अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख़्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो
वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारो
मंगलवार, जून 02, 2009
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
असद बदायूँनी की मौत पर
ख़्वाहिशे-मर्ग की सरशारी में
यह भी नहीं सोचा
जीना भी एक कारे-जुनूं है इस दुनिया के बीच
और लम्बे अनजान सफ़र पर चले गए तन्हा
पीछे क्या कुछ छूट गया है
मुड़के नहीं देखा।
अज़ल की नग़्मगी
छिपाई उसने न मुझसे कभी कोई भी बात
मैं राज़दार था उसका, वो ग़मग़ुसार मेरा
कई जनम का बहुत पायदार रिश्ता था
मेरे सिवा भी हज़ारों से उसकी क़ुरबत थी
शिमाख़्त उसकी अगर थी तो बस मुहब्बत थी
सफ़र में ज़ीस्त के वह तेज़गाम था इतना
रुका न वाँ भी जहाँ पर क़्याम करना था
ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे
अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी
दिले-कुशादा में उसने अजल को रक्खा था
अज़ाबे-हिज्र मुक़द्दर में मेरे लिक्ख़ा था
सो बाक़ी उम्र मुझे यह अज़ाब सहना है
फ़लक को देखना हरदम, ज़मीं पर रहना है
ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे
अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी।
जीने की लत
मुझसे मिलने आने वाला कोई नहीं है
फिर क्यों घर के दरवाज़े पर तख़्ती अब है
जीने की लत पड़ जाए
तो छूटती कब है।
सहर का खौफ़
शाम का ढलना नई बात नहीं
इसलिए ख़ौफ़ज़दा हूँ इतना
आने वाली जो सहर है उसमें
रात शामिल नहीं
यह जानता हूँ।
जागने का लुत्फ़
तेरे होठों पे मेरे होठ
हाथों के तराज़ू में
बदन को तोलना
और गुम्बदों में दूर तक बारूद की ख़ुशबू
बहुत दिन बाद मुझको जागने में लुत्फ़ आया है।
लम्बे बोसों का मरकज़
वह सुबह का सूरज जो तेरी पेशानी था
मेरे होठों के लम्बे बोसों का मरकज़ था
क्यों आँख खुली, क्यों मुझको यह एहसास हुआ
तू अपनी रात को साथ यहाँ भी लाया है।
सुबह से उदास हूँ।
हवा के दरमियान आज रात का पड़ाव है
मैं अपने ख़्वाब के चिराग़ को
जला न पाऊंगा ये सोच के
बहुत ही बदहवास हूँ
मैं सुबह से उदास हूँ।
तुझे कुछ याद आता है।
मैं तेरे जिस्म तक किन रास्तों से
होके पहुँचा था
ज़मीं, आवाज़ और गंदुम के ख़ोशों की महक
मैं साथ लाया था
तुझे कुछ याद आता है।
एक सच
शोर समाअत के दर पे है, जानते हो
मौत के क़दमों की आहट पहचानते हो
होनी को कोई भी टाल नहीं सकता
यह इक ऎसा सच है, तुम भी मानते हो।
जीने की हवस
सफ़र तेरी जानिब था
अपनी तरफ़ लौट आया
हर इक मोड़ पर मौत से साबक़ा था
मैं जीने से लेकिन कहाँ बाज़ आया।
मंज़र कितना अच्छा होगा।
मैं सुबह सवेरे जाग उठा
तू नींद की बारिश में भीगा, तन्हा होगा
रस्ता मेरा तकता होगा
मंज़र कितना अच्छा होगा।
अजीब काम
रेत को निचोड़कर पानी को निकालना
बहुत अजीब काम है
बड़े ही इनहमाक से ये काम कर रहा हूँ मैं।
शब्दार्थ :
इनहमाक=तन्मयता
ज़िन्दा रहने की शर्त
हर एक शख़्स अपने हिस्से का अज़ाब ख़ुद सहे
कोई न उसका साथ दे
ज़मीं पे ज़िन्दा रहने की ये एक पहली शर्त है।
देर तक बारिश हुई।
शाम को इंजीर के पत्तों के पीछे
एक सरगोशी बरहना पाँव
इतनी तेज़ दौड़ी
मेरा दम घुटने लगा
रेत जैसे ज़ायक़े वाली किसी मशरूब की ख़्वाहिश हुई
वह वहाँ कुछ दूर एक आंधी चली
फिर देर तक बारिश हुई।
शब्दार्थ :
मशरूब=पेय
उस उदास शाम तक
लज़्ज़तों की जुस्तजू में इतनी दूर आ गया हूँ
चाहूँ भी तो लौट के जा नहीं सकूंगा मैं
उस उदास शाम तक
जो मेरे इन्तज़ार में
रात से नहीं मिली।
मैं डरता हूँ
ऐं डरता हूँ,
मैं डरता हूँ, उन लम्हों से
उन आने वाले लम्हों से
जो मेरे दिल और उसके इक-इक गोशे में
बड़ी आज़ादी से ढूँढ़ेंगे
उन ख़्वाबों को, उन राज़ों को
जिन्हें मैंने छिपाकर रखा है इस दुनिया से।
रेंगने वाले लोग
चलते-चलते रेंगने वाले ये लोग
रेंगने में इनके वह दम-ख़म नहीम
ऎसा लगता है कि इनको ज़िल्लतें
मुस्तहक़ मेक़्दार से कुछ कम मिलीं।
मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे
किसी एक छत की मुंडेर पर
मुझे तक रहा है जो देर से
मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे
ये जो धुन्ध-सी है ज़रा, हटा
कोई उसका मुझको सुराग़ दे
कि मैं उसको नाम से दूँ सदा।
जो इन्सान था पहले कभी
शहर सारा ख़ौफ़ में डूबा हुआ है सुबह से
रतजगों के वास्ते मशहूर एक दीवाना शख़्स
अनसुनी, अनदेखी ख़बरें लाना जिसका काम है
उसका कहना है कि कल की रात कोई दो बजे
तेज़ यख़बस्ता हवा के शोर में
इक अजब दिलदोज़, सहमी-सी सदा थी हर तरफ़
यह किसी बुत की थी जो इन्सान था पहले कभी।
शब्दार्थ :
यख़बस्ता= ठंडी; सदा=पुकार,आवाज़
सहरा की हदों में दाख़िल
सहरा की हदों में दाख़िल
जो लोग नहीं हो पाए
शहरों की बहुत-सी यादें
हमराह लिए आए थे।
तसलसुल के साथ
वह, उधर सामने बबूल तले
इक परछाईं और इक साया
अपने जिस्मों को याद करते हैं
और सरगोशियों की ज़र्बों से
इक तसलसुल के साथ वज्द में हैं।
किस तरह निकलूँ
मैं नीले पानियों में घिर गया हूँ
किस तरह निकलूँ
किनारे पर खड़े लोगों के हाथों में
ये कैसे फूल हैं?
मुझे रुख़्सत हुए तो मुद्दतें गुज़रीं।
पानी की दीवार का गिरना
बामे-खला से जाकर देखो
दूर उफ़क पर सूरज-साया
और वहीं पर आस-पास ही
पानी की दीवार का गिरना
बोलो तो कैसा लगता है?
अज़ाब की लज़्ज़त
फिर रेत भरे दस्ताने पहने बच्चों का
इक लम्बा जुलूस निकलते देखने वाले हो
आँखों को काली लम्बी रात से धो डालो
तुम ख़ुशक़िस्मत हो, ऎसे अज़ाब की लज़्ज़त
फिर तुम चक्खोगे।
सवारे-बेसमंद
ज़मीन जिससे छुट गई
बाब ज़िन्दगी का जिस पे बन्द है
वो जानता है यह कि वह सवारे-बेसमंद है
मगर वो क्या करे,
कि उसको आसमाँ को जाने वाला रास्ता पसन्द है।
शब्दार्थ :
सवारे-बेसमंद=बिना घोड़े का सवार; बाब=दरवाज़ा