शनिवार, मई 02, 2009

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले
अजनबी जैसे अजनबी से मिले



हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया
दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले



फूल ही फूल हम ने माँगे थे
दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले



जिस तरह आप हम से मिलते हैं
आदमी यूँ न आदमी से मिले

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं



ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहनेवाले
जीनेवाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं



फ़ासले उम्र के कुछ और बढा़ देती है
जाने क्यूँ लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं



चंद मासूम से पत्तों का लहू है "फ़ाकिर"
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं

शैख़ जी थोड़ी सी पीकर आइये

शैख़ जी थोड़ी सी पीकर आइये
मय है क्या शय फिर हमें बतलाइये



आप क्यों हैं सारी दुनिया से ख़फ़ा
आप भी दुश्मन मेरे बन जाइये



क्या है अच्छा क्या बुरा बंदा-नवाज़
आप समझें तो हमें समझाइये



जाने दिजे अक़्ल की बातें जनाब
दिल की सुनिये और पीते जाइये

शायद मैं ज़िन्दगी की सहर

शायद मैं ज़िन्दगी की सहर लेके आ गया
क़ातिल को आज अपने ही घर लेके आ गया



ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया



नश्तर है मेरे हाथ में, कांधों पे मैक़दा
लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर लेके आ गया



"फ़ाकिर" सनमकदे में न आता मैं लौटकर
इक ज़ख़्म भर गया था इधर लेके आ गया

ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे

ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे
किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें



अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी
हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का
लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का



मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये
मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे
ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो
कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे



जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा
नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से
रवायत है शायद ये सदियों पुरानी
शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी



मुहल्ले की सबसे निशानी पुरानी
वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों में परियों का डेरा
वो चहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा
भुलाये नहीं भूल सकता है कोई
वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी



कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुड़िया की शादी में लड़ना झगड़ना
वो झूलों से गिरना वो गिर के सम्भलना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफ़े
वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी



कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरोंदे बनाना बना के मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी

मेरे दुख की कोई दवा न करो

मेरे दुख की कोई दवा न करो
मुझ को मुझ से अभी जुदा न करो



नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर
डूब जाओ, ख़ुदा ख़ुदा न करो



ये सिखाया है दोस्ती ने हमें
दोस्त बनकर कभी वफ़ा न करो



इश्क़ है इश्क़, ये मज़ाक नहीं
चंद लम्हों में फ़ैसला न करो



आशिक़ी हो या बंदगी 'फ़ाकिर'
बे-दिली से तो इबतिदा न करो

मेरी ज़ुबाँ से मेरी दास्ताँ सुनो तो सही

मेरी ज़ुबाँ से मेरी दास्ताँ सुनो तो सही
यक़ीं करो न करो मेहरबाँ सुनो तो सही



चलो ये मान लिया मुजरिमे-मोहब्बत हैं
हमारे जुर्म का हमसे बयाँ सुनो तो सही



बनोगे दोस्त मेरे तुम भी दुश्मनों एक दिन
मेरी हयात की आह-ओ-फ़ुग़ाँ सुनो तो सही



लबों को सी के जो बैठे हैं बज़्मे-दुनिया में
कभी तो उनकी भी ख़ामोशियाँ सुनो तो सही



कहोगे वक़्त को मुजरिम भरी बहारों में
जला था कैसे मेरा आशियाँ सुनो तो सही

फिर आज मुझे तुम को बस इतना बताना है

फिर आज मुझे तुम को बस इतना बताना है
हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है



मधुबन हो या गुलशन हो पतझड़ हो या सावन हो
हर हाल में इंसाँ का इक फूल सा जीवन हो
काँटों में उलझ के भी ख़ुशबू ही लुटाना है
हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है



हर पल जो गुज़र जाये दामन को तो भर जाये
ये सोच के जी लें तो तक़दीर सँवर जाये
इस उम्र की राहों से ख़ुशियों को चुराना है
हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है



सब दर्द मिटा दें हम, हर ग़म को सज़ा दें हम
कहते हैं जिसे जीना दुनिया को सिखा दें हम
ये आज तो अपना है कल भी अपनाना है
हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है

फ़ल्सफ़े इश्क़ में पेश आये

फ़ल्सफ़े इश्क़ में पेश आये सवालों की तरह
हम परेशाँ ही रहे अपने ख़यालों की तरह



शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-मसीहा लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह



जब भी अंजाम-ए-मुहब्बत ने पुकार ख़ुद को
वक़्त ने पेश किया हम को मिसालों की तरह



ज़िक्र जब होगा मुहब्बत में तबाही का कहीं
याद हम आयेंगे दुनिया को हवालों की तरह

पत्थर के ख़ुदा

पत्‍थर के ख़ुदा पत्‍थर के सनम पत्‍थर के ही इंसां पाए हैं
तुम शहरे मुहब्‍बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं ।।



बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो ना वहां क्‍या हालत हैं
हम लोग वहीं से गुज़रे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं ।।



हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहां
सहरा में खु़शी के फूल नहीं, शहरों में ग़मों के साए हैं ।।



होठों पे तबस्‍सुम हल्‍का-सा आंखों में नमी से है 'फाकिर'
हम अहले-मुहब्‍बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं ।।

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाये हैं
तुम शहरे-मोहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आये हैं



बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो न वहाँ क्या हालत है
हम लोग वहीं से लौटे हैं बस शुक्र करो लौट आये हैं



हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ
सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साये हैं



होठों पे तबस्सुम हल्क़ा सा आँखों में नमी सी है 'फ़ाकिर'
हम अहले-मोहब्बत पर अक्सर ऐसे भी ज़माने आये हैं

दुनिया से वफ़ा करके

दुनिया से वफ़ा करके सिला ढूँढ रहे हैं
हम लोग भी नदाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं



कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं



ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं



दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं

दिल तोड़ दिया

कुछ तो दुनियाक इनाया़त ने दिल तोड़ दिया
और कुछ तल्ख़ी-ए हालात ने दिल तोड़ दिया



हम तो समझे थे कि बर्सात मे बरसेगी शराब
आई बर्सात तो बर्सात ने दिल तोड़ दिया



दिल तो रोता रहे और ऑखसे ऑसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया



वो मेरे है मुझे मिल जाऎगे आ जाऎगे
ऐसे बेकार खय़ालात ने दिल तोड़ दिया



आपको प्यार है मुझसे कि नही है मुझसे
जाने क्यो ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया

दिल की दीवार-ओ-दर पे क्या देखा

दिल की दीवार-ओ-दर पे क्या देखा
बस तेरा नाम ही लिखा देखा



तेरी आँखों में हमने क्या देखा
कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा



अपनी सूरत लगी प्यारी सी
जब कभी हमने आईना देखा



हाय अंदाज़ तेरे रुकने का
वक़्त को भी रुका रुका देखा



तेरे जाने में और आने में
हमने सदियों का फ़ासला देखा



फिर न आया ख़याल जन्नत का
जब तेरे घर का रास्ता देखा

ढल गया आफ़ताब ऐ साक़ी

ढल गया आफ़ताब ऐ साक़ी
ला पिला दे शराब ऐ साक़ी



या सुराही लगा मेरे मुँह से
या उलट दे नक़ाब ऐ साक़ी



मैकदा छोड़ कर कहाँ जाऊँ
है ज़माना ख़राब ऐ साक़ी



जाम भर दे गुनाहगारों के
ये भी है इक सवाब ऐ साक़ी



आज पीने दे और पीने दे
कल करेंगे हिसाब ऐ साक़ी

जिस मोड़ पर किये थे हम इंतज़ार बरसों

जिस मोड़ पर किये थे हम इंतज़ार बरसों
उससे लिपट के रोए दीवानावार बरसों



तुम गुलसिताँ से आये ज़िक्र-ए-ख़िज़ाँ ही लाये
हमने कफ़स में देखी फ़स्ल-ए-बहार बरसों



होती रही है यूँ तो बरसात आँसूओं की
उठते रहे हैं फिर भी दिल से ग़ुबार बरसों



वो संग-ए-दिल था कोई बेगाना-ए-वफ़ा था
करते रहें हैं जिसका हम इंतज़ार बरसों

ज़िन्दगी तुझ को जिया है

ज़िन्दगी तुझ को जिया है कोई अफ़सोस नहीं
ज़हर ख़ुद मैनें पिया है कोई अफ़सोस नहीं



मैनें मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़सोस नहीं



मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू
दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़सोस नहीं



अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश 'फ़ाकिर'
अब कफ़न ओड़ लिया है कोई अफ़सोस नहीं

ज़ख़्म जो आप की इनायत है

ज़ख़्म जो आप की इनायत है इस निशानी को नाम क्या दे हम
प्यार दीवार बन के रह गया है इस कहानी को नाम क्या दे हम



आप इल्ज़ाम धर गये हम पर एक एहसान कर गये हम पर
आप की ये मेहरबानी है मेहरबानी को नाम क्या दे हम



आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा धूप को हमने चाँदनी समझा
भूल ही भूल जिस की आदत है इस जवानी को नाम क्या दे हम



रात सपना बहार का देखा दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा
बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला बेज़ुबानी को नाम क्या दे हम

