सोमवार, मई 18, 2009

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें* हैं
क़लन्दरी* यहाँ पलने के बाद आती है

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है

(ख़ानक़ाहें- आश्रम, क़लन्दरी- फक्कड़पन)

बहुत पानी बरसता है

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है

बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएं में छुप के क्यों आखिर ये नेकी बैठ जाती है ?

नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है

हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं

हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं



नये कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है
परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है



मोहाजिरो यही तारीख है मकानों की
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा



तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गयी बे-तरतीबी
इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था



किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ा-दारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको यह बीमारी नहीं होगी



तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक न रहे
में चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक न रहे



तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठी
उस शख्स के बच्चों की तरफ देख लिया था



फ़रिश्ते आके उनके जिस्म पर खुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाडू लगाते हैं



किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दूकान आई
में घर में सबसे छोटा था मेरी हिस्से में माँ आई



सिरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे खुद भी मलाल होता है

हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है
हमारे शहर मैं पत्थर भी लाल होता है



मैं शोहरतों की बुलंदी पर जा नहीं सकता
जहाँ उरूज पर पहुँचो ज़वाल होता है
(उरूज= ऊँचाई/ज़वाल=नीचे जाना)



मैं अपने बच्चों को कुछ भी तो दे नहीं पाया
कभी कभी मुझे खुद भी मलाल होता है



यहीं से अमन की तबलीग रोज़ होती है
यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है
[तब्लिग़= preaching, प्रचार]



मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता
अजान देने से कोई बिलाल होता है



पदोसीयों की दुकानें तक नहीं खुल्तीं
किसी का गाँव मैं जब इन्तिकाल होता है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है

ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है

हर एक आवाज़ अब उर्दू को...

हर एक आवाज़ अब उर्दू को फ़रियादी बताती है
यह पगली फिर भी अब तक ख़ुद को शहज़ादी बताती है



कई बातें मुहब्‍बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है



जहां पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहां एक घोंसला चि‍ड़‍ियों का था दादी बताती है



अभी तक यह इलाक़ा है रवादारी के क़ब्‍ज़े में
अभी फ़‍िरक़ापरस्‍ती कम है आबादी बताती है



यहां वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है
यहां से नफ़रतें गुज़री है बरबादी बताती है



लहू कैसे बहाया जाय यह लीडर बताते हैं
लहू का ज़ायक़ा कैसा है यह खादी बताती है



ग़ुलामी ने अभी तक मुल्‍क का पीछा नहीं छोड़ा
हमें फिर क़ैद होना है ये आज़ादी बताती है



ग़रीबी क्‍यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है



मैं उन आंखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है

चौपदियाँ

1

कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते

हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते ।

मुहाजरीन से अच्छे तो ये परिन्दे हैं

शिकार होते हैं लेकिन कहीं नहीं जाते ।।


2

उम्र एक तल्ख़ हक़ीकत है मुनव्वर फिर भी

जितना तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता ।

सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता,

हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता ।।


3

मियाँ ! मैं शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती,

मैं लहज़ा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती ।

किसी दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था,

मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़वाहट नहीं जाती ।।




4

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है

कभी गाड़ी पलटती है, कभी तिरपाल कटता है ।

दिखाते हैं पड़ौसी मुल्क़ आँखें, तो दिखाने दो

कभी बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है ।।

कुछ अशआर

1

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो ,

इसी शहर में एक पुरानी सी इमारत और है ।


2

हम ईंट-ईंट को दौलत से लाल कर देते,

अगर ज़मीर की चिड़िया हलाल कर देते ।


3

दिल ऎसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के

जिद ऎसी कि ख़ुद ताज उठा कर नहीं पहना ।


4

चमक यूँ ही नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर

अना को हमने दो-दो वक़्त का फाका कराया है।


5

मुनव्वर माँ के सामने कभी खुलकर नहीं रोना,

जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती ।




6

बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर

माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है ।




7

एक निवाले के लिए मैंने जिसे मार दिया,

वह परिन्दा भी कई दिन का भूखा निकला ।

फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं

मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं

माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं


कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर

ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊं


सोचता हूं तो छलक उठती हैं मेरी आँखें

तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊं


चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन

क्या ज़ुरूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊं


बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं

शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊं


शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती

मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊं

थकी-मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं

थकी - मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं

न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियां आराम करती हैं


सुलाकर अपने बच्चे को यही हर मां समझती है

कि उसकी गोद में किलकारियां आराम करती हैं


किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में

न जाने कितनी ही तहदारियां आराम करती हैं


अभी तक दिल में रौशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू

अभी इस राख में चिन्गारियां आराम करती हैं


कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं

लहू से खेलिये पिचकारियां आराम करती हैं


आमेज़िश=प्रकटन; ज़हमत=कष्ट

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मुलाक़ातों पे हँसते बोलते हैं मुस्कराते हैं

तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात दिन दोनों

मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने

वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मेरा दुश्मन मुझे तकता है मैं दुश्मन को तकता हूँ

कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है

मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मसायल=समस्याओं; हायल=बाधक

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

अभी मस्जिद के दरवाज़े पे मायें रोज़ आती हैं


अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में

बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं


कोई मरता नहीं है हाँ मगर सब टूट जाते हैं

हमारे शहर में ऎसी वबायें रोज़ आती हैं


अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा

अभी मुझको बुलाने दाश्तायें रोज़ आती हैं


ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डला

मगर उम्मीद की ठंडी हवायें रोज़ आती हैं


वबायें= बीमारियाँ; दाश्तायें=रखैलें

जब कभी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

जब कभी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है

मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है


रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूं

रोज़ उंगली मिरी तेज़ाब में आ जाती है


दिल की गलियों से तिरी याद निकलती ही नहीं

सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है


रात भर जागते रहने का सिला है शायद

तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है


एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा

सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है


ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए

कूचा - ए - रेशमो - किमख़्वाब में आ जाती है


दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें

सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है


महताब=चांद; रिदा= चादर

रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं

रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं

हंसना भी आसान नहीं है लब ज़ख़्मी हो जाते हैं


इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं

पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं


बोझ उठाना शौक कहाँ है मजबूरी का सौदा है

रहते - रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं


सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये लेकिन इतना ध्यान रहे

सबसे हंसकर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं


अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में

कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

पैरों में मिरे दीद-ए-तर बांधे हुए हैं

पैरों में मिरे दीद-ए-तर बांधे हुए हैं

ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बांधे हुए हैं


हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा

लगता है कोई मेरी नज़र बांधे हुए हैं


बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़ कर

इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए हैं


परवाज़ की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन

सय्याद अभी तक मिरे पर बांधे हुए हैं


आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं

आंसू हैं कि सामाने-सफ़र बांधे हुए हैं


हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा

दिल है कि धड़कने पर कमर बंधे हुए है


दीद-ए-तर=भीगी हुई आँख; परवाज़=उड़ान;
सय्याद=बहेलिया या शिकारी

ये दीवाना ज़माने भर की दौलत छोड़ सकता है

ये दीवाना ज़माने भर की दौलत छोड़ सकता है
मदीने की गली दे दो तो जन्नत छोड़ सकता है


मुसीबत के दिनों में माँ हमेशा याद रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है

ज़िन्दगी से हर ख़ुशी अब ग़ैर-हाज़िर हो गई

ज़िन्दगी से हर ख़ुशी अब ग़ैर हाज़िर हो गई
इक शकर होना थी बाक़ी वो भी आख़िर हो गई


दुश्मनी ने काट दी सरहद पे आख़िर ज़िन्दगी
दोस्ती गुजरात में रह कर मुहाजिर हो गई

हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है

हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है

अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जाएँगे हम

जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जाएँगे हम
ऐ ज़मीं इक दिन तेरी ख़ूराक हो जाएँगे हम

ऐ ग़रीबी देख रस्ते में हमें मत छोड़ना
ऐ अमीरी दूर रह नापाक हो जाएँगे हम

किसी का क़द बढ़ा देना

किसी का क़द बढ़ा देना किसी के क़द को कम कहना
हमें आता नहीं ना-मोहतरम को मोहतरम कहना

चलो मिलते हैं मिल-जुल कर वतन पर जान देते हैं
बहुत आसान है कमरे में बन्देमातरम कहना

बहुत मुमकिन है हाले-दिल वो मुझसे पूछ ही बैठे
मैं मुँह से कुछ नहीं बोलूँगा तू ही चश्मे-नम कहना

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है

ये सच है हम भी कल तक ज़िन्दगी पे नाज़ करते थे
मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी रेल लगती है

ग़लत बाज़ार की जानिब चले आए हैं हम शायद
चलो संसद में चलते हैं वहाँ भी सेल लगती

कोई भी अन्दरूनी गन्दगी बाहर नहीं होती
हमें तो इस हुक़ूमत की भी किडनी फ़ेल लगती है.

ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता दोज़ख़-मकानी हो गये होते

ख़ुदा-न-ख़्वास्ता दोज़ख मकानी हो गये होते
ज़रा-सा चूकते तो क़ादियनी हो गये होते

अमीरे-शहर की शोहरत ने पत्थर कर दिया वरना
तुम्हारी आँख में रहते तो पानी हो गये होते

तेरी यादों ने बख़्शी है हमें ये ज़िन्दगी वरना
बहुत पहले ही हम क़िस्सा-कहानी हो गये होते.

