शनिवार, मई 16, 2009

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं /

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं

इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं

समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं

ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं

बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं

बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है

बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है

यह मुमकिन ही नहीं छेड़ूँ न तुझको रास्ता चलते
तुझे ऐ मौत मैंने उम्र भर भौजाई लिक्खा है

मियाँ मसनद नशीनी मुफ़्त में कब हाथ आती है
दही को दूध लिक्खा दूध को बालाई लिक्खा है

कई दिन हो गए सल्फ़ास खा कर मरने वाली को
मगर उसकी हथेली पर अभी शहनाई लिक्खा है

हमारे मुल्क में इन्सान अब घर में नहीं रहते
कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम कहीं ईसाई लिक्खा है

यह दुख शायद हमारी ज़िन्दगी के साथ जाएगा
कि जो दिल पर लगा है तीर उसपर भाई लिक्खा है

एक-न-एक रोज़ तो होना है ये जब हो जाये

एक न इक रोज़ तो होना है ये जब हो जाये
इश्क़ का कोई भरोसा नहीं कब हो जाये

हममें अजदाद की बू-बास नहीं है वरना
हम जहाँ सर को झुका दें वो अरब हो जाये

वो तो कहिये कि रवादारियाँ बाक़ी हैं अभी
वरना जो कु नहीं होता है वो सब हो जाये

ईद में यूँ तो कई रोज़ हैं बाक़ी लेकिन
तुम अगर छत पे चले जाओ ग़ज़ब हो जाये

सारे बीमार चले जाते हैं तेरी जानिब
रफ़्ता रफ़्ता तेरा घर भी न मतब हो जाये

सरफ़िरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं

सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

हम पे जो बीत चुकी है वो कहाँ लिक्खा है
हम पे जो बीत रही है वो कहाँ कहते हैं

वैसे ये बात बताने की नहीं है लेकिन
हम तेरे इश्क़ में बरबाद हैं हाँ कहते हैं

तुझको ऐ ख़ाक-ए-वतन मेरे तयम्मुम की क़सम
तू बता दे जो ये सजदों के निशाँ कहते हैं

आपने खुल के मुहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं कहते हैं मियाँ कहते हैं

शायरी भी मेरी रुस्वाई पे आमादा है
मैं ग़ज़ल कहता हूँ सब मर्सिया-ख़्वाँ कहते हैं

ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया

ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

राई के दाने बराबर भी न था जिसका वजूद
नफ़रतों के बीच रह कर वह हिमाला हो गया

एक आँगन की तरह यह शहर था कल तक मगर
नफ़रतों से टूटकर मोती की माला हो गया

शहर को जंगल बना देने में जो मशहूर था
आजकल सुनते हैं वो अल्लाह वाला हो गया

हम ग़रीबों में चले आए बहुत अच्छा किया
आज थोड़ी देर को घर में उजाला हो गया

नहीं होती अगर बारिश तो पत्थर हो गये होते

नहीं होती अगर बारिश तो पत्थर हो गए होते
ये सारे लहलहाते खेत बंजर हो गए होते

तेरे दामन से सारी शहर को सैलाब से रोका
नहीं तो मैरे ये आँसू समन्दर हो गए होते

तुम्हें अहले सियासत ने कहीं का भी नहीं रक्खा
हमारे साथ रहते तो सुख़नवर हो गए होते

अगर आदाब कर लेते तो मसनद मिल गई होती
अगर लहजा बदल लेते गवर्नर हो गए होते

चिराग़े-ए-दिल बुझाना चाहता था

चिराग़-ए-दिल बुझाना चाहता था
वो मुझको भूल जाना चाहता था

मुझे वो छोड़ जाना चाहता था
मगर कोई बहाना चाहता था

सफ़ेदी आ गई बालों पे उसके
वो बाइज़्ज़त घराना चाहता था

उसे नफ़रत थी अपने आपसे भी
मगर उसको ज़माना चाहता था

तमन्ना दिल की जानिब बढ़ रही थी
परिन्दा आशियाना चाहता था

बहुत ज़ख्मी थे उसके होंठ लेकिन
वो बच्चा मुस्कुराना चाहता था

ज़बाँ ख़ामोश थी उसकी मगर वो
मुझे वापस बुलाना चाहता था

जहाँ पर कारख़ाने लग गए हैं
मैं एक बस्ती बसाना चाहता था

उधर क़िस्मत में वीरानी लिखी थी
इधर मैं घर बसाना चाहता था

वो सब कुछ याद रखना चाहता था
मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था

न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाये

न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाये
उजाला मिल रहा है तो उजाला ले लिया जाये

चलो कुछ देर बैठें दोस्तों में ग़म जरूरी है
ग़ज़ल के वास्ते थोड़ा मसाला ले लिया जाये

बड़ी होने लगी हैं मूरतें आँगन में मिट्टी की
बहुत-से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये

सुना है इन दिनों बाज़ार में हर चीज़ मिलती है
किसी नक़्क़ाद से कोई मकाला ले लिया जाये

नुमाइश में जब आये हैं तो कुछ लेना ज़रूरी है
चलो कोई मुहब्बत करने वाला ले लिया जाये

सारा शबाब क़ैस ने सहरा को दे दिया

सारा शबाब क़ैस ने सहरा को दे दिया
जो कुछ बचा हुआ था वो लैला को दे दिया

मुझ पर किसी का क़र्ज़ नहीं रह गया है अब
दुनिया से जो मिला था वो दुनिया को दे दिया

अब मेरे पास तेरी निशानी नहीं कोई
एक ख़त बचा हुआ था वो दरिया को दे दिया

दुनिया हमारा हक़ भी हमें दे नहीं सकी
पोटा भी हमसे छीन के राजा को दे दिया

फ़िरक़ा परस्त लोग हुकूमत में आ गये
बिल्ली के मुँह में आपने चिड़िया को दे दिया

घरों को तोड़ता है ज़ेहन में नक़्शा बनाता है

घरों को तोड़ता है ज़ेहन में नक़्शा बनाता है
कोई फिर ज़िद की ख़ातिर शहर को सहरा बनाता है

ख़ुदा जब चाहता है रेत को दरिया बनाता है
फिर उस दरिया में मूसा के लिए रस्ता बनाता है

जो कल तक अपनी कश्ती पर हमेशा अम्न लिखता था
वो बच्चा रेत पर अब जंग का नक़्शा बनाता है

मगर दुनिया इसी बच्चे को दहशतगर्द लिक्खेगी
अभी जो रेत पर माँ-बाप का चेहरा बनाता है

कहानीकार बैठा लिख रहा है आसमानों पर
ये कल मालूम होगा किसको अब वो क्या बनाता है

कहानी को मुसन्निफ़ मोड़ देने के लिए अकसर
तुझे पत्थर बनाता है मुझे शीशा बनाता है

गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं

सरफिरे लोग हमें दुश्मने-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

हम पे जो बीत चुकी है वो कहाँ लिक्खा है
हम जो बीत रही है वो कहाँ कहते हैं

वैसे यह बात बताने की नहीं है लेकिन
हम तेरे इश्क़ में बरबाद हैं हाँ कहते हैं

तुझको ऐ ख़ाक-एवतन मेरे तयम्मुम की क़सम
तू बता दे जो ये सजदों के निशाँ कहते हैं

आपने खुल के मुहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं नहीं कहते हैं मियाँ कहते हैं

शायरी भी मेरी रुसवाई पे आमादा है
मैं ग़ज़ल कहता हूँ सब मर्सिया-ख़्वाँ कहते हैं

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाए

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाये
इल्ज़ाम ही देना है तो इल्ज़ाम दिया जाये

ये आपकी महफ़िल है तो फिर कुफ़्र है इनकार
ये आपकी ख़्वाहिश है तो फिर जाम दिया जाये

तिरशूल कि तक्सीम अगर जुर्म नहीं है
तिरशूल बनाने का हमें काम दिया जाये

कुछ फ़िरक़ापरस्तों के गले बैठ रहे हैं
सरकार ! इन्हें रोग़ने- बादाम दिया जाये.

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है

ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है

इस पेड़ में एक बार तो आ जायें समर भी

इस पेड़ में इक बार तो आ जाए समर भी
जो अग इधर है कभी लग जाए उधर भी

कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती
कुछ इसकी इजाज़त नहीं देती है कमर भी

पहले मुझे बाज़ार में मिल जाती थी अकसर
रुसवाई ने अब देख लिया है है मेरा घर भी

इस वास्ते जी भर के उसे देख न पाए
सुनते हैं कि लग जाती है अपनों की नज़र भी

कुछ उसकी तवज्जो भी नहीम होता है मुझपर
इस खेल से कुछ लगने लगा है मुझे डर भी

उस शहर में जीने की सज़ा काट रहा हूँ
महफ़ूज़ नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी

मर्ज़ी-ए-मौला मौला जाने

मर्ज़ी-ए-मौला मौला जाने
मैं क्या जानूँ रब्बा जाने

डूबे कितने अल्ला जाने
पानी कितना दरिया जाने

आँगन की तक़सीम का क़िस्सा
मैं जानूँ या बाबा जाने

पढ़ने वाले पढ़ ले चेहरा
दिल का हाल तो अल्ला

क़ीमत पीतल के घुंघरू की
शहर का सारा सोना जाने

हिजरत करने वालों का ग़म
दरवाज़े का ताला जाने

गुलशन पर क्या बीत रही है
तोता जाने मैना जाने

रोने में एक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं

रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं

बोझ उठाना शौक कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते - रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है आँखों से समुन्दर मुझको

इसमे आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्त-ओ-सहरा में फिराता है मुक़द्दर मुझको

एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको

इससे बढ़कर मेरी तौहीन -ए-अना क्या होगी
अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको

ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको

मेरी आँखों को वो बीनाई अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समुन्दर मुझको

कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन
चाँद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको

दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरी भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको

मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको

दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया

दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
उसने मेरे इरादे को कमज़ोर कर दिया

बारिश हुए तो झूम के स नाचने लगे
मौसम ने पेड़-पौधों को भी मोर कर दिया

मैं वो दिया हूँ जिससे लरज़ती है अब हवा
आँधी ने छेड़-छेड़ के मुँहज़ोर कर दिया

इज़हार-ए-इश्क़ ग़ैर-ज़रूरी था , आपने
तशरीह कर के शेर को कमज़ोर कर दिया

उसके हसब-नसब पे कोई शक़ नहीं मगर
उसको मुशायरों ने ग़ज़ल-चोर कर दिया

उसने भी मुझको क़िस्से की सूरत भुला दिया
मैंने भी आरज़ूओं को दरगोर कर दिया

मुख़ालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है

मुखालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है
ग़ज़ल का शेर अच्छा हो तो दुनिया मान लेती है

शरीफ़ औरत तो फूलों को भी गहना मान लेती है
मगर दुनिया इसे भी एक तमाशा मान लेती है

ये संसद है यहाँ आदाब थोड़े मुख़तलिफ़ होंगे
यहाँ जम्हूरियत झूठे को सच्चामान लेती है

फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देता
ये मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है

मुहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है
मुहब्बत माँ को भी मक्का-मदीना मान लेती है

अमीर-ए-शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है

मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना

मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना
चाँद रिश्ते में तो लगता नहीं मामा अपना

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

हम परिन्दों की तरह उड़ के तो जाने से रहे
इस जनम में तो न बदलेंगे ठिकाना अपना

धूप से मिल गए हैं पेड़ हमारे घर के
हम समझते थे कि काम आएगा बेटा अपना

सच बता दूँ तो ये बाज़ार-ए-मुहब्बत गिर जाए
मैंने जिस दाम में बेचा है ये मलबा अपना

आइनाख़ाने में रहने का ये इनआम मिला
एक मुद्दत से नहीं देखा है चेहरा अपना

तेज़ आँधी में बदल जाते हैं सारे मंज़र
भूल जाते हैं परिन्दे भी ठिकाना अपना

मियाँ रुसवाई दौलत के तआवुन से नहीं जाती

मियाँ रुसवाई दौलत के तआवुन से नहीं जाती
यह कालिख उम्र भर रहती है साबुन से नहीं जाती

शकर फ़िरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक
ये बीमारी करेले और जामुन से नहीं जाती

वो सन्दल के बने कमरे में भी रहने लगा लेकिन
महक मेरे लहू की उसके नाख़ुन से नहीं जाती

इधर भी सारे अपने हैं उधर भी सारे अपने थे
ख़बर भी जीत की भिजवाई अर्जुन से नहीं जाती

मुहब्बत की कहानी मुख़्तसर होती तो है लेकिन
कही मुझसे नहीं जाती सुनी उनसे नहीं जाती

हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं

हमारी बेबसी देखो उन्‍हें हमदर्द कहते हैं,
जो उर्दू बोलने वालों को दहशतगर्द कहते हैं

मदीने तक में हमने मुल्‍क की ख़ातिर दुआ मांगी
किसी से पूछ ले इसको वतन का दर्द कहते हैं

किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता
मेरे बच्‍चों की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं

अगर दंगाइयों पर तेरा कोई बस नहीं चलता
तो फिर सुन ले हुकूमत हम तुझे नामर्द कहते हैं

वो अपने आपको सच बोलने से किस तरह रोकें
वज़ारत को जो अपनी जूतियों की गर्द कहते हैं

बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों

बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों
मैं सिर्फ़ एक रिमोट की सूरत हूँ इन दिनों

ज़ालिम के हक़ में मेरी गवाही है मोतबर
मैं झुग्गियों के वोट की सूरत हूँ इन दिनों

मुँह का मज़ा बदलने को सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल पे दालमोंट की सूरत हो इन दिनों

हर श्ख़्स देखने लगा शक की निगाह से
मैं पाँच-सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों

हर शख़्स है निशाने पे मुझको लिए हुए
कैरम की लाल गोट की सूरत हूँ इन दिनों

घर में भी कोई ख़ुश न हुआ मुझको देखकर
यानी मैं एक चोट की सूरत हूँ इन दिनों

मौसम भी अब उड़ाने लगा है मेरी हँसी
इतने पुराने कोट की सूरत हूँ इन दिनों

इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नही ली जाती

इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती

इतना मोहताज न कर चश्म-ए-बसीरत मुझको
रोज़ इम्दाद चराग़ों से नहीं ली जाती

ज़िन्दगी तेरी मुहब्बत में ये रुसवाई हुई
साँस तक तेरे मरीज़ों से नहीं ली जाती

गुफ़्तगू होती है तज़ईन-ए-चमन की जब भी
राय सूखे हुए पेड़ों से नहीं ली जाती

मकतब-ए-इश्क़ ही इक ऐसा इदारा है जहाँ
फ़ीस तालीम की बच्चों से नहीं ली जाती.

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको
याद आया बहुत एक पेड़ का साया मुझको

अब भी रौशन है तेरी याद से घर के कमरे
रोशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको

मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं रौशनी बाँटूँ सबको
ज़िन्दगी तूने बहुत जल्द बुझाया मुझको

चाहने वालों ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
खो गया मैं तो कोई ढूँढ न पाया मुझको

सख़्त हैरत में पड़ी मौत ये जुमला सुनकर
आ, अदा करना है साँसोंका किराया मुझको

शुक्रिया तेरा अदा करता हूँ जाते-जाते
ज़िन्दगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आए

तलवार की नियाम कभी फेंकना नहीं
मुमकिन है दुश्मनों को डराने के काम आए

कचा समझ के बेच न देना मकान को
शायद कभी ये सर को छुपाने के काम आए

एइसा भी हुस्न क्या कि तरसती रहे निगाह
एइसी भी क्या ग़ज़ल जो न गाने के काम आए

वह दर्द दे जो रातों को सोने न दे हमें
वह ज़ख़्म दे जो सबको दिखाने के काम आए

बिछड़ा कहाँ है भाई हमारा सफ़र में है

बिछड़ा कहाँ है भाई हमारा सफ़र में है
ओझल नहीं हुआ है अभी तक नज़र में है

एक हादसे ने छीन लिया है उसे मगर
तसवीर उसकी फिर भी मेरी चश्म-ए-तर में है

वह तो लिखा के लाई है क़िस्मत में जागना
माँ कैसे सो सकेगी कि बेटा सफ़र में है

ख़ुद शाख़-ए-गुल को टूटते देखा है आँख से
किस दर्जा हौसला अभी बूढ़े शजर में है

तनहा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़
एक भाई मर गया है, मगर एक घर में है

दुनिया से आख़िरत का सफ़र भी अजीब है
वह घर पहुँच गया है बदन रहगुज़र में है

सब ओढ़ लेंगे मिट्टी की चादर को एक दिन
दुनिया का हर चराग हवा की नज़र में है.

कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है

कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है
मैं मौसम को समझता हूँ मुझे मौसम समझता है

ज़बाँ दो चाहने वालों को शायद दूर कर देगी
मैं बँगला कम समझता हूँ वो उर्दू कम समझता है

हमारे हाल से सब चाहने वाले हैं नावाक़िफ़
मगर एक बेवफ़ा है जो हमारा ग़म समझता है

मुहब्बत करने वाला जान की परवा नहीं करता
वह अपने पाँव की ज़ंजीर को रेशम समझता है

कहाँ तक झील में पानी रहे आँखें समझती हैँ
कहाँ तक ज़ख़्म को भरना है यह मरहम समझता है

यह मत समझ कि अर्श-ए-मुअल्ला उसी का है

ये मत समझ कि अर्शे-ए-मुअल्ला उसी का है
सारी ज़मीं भी उसकी है ग़ल्ला उसी का है

लगता है सीधे जाएँगे दोज़ख़ में नेक लोग
जब कुफ़्र कह रहा है कि अल्ला उसी का है

मौसम से लग रहा है कि घर अब क़रीब है
ख़ुश्बू से लग रहा है मुहल्ला उसी का है

हम लोग हैं खिलाड़ी की सूरत ज़मीन पर
यह गेंद भी उसी की है बल्ला उसी का है

दिल जिसका पाक-साफ़ हो मस्जिद उसी की है
पढ़ता है जो नमाज़ मुसल्ला उसी का है

यह एहतेराम तो करना ज़रूर पड़ता है

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है

शराब पी के बहकने से कौन रोकेगा
शराब पी के बहकना ज़रूर पड़ता है

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे
कि दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है

ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़ सब उसी को मिल गया

ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक सब उसी को मिल गया
काम तो ठाकुर ! तुम्हारे आदमी को मिल गया

फिर तेरी यादों की शबनम ने जगाया है मुझे
फिर ग़ज़ल कहने का मौसम शायरी को मिल गया

याद रखना भीख माँगेंगे अँधेरे रहम की
रास्ता जिस दिन कहीं से रौशनी को मिल गया

इस लिए बेताब हैं आँसू निकलने के लिए
पाट चौड़ा आज आँखों की नदी को मिल गया

आज अपनी हर ग़लतफ़हमी पे बहुत हँसता हूँ मैं
साथ में मौक़ा मुनाफ़िक़ की हँसी को मिल गया

तितली ने गुल को चूम के दुल्हन बना दिया

तितली ने गुल को चूम के बना दिया
ऐ इश्क़ तूने सोने को कुन्दन बना दिया

तेरे ही अक्स को तेरा दुश्मन बना दिया
आईने ने मज़ाक़ में सौतन बना दिया

मैने तो सिर्फ़ आपको चाहा है उम्र भर
यह किसने आपको मेरा दुश्मन बना दिया

जितना हँसा था उससे ज़्यादा उदास हूँ
आँखों को इन्तज़ार ने सावन बना दिया

ज़हमत न हो ग़मों को पहुँचते हैं इसलिए
ज़ख़्मों ने दिल में छोटा-सा रौज़न बना दिया

जी भर के तुम को देखने वाला था मैं मगर
बाद-ए-सबा ने ज़ुल्फ़ों को चिलमन बना दिया

नफ़रत न ख़त्म कर सकी सोने का एक महल
चाहत ने एक चूड़ी को कंगन बना दिया.

कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है

कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है
अपने गाँव में सब कुछ भैय्या अच्छा लगता है

नए कमरों में अब चीज़ें पुरानी कौन रखता है
परिन्दों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है

नींद अपने आप दीवाने तलक तो आ गई

नींद अपने आप दीवाने तलक तो आ गई
दोस्ती में धूप तह्खाने तलक तो आ गई

जाने अब कितना सफर बाकी बचा है उम्र का
जिन्दगी उब्ले हुये खाने तलक तो आ गई

चाहिये आब और क्या सेहरा नवरदी ये बता
मुझ को वहशत ले के वीराने तलक तो आ गई

देख ले ज़ालिम शिकारी मां की ममता देख ले
देख ले चिडिया तेरे दाने तलक तो आ गई

अब हवा थी इस तरफ की या करम फरमाई थी
जुल्‍फ जाना कम से कम शाने तलक तो आ गई

और कितनी ठोकरें खायेगी तू ऎ जिन्‍दगी
खुदकुशी करने को मयखाने तलक तो आ गई

और कितनी गरम जोशी चाहिए जज्‍बात में
दुश्‍मनी की आंच दस्‍ताने तलक तो आ गई

किसी भी चेहरे को देखो गुलाल होता है

किसी भी चेहरे को देखो गुलाल होता है
तुम्हारे शहर में पत्थर भी लाल होता है

कभी कभी तो मेरे घर में कुछ नहीं होता
मगर जो होता है रिज्के हलाल होता है

किसी हवेली के ऊपर से मत गुजर चिडिया
यहां छतें नही होती हैं जाल होता है

मैं शोहरतों की बलंदी पे जा नहीं सकता
जहां उरूज पे पहुंचो जबाल होता है

मैं अपने आपको सैय्यद तो लिख नहीं सकता
अजान देने से कोई बिलाल होता है!

सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है

सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है
मगर जब गुफ्तगू करता है चिंगारी निकलती है

लबों पर मुस्कराहट दिल में बेजारी निकलती है
बडे लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है

मोहब्बत को जबर्दस्ती तो लादा जा नहीं सकता
कहीं खिडकी से मेरी जान अलमारी निकलती है

यही घर था जहां मिलजुल के सब एक साथ रहते थे
यही घर है अलग भाई की अफ्तारी निकलती है

वो ज़ालिम मेरी हर ख़्वाहिश ये कहकर टाल जाता है

वो जालिम मेरी हर ख्वाहिश ये कह कर टाल जाता है
दिसंबर जनवरी में कोई नैनीताल जाता है!

अभी तो बेवफाई का कोई मौसम नहीं आया
अभी से उड के क्यों ये रेशमी रूमाल जाता है

वजारत के लिए हम दोस्तों का साथ मत छोडो
इधर इकबाल आता है उधर इकबाल जाता है

मुनासिब है कि पहले तुम भी आदमखोर बन जाओ
कहीं संसद में खाने कोई चावल दाल जाता है

ये मेरे मुल्क का नक्शा नहीं है एक कासा है
इधर से जो गुजरता है वो सिक्के डाल जाता है

मोहब्बत रोज पत्थर से हमें इंसां बनाती है
तआस्सुब रोज दिन आंखों पे परदा डाल जाता है

अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं

अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
तो फिर ऐ मुफ़लिसी हम दाँव पर कासा लगाते हैं

उन्हीं को सर बुलन्दी भी अता होती है दुनिया में
जो अपने सर के नीचे हाथ का तकिया लगाते हैं

हमारा सानहा है ये कि इस दौरे हुकूमत में
शिकारी के लिए जंगल में हम हाँका लगाते हैं

वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसा लगाते हैं

उगा रक्खे हैं जंगल नफ़रतों के सारी बस्ती में
मगर गमले में मीठी नीम नीम का पौदा लगाते हैं

ज़्यादा देर तक मुर्दे कभी रक्खे नहीं जाते
शराफ़त के जनाज़े को चलो काँधा लगाते हैं

ग़ज़ल की सल्तनत पर आजतक क़ब्ज़ा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी राना लगाते हैं

समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया

समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने आख़िर घुटना टूट गया

देख शिकारी तेरे कारन एक परिन्दा टूट गया
पत्थर का तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन शीशा टूट गया

घर का बोझ उठाने वाले बचपन की तक़दीर न पूछ
बच्चा घर से काम पे निकला और खिलौना टूट गया

किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई देखके लेकिन चूड़ी वाला टूट गया

ये मंज़र भी देखे हमने इस दुनिया के मेले में
टूटा-फूटा नाच रहा है, अच्छा ख़ासा टूट गया

पेट की ख़ातिर फ़ुटपाथों पर बेच रहा हूँ तसवीरें
मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया

शेर बेचारा भूखा-प्यासा मारा-मारा फिरता है
शेर की ख़ाला ख़ुश बैठी है भागों छींका टूट गया

घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है

घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है
कि जैसे मुफ़लिसी से खेल कर ज़ानी पलटता है

किसी को देखकर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा
ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्त-ए-सुलतानी पलटता है


कहीं हम सरफ़रोशों को सलाख़ें रोक सकती हैं
कहो ज़िल्ले इलाही से कि ज़िन्दानी पलटता है

सिपाही मोर्चे से उम्र भर पीछे नहीं हटता
सियासतदाँ ज़बाँ दे कर बआसानी पलटता है

तुम्हारा ग़म लहू का एक-एक क़तरा निचोड़ेगा
हमेशा सूद लेकर ही ये अफ़ग़ानी पलटता है

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है

दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो
कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है

इसी उलझन में अकसर रात आँखों में गुज़रती है
बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है

कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से
कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता
कभी कश्मीर जाता है कभी बंगाल कटता है .

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है
छतें महफ़ूज़ रहती हैं हवेली टूट जाती है

मुहब्बत भी अजब शय है वो जब परदेस में रोये
तो फ़ौरन हाथ की एक-आध चूड़ी टूट जाती है

कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है

लड़कपन में किये वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती
अँगूठी हाथ में रहती है मँगनी टूट जाती है

किसी दिन प्यास के बारे में उससे पूछिये जिसकी
कुएँ में बाल्टी रहती है रस्सी टूट जाती है

कभी एक गर्म आँसू काट देता है चटानों को
कभी एक मोम के टुकड़े से छैनी टूट जाती है

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है
मगर बह शख़्स जिसकी आके बेटी बैठ जाती है

बड़े-बूढे कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं
कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है

नक़ाब उलटे हुए जब भी चमन से वह गुज़रता है
समझकर फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख़्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मुहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है

हर इक आवाज़ अब उर्दू को फ़रियादी बताती है

हर एक आवाज़ अब उर्दू को को फ़रियादी बताती है
यह पगली फिर भी अब तक ख़ुद को शहज़ादी बताती है

कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है

जहाँ पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहाँ एक घोंसला चिड़ियों का था दादी बताती है

अभी तक यह इलाक़ा है रवादारी के क़ब्ज़े में
अभी फ़िरक़ापरस्ती कम है आबादी बताती है

यहाँ वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है
यहाँ से नफ़रतें गुज़री हैं बरबादी बताती है

लहू कैसे बहाया जाय यह लीडर बताते हैं
लहू का ज़ायक़ा कैसा है यह खादी बताती है

ग़ुलामी ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा
हमें फिर क़ैद होना है ये आज़ादी बताती है

ग़रीबी क्यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है

मैं उन आँखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज भी आदी बताती है.

हमारा तीर कुछ भी हो निशाने तक पहुँचता है

हमारा तीर कुछ भी हो निशाने तक पहुँचता है
परिन्दा कोई मौसम हो ठिकाने तक पहुँचता है

धुआँ बादल नहीं होता कि बादल दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

हमारी मुफ़लिसी पर आपको हँसना मुबारक हो
मगर यह तंज़ हर सैयद घराने तक पहुँचता है

मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ
मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है

अभी ऐ ज़िन्दगी तुमको हमारा साथ देना है
अभी बेटा हमारा सिर्फ़ शाने तक पहुँचता है

सफ़र का वक़्त आ जाये तो फिर कोई नहीं रुकता
मुसाफ़िर ख़ुद से चल कर आब-ओ-दाने तक पहुँचता है

न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी...

न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
ग़ज़ल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ

ग़ज़ल वह सिन्फ़-ए-नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ

हुकूमत का हर एक इनआम है बंदूकसाज़ी पर
मुझे कैसे मिलेगा मैं तो बैसाखी बनाता हूँ

मेरे आँगन की कलियों को तमन्ना शाहज़ादों की
मगर मेरी मुसीबत है कि मैं बीड़ी बनाता हूँ

सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँधता था अब डबल रोटी बनाता हूँ

वज़ारत चंद घंटों की महल मीनार से ऊँचा
मैं औरंगज़ेब हूँ अपने लिए खिचड़ी बनाता हूँ

बस इतनी इल्तिजा है तुम इसे गुजरात मत करना
तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते-जी बनाता हूँ

मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ

तुझे ऐ ज़िन्दगी अब क़ैदख़ाने से गुज़रना है
तुझे मैँ इस लिए दुख-दर्द का आदी बनाता हूँ

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जलाकर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ

मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ

मेरी ख़्वाहिश कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

कम-से-बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें
तेरे बारे में न सोचूँ तो अकेला हो जाऊँ

चारागर तेरी महारत पे यक़ीं है लेकिन
क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ

बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं
शम्अ तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ

शायरी कुछ भी हो रुस्वा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ

बुलन्दी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है

बुलन्दी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है
बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है

बहुत जी चाहता है क़ैद-ए-जाँ से हम निकल जाएँ
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख़्वाब में नंगी नज़र आई
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है

मैं इन्साँ हूँ बहक जाना मेरी फ़ितरत में शामिल है
हवा भी उसको छू कर देर तक नश्शे में रहती है

मुहब्बत में परखने जाँचने से फ़ायदा क्या है
कमी थोड़ी-बहुत हर एक के शजरे में रहती है

ये अपने आप को तक़्सीम कर लेता है सूबों में
ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है.

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ
रोज़ उँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है

दिल की गलियों से तेरी याद निकलत ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है

रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिल-ए-बेताब में आ जाती है

ज़िन्दगी यूँ भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए
कूचा-ए-रेशम-ओ-कमख़्वाब में आ जाती है

दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है.

दुनिया तेरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ

दुनिया तेरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूँ

अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ

मैं ख़्वाब नहीं आपकी आँखों की तरह था
मैं आपका लहजा नहीं अस्लोब रहा हूँ

इस शहर के पत्थर भी गवाही मेरी देंगे
सहरा भी बता देगा कि मजज़ूब रहा हूँ

रुसवाई मेरे नाम से मंसूब रही है
मैं ख़ुद कहाँ रुसवाई से मंसूब रहा हूँ

दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ

फेंक आए थे मुझको भी मेरे भाई कुएँ में
मैं सब्र में भी हजरते अय्यूब रहा हूँ

सच्चाई तो ये है कि तेरे क़रयए दिल में
ऐसा भी ज़माना था कि मैं ख़ूब रहा हूँ

शोहरत मुझे मिलती है तो चुपचाप खड़ी रह
रुसवाई मैं तुझसे भी तो मंसूब रहा हूँ

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हकूमत मन्दिरो-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

हसद की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है

तभी जा कर कहीं माँ —बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है
मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है.

माँ / भाग 1

हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते

बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते


हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं

सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं


हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह

मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह


सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’

रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते


सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं

हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं


मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है

कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है


मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू

मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना


भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को

जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े


लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती


तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर

फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा

माँ / भाग 2

इस चेहरे में पोशीदा है इक क़ौम का चेहरा

चेहरे का उतर जाना मुनासिब नहीं होगा


अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’

माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है


मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है

पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है


पुराना पेड़ बुज़ुर्गों की तरह होता है

यही बहुत है कि ताज़ा हवाएँ देता है


किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं

किसी के एड़ियों से रेत का चश्मा निकलता है


जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा

मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा


देख ले ज़ालिम शिकारी ! माँ की ममता देख ले

देख ले चिड़िया तेरे दाने तलक तो आ गई


मुझे भी उसकी जदाई सताती रहती है

उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है


मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती उसको

और परदेस में बेटा नहीं रहने देता


अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता

परिन्दों के न होने पर शजर अच्छा नहीं लगता

माँ / भाग 3

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं


कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है

शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है


किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई

मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई


ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया

माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है


मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ


मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है

सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है


रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं

ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं


वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा

बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा


कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है

जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है

माँ / भाग 4

हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए

माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे


हवा उड़ाए लिए जा रही है हर चादर

पुराने लोग सभी इन्तेक़ाल करने लगे


ऐ ख़ुदा ! फूल —से बच्चों की हिफ़ाज़त करना

मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना


हमें हरीफ़ों की तादाद क्यों बताते हो

हमारे साथ भी बेटा जवान रहता है


ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे

माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे


जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई


ख़ुदा करे कि उम्मीदों के हाथ पीले हों

अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह


घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें

मुझको मत रोक मुझे लौट के घर जाना है


यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाउँगा

ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा


स्टेशन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं

पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं

माँ / भाग 5

अब देखिये कौम आए जनाज़े को उठाने

यूँ तार तो मेरे सभी बेटों को मिलेगा


अब अँधेरा मुस्तक़िल रहता है इस दहलीज़ पर

जो हमारी मुन्तज़िर रहती थीं आँखें बुझ गईं


अगर किसी की दुआ में असर नहीं होता

तो मेरे पास से क्यों तीर आ के लौट गया


अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा

मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है


कहीं बे्नूर न हो जायें वो बूढ़ी आँखें

घर में डरते थे ख़बर भी मेरे भाई देते


क्या जाने कहाँ होते मेरे फूल-से बच्चे

विरसे में अगर माँ की दुआ भी नहीं मिलती


कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे

माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी


क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर

सौतेली माँ को बच्चे से नफ़रत वही रही


धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था

माँ बाप के चेहरों मी तरफ़ देख लिया था


कोई दुखी हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे

वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है

माँ / भाग 6

किसी को देख कर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा

ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्ते—सुल्तानी पलटता है


दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन

माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है


दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों मील जाती हैं

कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है


दिया है माँ ने मुझे दूध भी वज़ू करके

महाज़े-जंग से मैं लौट कर न जाऊँगा


खिलौनों की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती

मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती


दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो

कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है


बहन का प्यार माँ की मामता दो चीखती आँखें

यही तोहफ़े थे वो जिनको मैं अक्सर याद करता था


बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर

माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है


बड़ी बेचारगी से लौटती बारात तकते हैं

बहादुर हो के भी मजबूर होते हैं दुल्हन वाले




खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से

बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही

माँ / भाग 7

मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे

सर पे माँ बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था


मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है

किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है


मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ

जिसके माँ बाप को रोते हुए मर जाना है


मिलता—जुलता हैं सभी माँओं से माँ का चेहरा

गुरूद्वारे की भी दीवार न गिरने पाये


मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं

सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़—ए—माँ रहने दिया


घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गईं

ढाल बन कर सामने माँ की दुआएँ आ गईं


मैदान छोड़ देने स्र मैं बच तो जाऊँगा

लेकिन जो ये ख़बर मेरी माँ तक पहुँच गई


‘मुनव्वर’! माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना

जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


मिट्टी लिपट—लिपट गई पैरों से इसलिए

तैयार हो के भी कभी हिजरत न कर सके


मुफ़्लिसी ! बच्चे को रोने नहीं देना वरना

एक आँसू भरे बाज़ार को खा जाएगा

माँ / भाग 8

मुझे खबर नहीम जन्नत बड़ी कि माँ लेकिन

लोग कहते हैं कि जन्नत बशर के नीचे है


मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है

किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है


बुज़ुर्गों का मेरे दिल से अभी तक डर नहीं जाता

कि जब तक जागती रहती है माँ मैं घर नहीं जाता


मोहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है

मोहब्बत माँ को भी मक्का—मदीना मान लेती है


माँ ये कहती थी कि मोती हैं हमारे आँसू

इसलिए अश्कों का का पीना भी बुरा लगता है


परदेस जाने वाले कभी लौट आयेंगे

लेकिन इस इंतज़ार में आँखें चली गईं


शहर के रस्ते हों चाहे गाँव की पगडंडियाँ

माँ की उँगली थाम कर चलना मुझे अच्छा लगा


मैं कोई अहसान एहसान मानूँ भी तो आख़िर किसलिए

शहर ने दौलत अगर दी है तो बेटा ले लिया


अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे

रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको


मेरे चेहरे पे ममता की फ़रावानी चमकती है

मैं बूढ़ा हो रहा हूँ फिर भी पेशानी चमकती है

माँ / भाग 9

वो जा रहा है घर से जनाज़ा बुज़ुर्ग का

आँगन में इक दरख़्त पुराना नहीं रहा

वो तो लिखा के लाई है क़िस्मत में जागना

माँ कैसे सो सकेगी कि बेटा सफ़र में है

३९.