जब भी तन्हाई से घबरा के

जब भी तन्हाई से घबरा के सिमट जाते हैं
हम तेरी याद के दामन से लिपट जाते हैं



उन पे तूफ़ाँ को भी अफ़सोस हुआ करता है
वो सफ़ीने जो किनारों पे उलट जाते हैं



हम तो आये थे रहें शाख़ में फूलों की तरह
तुम अगर हार समझते हो तो हट जाते हैं

चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम

चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी



मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी



लिखा हुआ था जिस किताब में, कि इश्क़ तो हराम है
हुई वही किताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी



लबों से लब जो मिल गये, लबों से लब जो सिल गये
सवाल ग़ुम जवाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

ग़म बढ़े आते हैं

ग़म बढे़ आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह
तुम छिपा लो मुझे, ऐ दोस्त, गुनाहों की तरह



अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते, क्यों कर
दिल ही दुश्मन हैं मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह



हर तरफ़ ज़ीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त
बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह



जिनके ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाये, "फ़ाकिर"
वो भी पेश आये हैं इंसाफ़ के शाहों की तरह

कुछ तो दुनिया की इनायात

कुछ तो दुनिया कि इनायात ने दिल तोड़ दिया
और कुछ तल्ख़ी-ए-हालात ने दिल तोड़ दिया



हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया



दिल तो रोता रहे, ओर आँख से आँसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया



वो मेरे हैं, मुझे मिल जायेंगे, आ जायेंगे
ऐसे बेकार ख़यालात ने दिल तोड़ दिया



आप को प्यार है मुझ से के नहीं है मुझ से
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया

किसी रंजिश को हवा दो

किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी



मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जायेंगी
फ़ासले और बड़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी



ज़हर पीने की तो आदत थी ज़मानेवालो
अब कोई और दवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी



चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है 'फ़ाकिर'
भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी
हर शय जहाँ हसीन थी, हम तुम थे अजनबी



लेकर चले थे हम जिन्हें जन्नत के ख़्वाब थे
फूलों के ख़्वाब थे वो मुहब्बत के ख़्वाब थे
लेकिन कहाँ है उन में वो पहली सी दिलकशी



रहते थे हम हसीन ख़यालों की भीड़ में
उलझे हुए हैं आज सवालों की भीड़ में
आने लगी है याद वो फ़ुर्सत की हर घड़ी



शायद ये वक़्त हमसे कोई चाल चल गया
रिश्ता वफ़ा का और ही रंगो में ढल गया
अश्कों की चाँदनी से थी बेहतर वो धूप ही

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े
अपनी वफ़ा का सोच के अंजाम रो पड़े



हर शाम ये सवाल मुहब्बत से क्या मिला
हर शाम ये जवाब के हर शाम रो पड़े



राह-ए-वफ़ा में हमको ख़ुशी की तलाश थी
दो गाम ही चले थे के हर गाम रो पड़े



रोना नसीब में है तो औरों से क्या गिला
अपने ही सर लिया कोई इल्ज़ाम रो पड़े

इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात

इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दिया



आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया



रोनेवालों से कह दो उनका भी रोना रोलें
जिनको मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया



तुझसे मिलकर हमें रोना था बहुत रोना था
तंगी-ए-वक़्त-ए-मुलाक़ात ने रोने न दिया



एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो लें "फ़ाकिर"
हम को हर रोज़ के सदमात ने रोने न दिया

आदमी आदमी को क्या देगा

आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा



मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा



ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा



हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा



इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा

आज तुम से बिछड़ रहा हूँ

आज तुम से बिछड़ रहा हूँ
आज कहता हूँ फिर मिलूँगा तुम से
तुम मेरा इंतज़ार करती रहो
आज का ऐतबार करती रहो



लोग कहते हैं वक़्त चलता है
और इंसान भी बदलता है
काश रुक जाये वक़्त आज की रात
और बदले न कोई आज के बाद



वक़्त बदले ये दिल न बदलेगा
तुम से रिश्ता कभी न टूटेगा
तुम ही ख़ुश्बू हो मेरी साँसों की
तुम ही मंज़िल हो मेरे सपनों की



लोग बोते हैं प्यार के सपने
और सपने बिखर भी जाते हैं
एक एहसास ही तो है ये वफ़ा
और एहसास मर भी जाते हैं

आज के दौर में ऐ दोस्त

आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है



जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है



अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है



ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब "फ़ाकिर"
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है

अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे

अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
लैला मजनूँ के मिसालों पे हँसी आती है



जब भी तक़मील-ए-मोहब्बत का ख़याल आता है
मुझको अपने ख़यालों पे हँसी आती है



लोग अपने लिये औरों में वफ़ा ढूँढते हैं
उन वफ़ा ढूँढनेवालों पे हँसी आती है



देखनेवालों तबस्सुम को करम मत समझो
उन्हें तो देखनेवालों पे हँसी आती है



चाँदनी रात मोहब्बत में हसीन थी "फ़ाकिर"
अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है

अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें

अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें
हम उनके लिए ज़िंदगानी लुटा दें



हर एक मोड़ पर हम ग़मों को सज़ा दें
चलो ज़िन्दगी को मोहब्बत बना दें



अगर ख़ुद को भूले तो, कुछ भी न भूले
कि चाहत में उनकी, ख़ुदा को भुला दें



कभी ग़म की आँधी, जिन्हें छू न पाये
वफ़ाओं के हम, वो नशेमन बना दें



क़यामत के दीवाने कहते हैं हमसे
चलो उनके चहरे से पर्दा हटा दें



सज़ा दें, सिला दें, बना दें, मिटा दें
मगर वो कोई फ़ैसला तो सुना दें

हिंज़ाबों में भी तू नुमायूँ नुमायूँ

हिंज़ाबों में भी तू नुमायूँ नुमायूँ
फरोज़ाँ फरोज़ाँ दरख्शाँ दरख्शाँ



तेरे जुल्फ-ओ-रुख़ का बादल ढूंढता हूँ
शबिस्ताँ शबिस्ताँ चाराघाँ चाराघाँ



ख़त-ओ-ख़याल की तेरे परछाइयाँ हैं
खयाबाँ खयाबाँ गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ



जुनूँ-ए-मुहब्बत उन आँखों की वहशत
बयाबाँ बयाबाँ गज़लाँ गज़लाँ



लपट मुश्क-ए-गेसू की तातार तातार
दमक ला'ल-ए-लब की बदक्शाँ बदक्शाँ



वही एक तबस्सुम चमन दर चमन है
वही पंखूरी है गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ



सरासार है तस्वीर जमीतों की
मुहब्बत की दुनिया हरासाँ हरासाँ



यही ज़ज्बात-ए-पिन्हाँ की है दाद काफी
चले आओ मुझ तक गुरेजाँ गुरेजाँ



"फिराक" खाज़ीं से तो वाकिफ थे तुम भी
वो कुछ खोया खोया परीशाँ परीशाँ

हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ

हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता
पड़ती है जब आँख तुझपे ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ



हर साज़ से होती नहीं एक धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ाँ-ए-नशात-ओ-गम में सदियों तुल कर
होता है हालात में तव्जौ पैदा



सेहरा में जमाँ मकाँ के खो जाती हैं
सदियों बेदार रह के सो जाती हैं
अक्सर सोचा किया हुँ खल-वत में फिराक
तहजीबें क्युं गुरूब हो जाती हैं



एक हलका-ए-ज़ंजीर तो ज़ंजीर नहीं
एक नुक्ता-ए-तस्वीर तो तस्वीर नहीं
तकदीर तो कौमों की हुआ करती है
एक शख्स की तकदीर कोई तकदीर नहीं



महताब में सुर्ख अनार जैसे छूटे
से कज़ा लचक के जैसे छूटे
वो कद है के भैरवी जब सुनाये सुर
गुन्चों से भी नर्म गुन्चगी देखी है



नाजुक कम कम शगुफ्तगी देखी है
हाँ, याद हैं तेरे लब-ए-आसूदा मुझे
तस्वीर-ए-सुकूँ-ए-जिन्दगी देखी है



जुल्फ-ए-पुरखम इनाम-ए-शब मोड़ती है
आवाज़ तिलिस्म-ए-तीरगी तोड़ती है
यूँ जलवों से तेरे जगमगाती है जमीं
नागिन जिस तरह केंचुली छोड़ती है

हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो

हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो
वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो

जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे
उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो

जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में
ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो

पहरों-पहरों तक ये दुनिया भूला सपना बन जाए है
मैं तो सरासर खो जाऊं हूँ याद इतना क्यों आओ हो

क्या गमे-दौराँ की परछाईं तुम पर भी पड़ जाए है
क्या याद आ जाए है यकायक क्यों उदास हो जाओ हो

झूठी शिकायत भी जो करूँ हूँ पलक दीप जल जाए हैं
तुमको छेड़े भी क्या तुम तो हँसी-हँसी में रो दो हो

ग़म से खमीरे-इश्क उठा है हुस्न को देवें क्या इलज़ाम
उसके करम पर इतनी उदासी दिलवालो क्या चाहो हो

एक शख्स के मर जाये से क्या हो जाये है लेकिन
हम जैसे कम होये हैं पैदा पछताओगे देखो हो

इतनी वहशत इतनी वहशत सदके अच्छी आँखों के
तुम न हिरन हो मैं न शिकारी दूर इतना क्यों भागो हो

मेरे नग्मे किसके लिए हैं खुद मुझको मालूम नहीं
कभी न पूछो ये शायर से तुम किसका गुण गाओ हो