ज़रूरत से अना का भारी पत्थर टूट जाता है

ज़रूर से अना का भारी पत्थर टूट जाता है
मगर फिरादमी भी अन्दर -अन्दर टूट जाता है

ख़ुदा के वास्ते इतना न मुझको टूटकर चाहो
ज़्यादा भीख मिलने से गदागर टूट जाता है

तुम्हारे शहर में रहने को तो रहते हैं हम लेकिन
कभी हम टूट जाते हैं कभी घर टूट जाता है

अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा

अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा अभी बीमार ज़िन्दा है
अभी इस शहर में उर्दू का इक अख़बार ज़िन्दा है

नदी की तरह होती हैं ये सरहद की लकीरें भी
कोई इस पार ज़िन्दा है कोई उस पार ज़िन्दा है

ख़ुदा के वास्ते ऐ बेज़मीरी गाँव मत आना
यहाँ भी लोग मरते हैँ मगर किरदार ज़िन्दा है

खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती

खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती
मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती

अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती

ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती

यह देखकर पतंगें भी हैरान हो गयीं

यह देखकर पतंगें भी हैरान हो गयीं
अब तो छतें भी हिन्दु-मुसलमान हो गयीं

क्या शहरे-दिल में जश्न-सा रहता था रात-दिन
क्या बस्तियाँ थीं कैसी बयाबान हो गयीं

आ जा कि चंद साँसे बचीं है हिसाब से
आँखें तो इन्तज़ार में लोबान हो गयीं

उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखें तमाम उम्र को वीरान हो गयीं.

मुनव्वर राना

कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हमको किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता

पत्थर हूँ तो क्यों तोड़ने वाले नहीं आते
सर हूँ तो तेरे सामने ख़म क्यों नहीं होता

जब मैंने ही शहज़ादी की तस्वीर बनाई
दरबार में ये हाथ क़लम क्यों नहीं होता

पानी है तो क्यों जानिब-ए-दरिया नहीं जाता
आँसू है तो तेज़ाब में ज़म क्यों नहीं होता

एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं

एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं
मत पूछा कर किस कारन हो जाते हैं

हुस्न की दौलत मत बाँटा कर लोगों में
ऐसे वैसे लोग महाजन हो जाते हैं

ख़ुशहाली में सब होते हैं ऊँची ज़ात
भूखे-नंगे लोग हरिजन हो जाते हैं

राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिन्दू-मुस्लिम सब रावन हो जाते हैं

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं

जाओ जा कर किसी दरवेश की अज़मत देखो
ताज पहने हुए पैरों में पड़े रहते हैं

जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

मैंने फल देख के इन्सानों को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अन्दर से सड़े रहते हैं

यूँ आज कुछ चराग़ हवा से उलझ पड़े

यूँ आज कुछ चराग़ हवा से उलझ पड़े
जैसे शबाब बन्द-ए-क़बा से उलझ पड़े

भेजे गये फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

मेरे बदन से उसकी ग़रीबी लिपट गयी
मेरी नज़र से उअसके मुहाँसे उलझ पड़े

उम्मत की सर बुलन्दी की ख़ातिर ख़ुदा गवाह
ज़ालिम से ख़ुद नबी के नवासे उलझ पड़े

झूठ बोला था तो यूँ मेरा दहन दुखता है

झूठ बोला था तो यूँ मेरा दहन दुखता है
सुबह दम जैसे तवायफ़ का बदन दुखता है

ख़ाली मटकी की शिकायत पे हमें भी दुख है
ऐ ग्वाले मगर अब गाय का थन दुखता है

उम्र भर साँप से शर्मिन्दा रहे ये सुन कर
जबसे इन्सान को काटा है तो फन दुखता है

ज़िन्दगी तूने बहुत ज़ख़्म दिये है मुझको
अब तुझे याद भी करता हूँ तो मन दुखता है

क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है

क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है

किसी दिन आँसुओ! वीरान आँखों में भी आ जाओ
ये रेगिस्तान बादल को ज़माने से बुलाता है

मैं उस मौसम में भी तन्हा रहा हूँ जब सदा देकर
परिन्दे को परिन्दा आशियाने से बुलाता है

मैं उसकी चाहतों को नाम कोई दे नहीं सकता
कि जाने से बिगड़ता है न जाने से बुलाता है

ये संसद है यहाँ भगवान का भी बस नहीं चलता

ये संसद है यहाँ भगवान का भी बस नहीं चलता
जहाँ पीतल ही पीतल हो बहाँ पारस नहीं चलता

यहाँ पर हारने वाले की जानिब कौन देखेगा
सिकन्दर का इलाक़ा है यहाँ पोरस नहीं चलता

दरिन्दे ही दरिन्दे हों तो किसको कौन देखेगा
जहाँ जंगल ही जंगल हो वहाँ सरकस नहीं चलता

हमारे शहर से गंगा नदी हो कर गुज़रती है
हमारे शहर में महुए से निकला रस नहीं चलता

कहाँ तक साथ देंगी ये उखड़ती टूटती साँसें
बिछड़ कर अपने साथी से कभी सारस नहीं चलता

ये मिट्टी अब मेरे साथी को क्यों जाने नहीं देती
ये मेरे साथ आया था क्यों वापस नहीं चलता

थकी-माँदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं

थकी - माँदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं

अमीर-ए-शहर के घर में ये मंज़र देख सकते हो
हवस मसरूफ़ है ख़ुद्दारियाँ आराम करती हैं

सुलाकर अपने बच्चे को यही हर मां समझती है
कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं

किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में
न जाने कितनी ही तहदारियाँ आराम करती हैं

अभी तक दिल में रौशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं

कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं
लहू से खेलिये पिचकारियाँ आराम करती हैं

मैं दहशतगर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है

मैं दहशतगर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
हुकूमत के इशारे पर तो मुर्दा बोल सकता है

हुकूमत की तवज्जो चाहती है ये जली बस्ती
अदालत पूछना चाहे तो मलबा बोल सकता है

कई चेहरे अभी तक मुँहज़बानी याद हैं इसको
कहीं तुम पूछ मत लेना ये गूंगा बोल सकता है

यहाँ पर नफ़रतों ने कैसे कैसे गुल खिलाये हैं
लुटी अस्मत बता देगी दुपट्टा बोल सकता है

बहुत सी कुर्सियाँ इस मुल्क में लाशों पे रखी हैं
ये वो सच है जिसे झूठे से झूठा बोल सकता है

सियासत की कसौटी पर परखिये मत वफ़ादारी
किसी दिन इंतक़ामन मेरा गुस्सा बोल सकता है

मैं अपने हल्क़ से अपनी छूरी गुज़ारता हूँ

मैं अपने हल्क़ से अपनी छुरी गुज़ारता हूँ
बड़े ही कर्ब में ये ज़िन्दगी गुज़ारता हूँ

तस्सव्वुरात की दुनिया भी ख़ूब होती है
मैं रोज़ सहरा से कोई नदी गुज़ारता हूँ

मैं एक हक़ीर-सा जुगनू सही मगर फिर भी
मैं हर अँधेरे से कुछ रौशनी गुज़ारता हूँ

यही तो फ़न है कि मैं इस बुरे ज़माने में
समाअतों से नई शायरी गुज़ारता हूँ

कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना
मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ

मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता

मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता

अब इससे ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता


दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें

रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता


बस तू मिरी आवाज़ में आवाज़ मिला दे

फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता


ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला

सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता


इस ख़ाकबदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी

क्या इतना करम बादे-सबा हो नहीं सकता


पेशानी को सजदे भी अता कर मिरे मौला

आँखों से तो यह क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता


सय्याद=बहेलिया, शिकारी; बादे-सबा=बहती हवा; पेशानी=माथे

अमीर-ए-शहर को तलवार करने वाला हूँ

अमीरे शहर को तलवार करने वाला हूँ
मैं जी-हुज़ूरी से इन्कार करने वाला हूँ

कहो अँधेरे से दामन समेट ले अपना
मैं जुगनुओं को अलमदार करने वाला हूँ

तुम अपने शहर के हालात जान सकते हो
मैं अपने चेहरे को अख़बार करने वाला हूँ

मैं चाहता था कि भाई का साथ छूट न जाए
मगर वो समझा कि मैं वार करने वाला हूँ

बदन का कोई भी हिस्सा ख़रीद सकते हो
मैं अपने जिस्म को बाज़ार करने वाला हूँ

तुम अपनी आँखों से सुनना मेरी कहानी को
लबे ख़मोश से इज़हार करने वाला हूँ

हमारी राह में हायल कोई नहीं होगा
तू एक दरिया है मैं पार करने वाला हूँ .

आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए

आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए

आप दरिया हैं तो फिर इस वक़्त हम ख़तरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हम को पार होना चाहिए

ऐरे-ग़ैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औतर नहीं अख़बार होना चाहिए

ज़िन्दगी तू कब तलक दर-दर फिराएगी हमें
टूटा- फूटा ही सही घरबार होना चाहिए

अपनी यादों से कहो एक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क़ के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए