मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

स्याह-सफ़ेद

स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए !

मैं अपने में कोरा-सादा
मेरा कोई नहीं इरादा
ठोकर मर-मारकर तुमने
बंजर उर में शूल उगाए ।

स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए !

मेरी निंदियारी आँखों का-
कोई स्वप्न नहीं; पाँखों का-
गहन गगन से रहा न नता,
क्यों तुमने तारे तुड़वाए ।

स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए !

मेरी बर्फ़ीली आहों का
बुझी धुआँती-सी चाहों का-
क्या था? घर में आग लगाकर
तुमने बाहर दिए जलाए !

स्याह-सफ़ेद डालकर साए
मेरा रंग पूछने आए !

सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा

सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा ।
और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥

विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर,
चाहती रुकना नहीं इस तीर पर,
भेद, यों, मालूम है पर पार का
धार से कटता किनारा जायेगा ।

चाँदनी छिटके, घिरे तम-तोम या
श्वेत-श्याम वितान यह कोई नया ?
लोल लहरों से ठने न बदाबदी,
पवन पर जमकर विचारा जायेगा ।

मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया
औ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,
प्राण-गान अभी चढ़े भी तो गगन
फिर गगन भू पर उतारा जायेगा ।

रक्तमुख

कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो

पथ निर्देशक वह है,

लाज लजाती जिसकी कृति से

धृति उपदेश वह है,

मूर्त दंभ गढ़ने उठता है

शील विनय परिभाषा,

मृत्यू रक्तमुख से देता

जन को जीवन की आशा,

जनता धरती पर बैठी है

नभ में मंच खड़ा है,

जो जितना है दूर मही से

उतना वही बड़ा है.

रंग लगे अंग

रंग लाए अंग चम्पई


नई लता के

धड़कन बन तरु को


अपराधिन-सी ताके

फड़क रही थी कोंपल
आँखुओं से ढक के
गुच्छे थे सोए


टहनी से दब, थक के


औचक झकझोर गया


नया था झकोरा,

तन में भी दाग लगे



मन न रहा कोरा


अनचाहा संग शिविर का,


ठंडा पा के

वासन्ती उझक झुकी,


सिमटी सकुचा के

यह पीर पुरानी हो !

यह पीर पुरानी हो !
मत रहो हाय, मैं, जग में मेरी एक कहानी हो ।

मैं चलता चलूँ निरन्तर अन्तर में विश्वास भरे,
इन सूखी-सूखी आँखों में, तेरी ही प्यास भरे,
मत पहुँचु तुझ तक, पथ में मेरी चरण-निशानी हो ।

दूँ लगा आग अपने हाँथों, मिट्टी का गेह जले,
पल भर प्रदीप में तेरे मेरा भी तो स्नेह जले,
जल जाये मेरा सत्य, अमर मेरी नादानी हो ।

वह काम करूँ ही नहीं, न हो जिससे तेरी अर्चा,
वह बात सुनूँ ही नहीं, न हो जिसमें तेरी चर्चा,
जग उँगली उठा कहे : कोई ऐसा अभिमानी हो ।

मौज

सब अपनी-अपनी कहते हैं!


कोई न किसी की सुनता है,

नाहक कोई सिर धुनता है,

दिल बहलाने को चल फिर कर,

फिर सब अपने में रहते हैं!


सबके सिर पर है भार प्रचुर

सब का हारा बेचारा उर,

सब ऊपर ही ऊपर हँसते,

भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!


ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,

सबके पथ में है शिला, शिला,

ले जाती जिधर बहा धारा,

सब उसी ओर चुप बहते हैं।

मेरा नाम पुकार रहे तुम

मेरा नाम पुकार रहे तुम,
अपना नाम छिपाने को !



सहज-सजा मैं साज तुम्हारा-

दर्द बजा, जब भी झनकारा

पुरस्कार देते हो मुझको,
अपना काम छिपाने का !



मैं जब-जब जिस पथ पर चलता,

दीप तुम्हारा दिखता जलता,

मेरी राह दिखा देते तुम,
अपना धाम छिपाने को !

माझी, उसको मझधार न कह !

रुक गयी नाव जिस ठौर स्वयं,
माझी, उसको मझधार न कह !

कायर जो बैठे आह भरे
तूफानों की परवाह करे

हाँ, तट तक जो पहुँचा न सका,
चाहे तू उसको ज्वार न कह !

कोई तम को कह भ्रम, सपना
ढूँढे, आलोक-लोक अपना,

तव सिन्धु पार जाने वाले को,
निष्ठुर, तू बेकार न कह !

बौराए बादल

क्या खाकर बौराए बादल?
झुग्गी-झोंपड़ियाँ उजाड़ दीं
कंचन-महल नहाए बादल!