पलकें बंद अलसाई जुल्फ़ें नर्म सेज पर बिखरी हुई
होटों पर इक मौजे-तबस्सुम सोओ हो या जागो हो

इतने तपाक से मुझसे मिले हो फिर भी ये गैरीयत क्यों
तुम जिसे याद आओ हो बराबर मैं हूँ वही तुम भूलो हो

कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो

गाह तरस जाये हैं आखें सजल रूप के दर्शन को
गाह नींद बन के रातों को नैन-पटों में आओ हो

इसे दुनिया ही में है सुने हैं इक दुनिया-ए-महब्बत भी
हम भी उसी जानिब जावें हैं बोलो तुम भी आओ हो

बहुत दिनों में याद किया है बात बनाएं क्या उनसे
जीवन-साथी दुःख पूछे हैं किसको हमें तुम सौंपो हो

चुपचुप-सी फ़ज़ा-ए-महब्बत कुछ कुछ न कहे है खलवते-राज़
नर्म इशारों से आँखों के बात कहाँ पहुँचाओ हो

अभी उसी का इंतज़ार था और कितना ऐ अहले-वफ़ा
चश्मे-करम जब उठने लगी है तो अब तुम शरमाओ हो

ग़म के साज़ से चंचल उंगलियां खेल रही हैं रात गए
जिनका सुकूत, सुकूते-आबाद है वे परदे क्यों छेड़ो हो

कुछ तो बताओ रंग-रूप भी तुम उसका ऐ अहले-नज़र
तुम तो उसको जब देखो हो देखते ही रह जाओ हो

अकसर गहरी सोच में उनको खोया-खोया पावें हैं
अब है फ़िराक़ का कुछ रोज़ो से जो आलम क्या पूछो हो

सितारों से उलझता जा रहा हूँ

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ



तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ



यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ



अगर मुम्किन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ



हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ



ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ



असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ



भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ



तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ



जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ



मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ



ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं

सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

यूं तो हन्गामा उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

मुद्दतें गुजरी हैं तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं

ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं

दिल की गिनती ना यागानों में, ना बेगानों में
लेकिन इस ज़लवागाह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं

बदगुमां होके मिल ऐ दोस्त, जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुऐ मिलना कोई मिलना भी नहीं

शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख से जो
साफ़ कायल भी नहीं और साफ़ मुकरता भी नहीं

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह, मुझसे तो मेरी रंजिश-ए-बेजां भी नहीं

बात ये है कि सूकून-ए-दिल-ए वहशी का मकाम
कुंज़-ए-ज़िन्दान भी नहीं, वुसत-ए-सहरा भी नहीं

मुंह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते, कि फ़िराक
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

सकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है

सकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है
सुख़न की शमा जलाओ बहुत अंधेरा है

दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूढने जाओ बहुत अंधेरा है

ये रात वो के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
ख़यालो दूर न जाओ बहुत अंधेरा है

लटों को चेहरे पे डाले वो सो रहा है कहीं
ज़या-ए-रुख़ को चुराओ बहुत अंधेरा है

हवाए नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम
नक़ आब रुख़ से उठाओ बहुत अंधेरा है

शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम सम्भल के उठाओ बहुत अंधेरा है

गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अंधेरा है

थी एक उचकती हुई नींद ज़िंदगी उसकी
'फ़िराख़' को न जगाओ बहुत अंधेरा है

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो


ये सुकूत-ए-नाज़, ये दिल की रगों का टूटना

ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो


निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परीशां, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म

सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो


कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा

कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो


जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़

आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो

रुबाईयाँ

1. लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे



2. दोशीज़: ए बहार मुसकुराए जैसे
मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे
ये शान ए सुबकरवी, ये ख्नुशबू ए बदन
बल खाई हुई नसीम गाए जैसे



3. ग़ुनचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
मुतरिब कोई साज़ छेड़जाए जैसे
यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन
मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे



4. मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा
गुलगूँ रुख्नसार की बलाऎं लेता
रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़
गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना



5. माँ और बहन भी और चहीती बेटी
घर की रानी भी और जीवन साथी
फिर भी वो कामनी सरासर देवी
और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली



6. अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी
जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी
ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप
जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी



7. हम्माम में ज़ेर ए आब जिसम ए जानाँ
जगमग जगमग ये रंग ओ बू का तूफ़ाँ
मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव
तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ



8. चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें
चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें
जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन
पलकोँ की ओट मुस्कुराती आँखें



9. तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख
जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख
जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:
दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख



10. भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख
दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख
ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी
गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख



लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे



दोशीज़-ए-बहार मुस्कुराए जैसे
मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे
ये शान ए सुबकरवी, ये ख़ुशबू-ए-बदन
बल खाई हुई नसीम गाए जैसे



ग़ुनचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
मुतरिब कोई साज़ छेड़ जाए जैसे
यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन
मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे



मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा
गुलगूँ रुख़सार की बलाएँ लेता
रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़
गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना



माँ और बहन भी और चहेती बेटी
घर की रानी भी और जीवन साथी
फिर भी वो कामनी सरासर देवी
और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली



अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी
जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी
ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप
जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी



हम्माम में ज़ेर ए आब जिस्म ए जानाँ
जगमग जगमग ये रंग-ओ-बू का तूफ़ाँ
मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव
तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ



चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें
चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें
जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन
पलकों की ओट मुस्कुराती आँखें



तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख
जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख
जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:
दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख



भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख
दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख
ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी
गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख




किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी
हिलती है सुडौल बांह गोरी-गोरी
माथे पे सुहाग आंखों मे रस हाथों में
बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी




किस प्यार से होती है ख़फा बच्चे से
कुछ त्योरी चढ़ाए मुंह फेरे हुए
इस रूठने पे प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे




है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है
मां है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है
वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी
कन्या है , सुहागन है जगत माता


हौदी पे खड़ी खिला रही है चारा
जोबन रस अंखड़ियों से छलका छलका
कोमल हाथों से है थपकती गरदन
किस प्यार से गाय देखती है मुखड़ा


वो गाय को दुहना वो सुहानी सुब्हें
गिरती हैं भरे थन से चमकती धारें
घुटनों पे वो कलस का खनकना कम-कम
या चुटकियों से फूट रही हैं किरनें

मथती है जमे दही को रस की पुतली
अलकों की लटें कुचों पे लटकी-लटकी
वो चलती हुई सुडौल बाहों की लचक
कोमल मुखड़े पर एक सुहानी सुरखी

आंखें हैं कि पैग़ाम मुहब्बत वाले
बिखरी हैं लटें कि नींद में हैं काले
पहलू से लगा हुआ हिरन का बच्चा
किस प्यार से है बग़ल में गर्दन डाले


आँगन में सुहागनी नहा के बैठी हुई
रामायण जानुओं पे रक्खी है खुली
जाड़े की सुहानी धूप खुले गेसू की
परछाईं चमकते सफ़हे* पर पड़ती हुई

मासूम जबीं और भवों के ख़ंजर
वो सुबह के तारे की तरह नर्म नज़र
वो चेहरा कि जैसे सांस लेती हो सहर
वो होंट तमानिअत** की आभा जिन पर

अमृत वो हलाहल को बना देती है
गुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है

प्यारी तेरी छवि दिल को लुभा लेती है
इस रूप से दुनिया की हरी खेती है
ठंडी है चाँद की किरन सी लेकिन
ये नर्म नज़र आग लगा देती है


सफ़हे – माथा, तमानिअत - संतोष

प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती है पलक
बैठी हुई है सिरहाने, माँद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ
पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक

चेहरे पे हवाइयाँ निगाहों में हिरास*
साजन के बिरह में रूप कितना है उदास
मुखड़े पे धुवां धुवां लताओं की तरह
बिखरे हुए बाल हैं कि सीता बनवास

पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
पानी हचकोले ले के भरता है तरंग
कांधों पे, सरों पे, दोनों बाहों में कलस
मंद अंखड़ियों में, सीनों में भरपूर उमंग

ये ईख के खेतों की चमकती सतहें
मासूम कुंवारियों की दिलकश दौड़ें
खेतों के बीच में लगाती हैं छलांग
ईख उतनी उगेगी जितना ऊँचा कूदें

रात भी, नींद भी, कहानी भी

रात भी, नींद भी, कहानी भी
हार, क्या चीज़ है जवानी भी

एक पैगामे-ज़िन्दगानी भी
आशिकी मर्गे-नागहानी भी

इस अदा का तेरी जवाब नहीं
मेहरबानी भी, सरगरानी भी

दिल को अपने भी गम थे दुनिया में
कुछ बलायें थी आसमानी भी

मंसबे-दिल खुशी लुटाता है
गमे-पिन्हान भी, पासबानी भी

दिल को शोलों से करती है सैराब
ज़िन्दगी आग भी है, पानी भी

शादकामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिले-गमगीं की शादमानी भी

