंगलवार, अप्रैल 14, 2009
तेरी बातें ही सुनाने आये / फ़राज़
तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बेरहम हैं दोस्तो / फ़राज़
तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बेरहम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
किस को हमारे हाल से निस्बत है क्या करें
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो
सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर है
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो
तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये / फ़राज़
तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गये
फिर यूँ हुआ के गैर को दिल से लगा लिया
अंदर वो नफरतें थीं के बाहर के हो गये
क्या लोग थे के जान से बढ़ कर अजीज थे
अब दिल से मेह नाम भी अक्सर के हो गये
ऐ याद-ए-यार तुझ से करें क्या शिकायतें
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गये
समझा रहे थे मुझ को सभी नसेहान-ए-शहर
फिर रफ्ता रफ्ता ख़ुद उसी काफिर के हो गये
अब के ना इंतेज़ार करें चारगर का हम
अब के गये तो कू-ए-सितमगर के हो गये
रोते हो एक जजीरा-ए-जाँ को "फ़राज़" तुम
देखो तो कितने शहर समंदर के हो गये
तुझ पर भी न हो गुमान मेरा / फ़राज़
तुझ पर भी न हो गुमान मेरा
इतना भी कहा न मान मेरा
मैं दुखते हुये दिलों का ईशा
और जिस्म लहुलुहान मेरा
कुछ रौशनी शहर को मिली तो
जलता है जले मकान मेरा
ये जात ये कायनात क्या है
तू जान मेरी जहान मेरा
जो कुछ भी हुआ यही बहुत है
तुझको भी रहा है ध्यान मेरा
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ / फ़राज़
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ
तेरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह
ये और बात के अब भी तुझे सुनाई न दूँ
ख़ुद अपने आपको परखा तो ये नदामत है
के अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूँ
मुझे भी ढूँढ कभी मह्व-ए-आईनादारी
मैं तेरा अक़्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूँ
जो भी दुख याद न था याद आया / फ़राज़
जो भी दुख याद न था याद आया
आज क्या जानिए क्या याद आया।
याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया।
हाथ उठाए था कि दिल बैठ गया
जाने क्या वक़्त-ए-दुआ याद आया।
जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल
इक इक नक़्श तेरा याद आया।
ये मोहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’
जिसको भूले वो सदा याद आया।
जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो / फ़राज़
जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो
ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है के तुम हो
ये ख़्वाब है ख़ुश्बू है के झोंका है के पल है
ये धुंध है बादल है के साया है के तुम हो
इस दीद की सआत में कई रन्ग हैं लरज़ाँ
मैं हूँ के कोई और है दुनिया है के तुम हो
देखो ये किसी और की आँखें हैं के मेरी
देखूँ ये किसी और का चेहरा है के तुम हो
ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ कहीं ठहरे तो ये जानूँ
हर साँस में मुझको ये लगता है के तुम हो
हर बज़्म में मौज़ू-ए-सुख़न दिल ज़दगाँ का
अब कौन है शीरीं है के लैला है के तुम हो
इक दर्द का फैला हुआ सहरा है के मैं हूँ
इक मौज में आया हुआ दरिया है के तुम हो
वो वक़्त न आये के दिल-ए-ज़ार भी सोचे
इस शहर में तन्हा कोई हम सा है के तुम हो
आबाद हम आशुफ़्ता सरों से नहीं मक़्तल
ये रस्म अभी शहर में ज़िन्दा है के तुम हो
ऐ जान-ए-"फ़राज़" इतनी भी तौफ़ीक़ किसे थी
हमको ग़म-ए-हस्ती भी गवारा है के तुम हो
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे / फ़राज़
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
हमसफ़र चाहिये हूज़ूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे
दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे
कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे
ज़ख़्म को फूल तो सर को सबा कहते हैं/ फ़राज़
ज़ख़्म को फूल तो सर सर को सबा कहते हैं
जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं
क्या क़यामत है के जिन के लिये रुक रुक के चले
अब वही लोग हमें आबलापा कहते हैं
कोई बतलाओ के इक उम्र का बिछड़ा महबूब
इत्तेफ़ाक़न कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं
ये भी अन्दाज़-ए-सुख़न है के जफ़ा को तेरी
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा कहते हैं
जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें
हम जिसे छू न सकें उस को ख़ुदा कहते हैं
क्या त'अज्जुब है के हम अह्ल-ए-तमन्ना को "फ़राज़"
वो जो महरूम-ए-तमन्ना हैं बुरा कहते हैं
ख़्वाब मरते नहीं / फ़राज़
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख़ों से भी फुँकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के आलम
मक़्तलों में पहुँच कर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़ हैं
ख़्वाब तो नूर हैं
ख़्वाब तो सुक़्रात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं
क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं / फ़राज़
क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं
दोस्ती तो उदास करती नहीं
हम हमेशा के सैर-चश्म सही
तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं
शब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरह
कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं
ये मोहब्बत है, सुन, ज़माने, सुन!
इतनी आसानियों से मरती नहीं
जिस तरह तुम गुजारते हो फ़राज़
जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं
कुछ शेर / फ़राज़
1.
अब किस का जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किस के गीत सुनाते हो उस तन-मन का जो दो-नीम हुआ
2.
उस ख़्वाब का जो रेज़ा रेज़ा उन आँखों की तक़दीर हुआ
उस नाम का जो टुकड़ा टुकड़ा गलियों में बे-तौक़ीर हुआ
3.
उस परचम का जिस की हुर्मत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिट्टी का जिस की हुर्मत मन्सूब उदू के नाम हुई
4.
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख़्म का जो सीने पे न था उस जान का जो वारी भी नहीं
5.
उस ख़ून का जो बदक़िस्मत था राहों में बहाया तन में रहा
उस फूल का जो बेक़ीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
6.
उस मश्रिक़ का जिस को तुम ने नेज़े की अनी मर्हम समझा
उस मग़रिब का जिस को तुम ने जितना भी लूटा कम समझा
7.