दूने सूने हुए घर
लाल लुटे दृग में मोती भर
निर्मलता नीलाम हो गयी
घेर अंधेर मचाए बादल!

जब धरती काँपी, बड़ बोले-
नभ उलीचने चढ़े हिंडोले,
पेंगें भर-भर ऊपर-नीचे
मियाँ मल्हार गुँजाए बादल!

काली रात, नखत की पातें-
आपस में करती हैं बातें
नई रोशनी कब फूटेगी?
बदल-बदल दल छाए बादल!
कंचन महल नहाए बादल!

दुख को सुमुख बनाओ, गाओ !

दुख को सुमुख बनाओ, गाओ !
काली घटा छंटेगी कैसे ?
रिमझिम-रिमझिम स्वर बरसाओ !

कौन सुने करुणा की वाणी ?
दीन दृगों के आँसू पानी !
पर अगीत संगीत अभी भी, -
इसका लयमय भेद बताओ !

असह सहो दृढ़ प्राण बनाओ,
अश्रुकणों को गान बनाओ,
जब सुख छिटके चन्द्रकिरण बन
सजल नयन झुक, चुप हो जाओ !

तन चला संग, पर प्राण रहे जाते हैं !

तन चला संग, पर प्राण रहे जाते हैं !

जिनको पाकर था बेसुध, मस्त हुआ मैं,
उगते ही उगते, देखो, अस्त हुआ मैं,
हूँ सौंप रहा, निष्ठुर ! न इन्हें ठुकराना,
मेरे दिल के अरमान रहे जाते हैं !

"किसके दुराव, लूँगा स्मृति चिह्न सभी से,
कर बढ़ा कहूँगा : भूल गये न अभी से !"
-था सोच रहा, अभिशाप भरे आ तब तक
-हे देव, अमर वरदान रहे जाते हैं !

आओ हमसब मिल आज एक स्वर गाएँ,
- रोते आएँ, पर गाते-गाते जाएँ !
मैं चला मृत्य की आँखों का आँसू बन,
मेरे जीवन के गान रहे जाते हैं !

गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा

गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा, रह गई कहानी फूलों की,
महमह करती-सी वीरानी आख़िरी निशानी फूलों की ।

जब थे बहार पर, तब भी क्या हँस-हँस न टँगे थे काँटों पर ?
हों क़त्ल मज़ार सजाने को, यह क्या कुर्बानी फूलों की ।

क्यों आग आशियाँ में लगती, बागबाँ संगदिल होता क्यों ?
काँटॆ भी दास्ताँ बुलबुल की सुनते जो ज़ुबानी फूलों की ।

गुंचों की हँसी का क्या रोना जो इक लम्हे का तसव्वुर था;
है याद सरापा आरज़ू-सी वह अह्देजवानी फूलों की ।

जीने की दुआएँ क्यों माँगीं ? सौंगंध गंध की खाई क्यों ?
मरहूम तमन्नाएँ तड़पीं फ़ानी तूफ़ानी फूलों की ।

केसर की क्यारियाँ लहक उठीं, लो, दहक उठे टेसू के वन
आतिशी बगूले मधु-ऋतु में, यह क्या नादानी फूलों की ।

रंगीन फ़िज़ाओं की ख़ातिर हम हर दरख़्त सुलगाएँगे,
यह तो बुलबुल से बगावत है गुमराह गुमानी फूलों की ।

'सर चढ़े बुतों के'- बहुत हुआ; इंसाँ ने इरादे बदल दिए;
वह कहता : दिल हो पत्थर का, जो हो पेशानी फूलों की ।

थे गुनहगार, चुप थे जब तक, काँटे, सुइयाँ, सब सहते थे;
मुँह खोल हुए बदनाम बहुत, हर शै बेमानी फूलों की ।

सौ बार परेवे उड़ा चुके, इस चमन्ज़ार में यार, कभी-
ख़ुदकिशी बुलबुलों की देखी ? गर्दिश रमज़ानी फूलों की ?