लाख हुस्ने-यकीं से बढकर है
इन निगाहों की बदगुमानी भी

तंगना-ए-दिले-मलाल में है
देहर-ए-हस्ती की बेकरानी भी

इश्के-नाकाम की है परछाई
शादमानी भी, कामरानी भी

देख दिल के निगारखाने में
ज़ख्में-पिन्हान की है निशानी भी

खल्क क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूं मैं तेरी जुबानी भी

आये तारीके-इश्क में सौ बार
मौत के दौर दरमियानी भी

अपनी मासूमियों के परदे में
हो गई वो नजर सयानी भी

दिन को सूरजमुखी है वो नौगुल
रात को वो है रातरानी भी

दिले-बदनाम तेरे बारे में
लोग कहते हैं इक कहानी भी

नज़्म करते कोई नयी दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी

दिल को आदाबे-बंदगी भी ना आये
कर गये लोग हुक्मरानी भी

जौरे-कम कम का शुक्रिया बस है
आप की इतनी मेहरबानी भी

दिल में एक हूक सी उठे ऐ दोस्त
याद आये तेरी जवानी भी

सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा
एक अन्दाजे-तुर्कमानी भी

पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेजबानी भी

जो ना अक्स-ए-जबीं-ए-नाज की है
दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी

ज़िन्दगी ऐन दीद-ए-यार ’फ़िराक़’
ज़िन्दगी हिज़्र की कहानी भी



मर्गे-नागहानी= अचानक मौत
सरगरानी=गुस्सा मन्सब=मन्सूबा
सैराब=भिगोना शादकाम=भाग्यवान लोग
तौफ़ीक=काबिलियत शादमानी=खुशी
तन्गामा-ए-दिले-मलाल=दुखी दिल के थोडे से हिस्से में
देहर-ए-हस्ती=ज़िन्दगी का समन्दर बेकरानी=असन्ख्य
कामरानी=सफ़लता निगारखाना=जहां बहुत लडकियां हों
पिन्हान=छुपा हुआ खल्क=दुनिया तारीके-इश्क=मोहब्बत का इतिहास
दौर=वक्त, समय दरमियानी=बीच में नौगुल=नया फ़ूल
नज़्म=नया बनाना जौर=कहर पा=पांव सुपुर्दगी=समर्पण
तुर्कमानी=विद्रोही अक्स-ए-जबीं-ए-नाज़=किसी प्यारे का चेहरा
नूर=प्रकाश कहकशां=आकाश गंगा ऐन= असलियत में

रात आधी से ज्यादा गई थी, सारा आलम सोता था

रात आधी से ज्यादा गई थी, सारा आलम सोता था
नाम तेरा ले ले कर कोई दर्द का मारा रोता था

चारागरों, ये तस्कीं कैसी, मैं भी हूं इस दुनिया में
उनको ऐसा दर्द कब उठा, जिनको बचाना होता था

कुछ का कुछ कह जाता था मैं फ़ुरकत की बेताबी में
सुनने वाले हंस पडते थे होश मुझे तब आता था

तारे अक्सर डूब चले थे, रात को रोने वालों को
आने लगी थी नींद सी कुछ, दुनिया में सवेरा होता था

तर्के-मोहब्बत करने वालों, कौन ऐसा जग जीत लिया
इश्क के पहले के दिन सोचो, कौन बडा सुख होता था

उसके आंसू किसने देखे, उसकी आंहे किसने सुनी
चमन चमन था हुस्न भी लेकिन दरिया दरिया रोता था

पिछला पहर था हिज़्र की शब का, जागता रब, सोता इन्सान
तारों कि छांव में कोई ’फ़िराक’ सा मोती पिरोता था



चारागर=हकीम, तस्कीन=तसल्ली, फ़ुरकत=जुदाई
तर्के-मोहब्बत=मोहब्बत का खात्मा

रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना

रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना



बाग़-ए-जन्नत में घटा जैसे बरस के खुल जाये
सोंधी सोंधी तेरी ख़ुश्बू-ए-बदन क्या कहना



जैसे लहराये कोई शोला कमर की ये लचक
सर ब-सर आतिश-ए-सय्याल बदन क्या कहना



क़ामत-ए-नाज़ लचकती हुई इक क़ौस-ओ-ए-क़ज़ाह
ज़ुल्फ़-ए-शब रंग का छया हुआ गहन क्या कहना



जिस तरह जल्वा-ए-फ़िर्दौस हवाओं से छीने
पैराहन में तेरे रंगीनी-ए-तन क्या कहना



जल्वा-ओ-पर्दा का ये रंग दम-ए-नज़्ज़ारा
जिस तरह अध-खुले घुँघट में दुल्हन क्या कहना



जगमगाहट ये जबीं की है के पौ फटती है
मुस्कुराहट है तेरी सुबह-ए-चमन क्या कहना



ज़ुल्फ़-ए-शबगूँ की चमक पैकर-ए-सीमें की दमक
दीप माला है सर-ए-गंग-ओ-जमन क्या कहना

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी

खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की

मिला हूं मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आंखों में भी थी कुछ नमी सी

मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही

भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आंखों ने मुझसे बात कर ली

लडकपन की अदा है जानलेवा
गजब की छोकरी है हाथ भर की

रकीब-ए-गमजदा अब सब्र कर ले
कभी उस से मेरी भी दोस्ती थी

ये निकहतों कि नर्म रवी, ये हवा, ये रात

ये निकहतों कि नर्म रवी, ये हवा, ये रात
याद आ रहे हैं इश्क के टूटे ता-अल्लुकात

मासूमियों की गोद में दम तोडता है इश्क
अब भी कोई बना ले तो बिगडी नहीं है बात

इक उम्र कट गई है तेरे इन्तज़ार में
ऐसे भी हैं कि कट ना सकी जिनसे एक रात

हम अहले-इन्तज़ार के आहट पे कान थे
ठन्डी हवा थी, गम था तेरा, ढल चली थी रात

हर साई-ओ-हर अमल में मोहब्बत का हाथ है
तामीर-ए-ज़िन्दगी के समझ कुछ मुहरकात

अहल-ए-रज़ा में शान-ए-बगावत भी हो ज़रा
इतनी भी ज़िन्दगी ना हो पाबंदगी-ए-रस्मियात

उठ बंदगी से मालिक-ए-तकदीर बन के देख
क्या वसवसा अज़ब का क्या काविश-ए-निज़ात

मुझको तो गम ने फ़ुर्सत-ए-गम भी ना दी फ़िराक
दे फ़ुर्सत-ए-हयात ना जैसे गम-ए-हयात

ये तो नहीं कि ग़म नहीं

ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं

मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं इरम नहीं

क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं

लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं

सोम-ओ-सलात से फ़िराक़
मेरे गुनाह कम नहीं

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं

यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़

यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़



दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग



तमाम शोला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार
कि ता-हद-ए-निगाह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़



‘नई ज़मीं, नया आस्मां, नई दुनिया’
सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग



दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब यह आलम है
कि जैसे नींद में दूबे होन पिछली रात चिराग़



फिराक़ बज़्म-ए-चिरागां है महफ़िल-ए-रिन्दां
सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़

मौत इक गीत रात गाती थी

मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी

कभी दीवाने रो भी पडते थे
कभी तेरी भी याद आती थी

किसके मातम में चांद तारों से
रात बज़्मे-अज़ा सजाती थी

रोते जाते थे तेरे हिज़्र नसीब
रात फ़ुरकत की ढलती जाती थी

खोई खोई सी रहती थी वो आंख
दिल का हर भेद पा भी जाती थी

ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी

हुस्न में थी इन आंसूओं की चमक
ज़िन्दगी जिनमें मुस्कुराती थी

दर्द-ए-हस्ती चमक उठा जिसमें
वो हम अहले-वफ़ा की छाती थी

तेरे उन आंसूओं की याद आयी
ज़िन्दगी जिनमें मुस्कुराती थी

था सूकूते-फ़ज़ा तरन्नुम रेज़
बू-ए-गेसू-ए-यार गाती थी

गमे-जानां हो या गमें-दौरां
लौ सी कुछ दिल में झिलमिलाती थी

ज़िन्दगी को वफ़ा की राहों में
मौत खुद रोशनी दिखाती थी

बात क्या थी कि देखते ही तुझे
उल्फ़ते-ज़ीस्त भूल जाती थी

थे ना अफ़लाके-गोश बर-आवाज
बेखुदी दास्तां सुनाती थी

करवटें ले उफ़क पे जैसे सुबह
कोई दोसीज़ा रस-मसाती थी

ज़िन्दगी ज़िन्दगी को वक्ते-सफ़र
कारवां कारवां छुपाती थी

सामने तेरे जैसे कोई बात
याद आ आ के भूल जाती थी

वो तेरा गम हो या गमे-दुनिया
शमा सी दिल में झिलमिलाती थी

गम की वो दास्ताने-नीम-शबी
आसमानों की नीन्द आती थी

मौत भी गोश भर सदा थी फ़िराक
ज़िन्दगी कोई गीत गाती थी

मुझको मारा है हर इक दर्द-ओ-दवा से पहले

मुझको मारा है हर इक दर्द-ओ-दवा से पहले
दी सज़ा इश्क ने हर ज़ुर्म-ओ-खता से पहले

आतिश-ए-इश्क भडकती है हवा से पहले
होंठ जलते हैं मोहब्बत में दुआ से पहले

अब कमी क्या है तेरे बेसर-ओ-सामानों को
कुछ ना था तेरी कसम तर्क-ओ-फ़ना से पहले

इश्क-ए-बेबाक को दावे थे बहुत खलवत में
खो दिया सारा भरम, शर्म-ओ-हया से पहले

मौत के नाम से डरते थे हम ऐ शौक-ए-हयात
तूने तो मार ही डाला था, कज़ा से पहले

हम उन्हे पा कर फ़िराक, कुछ और भी खोये गये
ये तकल्लुफ़ तो ना थे अहद-ए-वफ़ा से पहले