उन मासूमों का जिन के लहू से तुम ने फ़रोज़ाँ रातें कीं
या उन मज़लूमों का जिस से ख़ंज़र की ज़ुबाँ में बातें कीं
8.
उस मरियम का जिस की इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो क़ातिल है और शामिल है ग़मख़्वारों में
9.
इन नौहागरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
10.
उन भूखे नंगे ढाँचों का जो रक़्स सर-ए-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज़्ज़ाक़ों का जो भेस बदल कर वार करें
11.
या उन झूठे इक़रारों का जो आज तलक ऐफ़ा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुख का निशाना हुए
12.
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नन्ग-ए-वतन की बात करो क्या रखा है इस क़िस्से में
13.
आँखों में छुपाये अश्कों को होंठों में वफ़ा के बोल लिये
इस जश्न में भी शामिल हूँ नौहों से भरा कश्कोल लिये
कुछ न किसी से बोलेंगे / फ़राज़
कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे
हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे
ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे
जीवन ज़हर भरा साग़र
कब तक अमृत घोलेंगे
नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे
करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
ये लोग तज़करे करते हैं अपने लोगों से
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे
मगर वो ज़ूदफ़रामोश ज़ूद रंज भी है
के रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे
जो हमसफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है "फ़राज़"
अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊँ उसे
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो / फ़राज़
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चालो
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो
ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़निमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो
अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो
तवाफ़-ए-मन्ज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है
तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो
ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी ख़ड़ी हो जैसे / फ़राज़
ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे
अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे
मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे
कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले के तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे
आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं "फ़राज़"
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे
इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ / फ़राज़
इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ
अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
(क़बा=ड्रेस)
बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें / फ़राज़
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बड़ता है शरबें जो शराबों में मिलें
आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें
अब न वो मैं हूँ न तु है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
हिरोशिमा की पीड़ा / अटल बिहारी वाजपेयी
किसी रात को
मेरी नींद आचानक उचट जाती है
आँख खुल जाती है
मैं सोचने लगता हूँ कि
जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का
आविष्कार किया था
वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण
नरसंहार के समाचार सुनकर
रात को कैसे सोए होंगे?
क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही
ये अनुभूति नहीं हुई कि
उनके हाथों जो कुछ हुआ
अच्छा नहीं हुआ!
यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा
किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें
कभी माफ़ नहीं करेगा!
हरी हरी दूब पर / अटल बिहारी वाजपेयी
हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदे
अभी थी,
अभी नहीं हैं|
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं|
क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बुँदों को ढूंढूँ?
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?
कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?
सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी|
मौत से ठन गई / अटल बिहारी वाजपेयी
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
मैं न चुप हूँ न गाता हूँ / अटल बिहारी वाजपेयी
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
मनाली मत जइयो, गोरी / अटल बिहारी वाजपेयी
मनाली मत जइयो, गोरी
राजा के राज में।
जइयो तो जइयो,
उड़िके मत जइयो,
अधर में लटकीहौ,
वायुदूत के जहाज़ में।
जइयो तो जइयो,
सन्देसा न पइयो,
टेलिफोन बिगड़े हैं,
मिर्धा महाराज में।
जइयो तो जइयो,
मशाल ले के जइयो,
बिजुरी भइ बैरिन
अंधेरिया रात में।
जइयो तो जइयो,
त्रिशूल बांध जइयो,
मिलेंगे ख़ालिस्तानी,
राजीव के राज में।
मनाली तो जइहो।
सुरग सुख पइहों।
दुख नीको लागे, मोहे
राजा के राज में।
पुनः चमकेगा दिनकर / अटल बिहारी वाजपेयी
आज़ादी का दिन मना,
नई ग़ुलामी बीच;
सूखी धरती, सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;
मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;
एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;
कह क़ैदी कबिराय
न अपना छोटा जी कर;
चीर निशा का वक्ष
पुनः चमकेगा दिनकर।
दो अनुभूतियाँ / अटल बिहारी वाजपेयी
पहली अनुभूति: गीत नहीं गाता हूँ
बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
पीठ मे छुरी सा चांद
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
गीत नहीं जाता हूँ
दूसरी अनुभूति: गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
दूध में दरार पड़ गई / अटल बिहारी वाजपेयी
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टुट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्याथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
झुक नहीं सकते / अटल बिहारी वाजपेयी
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है
दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
जीवन की ढलने लगी साँझ / अटल बिहारी वाजपेयी
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
क्षमा याचना / अटल बिहारी वाजपेयी
क्षमा करो बापू! तुम हमको,
बचन भंग के हम अपराधी,
राजघाट को किया अपावन,
मंज़िल भूले, यात्रा आधी।
जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,
टूटे सपनों को जोड़ेंगे।
चिताभस्म की चिंगारी से,
अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।
क़दम मिला कर चलना होगा / अटल बिहारी वाजपेयी
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
एक बरस बीत गया / अटल बिहारी वाजपेयी
एक बरस बीत गया
झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
आओ फिर से दिया जलाएँ / अटल बिहारी वाजपेयी
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
अपने ही मन से कुछ बोलें / अटल बिहारी वाजपेयी
क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
अंतरद्वंद्व / अटल बिहारी वाजपेयी
क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर?
शव का अर्चन,
शिव का वर्जन,
कहूँ विसंगति या रूपांतर?
वैभव दूना,
अंतर सूना,
कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर?
स्वतंत्रता दिवस की पुकार / अटल बिहारी वाजपेयी
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता -
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं,
रावी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर
आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दुख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥
इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आजादी पर्व मनाएँगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें॥
वैभव के अमिट चरण-चिह्न / अटल बिहारी वाजपेयी
विजय का पर्व!
जीवन संग्राम की काली घड़ियों में
क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण
अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के
पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर
विजयोन्मुख भविष्य का
पथ प्रशस्त करते हैं।
अमावस के अभेद्य अंधकार का—
अन्तकरण
पूर्णिमा का स्मरण कर
थर्रा उठता है।
सरिता की मँझधार में
अपराजित पौरुष की संपूर्ण
उमंगों के साथ
जीवन की उत्ताल तरंगों से
हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले
नैराश्य के भीषण भँवर को
कौतुक के साथ आलिंगन
आनन्द देता है।
पर्वतप्राय लहरियाँ
उसे
भयभीत नहीं कर सकतीं
उसे चिन्ता क्या है ?
कुछ क्षण पूर्व ही तो
वह स्वेच्छा से
कूल-कछार छोड़कर आया
उसे भय क्या है ?
कुछ क्षण पश्चात् ही तो
वह संघर्ष की सरिता
पार कर
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
अंकित करेगा।
हम अपना मस्तक
आत्मगौरव के साथ
तनिक ऊँचा उठाकर देखें
विश्व के गगन मंडल पर
हमारी कलित कीर्ति के
असंख्य दीपक जल रहे हैं।
युगों के बज्र कठोर हृदय पर
हमारी विजय के स्तम्भ अंकित हैं।
अनंत भूतकाल
हमारी दिव्य विभा से अंकित हैं।
भावी की अगणित घड़ियाँ
हमारी विजयमाला की
लड़ियाँ बनने की
प्रतीक्षा में मौन खड़ी हैं।
हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास
अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है।
हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी
विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।
कवि आज सुना वह गान रे / अटल बिहारी वाजपेयी
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?
अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
धन्य तू विनोबा ! / अटल बिहारी वाजपेयी
जन की लगाय बाजी गाय की बचाई जान,
धन्य तू विनोबा ! तेरी कीरति अमर है।
दूध बलकारी, जाको पूत हलधारी होय,
सिंदरी लजात मल – मूत्र उर्वर है।
घास–पात खात दीन वचन उचारे जात,
मरि के हू काम देत चाम जो सुघर है।
बाबा ने बचाय लीन्ही दिल्ली दहलाय दीन्ही,
बिना लाव लस्कर समर कीन्हो सर है।
स्वाधीनता के साधना पीठ / अटल बिहारी वाजपेयी
अपने आदर्शों और विश्वासों
के लिए काम करते-करते,
मृत्यु का वरण करना
सदैव ही स्पृहणीय है।
किन्तु
वे लोग सचमुच धन्य हैं
जिन्हें लड़ाई के मैदान में,
आत्माहुति देने का
अवसर प्राप्त हुआ है।
शहीद की मौत मरने
का सौभाग्य
सब को नहीं मिला करता।
जब कोई शासक
सत्ता के मद में चूर होकर
या,
सत्ता हाथ से निकल जाने के भय से
भयभीत होकर
व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वाभिमान को
कुचल देने पर
आमादा हो जाता है,
तब
कारागृह ही स्वाधीनता के
साधना पीठ बन जाते हैं।
न दैन्यं न पलायनम्. / अटल बिहारी वाजपेयी
कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।
किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।
आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अंधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
मैंने जन्म नहीं मांगा था! / अटल बिहारी वाजपेयी
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।
कौरव कौन, कौन पांडव / अटल बिहारी वाजपेयी
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|
हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों / रामधारी सिंह "दिनकर"
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो।
श्रवण खोलो¸
रूक सुनो¸ विकल यह नाद
कहां से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है?
जनता की छाती भिदें
और तुम नींद करो¸
अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला¸
मुझे परवाह नहीं¸
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।
हो कहां अग्निधर्मा
नवीन ऋषियो? जागो¸
कुछ नयी आग¸
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊंघ रहे हैं जो¸ उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।
गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूं साथी¸
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहां–जहां तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ¸
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।
वीर / रामधारी सिंह "दिनकर"
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है , विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
विघ्नों को गले लगाते हैं ,
कांटों में राह बनाते हैं ।
मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,
संकट का चरण न गहते हैं ,
जो आ पड़ता सब सहते हैं ,
उद्योग - निरत नित रहते हैं ,
शुलों का मूळ नसाते हैं ,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।
है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
मानव जब जोर लगाता है ,
पत्थर पानी बन जाता है ।
गुन बड़े एक से एक प्रखर ,
हैं छिपे मानवों के भितर ,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
वर्तिका - बीच उजियाली हो ,
बत्ती जो नहीं जलाता है ,
रोशनी नहीं वह पाता है ।
लोहे के मर्द / रामधारी सिंह "दिनकर"
पुरुष वीर बलवान,
देश की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं।
कहते हैं, ये पुष्प, दीप,
अक्षत क्यों लाये हो?
हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,
फूलों के हारों की, जय-जयकार की।
तड़प रही घायल स्वदेश की शान है।
सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।
ले जाओ आरती, पुष्प, पल्लव हरे,
ले जाओ ये थाल मोदकों ले भरे।
तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो,
दे सकते हो तो गोली-बन्दूक दो।
लोहे के पेड़ हरे होंगे!/ रामधारी सिंह "दिनकर"
लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?
मानवता का तू विप्र, गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष, मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी, वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जुगाता चल।
क्या अपनी उन से होड़, अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं, गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है, वैसे अब भी मुसकाता चल।
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढा मसीहा को वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधूलि बसाता चल।
यह देख नयी लीला उन की, फिर उन ने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, भारत की मिट्टी रोती है,
क्य हुआ कि प्यारे गाँधी की यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें, बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल।
धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।
लेन-देन / रामधारी सिंह "दिनकर"
लेन-देन का हिसाब
लंबा और पुराना है।
जिनका कर्ज हमने खाया था,
उनका बाकी हम चुकाने आये हैं।
और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था,
उनसे हम अपना हक पाने आये हैं।
लेन-देन का व्यापार अभी लंबा चलेगा।
जीवन अभी कई बार पैदा होगा
और कई बार जलेगा।
और लेन-देन का सारा व्यापार
जब चुक जायेगा,
ईश्वर हमसे खुद कहेगा -
तुम्हारा एक पावना मुझ पर भी है,
आओ, उसे ग्रहण करो।
अपना रूप छोड़ो,
मेरा स्वरूप वरण करो।
रात यों कहने लगा / रामधारी सिंह "दिनकर"
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी / रामधारी सिंह "दिनकर"
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है
रानी की निशि दिन गीली रही कथा है
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ
राजा रानी की युग से यही प्रथा है
नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं
थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली
रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ
रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ
मनुष्यता / रामधारी सिंह "दिनकर"
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार;
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार|
भोग लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम;
बह रही असहाय नर कि भावना निष्काम|
लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ?
यह नहीं यदि ज्ञात तो विज्ञानं का श्रम व्यर्थ|
यह मनुज, जो ज्ञान का आगार;
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार |
छद्म इसकी कल्पना, पाखण्ड इसका ज्ञान;
यह मनुष्य, मनुष्यता का घोरतम अपमान|
भारत / रामधारी सिंह "दिनकर"
सीखे नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं,
जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ;
या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो।
ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?
गांधी को उल्टा घिसो और जो धूल झरे,
उसके प्रलेप से अपनी कुण्ठा के मुख पर,
ऐसी नक्काशी गढो कि जो देखे, बोले,
आखिर , बापू भी और बात क्या कहते थे?
डगमगा रहे हों पांव लोग जब हंसते हों,
मत चिढो,ध्यान मत दो इन छोटी बातों पर
कल्पना जगदगुरु की हो जिसके सिर पर,
वह भला कहां तक ठोस कदम धर सकता है?
औ; गिर भी जो तुम गये किसी गहराई में,
तब भी तो इतनी बात शेष रह जाएगी
यह पतन नहीं, है एक देश पाताल गया,
प्यासी धरती के लिए अमृतघट लाने को।
भगवान के डाकिए / रामधारी सिंह "दिनकर"
पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं
जो एक महादेश से
दूसरें महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पनी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।
पर्वतारोही / रामधारी सिंह "दिनकर"
मैं पर्वतारोही हूँ।
शिखर अभी दूर है।
और मेरी साँस फूलनें लगी है।
मुड़ कर देखता हूँ
कि मैनें जो निशान बनाये थे,
वे हैं या नहीं।
मैंने जो बीज गिराये थे,
उनका क्या हुआ?
किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर
घर जा कर सुख से सोता है,
इस आशा में
कि वे उगेंगे
और पौधे लहरायेंगे ।
उनमें जब दानें भरेंगे,
पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे।
लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।
हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।
परिचय / रामधारी सिंह "दिनकर"
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखुडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।
पढ़क्कू की सूझ / रामधारी सिंह "दिनकर"
एक पढ़क्कू बड़े तेज थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे,
जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे।
एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए,
"बैल घुमता है कोल्हू में कैसे बिना चलाए?"
कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है?
सिखा बैल को रक्खा इसने, निश्चय कोई ढब है।
आखिर, एक रोज़ मालिक से पूछा उसने ऐसे,
"अजी, बिना देखे, लेते तुम जान भेद यह कैसे?
कोल्हू का यह बैल तुम्हारा चलता या अड़ता है?
रहता है घूमता, खड़ा हो या पागुर करता है?"
मालिक ने यह कहा, "अजी, इसमें क्या बात बड़ी है?
नहीं देखते क्या, गर्दन में घंटी एक पड़ी है?
जब तक यह बजती रहती है, मैं न फिक्र करता हूँ,
हाँ, जब बजती नहीं, दौड़कर तनिक पूँछ धरता हूँ"
कहाँ पढ़क्कू ने सुनकर, "तुम रहे सदा के कोरे!
बेवकूफ! मंतिख की बातें समझ सकोगे थाड़ी!
अगर किसी दिन बैल तुम्हारा सोच-समझ अड़ जाए,
चले नहीं, बस, खड़ा-खड़ा गर्दन को खूब हिलाए।
घंटी टून-टून खूब बजेगी, तुम न पास आओगे,
मगर बूँद भर तेल साँझ तक भी क्या तुम पाओगे?
मालिक थोड़ा हँसा और बोला पढ़क्कू जाओ,
सीखा है यह ज्ञान जहाँ पर, वहीं इसे फैलाओ।
यहाँ सभी कुछ ठीक-ठीक है, यह केवल माया है,
बैल हमारा नहीं अभी तक मंतिख पढ़ पाया है।
पक्षी और बादल / रामधारी सिंह "दिनकर"
ये भगवान के डाकिये हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं,
मगर उनकी लायी चिठि्ठयाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरती हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश का पानी
बनकर गिरता है।
निराशावादी / रामधारी सिंह "दिनकर"
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।
नमन करूँ मैं / रामधारी सिंह "दिनकर"
तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?
भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है,
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है।
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है ।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है ।
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ?
खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से,
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से,
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है,
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है।
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ?
दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन,
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन।
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं ?
उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है,
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है,
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं ?
ध्वज-वंदना / रामधारी सिंह "दिनकर"
नमो, नमो, नमो।
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो !
नमो नगाधिराज - श्रृंग की विहारिणी !
नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!
प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नयी प्रभा,नमो, नमो!
हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार।
प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार।
सत्य न्याय के हेतु
फहर फहर ओ केतु
हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु
पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!
तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग!
दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग।
सेवक सैन्य कठोर
हम चालीस करोड़
कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर
करते तव जय गान
वीर हुए बलिदान,
अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!
प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!
जियो जियो अय हिन्दुस्तान / रामधारी सिंह "दिनकर"
जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।
जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!
जब आग लगे... / रामधारी सिंह "दिनकर"
सीखो नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं,
जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ;
या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो।
ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?
गांधी को उल्टा घिसो और जो धूल झरे,
उसके प्रलेप से अपनी कुण्ठा के मुख पर,
ऐसी नक्काशी गढो कि जो देखे, बोले,
आखिर , बापू भी और बात क्या कहते थे?
डगमगा रहे हों पांव लोग जब हंसते हों,
मत चिढो,ध्यान मत दो इन छोटी बातों पर
कल्पना जगदगुरु की हो जिसके सिर पर,
वह भला कहां तक ठोस कदम धर सकता है?
औ; गिर भी जो तुम गये किसी गहराई में,
तब भी तो इतनी बात शेष रह जाएगी
यह पतन नहीं, है एक देश पाताल गया,
प्यासी धरती के लिए अमृतघट लाने को।
जनतंत्र का जन्म / रामधारी सिंह "दिनकर"
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
(26जनवरी,1950ई.)
चांद का कुर्ता / रामधारी सिंह "दिनकर"
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो मा मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!
चांद और कवि / रामधारी सिंह "दिनकर"
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज बनता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।
चांद एक दिन / रामधारी सिंह "दिनकर"
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो मा मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये
गीत-अगीत / रामधारी सिंह "दिनकर"
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
(1)
गाकर गीत विरह की तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता,
"देते स्वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।"
गा-गाकर बह रही निर्झरी,
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
(2)
बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते स्नेह में सनकर।
गूँज रहा शुक का स्वर वन में,
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
(3)
दो प्रंमे हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर में सुनती है,
'हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना', यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत, कौन सुन्दर है?
कुंजी / रामधारी सिंह "दिनकर"
घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन,
जब मैं बालक अबोध अनजान था।
यह पवन तुम्हारी साँस का
सौरभ लाता था।
उसके कंधों पर चढ़ा
मैं जाने कहाँ-कहाँ
आकाश में घूम आता था।
सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।
मगर कोई परी मेरे साथ में थी;
मुझे मालूम तो न था,
मगर ताले की कूंजी मेरे हाथ में थी।
जवान हो कर मैं आदमी न रहा,
खेत की घास हो गया।
तुम्हारा पवन आज भी आता है
और घास के साथ अठखेलियाँ करता है,
उसके कानों में चुपके चुपके
कोई संदेश भरता है।
घास उड़ना चाहती है
और अकुलाती है,
मगर उसकी जड़ें धरती में
बेतरह गड़ी हुईं हैं।
इसलिए हवा के साथ
वह उड़ नहीं पाती है।
शक्ति जो चेतन थी,
अब जड़ हो गयी है।
बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,
उम्र बढ़ते बढ़ते
वह कहीं खो गयी है।
कलम, आज उनकी जय बोल / रामधारी सिंह "दिनकर"
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
करघा / रामधारी सिंह "दिनकर"
हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।
हर ज़िन्दगी एक सूत है
और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।
इस उलझन का सुलझाना
हमारे लिये मुहाल है ।
मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,
वह हर सूत की किस्मत को
पहचानता है।
सूत के टेढ़े या सीधे चलने का
क्या रहस्य है,
बुनकर इसे खूब जानता है।
’हारे को हरिनाम’ से
एक विलुप्त कविता / रामधारी सिंह "दिनकर"
बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
आज क्या है कि देख कौम को गम है।
कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?
आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए,
लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।
दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो
दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?
देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की
मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?
हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें
यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।
सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की!
घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।
(सन 1938 में पटना में अखिल भारतीय ब्रह्मर्षि महासम्मेलन क आयोजन किया गया था जिसमें काशी नरेश विभूति नारायण सिंह, सर गणेश दत्त, बाबू रज्जनधारी सिंह आदि गणमान्य लोग मौज़ूद थे। दिनकर जी ने उस महाजाति सम्मेलन के लिए यह कविता लिख भेजी थी जिसे उसमें स्वागत-गान के रूप में पढ़ा गया था। इस कविता का कोई शीर्षक नहीं दिया गया है।)
एक पत्र / रामधारी सिंह "दिनकर"
मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?
गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?
कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।
ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।
द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।
विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।
औ' बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।
आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?
फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।
टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!
(यह कविता सन 1934 में लिखी गई थी, जब दिनकर जी सरकारी नौकरी में थे। राष्ट्रीय-क्रान्तिकारी कविता लिखने के कारण अंग्रेज़ी सरकार बार-बार उनका तबादला कर देती थी। हालाँकि सरकारी नौकरी उन्हें पसन्द नहीं थी। सन 1935 में बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में उन्होंने इसकी चर्चा की है- "इस एक वर्ष की अवधि में सरकारी नौकरी या गुलामी की वेदना इस तीव्रता से कभी नहीं चुभी थी।" लेकिन नौकरी कवि की मज़बूरी थी। अपने बड़े और संयुक्त परिवार में सर्वधिक शिक्षित होने के कारण सबकी आजीविका की ज़िम्मेदारी इन्हीं के कन्धों पर थी। बहरहाल सन 1934 में 'एक पत्र' शीर्षक से प्रकाशित यह कविता उनके अब तक छपे-अनछपे संकलनों में संग्रहीत नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है- यह कविता पटना से निकलने वाली एक साप्ताहिक पत्रिका 'नवशक्ति' में प्रकाशित हुई थी। इस पत्रिका के यशस्वी सम्पादक श्री देवव्रत थे जो कभी गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ 'प्रताप' के सम्पादक मंडल में थे।)
आशा का दीपक / रामधारी सिंह "दिनकर"
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
रसवन्ती / रामधारी सिंह "दिनकर"
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात
पलातक शिशु-सा मैं अनजान,
कर्म के कोलाहल से दूर
फिरा गाता फूलों के गान।
कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।
पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा
विकल मानवता का कल्याण,
बैठ खण्डहर मे करता रहा
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.
श्रवण कर चलदल-सा उर फटा
दलित देशों का हाहाकार,
देखकर सिरपर मारा हाथ
सभ्यता का जलता श्रृंगार.