शाहज़ादे को ये मालूम नहीं है शायद

माँ नहीं जानती दस्तार का बोसा लेना


आँखों से माँगने लगे पानी वज़ू का हम

काग़ज़ पे जब भी देख किया माँ लिखा हुआ


अभी तो मेरी ज़रूरत है मेरे बच्चों को

बड़े हुए तो ये ख़ुद इन्त्ज़ाम कर लेंगे


मैं हूँ मेरा बच्चा है खिलौनों की दुकाँ है

अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है


ऐ ख़ुदा ! तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे

मेरे बच्चों को भी यूनिवर्सिटी अच्छी लगी


भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो

शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा


खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे

तुझे ऐ मुफ़्लिसी कोई बहाना ढूँढ लेना है


ममता की आबरू को बचाया है नींद ने

बच्चा ज़मीं पे सो भी गया खेलते हुए

माँ / भाग 10

मेरे बच्चे नामुरादी में जवाँ भी हो गये

मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ बाज़ारों को तकती रह गई


बच्चों की फ़ीस, उनकी किताबें, क़लम, दवात

मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया


वो समझते ही नहीं हैं मेरी मजबूरी को

इसलिए बच्चों पे ग़ुस्सा भी नहीं आता है


किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता

मेरे बच्चे की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं


धूप से मिल गये हैं पेड़ हमारे घर के

मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना


फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देती

यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है


तमाम उम्र सलामत रहें दुआ है मेरी

हमारे सर पे हैं जो हाथ बरकतों वाले


हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं देती

मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी देखेंगे


माँ—बाप की बूढ़ी आँखों में इक फ़िक़्र—सी छाई रहती है

जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है


दोस्ती दुश्मनी दोनों शामिल रहीं दोस्तों की नवाज़िश थी कुछ इस तरह

काट ले शोख़ बच्चा कोई जिस तरह माँ के रुख़सार पर प्यार करते हुए

माँ / भाग 11

माँ की ममता घने बादलों की तरह सर पे साया किए साथ चलती रही

एक बच्चा किताबें लिए हाथ में ख़ामुशी से सड़क पार करते हुए


दुख बुज़ुर्गों ने काफ़ी उठाए मगर मेरा बचपन बहुत ही सुहाना रहा

उम्र भर धूप में पेड़ जलते रहे अपनी शाख़ें समरदार करते हुए


चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है

मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है


अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी

अभी बेवा की ग़ैरत से महाजन हार जाता है


मालूम नहीं कैसे ज़रूरत निकल आई

सर खोले हुए घर से शराफ़त निकल आई


इसमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं

देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाये


ओढ़े हुए बदन पे ग़रीबी चले गये

बहनों को रोता छोड़ के भाई चले गये


किसी बूढ़े की लाठी छिन गई है

वो देखो इक जनाज़ा जा रहा है


आँगन की तक़सीम का क़िस्सा

मैं जानूँ या बाबा जानें


हमारी चीखती आँखों ने जलते शहर देखे हैं

बुरे लगते हैं अब क़िस्से हमॆं भाई —बहन वाले

माँ / भाग 12

इसलिए मैंने बुज़ुर्गों की ज़मीनें छोड़ दीं

मेरा घर जिस दिन बसेगा तेरा घर गिर जाएगा


बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे

उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते


बिछड़ के तुझ से तेरी याद भी नहीं आई

हमारे काम ये औलाद भी नहीं आई


मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना

चाँद रिश्ते में नहीं लगता है मामा अपना


मैं नर्म मिट्टी हूँ तुम रौंद कर गुज़र जाओ

कि मेरे नाज़ तो बस क़ूज़ागर उठाता है


मसायल नें हमें बूढ़ा किया है वक़्त से पहले

घरेलू उलझनें अक्सर जवानी छीन लेती हैं


उछलते—खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी

तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है


कुछ खिलौने कभी आँगन में दिखाई देते

काश हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते

माँ / भाग 13

दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन

बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था


जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर

धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा


कम से बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर

ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ


क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है

धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है


बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद

अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते


इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे

ज़मी से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं


सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता

हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता


बिछड़ते वक़्त भी चेहरा नहीं उतरता है

यहाँ सरों से दुपट्टा नहीं उतरता है


कानों में कोई फूल भी हँस कर नहीं पहना

उसने भी बिछड़ कर कभी ज़ेवर नहीं पहना

माँ / भाग 14

मोहब्बत भी अजब शय है कोई परदेस में रोये

तो फ़ौरन हाथ की इक—आध चूड़ी टूट जाती है


बड़े शहरों में रहकर भी बराबर याद करता था

मैं इक छोटे से स्टेशन का मंज़र याद करता था


किसको फ़ुर्सत उस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की

सूनी कलाई सेख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया


मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ

कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है


कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है

कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है


उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले

जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते


शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको

इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता


हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे

मुफ़्लिसी तुझ से बड़े लोग भी दब जाते हैं


भटकती है हवस दिन—रात सोने की दुकानों में

ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है


अमीरे—शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता

ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है

माँ / भाग 15

तो क्या मजबूरियाँ बेजान चीज़ें भी समझती हैं

गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता


कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते

हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते


ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती

कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता


ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है

मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती


पैदा यहीं हुआ हूँ यहीं पर मरूँगा मैं

वो और लोग थे जो कराची चले गये


मैं मरूँगा तो यहीं दफ़्न किया जाऊँगा

मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली


वतन की राह में देनी पड़ेगी जान अगर

ख़ुदा ने चाहा तो साबित क़दम ही निकलेंगे


वतन से दूर भी या रब वहाँ पे दम निकले

जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे

माँ / भाग 16 (बुज़ुर्ग)

ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़—ए—सुखन आया है

पाँव दाबे हैं बुज़र्गों के तो फ़न आया है


हमें बुज़ुर्गों की शफ़क़त कभी न मिल पाई

नतीजा यह है कि हम लोफ़रों के बेच रहे


हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना

सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है


रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में

ज़रूरतन भी ‘सख़ी’ की तरफ़ नहीं देखा


सड़क से जब गुज़रते हैं तो बच्चे पेड़ गिनते हैं

बड़े बूढ़े भी गिनते हैं वो सूखे पेड़ गिनते हैं


हवेलियों की छतें गिर गईं मगर अब तक

मेरे बुज़ुर्गों का नश्शा नहीं उतरता है


बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे

मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है


मेरे बुज़ुर्गों को इसकी ख़बर नहीं शायद

पनप नहीं सका जो पेड़ बरगदों में रहा


इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती

आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती


मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर

मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था


बड़े—बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं

कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है


मुझे इतना सताया है मरे अपने अज़ीज़ों ने

कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता

माँ / भाग 17 (ख़ुद)

हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है

हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है


कच्चे समर शजर से अलग कर दि्ये गये

हम कमसिनी में घर से अलग कर दि्ये गये


गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते

हम रात में छुप कर कहीं बाहर नहीं जाते


हमारे साथ चल कर देख लें ये भी चमन वाले

यहाँ अब कोयला चुनते हैं फूलों —से बदन वाले


इतना रोये थे लिपट कर दर—ओ—दीवार से हम

शहर में आके बहुत दिन रहे बीमार —से हम


मैं अपने बच्चों से आँखें मिला नहीं सकता

मैं ख़ाली जेब लिए अपने घर न जाऊँगा


हम एक तितली की ख़ातिर भटकते फिरते थे

कभी न आयेंगे वो दिन शरारतों वाले


मुझे सँभालने वाला कहाँ से आयेगा

मैं गिर रहा हूँ पुरानी इमारतों की तरह


पैरों को मेरे दीदा—ए—तर बाँधे हुए है

ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बाँधे हुए है


दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के

ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना

माँ / भाग 18 (ख़ुद)

चमक ऐसे नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर

अना को हमने दो—दो वक़्त का फ़ाक़ा कराया है


ज़रा—सी बात पे आँखें बरसने लगती थीं

कहाँ चले गये मौसम वो चाहतों वाले


मैं इस ख़याल से जाता नहीं हूँ गाँव कभी

वहाँ के लोगों ने देखा है बचपना मेरा


हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन

क़ाफ़िले जो भी इधर आये हमें लूट गये


अब मुझे अपने हरीफ़ों से ज़रा भी डर नहीं

मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे


तन्हा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़

इक भाई मर चुका है मगर एक घर में है


मैदान से अब लौट के जाना भी है दुश्वार

किस मोड़ पे दुश्मन से क़राबत निकल गई


मुक़द्दर में लिखा कर लाये हैं हम दर—ब—दर फिरना

परिंदे कोई मौसम हो परेशानी में रहते हैं


मैं पटरियों की तरह ज़मीं पर पड़ा रहा

सीने से ग़म गुज़रते रहे रेल की तरह

माँ / भाग 19 (ख़ुद)

मैं हूँ मिट्टी तो मुझे कूज़ागरों तक पहुँचा

मैं खिलौना हूँ तो बच्चों के हवाले कर दे


हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है

कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है


शायद हमारे पाँव में तिल है कि आज तक

घर में कभी सुकून से दो दिन नहीं रहे


मैं वसीयत कर सका न कोई वादा ले सका

मैंने सोचा भी नहीं था हादसा हो जायेगा


हम बहुत थक हार के लौटे थे लेकिन जाने क्यों

रेंगती, बढ़ती, सरकती च्यूँटियाँ अच्छी लगीं


मुद्दतों बाद कोई श्ख्ह़्स है आने वाला

ऐ मेरे आँसुओ! तुम दीदा—ए—तर में रहना


तक़ल्लुफ़ात ने ज़ख़्मों को कर दिया नासूर

कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई


अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन

मुस्कुराते हुए मिलते हैं ख़रीदार से हम


हमें दिन तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अंदाज़ा कर लो

हम उससे मौसम में बिछ्ड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है


मैं इक फ़क़ीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ

किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती


हम तो इक अख़बार से काटी हुई तस्वीर हैं

जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जाएँगे


अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे

यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती


जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का

ज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई


हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर

नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है


सोने के ख़रीदार न ढूँढो कि यहाँ पर

इक उम्र हुई लोगों ने पीतल नहीं देखा


मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी

जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ

माँ / भाग 20 (बहन)

किस दिन कोई रिश्ता मेरी बहनों को मिलेगा

कब नींद का मौसम मेरी आँखों को मिलेगा


मेरी गुड़िया—सी बहन को ख़ुद्कुशी करनी पड़ी

क्या ख़बर थी दोस्त मेरा इस क़दर गिर जायेगा


किसी बच्चे की तरह फूट के रोई थी बहुत

अजनबी हाथ में वह अपनी कलाई देते


जब यए सुना कि हार के लौटा हूँ जंग से

राखी ज़मीं पे फेंक के बहनें चली गईं


चाहता हूँ कि तेरे हाथ भी पीले हो जायें

क्या करूँ मैं कोई रिश्ता ही नहीं आता है


हर ख़ुशी ब्याज़ पे लाया हुआ धन लगती है

और उदादी मुझे मुझे मुँह बोली बहन लगती है


धूप रिश्तों की निकल आयेगी ये आस लिए

घर की दहलीज़ पे बैठी रहीं मेरी बहनें


इस लिए बैठी हैं दहलीज़ पे मेरी बहनें

फल नहीं चाहते ताउम्र शजर में रहना


नाउम्मीदी ने भरे घर में अँधेरा कर दिया

भाई ख़ाली हाथ लौटे और बहनें बुझ गईं

माँ / भाग 21 (भाई)

मैं इतनी बेबसी में क़ैद—ए—दुश्मन में नहीं मरता

अगर मेरा भी इक भाई लड़कपन में नहीं मरता


काँटों से बच गया था मगर फूल चुभ गया

मेरे बदन में भाई का त्रिशूल चुभ गया


ऐ ख़ुदा थोड़ी करम फ़रमाई होना चाहिए

इतनी बहनें हैं तो फिर इक भाई होना चाहिए


बाप की दौलत से यूँ दोनों ने हिस्सा ले लिया

भाई ने दस्तार ले ली मैंने जूता ले लिया


निहत्था देख कर मुझको लड़ाई करता है

जो काम उसने किया है वो भाई करता है


यही था घर जहाँ मिलजुल के सब इक साथ रहते थे

यही है घर अलग भाई की अफ़्तारी निकलती है


वह अपने घर में रौशन सारी शमएँ गिनता रहता है

अकेला भाई ख़ामोशी से बहनें गिनता रहता है


मैं अपने भाइयों के साथ जब बाहर निकलता हूँ

मुझे यूसुफ़ के जानी दुश्मनों की याद आती है


मेरे भाई वहाँ पानी से रोज़ा खोलते होंगे

हटा लो सामने से मुझसे अफ़्तारी नहीं होगी


जहाँ पर गिन के रोटी भाइयों को भाई देते हों

सभी चीज़ें वहाँ देखीं मगर बरकत नहीं देखी

माँ / भाग 22 (भाई)

रात देखा है बहारों पे खिज़ाँ को हँसते

कोई तोहफ़ा मुझे शायद मेरा भाई देगा


तुम्हें ऐ भाइयो यूँ छोड़ना अच्छा नहीं लेकिन

हमें अब शाम से पहले ठिकाना ढूँढ लेना है


ग़म से लछमन की तरह भाई का रिश्ता है मेरा

मुझको जंगल में अकेला नहीं रहने देता


जो लोग कम हों तो काँधा ज़रूर दे देना

सरहाने आके मगर भाई—भाई मत कहना


मोहब्बत का ये जज़्बा ख़ुदा की देन है भाई

तो मेरे रास्ते से क्यूँ ये दुनिया हट नहीं जाती


ये कुर्बे—क़यामत है लहू कैसा ‘मुनव्वर’!

पानी भी तुझे तेरा बिरादर नहीं देगा


आपने खुल के मोहब्बत नहीं की है हमसे

आप भाई नहीं कहते हैं मियाँ कहते हैं

माँ / भाग 23 (बच्चे)

फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं

वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाड़ू लगाते हैं


हुमकते खेलते बच्चों की शैतानी नहीं जाती

मगर फिर भी हमारे घर की वीरानी नहीं जाती


अपने मुस्तक़्बिल की चादर पर रफ़ू करते हुए

मस्जिदों में देखिये बच्चे वज़ू करते हुए


मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं

मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ


घर का बोझ उठाने वाले बच्चे की तक़दीर न पूछ

बचपन घर से बाहर निकला और खिलौना टूट गया


जो अश्क गूँगे थे वो अर्ज़े—हाल करने लगे

हमारे बच्चे हमीं पर सवाल करने ल्गे


जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया

हम उन परिंदों को फिर से घरों में छोड़ आए


भरे शहरों में क़ुर्बानी का मौसम जबसे आया है

मेरे बच्चे कभी होली में पिचकारी नहीं लाते


मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे

इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा


भूख से बेहाल बच्चे तो नहीं रोये मगर

घर का चूल्हा मुफ़लिसी की चुग़लियाँ खाने लगा

माँ / भाग 24 (बच्चे)

तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठ्ठी

उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था


रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम

कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता


धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है

ख़ुशी से कौन बच्चा कारखाने तक पहुँचता है


मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ

मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है


हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा

कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा


इक सुलगते शहर में बच्चा मिला हँसता हुआ

सहमे—सहमे—से चराग़ों के उजाले की तरह


मैंने इक मुद्दत से मस्जिद नहीं देखी मगर

एक बच्चे का अज़ाँ देना बहुत अच्छा लगा


इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते हैं

कहाँ पर है खिलौनों की दुकाँ बच्चे समझते हैं


ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन

किसी बच्चे के रोने की सदाएँ रोज़ आती हैं

माँ / भाग 25 (बहू)

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी

हमें मालूम है तुमको ये बीमारी नहीं होगी


नीम का पेड़ था बरसात थी और झूला था

गाँव में गुज़रा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था


हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं

जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं


तुझे अकेले पढ़ूँ कोई हम सबक न रहे

मैं चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक़ न रहे


वो अपने काँधों पे कुन्बे का बोझ रखता है

इसी लिए तो क़दम सोच कर उठाता है


आँखें तो उसको घर से निकलने नहीं देतीं

आँसू हैं कि सामान—ए—सफ़र बाँधे हुए हैं


सफ़ेदी आ गई बालों में उसके

वो बाइज़्ज़त घराना चाहता था


न जाने कौन सी मजबूरियाँ परदेस लाई थीं

वह जितनी देर तक ज़िन्दा रहा घर याद करता था


तलाश करते हैं उनको ज़रूरतों वाले

कहाँ गये वो पुराने शराफ़तों वाले


वो ख़ुश है कि बाज़ार में गाली मुझे दे दी

मैं ख़ुश हूँ एहसान की क़ीमत निकल आई

माँ / भाग 26 (बहू)

उसे जली हुई लाशें नज़र नहीं आतीं

मगर वो सूई से धागा गुज़ार देता है


वो पहरों बैठ कर तोते से बातें करता रहता है

चलो अच्छा है अब नज़रें बदलना सीख जायेगा


उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसाएल ने

वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गई बेतरतीबी

इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था


कहाँ की हिजरतें, कैसा सफ़र, कैसा जुदा होना

किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है


ग़ज़ल वो सिन्फ़—ए—नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से

वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ


वो एक गुड़िया जो मेले में कल दुकान पे थी

दिनों की बात है पहले मेरे मकान पे थी


लड़कपन में किए वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती

अँगूठी हाथ में रहती है मंगनी टूट जाती है


वि जिसके वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं

बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा.

माँ / भाग 27 (विविध)

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये

जब सूखने लगे तो जलाने के काम आये


कोयल बोले या गौरेय्या अच्छा लगता है

अपने गाँव में सब कुछ भैया अच्छा लगता है


ख़ानदानी विरासत के नीलाम पर आप अपने को तैयार करते हुए

उस हवेली के सारे मकीं रो दिये उस हवेली को बाज़ार करते हुए


उड़ने से परिंदे को शजर रोक रहा है

घर वाले तो ख़ामोश हैं घर रोक रहा है


वो चाहती है कि आँगन में मौत हो मेरी

कहाँ की मिट्टी है मिझको कहाँ बुलाती है


नुमाइश पर बदन की यूँ कोई तैयार क्यों होता

अगर सब घर हो जाते तो ये बाज़ार क्यों होता


कच्चा समझ के बेच न देना मकान को

शायद कभी ये सर को छुपाने के काम आये


अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मिशअलें लेकर

परोंदों कीमुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं


तूने सारी बाज़ियाँ जीती हैं मुझपे बैठ कर

अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ अस्तबल भी चाहिए


मोहाजिरो! यही तारीख़ है मकानों की

बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा

माँ / भाग 28 (विविध)

तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो

तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है


किसी दुख का किसी चेहरे से अंदाज़ा नहीं होता

शजर तो देखने में सब हरे मालूम होते हैं


ज़रूरत से अना का भारी पत्थर टूट जात है

मगर फिर आदमी भी अंदर—अंदर टूट जाता है


मोहब्बत एक ऐसा खेल है जिसमें मेरे भाई

हमेशा जीतने वाले परेशानी में रहते हैं


फिर कबूतर की वफ़ादारी पे शल मत करना

वह तो घर को इसी मीनार से पहचानता है


अना की मोहनी सूरत बिगाड़ देती है

बड़े—बड़ों को ज़रूरत बिगाड़ देती है


बनाकर घौंसला रहता था इक जोड़ा कबूतर का

अगर आँधी नहीं आती तो ये मीनार बच जाता


उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं

क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं


प्यास की शिद्दत से मुँह खोले परिंदा गिर पड़ा

सीढ़ियों पर हाँफ़ते अख़बार वाले की तरह

माँ / भाग 29 (विविध)

वो चिड़ियाँ थीं दुआएँ पढ़ के जो मुझको जगाती थीं

मैं अक्सर सोचता था ये तिलावत कौन करता है


परिंदे चोंच में तिनके दबाते जाते हैं

मैं सोचता हूँ कि अब घर बसा किया जाये


ऐ मेरे भाई मेरे ख़ून का बदला ले ले

हाथ में रोज़ ये तलवार नहीं आयेगी




नये कमरों में ये चीज़ें पुरानी कौन रखता है

परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है


जिसको बच्चों में पहुँचने की बहुत उजलत हो

उससे कहिये न कभी कार चलाने के लिए


सो जाते हैं फुट्पाथ पे अखबार बिछा कर

मज़दूर कभी नींद की गोलॊ नहीं खते


पेट की ख़ातिर फुटपाथों पे बेच रहा हूँ तस्वीरें

मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया


जब उससे गुफ़्तगू कर ली तो फिर शजरा नहीं पूछा

हुनर बख़ियागिरी का एक तुरपाई में खुलता है

माँ / भाग ३० (गुरबत)

घर की दीवार पे कौवे नहीं अच्छे लगते

मुफ़लिसी में ये तमाशे नहीं अच्छे लगते


मुफ़लिसी ने सारे आँगन में अँधेरा कर दिया

भाई ख़ाली हाथ लौटे और बहनें बुझ गईं


अमीरी रेशम—ओ—कमख़्वाब में नंगी नज़र आई

ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है


इसी गली में वो भूका किसान रहता है

ये वो ज़मीं है जहाँ आसमान रहता है


दहलीज़ पे सर खोले खड़ी होग ज़रूरत

अब ऐसे घर में जाना मुनासिब नहीं होगा


ईद के ख़ौफ़ ने रोज़ों का मज़ा छीन लिया

मुफ़लिसी में ये महीना भी बुरा लगता है


अपने घर में सर झुकाये इस लिए आया हूँ मैं

इतनी मज़दूरी तो बच्चे की दुआ खा जायेगी


अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’!

हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते


बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है

रहते—रहते स्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

माँ / भाग ३१ (बेटी)

घरों में यूँ सयानी बेटियाँ बेचैन रहती हैं

कि जैसे साहिलों पर कश्तियाँ बेचैन रहती हैं


ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है

कहीं भी शाख़े—गुल देखे तो झूला डाल देती है


रो रहे थे सब तो मैं भी फूट कर रोने लगा

वरना मुझको बेटियों की रुख़सती अच्छी लगी


बड़ी होने को हैं ये मूरतें आँगन में मिट्टी की

बहुत से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये


तो फिर जाकर कहीँ माँ_बाप को कुछ चैन पड़ता है

कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है


ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया

उड़ गईं आँगन से चिड़ियाँ घर अकेला हो गया

सच ढूंढ्ता रहा शहादत देखिये

सच ढूँढ़ता रहा शहादत देखिये।
झूठ की हो भी गई ज़मानत देखिये।

अब मौत के आसार हैं ज़्यादा क्योंकि
कड़ी कर दी गई है हिफ़ाज़त देखिए।

भ्रष्टाचार का जंगल तैयार क्यों न हो,
वृक्षारोपण कर रही है सिसायत देखिये।

घरों को बौना रखने के आदेश जो दे गये है‍,
आसमान चूमती उनकी आप ईमारत देखिये।

विज्ञापनों के खूंटे में टंगा अखबार,
क्या लिखेगा सच की इबारत देखिये।

सच के लिबास में दिखाई देना।

सच के लिबास में दिखाई देना।
और पेशा है झूठी सफाई देना।

यूं चीखने से बात नहीं बनती,
मायने रखता है सुनाई देना।

लाद गया वो किताबों के भारी बस्ते,
मैने कहा था बच्चों को पढ़ाई देना।

जो दर्द दिए तूने उसका हिसाब कर,
फिर मुझे नए साल की बधाई देना।

कितना अच्छा है पत्त्थर पूजने से,
बीमार ग़रीबों को दवाई देना।

परिंदो का पिजरे में लौट आना है अलग,
अलग बात है उन्हें पिंजरे से रिहाई देना।

शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं

शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं।
ख़ुदा है तो रगों में दौड़ता क्यों नहीं।

लहूलुहान हुए हैं लोग तेरी ख़ातिर,
ख़ामोशी के आलम को तोड़ता क्यों नहीं।

कहदे की नहीं है तू गहनों से सजा पत्थर,
आदमी की ज़हन को झंझोड़ता क्यों नहीं,

पेटुओं के बीच कोई भूखा क्यों रहे,
अन्याय की कलाई मरोड़ता क्यों नहीं।

झुग्गियाँ ही क्यों महल क्यों नहीं,
बाढ़ के रुख को मोड़ता क्यों नहीं।

ये बजट आपका हमको तो गवारा नहीं

ये बजट आपका हमको तो गवारा नहीं।
चिड़ियों को घोंसले जिसमें पशुओं को चारा नहीं।

यूँ ही माथा गर्म नहीं, है ये दिमागी बुखार,
पिघलते ग्लेशियरों का समझते क्यों इशारा नहीं।

मंगल और वीर को वो शाकाहारी वेष्णो,
जिस्म नोच कर खाते हैं पर वक़्त सारा नहीं।

औहदे और दाम तो हमको भी थे मिल रहे,
संस्कारों का लिबास मगर हमीं ने ही उतरा नहीं।

महलों से निकलकर झुग्गियों में फ़ैल गई,
गमलों की ज़िन्दगी में खुशबु का गुज़ारा नहीं।