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं



मेरी नजरें भी ऐसे कातिलों का जान ओ ईमान हैं
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं



तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं



खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं



जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं



तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं




रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं



हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं



ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं



'फ़िराक' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं

निगाहें नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या-क्या ।

निगाहें नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या-क्या ।

हिजाब अहले मुहब्बत को आए हैं क्या-क्या ।।


जहाँ में थी बस इक अफ़वाह तेरे जलवों की,

चराग़े दैरो-हरम झिलमिलाए है क्या-क्या ।


कहीं चराग़, कहीं गुल, कहीं दिल बरबाद,

ख़ेरामें नाज़ ने कितने उठाए हैं क्या-क्या ।


पयामें हुस्न, पयामे जुनूँ, पयामें फ़ना,

तेरी निगाह ने फसाने सुनाए हैं क्या-क्या ।


‘फिराक़’ राहे वफ़ा में सबक रवी तेरी,

बड़े बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या-क्या ।

न जाने अश्क से आँखों में क्यों है आये हुए

न जाने अश्क से आँखों में क्यों है आये हुए
गुज़र गया ज़माना तुझे भुलाये हुए

जो मन्ज़िलें हैं तो बस रहरवान-ए-इश्क़ की हैं
वो साँस उखड़ी हुई पाँव डगमगाये हुए

न रहज़नों से रुके रास्ते मोहब्बत के
वो काफ़िले नज़र आये लुटे लुटाये हुए

अब इस के बाद मुझे कुछ ख़बर नहीं उन की
ग़म आशना हुए अपने हुए पराये हुए

ये इज़्तिराब सा क्या है कि मुद्दतें गुज़री
तुझे भुलाये हुए तेरी याद आये हुए

ना जाना आज तक क्या शै खुशी है

ना जाना आज तक क्या शै खुशी है
हमारी ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है

तेरे गम से शिकायत सी रही है
मुझे सचमुच बडी शर्मिन्दगी है

मोहब्बत में कभी सोचा है यूं भी
कि तुझसे दोस्ती या दुश्मनी है

कोई दम का हूं मेहमां, मुंह ना फ़ेरो
अभी आंखों में कुछ कुछ रोशनी है

ज़माना ज़ुल्म मुझ पर कर रहा है
तुम ऐसा कर सको तो बात भी है

झलक मासूमियों में शोखियों की
बहुत रंगीन तेरी सादगी है

इसे सुन लो, सबब इसका ना पूछो
मुझे तुम से मोहब्बत हो गई है

सुना है इक नगर है आंसूओं का
उसी का दूसरा नाम आंख भी है

वही तेरी मोहब्बत की कहानी
जो कुछ भूली हुई, कुछ याद भी है

तुम्हारा ज़िक्र आया इत्तिफ़ाकन
ना बिगडो बात पर, बात आ गई है

देखते देखते उतर भी गये

देखते देखते उतर भी गये
उन के तीर अपना काम कर भी गये



हुस्न पर भी कुछ आ गये इलज़ाम
गो बहुत अहल-ए-दिल के सर भी गये



यूँ भी कुछ इश्क नेक नाम ना था
लोग बदनाम उसको कर भी गये



कुछ परेशान से थे भी अहल-ए-जुनूंन
गेसु-ए-यार कुछ बिखर भी गए



आज उन्हें मेहरबान सा पाकर
खुश हुए और जी में डर भी गए



इश्क में रूठ कर दो आलम से
लाख आलम मिले जिधर भी गये



हूँ अभी गोश पुर सदा और वो
ज़ेर-ए-लब कह के कुछ मुकर भी गये

थरथरी सी है आसमानों में

थरथरी सी है आसमानों में
जोर कुछ तो है नातवानों में

कितना खामोश है जहां लेकिन
इक सदा आ रही है कानों में

कोई सोचे तो फ़र्क कितना है
हुस्न और इश्क के फ़सानों में

मौत के भी उडे हैं अक्सर होश
ज़िन्दगी के शराबखानों में

जिन की तामीर इश्क करता है
कौन रहता है उन मकानों में

इन्ही तिनकों में देख ऐ बुलबुल
बिजलियां भी हैं आशियानों में



नातवान = कमजोर

जब नज़र आप की हो गई है

जब नजर आप की हो गई है
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी हो गई है

बारहा बर-खिलाफ़-ए-हर-उम्मीद
दोस्ती, दुश्मनी हो गई है

है वो तकमील पुरकारियों की
जो मेरी सादगी हो गई है

तेरी हर पुरशिश-ओ-मेहरबानी
अब मेरी बेकसी हो गई है

भूल बैठा है तू कह के जो बात
वो मेरी ज़िन्दगी हो गई है

बज़्म में आंख उठाने की तक्सीर
ऐ फ़िराक, आज भी हो गई है

छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं

छ्लक के कम ना हो ऐसी कोई शराब नहीं
निगाहे नरगिसे राना, तेरा जवाब नहीं

ज़मीं जाग रही है कि इन्कलाब है कल
वो रात है कि कोई ज़र्रा भी महवे ख्वाब नहीं

ज़मीं उसकी, फ़लक उसका, कायनात उसकी
कुछ ऐसा इश्क तेरा खानमा खराब नहीं

जो तेरे दर्द से महरूम है यहां उनको
गमे ज़हां भी सुना है कि दस्तयाब नहीं

अभी कुछ और हो इन्सान का लहू पानी
अभी हयात के चेहरे पे आबो-ताब नहीं

दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
खराब हो के भी ये ज़िन्दगी खराब नहीं

ग़ैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं

गैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बज़ा कहते हैं

वाकई तेरे इस अन्दाज को क्या कहते हैं
ना वफ़ा कहते हैं जिस को ना ज़फ़ा कहते हैं

हो जिन्हे शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इन्सान को दुनिया का खुदा कहते हैं

तेरी सूरत नजर आई तेरी सूरत से अलग
हुस्न को अहल-ए-नजर हुस्न नुमां कहते हैं

शिकवा-ए-हिज़्र करें भी तो करें किस दिल से
हम खुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं

तेरी रूदाद-ए-सितम का है बयान नामुमकिन
फायदा क्या है मगर यूं जो जरा कहते हैं

लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितमकोशी को
हम तो इन बातों अच्छा ना बुरा कहते हैं

औरों का तजुरबा जो कुछ हो मगर हम तो फ़िराक
तल्खी-ए-ज़ीस्त को जीने का मजा कहते हैं

क्यों तेरे ग़म-ए-हिज्र में

क्यों तेरे ग़म-ए-हिज्र में नमनाक हिं पलकें
क्योंकि याद तेरी आते ही तारे निकल आए

बरसात की इस रात में ए दोस्त तेरी याद
इक तेज़ छुरी है जो उतरती ही चली जाए

कुछ एसी भी गुज़री हैं तेरे हिज्र में रातें
दिल दर्द से ख़ाली हो मगर नींद न आए

शायर हैं फ़िराक़ आप बड़े पाए के लेकिन
रक्खा है अजब नाम के जो रास न आए

कोई नयी ज़मीं हो, नया आसमां भी हो

कोई नयी ज़मीं हो, नया आसमां भी हो
ए दिल अब उसके पास चले, वो जहां भी हो

अफ़सुर्दगी ए इश्क में सोज़ ए निहां भी हो
यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुंआ भी हो

इस दरजा इख्तिलात और इतनी मुगैरत
तू मेरे और अपने कभी दरमियां भी हो

हम अपने गम-गुसार ए मोहब्बत ना हो सके
तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबां भी हो

बज़्मे तस्व्वुरात में ऐ दोस्त याद आ
इस महफ़िले निशात में गम का समां भी हो

महबूब वो कि सर से कदम तक खुलूस हो
आशिक वही जो इश्क से कुछ बदगुमां भी हो

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम



रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम



होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम



बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम



भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम



हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम

किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब, मगर फिर भी


हजार बार ज़माना इधर से गुजरा

नई नई है मगर कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी


खुशा इशारा-ए-पैहम, जेह-ए-सुकूत नज़र

दराज़ होके फ़साना है मुख्तसर फिर भी


झपक रही हैं ज़मान-ओ-मकाँ की भी आँखें

मगर है काफ्ला आमादा-ए-सफर फिर भी


पलट रहे हैं गरीबुल वतन, पलटना था

वोः कूचा रूकश-ए-जन्नत हो, घर है घर, फिर भी


तेरी निगाह से बचने मैं उम्र गुजरी है

उतर गया रग-ए-जान मैं ये नश्तर फिर भी

कभी पाबंदियों से छूट के भी दम घुटने लगता है

कभी पाबन्दियों से छूट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दान नहीं होता

हमारा ये तजुर्बा कि खुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसान नहीं होता

बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द-ओ-नादान नहीं होता

यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्कां नहीं होता

ऐ जज्बा-ए-निहां और कोई है कि वही है

ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूं ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं


दिन में हम को देखने वालों अपने अपने हैं औक़ाब
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं


फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं


बाग़ में वो ख्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
ड़ाली ड़ाली नौरस पत्ते सहस सहज जब ड़ोले हैं


उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गां जब फ़ितने पर तोले हैं


इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियां बंद-ए-क़बा जब खोले हैं


ग़म का फ़साना सुनने वालों आखिर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं


हम लोग अब तो पराये से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

दूर से आये थे साक़ी / नज़ीर अकबराबादी

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।

बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।

मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।

दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।

हमको फँसना था क़फ़स, क्या गिला सय्याद का।

बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।

ताके अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।

अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।

क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’

ताकि शादी-मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ

जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी से जिस का नाक तलक पेट है भरा
करता फिरे है क्या वो उछल कूद जा ब जा
दीवार फाँद कर कोई कोठा उछल गया
ठठ्ठा हँसी शराब सनम साक़ी इस सिवा

सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ

जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हज़ूर है
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है

इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ

आवे तवे तनूर का जिस जा ज़बां पे नाम
या चक्की चूल्हे का जहाँ गुलज़ार हो तमाम
वां सर झुका के कीजिये दंडवत और सलाम
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम

पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर
आटा नहीं है छलनी से छन छन गिरे है नूर
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी-ओ-मोती चूर
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर

इस आग को मगर ये बुझाती हैं रोटियाँ

पूछा किसी ने ये किसी कामिल फ़क़ीर से
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाये हैं काहे के
वो सुन के बोला बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे
हम तो न चाँद समझे न सूरज हैं जानते

बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ

फिर पूछा उस ने कहिये ये है दिल का नूर क्या
इस के मुशाहिदे में है खुलता ज़हूर क्या
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या

कश्फ़=प्रदर्शन; क़ुलूब=हृदय

सबा को ऐश की रहती है यादगार बसंत / नज़ीर अकबराबादी

जहां में फिर हुई ऐ ! यारों आश्कार बसंत
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत
निकाल आयी खिजाओं को चमन से पार बसंत
मची है जो हर यक जा वो हर कनार बसंत
अजब बहार से आयी है अबकी बार बसंत

जहां में आयी बहार और खिजां के दिन भूले
चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले
गुलों ने डालियों के डाले बास में झूले
समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले
दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत

दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए
गुलों के सर पै बुलबुलों के मंडराए
चमन हरे हुए बागों में आम भी आए
शगूफे खिल गए भौंरे भी गुंजन आए
यह कुछ बहार के लायी है वर्गों बार बसंत

कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं
तुन और कुसूम की जर्दी में कपड़े रंगते हैं
कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं
गरीब दमड़ी की हल्दी में कपड़े रंगते हैं
गर्ज हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत

कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं
गरीब सरसों के खेतों में जाके बैठे हैं
चमन में बाग में मजलिस बनाके बैठे हैं
पुकारते हैं अहा! हा! री जर निगार बसंत

कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं
मजीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं
कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं
गरीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं
बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत

जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं
बसंती जोड़ों में क्या-क्या चहकते फिरते हैं
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं
हुई है सबके गले की गरज कि हार बसंत

तवायफों में है अब यह बसंत का आदर
कि हर तरफ को बना गड़ुए रखके हाथों पर
गेहूं की बालियां और सरसों की डालियां लेकर
फिरें उम्दों के कूंचे व कूंचे घर घर
रखे हैं आगे सबों के बना संवार बसंत

मियां बसंत के यां तक रंग गहरे हैं
कि जिससे कूंचे और बााार सब सुनहरे हैं
जो लड़के नाजनी और तन कुछ इकहरे हैं
वह इस मजे के बसंती लिबास पहरे हैं
कि जिन पै होती है जी जान से निसार बसंत
बहा है जो जहां में बसंत का दरिया
किसी का जर्द है जोड़ा किसी का केसरिया
जिधर तो देखो उधर जर्द पोश का रेला
बने हैं कूच ओ बार खेत सरसों का
बिखर रही है गरज आके बेशुमार बसंत

'नज़ीर' खल्क में यह रुत जो आन फिरती है
सुनहरे करती महल और दुकान फिरती है
दिखाती हुस्न सुनहरी की शान फिरती है
गोया वही हुई सोने की कान फिरती है
सबों को ऐश की रहती है यादगार बसंत

ब्रज के लुटैया का बालपन / नज़ीर अकबराबादी

यारो सुनो ये ब्रज के लुटैया का बालपन

अवधपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।

मोहन-स्‍वरूप नृत्‍य, कन्‍हैया का बालपन

बन बन के ग्‍वाल घूमे, चरैया का बालपन

ऐसा था, बांसुरी के बजैया का बालपन

क्‍या क्‍या कहूं मैं कृष्‍ण कन्‍हैया का बालपन

अवधपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।




ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे

वरना वो आप ही माई थे और आप ही बाप थे

परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे

ज्‍योतिस्‍वरूप कहिए जिन्‍हें, सो वो आप थे

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

अवधपुरी नगर के बसैया का बालपन

क्‍या क्‍या कहूं ।।




उनको तो बालपन से ना था काम कुछ ज़रा

संसार की जो रीत थी उसको रखा बचा

मालिक थे वो तो आप ही, उन्‍हें बालपन से क्‍या

वां बालपन जवानी बुढ़ापा सब एक सा

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

अवधपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।

क्‍या क्‍या कहूं ।।




बाले थे ब्रजराज जो दुनिया में आ गये

लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गये

इस बालपन के रूप में कितना भा गये

एक ये भी लहर थी जो जहां को जता गये

यारो सुनो ये ब्रज के लुटैया का बालपन

अवधपुरी नगर के बसैया का बालपन

क्‍या क्‍या कहूं ।।




परदा ना बालपन का अगर वो करते जरा

क्‍या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता

झाड़ और पहाड़ ने भी सभी अपना सर झुका

पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

अवधपुरी नगर के बसैया का बालपन

क्‍या क्‍या कहूं ।।

बुख़्ल की बुराइयाँ / नज़ीर अकबराबादी

फ़क़ीरों की सदा

ज़र की जो मुहब्बत तुझे पड़ जावेगी बाबा!
दुख उसमें तेरी रुह बहुत पावेगी बाबा!
हर खाने को, हर पीने को तरसावेगी बाबा!
दौलत तो तेरे याँ ही न काम आवेगी बाबा!



फिर क्या तुझे अल्लाह से मिलवावेगी बाबा!


दाता की तॊ मुश्किल कोई अटकी नहीं रहती
चढ़ती है पहाड़ों के ऊपर नाव सखी की
और तूने बख़ीली से अगर जमा उसे की
तो याद यह रख बात की जब आवेगी सख़्ती



ख़ुश्की में तेरी नाव यह डुबवावेगी बाबा!


यह तो न किसी पास रही है न रहेगी
जो और से करती रही वह तुझ्से करेगी
कुछ शक नहीं इसमें जो बढ़ी है, सो घटेगी
जब तक तू जीएगा, यह तुझे चैन न देगी



और मरते हुए फिर यह ग़ज़ब लावेगी बाबा!


जब मौत का होवेगा तुझे आन के धड़का
और नज़आ तेरी आन के देवेगी भड़का
जब उसमें तू अटकेगा, न दम निकलेगा फड़का
कुप्पों में रूपै डाल के जब देवेंगे भड़का



तब तन से तेरी जान निकल जावेगी बाबा!


तू लाख अगर माल के सन्दूक भरेगा
है ये तो यक़ीन, एक दिन आख़िर को मरेगा
फिर बाद तेरे उस पे जो कोई हाथ धरेगा
वह नाच मज़ा देखेगा और ऎश करेगा



और रुह तेरी क़ब्र में घबरावेगी बाबा!


उसके तो वहाँ ढोलक व मृदंग बजेगी
और रुह तेरी क़ब्र में हसरत से जलेगी
वह खावेगा और तेरे तईं आग लगेगी
ता हश्र तेरी रुह को फिर कल न पड़ेगी



दिन-रात तेरी छाती को कुटवावेगी बाबा!


गर होश है तुझ में, तो बख़ीली का न कर काम
इस काम का आअख़िर को बुरा होता है अन्जाम
थूकेगा कोई कह के, कोई देवेगा दुश्नाम
ज़िन्हार न लेगा कोई उठ सुभ तेरा नाम



पैज़ारें तेरे नाम पे लगवावेगी बाबा!




शब्दार्थ

नज़आ=मरने के वक़्त; हश्र=क़यामत; दुश्नाम=ग़ाली; ज़िन्हार=हरगिज़,कभी; पैज़ारें=जूतियाँ

बचपन / नज़ीर अकबराबादी

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।

निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।

चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।

हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।

मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।

क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।




दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है ।

आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।

पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।

याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।

कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।


मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।

ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।

उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।

जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।।

माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।


कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।

गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह में घोटते हैं ।।

बाबा की मूंछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।

गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।

कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।

क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।


जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।

हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।

जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।

परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।

भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।


ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।

यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।

और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।

अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।

जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।

फ़क़ीरों की सदा / नज़ीर अकबराबादी

बटमार अजल का आ पहुँचा, टक उसको देख डरो बाबा
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा
दिल, हाथ उठा इस जीने से, ले बस मन मार, मरो बाबा
जब बाप की ख़ातिर रोए थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा



तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा

अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा


ये अस्प बहुत उछला-कूदा अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो
गढ़ टूटा, लशकर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो



तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा

अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा


यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है



तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा

अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा


घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, कुछ फ़न्द करो
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो



तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा

अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा


व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो



तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा

अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा


कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो
अब शाम नहीं, अब सुब्‌ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो



तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा

अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा


शब्दार्थ
बटमार=लुटेरा; अस्प=घोड़ा; ख़ुरसन्द=ख़ुश; गोर=क़ब्र; फ़न्द=हील-हवाला या मक्कारी

न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की / नज़ीर अकबराबादी

न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की

न यासमन में सफाई तेरे बदन की


नहीं हवा में यह बू नामा-ए-खतन की

लपट है यह तो किसी ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की


गुलों के रंग को क्या देखते हो, ए खूबां

यह रंगतें हैं तुम्हारे ही पैरहन की


यह बर्क अब्र में देखे से याद आती है

झलक किसी के दुपट्टे में नौ-रतन की सी


हज़ार तन के चलें बाँके खूब-रू, लेकिन

किसी में आन् नहीं तेरे बांकपन की


कहाँ तू और कहाँ उस परी का वस्ल नज़ीर

मियाँ तू छोड़ यह बातें दिवानेपन की

देख बहारें होली की / नज़ीर अकबराबादी

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।



गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

दुनिया में नेकी और बदी / नज़ीर अकबराबादी

है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है
जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है
याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले
जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले
नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले
जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे
जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे
जो याँ कारहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे
ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है
जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है
शम्शीर तीर बन्दूक़ सिना और नश्तर तीर नहरनी है
याँ जैसी जैसी करनी है, फिर वैसी वैसी भरनी है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो ऊँचा ऊपर बोल करे तो उसका बोल भी बाला है
और दे पटके तो उसको भी, कोई और पटकने वाला है
बेज़ुल्म ख़ता जिस ज़ालिम ने मज़लूम ज़िबह करडाला है
उस ज़ालिम के भी लूहू का फिर बहता नद्दी नाला है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
और कोई ग़रीब और बेचारा नाहक़ में लुट जाता है
वो आप भी लूटा जाता है औए लाठी-पाठी खाता है
जो जैसा जैसा करता है, वो वौसा वैसा पाता है
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

है खटका उसके हाथ लगा, जो और किसी को दे खटका
और ग़ैब से झटका खाता है, जो और किसी को दे झटका
चीरे के बीच में चीरा है, और टपके बीच जो है टपका
क्या कहिए और 'नज़ीर' आगे, है रोज़ तमाशा झटपट का
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जब फागुन रंग झमकते हों / नज़ीर अकबराबादी

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो / नज़ीर अकबराबादी

आलम में जब बहार की लंगत हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लंगत हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
मैदां हो सब्ज साफ चमकती रेत हो
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग
महबूब दुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी और मुंहचंग
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों
पर्दे पड़े हों जर्द सुनहरी मकान हों
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
कसरत से तायफो की मची हो उलटपुलट
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट
बैठे हों बनके नाजनी पारियों के गट के गट
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो

जब खेली होली नंद ललन / नज़ीर अकबराबादी

जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।



जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा / नज़ीर अकबराबादी

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा

था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा

था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर
कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा

झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल
मुक़्क़ीश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा

एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें
एक तरफ़ को थीं, पीरओ-जवानों की कतारें
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा

कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर
हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है क़लन्दर
हां छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगले के अन्दर
जिस दिन से ख़ुदा ने ये दिया, रीछ का बच्चा"

मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया
जो सबकी निगाहों में खुबा रीछ का बच्चा

फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"
हर चार तरफ़ सेती कहीं पीरो जवां "वाह"
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा

इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"

जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा

जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा

यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"

कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"
यह सहर किया तुमने तो नागाह "अहा हा"
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछ का बच्चा

जिस दिन से नज़ीर अपने तो दिलशाद यही हैं
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं
सब कहते हैं वह साहिब-ए-ईजाद यही हैं
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा

आदमी नामा / नज़ीर अकबराबादी

(1)

दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी

और मुफ़लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी

ज़रदार बेनवा है सो है वो भी आदमी

निअमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी

टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी


(2)

मसज़‍िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ

बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्‍वाँ

पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज़ यां

और आदमी ही चुराते हैं उनकी जूतियाँ

जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी


(3)

यां आदमी पै जान को वारे है आदमी

और आदमी पै तेग को मारे है आदमी

पगड़ी भी आदमी को उतारे है आदमी

चिल्‍ला को पुकारे आदमी को है आदमी

और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी


(4)

अशराफ़ और कमीने से शाह ता वज़ीर

ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर

यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर

अच्‍छा भी आदमी कहाता है ए नज़ीर

और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी

शहरे आशोब / नज़ीर अकबराबादी

है अब तो कुछ सुख़न२ का मेरे कारोबार बंद ।

रहती है तबअ३ सोच में लैलो निहार४ बंद ।

दरिया सुख़न की फ़िक्र का है मौज दार बंद ।

हो किस तरह न मुंह में जुबां बार बार बंद ।

जब आगरे की ख़ल्क़ का हो रोज़गार बंद ।।1।।


बेरोज़गारी ने यह दिखाई है मुफ़्लिसी६ ।

कोठे को छत नहीं हैं यह छाई हैं मुफ़्लिसी ।


दीवारो दर के बीच समाई है मुफ़्लिसी ।

हर घर में इस तरह से भर आई है मुफ़्लिसी ।

पानी का टूट जावे है जूं एक बार बंद ।।2।।


कड़ियाँ जो साल की थीं बिकी वह तो अगले साल ।

लाचार कर्जों दाम से छप्पर लिए हैं डाल ।

फूस और ठठेरे इसके हैं जूं सरके बिखरे बाल ।

उस बिखरे फूस से है यह उन छप्परों का हाल ।

गोया कि उनके भूल गए हैं चमार, बंद ।।3।।


दुनिया में अब क़दीम७ से है ज़र८ का बन्दोबस्त९ ।

और बेज़री१० में घर का न बाहर का बन्दोबस्त ।

आक़ा११ का इन्तिज़ाम न नौकर का बन्दोबस्त ।

मुफ़्लिस१२ जो मुफ़्लिसी में करे घर का बन्दोबस्त ।

मकड़ी के तार का है वह नाउस्तुवार१३ बंद ।।4।।


कपड़ा न गठड़ी बीच, न थैली में ज़र रहा ।

ख़तरा न चोर का न उचक्के का डर रहा ।

रहने को बिन किवाड़ का फूटा खंडहर रहा ।

खँखार१४ जागने का, न मुतलक़१५ असर रहा ।

आने से भी जो हो गए चोरो चकार बंद ।।5।।


अब आगरे में जितने हैं सब लोग है तबाह ।

आता नज़र किसी का नहीं एक दम निबाह ।

माँगो अज़ीज़ो ऐसे बुरे वक़्त से पनाह ।

वह लोग एक कौड़ी के मोहताज अब हैं आह ।

कस्बो१६ हुनर के याद है जिनको हज़ार बंद ।।6।।


सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ, साहूकार ।

देते थे सबको नक़्द, सो खाते हैं अब उधार ।

बाज़ार में उड़े है पड़ी ख़ाक बे शुमार ।

बैठें हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार ।

जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतार बंद ।


सौदागरों को सूद, न व्यौपारी को फ़लाह।।7।।

बज्ज़ाज को है नफ़ा न पनसारी को फ़लाह ।

दल्लाल को है याफ़्त१८, न बाज़ारी को फ़लाह ।

दुखिया को फ़ायदा न पिसनहारी को फ़लाह ।

याँ तक हुआ है आन के लोगों का कार बंद ।।8।।


मारें है हाथ पे सब यां के दस्तकार ।

और जितने पेशावर१९ हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार ।

कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार ।

कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार ।

छत्तीस पेशे बालों के हैं कारोबार बंद ।।9।।


ज़र के भी जितने काम थे वह सब दुबक२० गए ।

और रेशमी क़िवाम२१ भी यकसर चिपक(१) गए ।

ज़रदार उठ गए तो बटैये२२ सरक गए ।

चलने से काम तारकशों२३ के भी थक गए ।

क्या हाल खींचे जो हो जाए तार बंद ।।10।।


बैठे बिसाती राह में तिनके से चुनते हैं ।

जलते हैं नानबाई२४ तो भड़भूजे२५ भुनते हैं ।

धुनिये भी हाथ मलते हैं और सर को धुनते हैं ।

रोते हैं वह जो मशरुओ२६ दाराई२७ बुनते हैं ।

और वह तो मर गए जो बुनें थे इज़ार बंद ।।11।।


बेहद हवासियों में दिये ऐसे होश खो,

रोटी न पेट में हो तो शहवत कहां से हो,

कोई न देखे नाच, न रंडी कि सूंघे बू,

यां तक तो मुफ़लिसी है कि क़स्बी का रात को,

दो-दो महीने तक नहीं खुलता इजारबंद।

जब आगरे की ख़ल्क़ का है रोज़गार बंद ।।12।।





गर काग़ज़ी के हाल के काग़ज़ को देखिए ।

मुतलक़ उसे ख़बर नहीं काग़ज़ के भाव से ।

रद्दी, क़लम दुकान में, न टुकड़े हैं टाट के ।

याँ तक कि अपनी चिट्ठी के लिखने के वास्ते ।

काग़ज़ का मांगता है हर इक से उधार बंद ।।13।।


लूटे हैं गरदो पेश१८ जो क़्ज्ज़ाक२९ राह मार ।

व्यापारी आते जाते नहीं डर से ज़िनहार३० ।

कुतवाल रोवें, ख़ाक उड़ाते हैं चौकी दार ।

मल्लाहों का भी काम नहीं चलता मेरे यार ।

नावें हैं घाट-घाट की सब वार पार बंद ।।14।।


हर दम कमां गरों३१ के ऊपर पेचो ताब हैं ।

सहोफ़े३२ अपने हाल में ग़म की किताब हैं ।

मरते हैं मीनाकार मुसव्विर३३ कबाव हैं ।

नक़्क़ास३४ इन सभों से ज़्यादा ख़राब हैं ।

रंगो क़लम के होगए नक़्शों निगार३५ बंद ।।15।।


बैचेन थे यह जो गूंध के फूलों के बध्धी हार ।

मुरझा रही है दिल की कली जी है दाग़दार ।

जब आधी रात तक न बिकी, जिन्स आबदार ।

लाचार फिर वह टोकरी अपनी ज़मी पे मार ।

जाते हैं कर (१) दुकान को आख़िर वह हार बंद ।।16।।


हज्ज़ाम३६ पर भी यां तईं है मुफ़्लिसी का ज़ोर ।

पैसा कहाँ जो सान पे हो उस्तरों का शोर ।

कांपे है सर भिगोते हुए उसकी पोर पोर ।

क्या बात एक बाल कटे या तराशे कोर ।

याँ तक हैं उस्तरे व नहरनी की धार बंद ।।17।।


डमरू(२) बजाके वह जो उतारे हैं ज़हर मार ।

आप ही वह खेलते हैं, हिला सर ज़मीं पे मार ।

मन्तर तो जब चले कि जो हो पेट का आघार ।

जब मुफ़्लिसी का सांप हो उनके गले का हार ।

क्या ख़ाक फिर वो बांधें कहीं जाके मार बंद ।।18।।


लज़्ज़त३७ है ज़िक्रो हुस्न३८ के नक़्शो निगार३९ से ।

महबूब है जो गुन्चे दहन४० गुल इज़ार४१ से ।

आवें अगर वह लाख तरह की बहार से ।

कोई न देखे उनको नज़र भर के प्यार से ।

ऐसे दिलों के होगए आपस में कार बंद ।।19।।


फिरते हैं नौकरी को जो बनकर रिसालादार४२ ।

घोड़ों की (१) हैं लगाम न ऊंटों के है महार४३ ।

कपड़ा न लत्ता, पाल न परतल न बोझ मार ।

यूं हर मकां में आके उतरते हैं सोगवार ।

जंगल में जैसे देते हैं लाकर उतार बंद ।।20।।

कोई पुकारता है पड़ा ‘भेज’ या ‘ख़ुदा’ ।

अब तो हमारा काम थका भेज या ख़ुदा ।

कोई कहे है हाथ उठा भेज या ख़ुदा ।

ले जान अब हमारी तू या भेज या ख़ुदा ।

क्यूँ रोज़ी यूँ है कि मेरे परवरदिगार४४ बंद ।।21।।


मेहनत से हाथ पांव के कौड़ी न हाथ आए ।

बेकार कब तलक कोई कर्ज़ों उधार खाये ।

देखूँ जिसे वह करता है रो-रो के हाय ! हाय ! ।

आता है ऐसे हाल पे रोना हमें तो हाय ।

दुश्मन का भी ख़ुदा न करे कारोबार बंद ।।22।।


आमद४५ न ख़ादिमों४६ के तईं मक़बरों४७ के बीच ।

बाम्हन(१) भी सर पटकते हैं सब मन्दिरों के बीच ।

आज़िज़ हैं इल्म बाले भी सब मदरसों के बीच ।

हैरां हैं पीरज़ादे४८ भी अपने घरों के बीच ।

नज़रों नियाज़४९ हो गई सब एक बार बंद ।।23।।


इस शहर के फ़कीर भिखारी जो हैं तबाह ।

जिस घर पे जा-जा सवाल वह करते हैं ख़्वाहमख्वाह ।

भूखे हैं कुछ भिजाइयो बाबा ख़ुदा की राह ।

वाँ से सदा५० यह आती है ‘फिर माँगो’ जब तो आह ।

करते हैं होंट अपने वह हो शर्म सार बंद ।।24।।


क्या छोटे काम वाले वह क्या पेशेवर नजीब५१

रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़५२ हैं सब ग़रीब ।

होती है बैठे बैठे जब आ शाम अनक़रीब ।

उठते हैं सब दुकान से कहकर के या नसीब५३ ।

क़िस्मत हमारी हो गई बेइख़्तियार बंद ।।25।।


किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं ।

अलबत्ता रूखी सूखी वह रोटी पकाते हैं ।

जो खाली आते हैं वह क़र्ज़ लेते जाते हैं ।

यूं भी न पाया कुछ तो फ़कत ग़म ही खाते हैं ।

सोते हैं कर किवाड़ को एक आह मार बंद ।।26।।

क्यूँकर भला न माँगिये इस वक़्त से पनाह ।


मोहताज हो जो फिरने लगे दरबदर सिपाह।

याँ तक अमीर ज़ादे सिपाही हुए तबाह ।

जिनके जिलू में चलते थे हाथी व घोड़े आह।

बह दौड़ते हैं और के पकड़े शिकार बंद ।।।27।।


है जिन सिपाहियों कने५९ बन्दूक और सनां६० ।

कुन्दे का उनके नाम न चिल्ले का है निशां ।

चांदी के बंद तार तो पीतल के हैं कहां ।

लाचार अपनी रोज़ी का बाअस६१ समझ के हां ।

रस्सी के उनमें बांधे हैं प्यादे सवार बंद ।।28।।


जो घोड़ा अपना बेच के ज़ीन६२ को गिरूं६३ रखें ।

या तेग और सिपर१४ को लिए चौक में फिरें ।

पटका६४ जो बिकता आवे तो क्या ख़ाक देके लें ।

वह (१) पेश कबुज६६ बिक के पड़े रोटी पेट में ।

फिर उसका कौन मोल ले वह लच्चेदार बंद ।।29।।


जितने सिपाही याँ थे न जाने किधर गए ।

दक्खिन के तईं निकल गए यो पेशतर६७ गए ।

हथियार बेच होके गदा६८ घर ब घर गए ।

जब घोड़े भाले वाले भी यूं दर बदर६९ गए ।

िर कौन पूछे उनको जो अब हैं कटार बंद ।।30।।


ऐसा सिपाह७० मद का दुश्मन ज़माना है ।

रोटी सवार को है, न घोड़े को दाना है ।

तनख़्वाह न तलब है न पीना न ख़ाना है ।

प्यादे७१ दिबाल(२) बंद७२ का फिर क्या ठिकाना है ।

दर-दर ख़राब फिरने लगे जब नक़ार बंद७३ ।।31।।


जितने हैं आज आगरे में कारख़ान जात ।

सब पर पड़ी है आन के रोज़ी की मुश्किलात ।

किस किस के दुख़ को रोइये और किस की कहिए बात ।

रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात ।

ऐसी हवा कुछ आरे हुई एक बार बंद ।।32।।


है कौन सा वह दिल जिसे फरसूदगी७४ नहीं ।

वह घर नहीं कि रोज़ी की नाबूदगी७५ नहीं ।

हरगिज़ किसी के हाल में बहबूदगी७६ नहीं ।

अब आगरे में नाम को आसूदंगी नहीं ।

कौड़ी के आके ऐसे हुए रह गुज़ार७७ बंद ।।33।।


हैं बाग़ जितने याँ के सो ऐसे पड़े हैं ख़्वार ।

काँटे का नाम उनमें नहीं(१) फूल दरकिनार७८ ।

सूखे हुए खड़े हैं दरख़्ताने७९ मेवादार ।

क्यारी में ख़ाक धूल, रविश८० पर उड़े-उड़े ग़ुबार ।

ऐसी ख़िजां८१ के हाथों हुई है बहार८२ बंद ।।34।।


देखे कोई चमन तो पड़ा उजाड़ सा ।

गुंचा८३ न फल, न फूल, न सब्जा हरा भरा ।

आवाज़ कुमारियों८४ की, न बुलबुल की है सदा।

न हौज़ में है आब न पानी है नहर का ।

चादर पड़ी है ख़ुश्क तो है आबशार८५ बंद ।।35।।


बे वारसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह ।

फूटी हवेलियां हैं तो टूटी शहर पनाह ।

होता है बाग़बां८७ से, हर एख बाग़ का निबाह ।

वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े आह ।

जिसका न बाग़वां हो, न मालिक न ख़ार बंद८८ ।।36।।


क्यों यारों इस मकां में यह कैसी चली हवा ।

जो मुफ़्लिसी से होश किसी का नहीं बचा ।

जो है सो इस हवा में दिवाना सा हो रहा ।

सौदा हुआ मिज़ाज ज़माने को या ख़ुदा ।

तू है हकीम खोल दे अब इसके चार बंद ।।37।।


है मेरी हक़ से अब यह दुआ शाम और सहर ।

कर(१) आगरे की ख़ल्क पै फिर मेहर की नज़र ।

सब खावें पीवें, याद रखें अपने-अपने घर ।

इस टूटे शहर पर इलाही तू फ़ज्ल कर ।

खुल जावें एक बार तो सब कारोबार बंद ।।38।।


आशिक़ कहो, असीर९० कहो, आगरे का है ।

मुल्ला कहो, दबीर९१ कहो, आगरे का ।

मुफ़्लिस९२ कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है ।

शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है ।

इस वास्ते यह उसने लिखे पांच चार बंद ।।39।।