गीत-शिशु / रामधारी सिंह "दिनकर"
आशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से,
दूर्वासन दो अवनि। किरण मृदु, उतरो नील निलय से।
बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे,
जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट प्रलय से।
ये अबोध कल्पक के शिशु क्या रीति जगत की जानें,
कुछ फूटे रोमाञ्च-पुलक से, कुछ अस्फुट विस्मय से।
निज मधु-चक्र निचोड़ लगन से पाला इन्हें हृदय ने,
बड़े नाज से बड़ी साध से, ममता मोह प्रणय से।
चुन अपरूप विभूति सृष्टि की मैंने रूप सँवारा।
उडु से द्युति, गति बाल लहर से सौरभ रुचिर मलय से।
सोते-जागते मृदुल स्वप्न में सदा किलकते आये,
नहीं उतारा कभी अंग से कठिन भूमि के भय से।
नन्हें अरुण चरण ये कोमल, क्षिति की परुष प्रकृति है,
मुझे सोच पड़ जाय कहीं पाला न कुलिश निर्दय से।
अर्जित किया ज्ञान कब इनने, जीवन का दुख झेला ?
अभी अबुध ये खेल रहे थे रजकण के संचय से।
सीख न पाये रेणु रत्न का भेद अभी ये भोले,
मुट्ठी भर मिट्टी बदलेंगे कञ्चन रचित वलय से।
कुछ न सीख पाये, तो भी रुक सके न पुण्य-प्रहर में,
घुटनों बल चल पड़े, पुकारा तुमने देवालय से।
रुन-झुन-झुन पैंजनी चरण में, केश कटिल घुँघराले
नील नयन देखो, माँ। इनके दाँत धुले है भ्रम से।
देख रहे अति चकित रत्न-मणियों के हार तुम्हारे,
विस्फारित निज नील नयन से, कौतुक भरे हृदय से।
कुछ विस्मय, कुछ शील दृगों में, अभिलाषा कुछ मन में,
पर न खोल पाते मुख लज्जित प्रथम-प्रथम परिचय से।
निपुण गायकों की रानी, इनकी भी एक कथा है।
सुन लो, क्या कहने आये हैं ये तुतली-सी लय से।
छूकर भाल वरद कर से, मुख चूम बिदा दो इनको;
आशिष दो ये सरल गीत-शिशु विचरें अजर-अजय से।
दिशि-दिशि विविध प्रलोभन जग में, मुझे चाह, बस, इतनी,
कभी निनादित द्वार तुम्हारा हो इनकी जय-जय से।
सूखे विटप की सारिके ! / रामधारी सिंह "दिनकर"
सूखे विटप की सारिके !
उजड़ी-कटीली डार से
मैं देखता किस प्यार से
पहना नवल पुष्पाभरण
तृण, तरु, लता, वनराजि को
हैं जो रहे विहसित वदन
ऋतुराज मेरे द्वार से।
मुझ में जलन है प्यास है,
रस का नहीं आभास है,
यह देख हँसती वल्लरी
हँसता निखिल आकाश है।
जग तो समझता है यही,
पाषाण में कुछ रस नहीं,
पर, गिरि-हृदय में क्या न
व्याकुल निर्झरों का वास है ?
बाकी अभी रसनाद हो,
पिछली कथा कुछ याद हो,
तो कूक पंचम तान में,
संजीवनी भर गान में,
सूखे विटप की डार को
कर दे हरी करुणामयी
पढ़ दे ऋचा पीयूष की,
उग जाय फिर कोंपल नयी;
जीवन-गगन के दाह में
उड़ चल सजल नीहारिके।
सूखे विटप की सारिके !
समर निंद्य है / रामधारी सिंह "दिनकर"
@@@समर निंद्य है....भाग 1
समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?
सुख-समृद्धि का विपुल कोष
संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित का ग्रास छीन,
धन लूट किसी निर्बल से।
सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का,
जियो और जीने दो।
सच है सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई ?
सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
@@@समर निंद्य है....भाग 2
अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वंद हो जारी;
ऊपर, शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिंगारी;
आगामी विस्फोट काल के
मुख पर दमक रहा हो;
इंगित में अंगार विवश
भावों के चमक रहा हो;
पढ़कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
कभी नये शोषण से, कभी
उपेक्षा, कभी दमन से,
अपमानों से कभी, कभी
शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।
दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें,
कहो कौन दायी होगा
उस दारुण जगद्दहन का
अहंकार या घृणा? कौन
दोषी होगा उस रण का ?
तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अंबर से?
अथवा अकस्मात मिट्टि से
फूटी थी यह ज्वाला ?
या मंत्रों के बल से जनमी
थी यह शिखा कराला ?
कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने ?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने ?
शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का
वह सर्जन करती है।
शान्ति नहीं तब तक; जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
ऐसी शान्ति राज्य करती है
तन पर नहीं हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर,
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
@@@समर निंद्य है....भाग 3
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है
जब तक न्याय न आता,
जैसा भी हो महल शान्ति का
सुदृढ़ नहीं रह पाता।
कृत्रिम शान्ति सशंक आप
अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
कभी नहीं करती है|
और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था
में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिये शान्ति ही जीवन -
सार, सिद्धि दुर्लभ है।
पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
शोणित पी कर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह
समझो कुछ उनके मन का।
स्वत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिले, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मर के।
किसने कहा पाप है समुचित
स्वत्व-प्राप्ति-हित लड़ना?
उठा न्याय का खड्ग समर में
अभय मारना-मरना?
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।
हिंसा का आघात तपस्या ने
कब, कहाँ सहा है?
देवों का दल सदा दानवों
से हारता रहा है।
मन:शक्ति प्यारी थी तुमको
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?
पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह
जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
कहलायी दासी।
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
@@@समर निंद्य है....भाग 4
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतक मनुज
कोमल हो कर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दंतहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो?
तीन दिवस तक पथ माँगते
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छंद
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर "त्राहि-त्राहि"
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ़ बंधन में।
सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशील क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
जहाँ नहीं सामर्थ्य शोढ की,
क्षमा वहाँ निष्फल है।
गरल-घूँट पी जाने का
मिस है, वाणी का छल है।
फलक क्षमा का ओढ़ छिपाते
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें प्रज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता?
वे क्या जाने नर में वह क्या
असहनशील अनल है,
जो लगते ही स्पर्श हृदय से
सिर तक उठता बल है?
@@@समर निंद्य है....भाग 5
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि
वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?
वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,
ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।
भूल रहे हो धर्मराज, तुम
अभी हिंस्र भूतल है,
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है।
मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।
जियें मनुज किस भाँति परस्पर
हो कर भाई-भाई
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,
कैसे रुके लड़ाई।
पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।
बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोये,
एक दूसरे के उर में नर
बीज प्रेम के बोये।
किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।
भूले-भटके ही पृथ्वी पर
वह आदर्श उतरता,
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता।
किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;
घृणा, कलह, विद्वेष, विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन एक-दो
का ही हृदय भिगो कर।
@@@समर निंद्य है....भाग 6
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि
वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?
वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,
ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।
भूल रहे हो धर्मराज, तुम
अभी हिंस्र भूतल है,
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है।
मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।
जियें मनुज किस भाँति परस्पर
हो कर भाई-भाई
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,
कैसे रुके लड़ाई।
पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।
बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोये,
एक दूसरे के उर में नर
बीज प्रेम के बोये।
किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।
भूले-भटके ही पृथ्वी पर
वह आदर्श उतरता,
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता।
किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;
घृणा, कलह, विद्वेष, विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन एक-दो
का ही हृदय भिगो कर।
कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
@@प्रथम सर्ग/भाग-1
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
लड़ना उसे पड़ता मगर।
औ' जीतने के बाद भी,
रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;
वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में
विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।
उस सत्य के आघात से
हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
सहसा हृदय को तोड़कर
कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-
'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया
लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
इस दंश क दुख भूल कर
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,
मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
केश जो तेरह बरस से थे खुले।
और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर
हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो
पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।
कौरवों का श्राद्ध करने के लिए
या कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।
@@प्रथम सर्ग/भाग-2
और जब,
तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से
घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,
लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,
लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,
जीवितों के कान पर मरता हुआ,
और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-
'देख लो, बाहर महा सुनसान है
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'
हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,
कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो
अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;
जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है।
किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में
एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल
बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा
मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।
"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं
दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!
मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;
हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"
स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-
"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;
तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,
किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं।
"हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ
दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,
जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,
अर्थ जिसका अब न कोई याद है।
"आ गये हम पार, तुम उस पार हो;
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"
हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा
लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,
औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा
एक रव मन का कि व्यापक शून्य का।
'रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी
हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
और ऊपर रक्त की खर धार में
तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के।
'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी
शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का?
चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे
तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?
'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे
चाहता था, शत्रुओं के साथ ही
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में
व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।
'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,
उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से
हो गया संहार पूरे देश का!
'द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता,
और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,
पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं
कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ!
'रक्त से छाने हुए इस राज्य को
वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं?
आदमी के खून में यह है सना,
और इसमें है लहू अभिमन्यु का.
वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा,
दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में.
दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही
खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में।
भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,
फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा!
खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे
'पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।'
और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सा
लड़खड़ता मर रहा था वायु में।
@@@@द्वितीय सर्ग / भाग-1
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,
रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये
बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!
व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,
काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर।
और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास
हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।
श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।
देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"
चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।
"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,
छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;
छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;
और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,
चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-
विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,
जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?
"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?
ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है?
लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन?
और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर
नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?
कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?
उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?
"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता।
और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,
भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।
"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;
उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और
पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;
और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;
सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।
@@@@द्वितीय सर्ग / भाग-2
"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे
प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं
दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये
जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,
हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?
"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;
जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;
ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,
ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।
"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,
उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?
पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;
विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,
इससे न जूझने को मेरे पास बल है;
ग्रहण करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,
राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।
"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;
आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ
सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;
और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो
शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।
"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,
एक आग तब से ही जलती है मन में;
हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ
मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,
धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।
"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी
कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;
व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"
@@@@द्वितीय सर्ग / भाग-3
और तब चुप हो रहे कौन्तेय,
संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय
उस जलद-सा एक पारावार
हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार
बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है।
भीष्म ने देखा गगन की ओर
मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर;
और बोले, 'हाय नर के भाग !
क्या कभी तू भी तिमिर के पार
उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग,
एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है
आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से?'
औ' युधिष्ठिर से कहा, "तूफान देखा है कभी?
किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ,
काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता,
और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से
उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं?
रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,
टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के;
अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से,
छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से।
पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,
वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से।
सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला,
नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता।
किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे,
(वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)
देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,
क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,
सोचता, 'है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों?'
पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को,
प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के।
यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं;
किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का,
जो जमा होता प्रचंड निदाघ से,
फूटना जिसका सहज अनिवार्य है।
यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी
एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,
तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,
और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी
क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से।
भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी
युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता
राजनैतिक उलझनों के ब्याज से
या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले।
किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही,
फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से।
युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,
जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है!
सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए!
@@@@द्वितीय सर्ग / भाग-4
किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में
पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे;
युद्ध में मारे हुओं के सामने
पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!
और भी थे भाव उनके हृदय में,
स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;
खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,
हेतु उस आवेश का था और भी।
युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,
एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।
और तब रहता कहाँ अवकाश है
तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का?
युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं
प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को।
युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से
दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।
है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,
युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।
सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,
'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,
मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में
भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'
औ' समर तो और भी अपवाद है,
चाहता कोई नहीं इसको मगर,
जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
आ गया हो द्वार पर ललकारता।
है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,
भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,
आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को।
जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।
छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।
बद्ध, विदलित और साधनहीन को
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?
युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
और जो अनिवार्य है, उसके लिए
खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है।
तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।
पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के।
धर्म का है एक और रहस्य भी,
अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे?
दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर
हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से।
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।
@@@@द्वितीय सर्ग / भाग-5
जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में,
कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही।
किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं,
पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था?
हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये,
पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को,
जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था।
और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में
क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का,
(द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही
उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था)
और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;
सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह,
जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के?
कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक
है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;
जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,
जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।
त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,
त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;
याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;
या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,
जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर
ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं
त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,
व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,
हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।
और तू कहता मनोबल है जिसे,
शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;
क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,
नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से।
कौन केवल आत्मबल से जूझ कर
जीत सकता देह का संग्राम है?
पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं।
जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,
व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;
योगियों की शक्ति से संसार में,
हारता लेकिन, नहीं समुदाय है।
कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का
दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
"मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक
शस्त्र ही है?" पूछा था कोमलमना वाम ने।
नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप,
त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,
"तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव
पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"
@@@तृतीय सर्ग / भाग-1
समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?
सुख-समृद्धि क विपुल कोष
संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
धन लूट किसी निर्बल से।
सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
जियो और जीने दो।
सच है, सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?
सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहनेवालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;
आगामी विस्फोट काल के
मुख पर दमक रहा हो;
इंगित में अंगार विवश
भावों के चमक रहा हो;
पढ कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
कभी नये शोषण से, कभी
उपेक्षा, कभी दमन से,
अपमानों से कभी, कभी
शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।
दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;
कहो, कौन दायी होगा
उस दारुण जगद्दहन का
अहंकार य घृणा? कौन
दोषी होगा उस रण का?
@@@@तृतीय सर्ग / भाग-2
तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अम्बर से?
अथवा अकस्मात् मिट्टी से
फूटी थी यह ज्वाला?
या मंत्रों के बल जनमी
थी यह शिखा कराला?
कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने?
शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का
वह सर्जन करती है।
शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
ऐसी शान्ति राज्य करती है
तन पर नहीं, हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर,
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।
कृत्रिम शान्ति सशंक आप
अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
कभी नहीं करती है।
और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था
में सिख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन-
सार, सिद्धि दुर्लभ है।
पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
शोणित पीकर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह
समझो कुछ उनके मन का।
सत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?
@@@@तृतीय सर्ग / भाग-3
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मरके।
किसने कहा, पाप है समुचित
सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?
उठा न्याय क खड्ग समर में
अभय मारना-मरना ?
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।
हिंसा का आघात तपस्या ने
कब, कहाँ सहा है ?
देवों का दल सदा दानवों
से हारता रहा है।
मनःशक्ति प्यारी थी तुमको
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?
पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
कहलायी दासी
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दन्तहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो ?
तीन दिवस तक पन्थ माँगते
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
क्षमा वहाँ निष्फल है।
गरल-घूँट पी जाने का
मिस है, वाणी का छल है।
फलक क्षमा का ओढ छिपाते
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता ?
वे क्या जानें नर में वह क्या
असहनशील अनल है,
जो लगते ही स्पर्श हृदय से
सिर तक उठता बल है?
@@@@तृतीय सर्ग / भाग-4
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,
जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का.
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का.
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका.
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का.
उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है.
करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,
ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,
जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है.
करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,
क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है.
प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है.
छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही,
जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है.
चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर
जिसके निषग में, करों में धृड चाप है.
जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर,
हारी हुई जाति की सहिष्णुताSभिशाप है.
सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
उठता कराल हो फणीश फुफकर है.
सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं,
भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है.
शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को
लीलने को देखो गर्जमान पारावार है.
जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध
जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है.
सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है.
वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता,
वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है.
चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,
उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है.
पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब,
पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है.
धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है?
फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव
आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल,
कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है?
विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई
दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है?
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता?
वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता?
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है.
शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है.
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है,
ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है.
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है.
@@@तृतीय सर्ग / भाग-5
भूल रहे हो धर्मराज तुम
अभी हिन्स्त्र भूतल है.
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है.
मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे मिटे जिघान्सा,
किस प्रकार धरती पर फैले
करुणा, प्रेम, अहिंसा.
जिए मनुज किस भाँति
परस्पर होकर भाई भाई,
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?
कैसे रुके लड़ाई?
धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो.
मनुज प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष गरल हो.
बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोए,
एक दूसरे के उर में,
नर बीज प्रेम के बोए.
किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
पहुँच सका यह जग है,
अभी शांति का स्वप्न दूर
नभ में करता जग-मग है.
भूले भटके ही धरती पर
वह आदर्श उतरता.
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता.
किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा कर,
रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
लौह-द्वार को पा कर.
घृणा, कलह, विद्वेष विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन, एक दो
का ही हृदय भिगो कर.
क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
अगणित अभी यहाँ हैं,
बढ़े शांति की लता, कहो
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
शांति-बीन बजती है, तब तक
नहीं सुनिश्चित सुर में.
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
उठे नहीं उर-उर में.
शांति नाम उस रुचित सरणी का,
जिसे प्रेम पहचाने,
खड्ग-भीत तन ही न,
मनुज का मन भी जिसको माने
शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रान्त निस्प्रह में.
घृणा-कलह-विफोट हेतु का
करके सफल निवारण,
मनुज-प्रकृति ही करती
शीतल रूप शांति का धारण.
जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
भय न शेष रह जाता.
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता.
शांति, सुशीतल शांति,
कहाँ वह समता देने वाली?
देखो आज विषमता की ही
वह करती रखवाली.
आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है.
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
विष से भरा दशन है.
वह रखती परिपूर्ण नृपों से
जरासंध की कारा.
शोणित कभी, कभी पीती है,
तप्त अश्रु की धारा.
कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिसकी वह शांति नहीं थी.
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी.
थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
वह जो जली समर में.
असहनशील शौर्य था, जो बल
उठा पार्थ के शर में.
हुआ नहीं स्वीकार शांति को
जीना जब कुछ देकर.
टूटा मनुज काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर
पापी कौन? मनुज से उसका
न्याय चुराने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न
का सीस उड़ाने वाला?