ग़म न हो पास

ग़म न हो पास इसी से उदास मेरा मन ।

साँस चलती है, चिहुँक चेतता नहीं है तन ।।


नींद ऐसी न किसी और को आई होगी,

जाग कर ढूँढती धरती कहाँ है मेरा गगन ।


मौसमी गुल हो निछावर, बहार तुम पर ही,

क़ाबिले दीद ख़िजाँ में खिला है मेरा चमन ।


भूलकर कूल ग़र्क़ कश्तियाँ हुईं कितनी,

लौट मझधार से आया चिरायु ख़ुद मरण ।


बुलबुलों ने दिया दुहरा कलाम ग़ंचों का,

गंध बर मौन रहा आह! एक मेरा सुमन ।

गन्ध वेदना

केसर-कुंकुम का लहका दिगन्त है
गंध की अनन्त वेदना वसन्त



चीर उर न और

धुंधलाए वन की

ओ अनचीती बाँसुरी


गीत या अतीत बुझे द्वीप-द्वीप का
मोती अनबिंधा मुंदी-मुंदी सीप का,



धूला-धूला वर्तमान

धूप-तपा तीखा

चीख़-चीख़कर

हँसना-रोना है सीखा


गोपन मन भावी का काँचनार है
कब फूले क्यों मुरझे बेकरार है



उजले दिन

हरख साँझ-झाँवरी

थके-थके पाँव

अभी बहुत दूर गाँव री

खिंचता जाता तेज, तिमिर तनता, क्या फेरा

खिंचता जाता तेज, तिमिर तनता, क्या फेरा
अरे, सवेरा भी होगा या सदा अँधेरा ?

रहे अँधेरा, ये समाधियाँ दिख जायेंगी -
घास-पात पर शबनम से कुछ लिख जायेंगी !
कभी पढ़ेंगे लोग - न सब दिन अपढ़ रहेंगे,
सब दिन मूक व्यथा न सहेंगे, कभी कहेंगे -

'अंधकार का तना चंदोवा था जन-भू पर,
दीप उजलते, जलते थे, बस ऊपर-ऊपर ।
जीवित जले हुए कीड़ों की ये समाधियाँ,
दीप जलाना मना, यहाँ उठती न आँधियाँ ।


दीप जलाना अगर रस्म भर, इधर न आना !
दीप दिखाकर अंधकार को क्या चमकाना !!

क्या वह भी अरमान तुम्हारा ?

क्या वह भी अरमान तुम्हारा ?

जो मेरे नयनों के सपने,
जो मेरे प्राणों के अपने ,
दे-दे कर अभिशाप चले सब-
क्या यह भी वरदान तुम्हारा ?

खुली हवा में पर फैलाता,
मुक्त विहग नभ चढ़ कर गाता
पर जो जकड़ा द्वंद्व-बन्ध में,-
क्या वह भी निर्माण तुम्हारा ?

बादल देख हृदय भर आया
'दो दो-बूँद' कहा, दुलराया ;
पर पपीहरे ने जो पाया, -
क्या वह भी पाषाण तुम्हारा ?

नीरव तम, निशीथ की बेला,
मरु पथ पर मैं खड़ा अकेला
सिसक-सिसक कर रोता है, जो -
क्या वह भी प्रिय गान तुम्हारा ?

कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो

कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो
पथ निर्देशक वह है,
लाज लजाती जिसकी कृति से
धृति उपदेश वह है,

मूर्त दंभ गढ़ने उठता है
शील विनय परिभाषा,
मृत्यू रक्तमुख से देता
जन को जीवन की आशा,

जनता धरती पर बैठी है
नभ में मंच खड़ा है,
जो जितना है दूर मही से
उतना वही बड़ा है।

कितना निठुर यह उपहास

कितना निठुर यह उपहास !
जो अजाने ही गया, वह था मधुर मधुमास !
कितना निठुर यह उपहास !!

अश्रु-'कण' कहकर जिसे


मैंने बहाया हाय !

सूक्ष्म रूप धरे वही था -


हृदयहारी हास !

कितना निठुर यह उपहास !


स्वप्न-सुख की आस में
सोया रहा दिन-रात,
वह गया नित लौट -
शत-शत बार आकर पास !


कितना निठुर यह उपहास !

('रूप-अरूप)

ऐ वतन याद है किसने तुझे आज़ाद किया ?

ऐ वतन याद है किसने तुझे आज़ाद किया ?
कैसे आबाद किया ? किस तरह बर्बाद किया ?

कौन फ़रियाद सुनेगा, फलक नहीं अपना,
किस निजामत ने तुझे शाद या नौशाद किया ?

तेरे दम से थी कायनात आशियाना एक,
सब परिंदे थे तेरे, किसने नामुराद किया ?

तू था ख़ुशख़ल्क, बुज़ुर्गी न ख़ुश्क थी तेरी,
सदाबहार, किस औलाद ने अजदाद किया ?

नातवानी न थी फ़ौलाद की शहादत थी,
किस फितूरी ने फ़रेबों को इस्तेदाद किया ?

ग़ालिबन था गुनाहगार वक़्त भी तारीक़,
जिसने ज़न्नत को ज़माने की जायदाद किया ?

माफ़ कर देना ख़ता, ताकि सर उठा के चलूँ,
काहिली ने मेरी शमशेर को शमशाद किया ?

ज़िंदगी की कहानी

ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !

अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !

बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही !

जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !

बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !

और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही !

यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !