चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामुशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की
ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की
फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की
नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की
दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की
रविवार, फ़रवरी 21, 2010
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
चिड़िया
सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया !
तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में
पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है
तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ
सोच रही हूँ
सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं ?
गोदें फूलों वाली
आँखें फिर भी ख़ाली ।
चारासाजों की अज़ीयत
चारासाजों की अज़ीयत नहीं देखी जाती
तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती
देने वाले की मशीय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
मांगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
दिल बहल जाता है लेकिन तेरे दीवानों की
शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती
तमकनत से तुझे रुख़सत तो किया है लेकिन
हमसे उन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती
कौन उतरा है आफ़ाक़ की पिनाहाई में
आईनेख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती
गुमान
मैं कच्ची नींद में हूँ
और अपने नीमख़्वाबिदा तनफ़्फ़ुस में उतरती
चाँदनी की चाप सुनती हूँ
गुमाँ है
आज भी शायद
मेरे माथे पे तेरे लब
सितारे सबात करते हैं
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
कोई ज़ंज़ीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता
बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि ठकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ है सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ, देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
मेरी शोलामिज़ाजी को वो जन्गल कैसे रास आये
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता
खुली आँखों में सपना जागता है
खुली आँखों में सपना जागता है
वो सोया है के कुछ कुछ जागता है
तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा
के मेरे घर का कच्चा रास्ता है
ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वजूद के अंदर उतर न जाये
ख़ुद फूल ने भी होंठ किये अपने नीम-वा
चोरी तमाम रंग की तितली के सर न जाये
इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाये
पलकों को उसकी अपने दुपट्टे से पोंछ दूँ
कल के सफ़र में आज की गर्द-ए-सफ़र न जाये
मैं किस के हाथ भेजूँ उसे आज की दुआ
क़ासिद हवा सितारा कोई उस के घर न जाये
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये
हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये
क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिये
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिये
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी
उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
कुछ ख़बर लायी तो है बादे-बहारी उसकी
कुछ ख़बर लायी तो है बादे-बहारी उसकी
शायद इस राह से गुज़रेगी सवारी उसकी
मेरा चेहरा है फ़क़त उसकी नज़र से रौशन
और बाक़ी जो है मज़मून-निगारी उसकी
आंख उठा कर जो रवादार न था देखने का
वही दिल करता है अब मिन्नतो-ज़ारी उसकी
रात में आंख में हैं हल्के गुलाबी डोरे
नींद से पलकें हुई जाती हैं भारी उसकी
उसके दरबार में हाज़िर हुआ यह दिल और फिर
देखने वाली थी कुछ कारगुज़ारी उसकी
आज तो उस पे ठहरती ही न थी आंख ज़रा
उसके जाते ही नज़र मैंने उतारी उसकी
अर्सा-ए-ख़्वाब में रहना है कि लौट आना है
फ़ैसला करने की इस बार है बारी उसकी
कायनात के ख़ालिक़ !
कायनात के ख़ालिक़ !
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है !
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
वो मेरे दिल पे नया ज़ख़्म लगाने आये
मेरे वीरान दरीचों में भी ख़ुश्बू जागे
वो मेरे घर के दर-ओ-बाम सजाने आये
उससे इक बार तो रूठूँ मैं उसी की मानिन्द
और मेरी तरह से वो मुझ को मनाने आये
इसी कूचे में कई उस के शनासा भी तो हैं
वो किसी और से मिलने के बहाने आये
अब न पूछूँगी मैं खोये हुए ख़्वाबों का पता
वो अगर आये तो कुछ भी न बताने आये
ज़ब्त की शहर-पनाहों की मेरे मालिक ख़ैर
ग़म का सैलाब अगर मुझ को बहाने आये
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी
अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी
जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी
कच्चा-सा इक मकां, कहीं आबादियों से दूर
कच्चा-सा इक मकां, कहीं आबादियों से दूर
छोटा-सा इक हुजरा, फ़राज़े-मकान पर
सब्ज़े से झांकती हुई खपरैल वाली छत
दीवारे-चोब पर कोई मौसम की सब्ज़ बेल
उतरी हुई पहाड़ पर बरसात की वह रात
कमरे में लालटेन की हल्की-सी रौशनी
वादी में घूमता हुआ इक चश्मे-शरीर
खिड़की को चूमता हुआ बारिश का जलतरंग
सांसों में गूंजता हुआ इक अनकही का भेद !
एक पैग़ाम
वही मौसम है
बारिश की हंसी
पेड़ों में छन छन गूंजती है
हरी शाख़ें
सुनहरे फूल के ज़ेवर पहन कर
तसव्वुर में किसी के मुस्कराती हैं
हवा की ओढ़नी का रंग फिर हल्का गुलाबी है
शनासा बाग़ को जाता हुआ ख़ुश्बू भरा रस्ता
हमारी राह तकता है
तुलूए-माह की साअत
हमारी मुंतज़िर है
एक दफ़नाई हुई आवाज़
फूलों और किताबों से आरास्ता घर है
तन की हर आसाइश देने वाला साथी
आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला बच्चा
लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंगमहल में
जहां कहीं जाती हूं
बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई
एक आवाज़ बराबर गिरय: करती है
मुझे निकालो !
मुझे निकालो !
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे
मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
उस वक़्त
जब आंख में शाम उतरे
पलकों पे शफ़क फूले
काजल की तरह मेरी
आंखों को धनक छू ले
उस वक़्त कोई उसको
आंखों से मेरी देखे
पलकों से मेरी चूमे
उसने फूल भेजे हैं
उसने फूल भेजे हैं
फिर मेरी अयादत को
एक-एक पत्ती में
उन लबों की नरमी है
उन जमील हाथों की
ख़ुशगवार हिद्दत है
उन लतीफ़ सांसों की
दिलनवाज़ ख़ुशबू है
दिल में फूल खिलते हैं
रुह में चिराग़ां है
ज़िन्दगी मुअत्तर है
फिर भी दिल यह कहता है
बात कुछ बना लेना
वक़्त के खज़ाने से
एक पल चुरा लेना
काश! वो खुद आ जाता
अजनबी!
अजनबी!
कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो
और दर्द हद से गुज़र जाए
आंखें तेरी
बात-बेबात रो रो पड़ें
तब कोई अजनबी
तेरी तन्हाई के चांद का नर्म हाला बने
तेरी क़ामत का साया बने
तेरे ज़्ख़्मों पे मरहम रखे
तेरी पलकों से शबनम चुने
तेरे दुख का मसीहा बने
रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है
इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है
चली चलूँ कि जहाँ तक ये साथ रहता है
ज़मीन-ए-दिल यूँ ही शादाब तो नहीं ऐ दोस्त
क़रीब में कोई दरिया ज़रूर बहता है
न जाने कौन सा फ़िक़्रा कहाँ रक़्म हो जाये
दिलों का हाल भी अब कौन किस से कहता है
मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए
मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए
दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए
बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए
शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है कि दरख्तों को चढ़ जाए
हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए
अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए
अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ
अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ
एक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या-क्या देखूँ
नींद आ जाये तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ
आँख खुल जाये तो तन्हाई की सहरा देखूँ
शाम भी हो गई धुँधला गई आँखें भी मेरी
भूलनेवाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ
सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ
एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ
मुझ पे छा जाये वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह
अंग-अंग अपना उसी रुत में महकता देखूँ
तू मेरी तरह से यक्ता है मगर मेरे हबीब
जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ
मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस एक बार
ख़्वाब बन कर तेरी आँखों में उतरता देखूँ
तू मेरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात
जाने क्यों तेरे लिये दिल को धड़कता देखूँ
अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात अब के बार रही
अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नज़रों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ़सराने-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तक़ल्लुफ़न मेरे नज़दीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने न हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुज़रता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त-रवी का तुझे भी शिकवा है
ग़म-ए-फ़िराक़ के क़िस्से निशात-ए-वस्ल का ज़िक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते
अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ, बिखरने से न रोके कोई
अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तन्हाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
कैसा सबात है कि रवानी भी साथ है
कैसा सबात है कि रवानी भी साथ है
वापस हैं और नाव में पानी भी साथ है
आसेब कौन सा है तआकुब में शहर के
घर बन रहे हैं नक्ल ए मकानी भी साथ है
यूँ ही नहीं बहार का झोंका भला लगा
ताज़ा हवा के याद पुरानी भी साथ है
हर किस्सागो ने दीदा-ए-बेख्वाब से कहा
इक नींद लाने वाली कहानी भी साथ है
हिज़्रत का एतबार कहाँ हो सके कि जब
छोड़ी हुई जगह की निशानी भी साथ है
मौजें बहम हुई तो किनारा नहीं रहा
मौजें बहम हुई तो किनारा नहीं रहा
आँखों में कोई ख़्वाब दुबारा नहीं रहा
घर बच गया की दूर थे साइका-मिज़ाज
कुछ आसमान का भी इशारा नहीं रहा
भूला है कौन एड़ लगाकर हयात को
रुकना ही रख्श ए जाँ को गंवारा नहीं रहा
जब तक वो बेनिशान रहा दस्तरस में था
खुशनाम हो गया तो हमारा नहीं रहा
गुमगश्ता ए सफ़र को जब अपनी ख़बर मिली
रस्ता दिखाने वाला सितारा नहीं रहा
कैसी घड़ी में तर्क ए सफ़र का ख़्याल है
जब हम में लौट आने का यारा नहीं रहा
शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे
शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे
कोई तो हो जो मेरी जड़ों को पानी दे
अपने सारे मंज़र मुझसे ले ले और
मालिक मेरी आँखों को हैरानी दे
उसकी सरगोशी में भीगती जाए रात
क़तरा-क़तरा तन को नई कहानी दे
उसके नाम पे खुले दरीचे के नीचे
कैसी प्यारी ख़ुशबू रात की रानी दे
बात तो तब है मेरे हर्फ़ में गूँज के साथ
कोई उस लहजे को बात पुरानी दे
शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे
शाख़-ए-बदन को ताज़ा फूल निशानी दे
कोई तो हो जो मेरी जड़ों को पानी दे
अपने सारे मंज़र मुझसे ले ले और
मालिक मेरी आँखों को हैरानी दे
उसकी सरगोशी में भीगती जाए रात
क़तरा-क़तरा तन को नई कहानी दे
उसके नाम पे खुले दरीचे के नीचे
कैसी प्यारी ख़ुशबू रात की रानी दे
बात तो तब है मेरे हर्फ़ में गूँज के साथ
कोई उस लहजे को बात पुरानी दे
चारागर हार गया हो जैसे
चारागर हार गया हो जैसे
अब तो मरना ही दवा हो जैसे
मुझसे बिछड़ा था वो पहले भी मगर
अब के ये ज़ख्म नया हो जैसे
मेरे माथे पे तेरे प्यार का हाथ
रूह पर दस्त ए सबा हो जैसे
यूँ बहुत हंस के मिला था लेकिन
दिल ही दिल में वो ख़फ़ा हो जैसे
सर छुपाएँ तो बदन खुलता है
ज़ीस्त मुफ़लिस की रिदा हो जैसे
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले
कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन
आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी-पहचानी-सी है
आज मेरे नाम लेता है मिरी ताज़ीर कौन
कोई मक़तल को गया था मुद्दतों पहले मगर
है दरे-ख़ेमा पे अब तक सूरते-तस्वीर कौन
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तशहीर कौन
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समुन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उससे मगर
जाते जाते उसका वो मुड़कर दुबारा देखना
किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद
ए शब्-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना
क्या क़यामत है कि जिनके नाम पर पसपा हुए
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़आरा देखना
क़दमों में भी थकान थी घर भी करीब था
क़दमों में भी थकान थी घर भी करीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था
निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए
इस शहर-ए-बे-चिराग़ में किसका नसीब था
आंधी ने उन रुतों को भी बेताज कर दिया
जिनका कभी हुमा-सा परिंदा नसीब था
कुछ अपने आप से ही उसे कशमकश न था
मुझमें भी कोई शख्स उसी का रक़ीब था
पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया
अपनी निगाह में कोई कितना गरीब था
मक़तल से आनेवाली हवा को भी कब मिला
ऐसा कोई दरीचा कि जो बेसलीब था
राग-ओ-पै में कोई लज़्ज़त अज़ब थी
गज़ाल-ए-शौक़ की वहशत अज़ब थी
किसी खुशचश्म से निस्बत अज़ब थी
हुजूम-ए-चश्म-ओ-रुखसार-ओ-दहन में
जो तन्हा कर गई सूरत अज़ब थी
वो तरदीद-ए-वफ़ा तो कर रहा था
मगर उस शख्स की हालत अज़ब थी
मिरी तक़दीर की नैरागियों में
मिरी तदबीर की शिरकत अज़ब थी
सर-ए-मक़तल किसी के पैरहन में
गुलाबी रंग की हिद्दत अज़ब थी
बदन का पहले-पहले आज चखना
राग-ओ-पै में कोई लज़्ज़त अज़ब थी
घर की याद है और दरपेश सफ़र भी है
घर की याद है और दरपेश सफ़र भी है
चौथी सिम्त निकल जाने का डर भी है
लम्हा ए रुखसत के गूंगे सन्नाटे की
एक गवाह तो उसकी चश्म-ए-तर भी है
इश्क को खुद दरयुजागरी मंज़ूर नहीं
माँगने पर आये तो कासा-ए-सर भी है
नए सफ़र पे चलते हुए ये ध्यान रहे
रस्ते में दीवार से पहले दर भी है
बहुत से नामों को अपने सीने में छुपाए
जली हुई बस्ती में एक शज़र भी है
आँखों में थकन धनक बदन पर
आँखों में थकन धनक बदन पर
जैसे शब-ए-अव्वली दुल्हन पर
दस्तक है हवा-ए-शब के तन पर
खुलता है नया दरीचा फ़न पर
रंगों की जमील बारिशों में
उतरी है बहार फूल-बन पर
थामे हुए हाथ रोशनी का
रख आई क़दम ज़मीं गगन पर
शबनम के लबों पे नाचती है
छाया है अजब नशा किरनपर
खुलती नहीं बर्ग-ओ-गुल की आँखें
जादू कोई कर गया चमन पर
ख़ामोशी कलाम कर रही है
जज़्बात की मुहर है सुख़न पर
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी
जिसके माथे पे मिरे बख्त का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी
मैंने हाथों को ही पतवार बनाई वर्ना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी
वो कहानी कि सभी सुईयां निकली भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहजादी के अंजाम की थी
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
बोझ उठाये हुए फिरती है हमारा अब तक
ए ज़मीं माँ तेरी ये उम्र तो आराम की थी
टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या
टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिसल-ए-सबा घूमते फिरो
कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या
औरों के हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या गरज़
सीपी में बन न पाए गुहर , तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा दिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या
जाने कब तक रहे ये तरतीब
जाने कब तक रहे ये तरतीब
दो सितारे खिले क़रीब क़रीब
चाँद की रोशनी से उसने लिखी
मेरे माथे पे एक बात अजीब
मैं हमेशा से उसके सामने थी
उसने देखा नहीं तो मेरा नसीब
रूह तक जिसकी आँच आती है
कौन ये शोला-रु है दिल के क़रीब
चाँद के पास क्या खिला तारा
बन गया सारा आसमान रक़ीब
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
मिरे वजूद पर तिरी गवाही और हो गई
रफुगरान ए शहर भी कमाल लोग थे मगर
सितारा साज़ हाथ में क़बा ही और हो गई
बहुत से लोग शाम तक किवाड़ खोलकर रहे
फ़कीर-ए-शहर की मगर सदा ही और हो गई
अँधेरे में थे जब तलक ज़माना साज़गार था
चिराग क्या जला दिया हवा ही और हो गई
बहुत संभल के चलने वाली थी पर अब के बार तो
वो गुल खिले कि शोखी-ए-सबा ही और हो गई
न जाने दुश्मनों की कौन बात याद आ गई
लबों तक आते-आते बद्दुआ ही और हो गई
ये मेरे हाथ की लकीरें खिल रहीं थीं या कि खुद
शगुन की रात खुशबु-ए-हिना ही और हो गई
ज़रा सी कर्गसों को आब-ओ-दाना की जो शह मिली
उक़ाब से ख़िताब की अदा ही और हो गई
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक़ हो गए
बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में
कितने बलंद-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की जिद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए
साहिल पे जितने आब गज़ीदा थे सब के सब
दरिया का रुख बदलते ही तैराक हो गए
सूरज दिमाग लोग भी इब्लाग-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब्-ए-फिराक के पेचाक हो गए
जब भी गरीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहज़े हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए
पानियों पानियों जब चाँद का हाला उतरा
पानियों पानियों जब चाँद का हाला उतरा
नींद की झील पे एक ख़्वाब पुराना उतरा
आज़माइश में कहाँ इश्क भी पूरा उतरा
हुस्न के आगे तो तक़दीर का लिक्खा उतरा
धूप ढलने लगी दीवार से साया उतरा
सतह हमवार हुई प्यार का दरिया उतरा
याद से नाम मिटा ज़ेहन से चेहरा उतरा
चाँद लम्हों में नज़र से तिरी क्या क्या उतरा
आज की शब् मैं परीशां हूँ तो यूँ लगता है
आज माहताब का चेहरा भी है उतरा उतरा
मेरी वहशत रम-ए-आहू से कहीं बढ़कर थी
जब मेरी ज़ात में तन्हाई का सहरा उतरा
इक शब्-ए-गम के अँधेरे पे नहीं है मौकूफ
तूने जो ज़ख्म लगाया है वो गहरा उतरा
ज़मीन से रह गया दूर आसमान कितना
ज़मीन से रह गया दूर आसमान कितना
सितारा अपने सफ़र में है खुश गुमान कितना
परिंदा पैकाँ ब दोश परवाज़ कर रहा है
रहा है उसको ख़्याल ए सय्यादगान कितना
हवा का रुख देख कर समंदर से पूछना है
उठायें अब कश्तियों पे हम बादबान कितना
बहार में खुशबुओं का नाम ओ नसब था जिससे
वही शजर आज हो गया बेनिशान कितना
गिरे अगर आइना तो इक ख़ास ज़ाविये से
वर्ना हर अक्स को रहे खुद पे मान कितना
बिना किसी आस के उसी तरह जी रहा है
बिछड़ने वालों में था कोई सख्तजान कितना
वो लोग क्या चल सकेंगे जो उँगलियों पे सोचें
सफ़र में है धूप किस क़दर सायबान कितना
उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे
उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा भरा देखे
गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद सा देखे
मिरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तिरे सिवा भी कई रंग खुश नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाक़त जो
जब आँखें खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे
खुली आँखों में सपना झाँकता है
खुली आँखों में सपना झाँकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे तेरी रिज़ा से माँगता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
किसी की खोज में फिर खो गया कौन
किसी की खोज में फिर खो गया कौन
गली में रोते-रोते सो गया कौन
बड़ी मुद्दत से तन्हा थे मिरे दुःख
ख़ुदाया मेरे आँसू रो गया कौन
जला आई थी मैं तो आस्तीं तक
लहू से मेरा दामन धो गया कौन
जिधर देखूँ खड़ी है फ़स्ल-ए-गिरिया
मिरे शहरों में आँसू बो गया कौन
अभी तक भाईयों में दुश्मनी थी
ये माँ के ख़ूँ का प्यासा हो गया कौन