जाने अब तक कितने तूफान पी गया है,
इस समंदर का पानी यूँ ही तो खारा नहीं,

दो रोटियों का वो चुटकी में हल करता है सवाल,
ये पत्थर का खुदा तो मगर हमारा नहीं।

मत पूछो क्या है हाल शहर में

मत पूछो क्या है हाल शहर में।
ज़िन्दगी हुई है बवाल शहर में।

कुछ लोग तो हैं बिल्कुल लुटे हुए,
कुछ हैं माला-माल शहर में।

झुलसी लाशों की बू हर तरफ,
कौन रखे नाक पर रूमाल शहर में।

चोर,लुटेरे, डाकू और आतंकवादी,
सब नेताओं के दलाल शहर में।

भौंकते इंसानों को देखकर,
की कुत्तों ने हड़ताल शहर में।

मुहब्बत के मकां ढहने लगे,
मज़हब का आया भूंचाल शहर में।

बिना घूंस के मिले नौकरी,
ये उठता ही नहीं सवाल शहर में।

भोर का वहम पाले उनको ज़माना हुआ

भोर का वहम पाले उनको ज़माना हुआ।
कब सुनहरी धूप का गुफाओं में जाना हुआ।

रख उम्मीद कोई दिया तो जलेगा कभी,
भूख के साथ पैदा हमेशा ही दाना हुआ।

मर्यादा में था तो सुरों में न ढल सका,
शब्दों को नंगा किया तो ये गाना हुआ।

तरकश उनका तीरों से हो गया ख़ाली मगर,
मेरे हौसले ने अभी भी है सीना ताना हुआ।

हो आपको ही मुबारक ये मख़मली अहसास,
जो चुभता ही नहीं वो भी क्या सिरहाना हुआ।

थोड़ी सी नींद जब चिंताओं से मांगी उधार,
लो सज-धज के कमवख़्त का भी आना हुआ।

जिसमें दिल की धड़कन ही न शामिल हुई,
वो भला क्या हाथों में मेंहदी लगाना हुआ।

भाव कुंद कर दे वो पैमाना न दरमियान रख

भाव कुंद कर दे वो पैमाना न दरमियान रख।
मेरे ख्यालों की बस ऊंची उड़ान रख।

दिल से दिल का कोई फासला न हो,
कुछ इस सलीके से गीता और कुरान रख।

बहुत हुई महलों की फिक्र, छोड़ दे,
बेघरों के हिस्से में भी कोई मकान रख।

बस्तियां रौंद लेगी ये नदी रोकी हुई,
ज़रूरत से ज़्यादा न तू अपना विज्ञान रख।

अश्ललीलता को जो तालीम मान बैठै हैं,
उन बच्चों के ज़हन में बड़ों को सम्मान रख।

तिलमिला उठा वो, जो मैने ये गुज़ारिश की,
मेरे होठों पर भी थोड़ी सी मुस्कान रख।

बोलता नहीं लेकिन बड़बड़ाता तो है

बोलता नहीं लेकिन बड़बड़ाता तो है
सच होंठ पर लेकिन आता तो है।

अर्श शौक से अब ओले उड़ेल दे,
मूंडे गए सरों के पास छाता तो है।

तेरी मंज़िल मिले न मिले क्या पता,
है तय ये रस्ता कहीं जाता तो है।

फिज़ाओं में यूँ ही नहीं है हलचल,
तीर चुपके से कोई चलाता तो है।

दुश्मन व्यवस्था को टुकड़े न समझें,
दिशाओं का आपस में नाता तो है।

खुद ही चप्पु न चलाओ तो क्या बने,
वक्त कश्ती में तुम्हें बिठाता तो है।

कोई भी संवरने को यहां नहीं राज़ी,
वक्त सब को आईना दिखाता तो है।

हमारी जिद कि हम तमाशा न हुए,
हँसना ज़माने को वरना आता तो है।

जब-जब मैं सच कहता हूं

जब-जब मैं सच कहता हूं।
सब को लगता कड़वा हूं।

वो मेरी टांग की ताक में है,
कि कब मैं ऊपर उठता हूं।

जो भी नोक पर आते हैं,
बस उनको ही चुभता हूं।

उम्र में जमा सा बढ़ता हूं,
जीवन से नफी सा घटता हूं।

तू जो मुझ पर मरती है,
इसीलिये तो जीता हूं।

वो नाखून दिखाने लगते हैं,
घावों की बात जो कहता हूं।

तूफान खड़ा हो जाता है,
जब तिनका-तिनका जुड़ता हूं।

जब हों जेबें खाली साहब

जब हों जेबें खाली साहब।
फिर क्या ईद दीवाली साहब।

तिनका - तिनका जिसने जोड़ा,
वो चिडिया डाली-डाली साहब।

सब करतब मजबूरी निकलेँगे,
जो बंदर से आंख मिला ली साहब।

कंक्रीटी भाषा बेशक सबकी हो,
पर अपनी तो हरियाली साहब।

मौसम ने सब रंग धो दिये,
सारी भेडें काली साहब।

आधार की बातें, सब किस्से उसके,
दो बैंगन को थाली साहब।

जब अच्छे से जांचा - परखा,
सारे रिश्ते जाली साहब।

जब से तेरे प्यार में पागल रहा हूं मैं

जब से तेरे प्यार में पागल रहा हूं मैं।
शहर भर की तबसे हलचल रहा हूं मैं।

मेरी भाषा अब ये समंदर क्या जाने,
कि नदी में बहती हुई कल-कल रहा हूं मैं,

बर्फ हूं मेरे नाम से ठिठुरते हैं सभी,
पहाडों पर लेकिन बिछा कंबल रहा हूं मैं।

आग आरियां,तूफान, बारिश, साजिशें सब बौनी हुई,
लहलहाता हुआ मगर जंगल रहा हूं मैं।

होकर माला-माल शून्य कई लौट गए,
भूल गये कि उनका एक हासिल रहा हूं मैं।

डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
बस नाम का ही अब चंबल रहा हूं मैं।

चिकने चेहरे इतने भी सरल नहीं होते

चिकने चेहरे इतने भी सरल नहीं होते।
ये वो मसले हैं जो आसानी से हल नहीं होते।

कुछ ही पलों की चमक और खुशबू इनकी,
ये फूल किसी का कभी संबल नहीं होते।

भूखों में बाँट दीजिए जो बचा रखा है,
जीवन के हिस्से में कभी कल नहीं होते।

शायर वो क्या, क्या उनकी शायरी,
जो ख़ुद झूमती हुई ग़ज़ल नहीं होते।

कोख़ माँ की किसी को न जब तलक मिले,
बीज कैसे भी हों, फ़सल नहीं होते।

विवशताओं ने पागल कर दिया होगा,
ख़्याल बचपने से कभी चँबल नहीं होते।

जम गई होगी वक्त की धूल वरना,
आईने की प्रकृति में छल नहीं होते।

ऐसा नहीं के ज़िंदा जंगल नहीं है

ऐसा नहीं के ज़िंदा जंगल नहीं है
गांव के नसीब बस पीपल नहीं है।

ये आंदोलन नेताओं के पास हैं गिरवी,
दाल रोटी के मसलों का इनमें हल नहीं है।

चील, गिद्ध, कव्वे भी अब गीत गाते हैं,
मैं भी हूं शोक में, अकेली कोयल नहीं है।

ज़रूरी नहीं के मकसद हो उसका हरियाली,
विश्वासपात्रों में मानसून का बादल नहीं है।

उसके सीने से गुज़री तो आह निकल गई,
जो मेरी ग़ज़ल को कहता रहा,ग़ज़ल नहीं है।

जिनका पसीना उगलता है बिजलियां,
रौशनी का नसीब उन्हें आंचल नहीं है।

इस क़दर भी उजाले न हों

इस क़दर भी उजाले न हों
घर आग के निवाले न हो।

प्यासे हलक से गुज़रे न जब तलक,
नदी समन्दर के हवाले न हों।

बोल प्यार के हों ग़ज़ल की राह में,
मस्जिद न हो और शिवाले न हों।

सूरज अबके ऐसी भी धूप न बाँटे,
कि पहाड़ पर बर्फ़ के दुशाले न हों।

खुशियों की मकड़ियों का वहाँ गुज़र नहीं,
ग़मों के जिस घर में जाले न हों।

इस हमाम में सब नंगे नज़र आएंगे।
सच की ज़बान पर जो ताले न हों।

इरादे जिस दिन से उड़ान पर हैं

इरादे जिस दिन से उड़ान पर हैं।
हजारों तीर देखिये कमान पर हैं।

लोग दे रहे हैं कानों में उँगलियाँ,
ये कैसे शब्द आपकी जुबां पर है।

मेरा सीना अब करेगा खंजरों से बगावत,
कुछ भरोसा सा इसके बयान पर हैं।

मजदूरों के तालू पर कल फिर दनदनाएगा,
सूरज जो आज शाम की ढलान पर है।

झुग्गियों की बेबसी तक भी क्या पहुंचेगी,
ये बहस जो गीता और कुरान पर है।

मजदूर,मवेशी, मछुआरे फिर मरे जाएंगे,
सावन देखिये आगया मचान पर है,

मक्कारों और चापलूसों से दो चार कैसे होगा,
तेरे पैर तो अभी से थकान पर है ।

आदमी जैसे ही कुछ अजगरों के बीच

आदमी जैसे ही कुछ अजगरों के बीच।
चंदन सी ज़िंदगी है विषधरों के बीच।

ये,वो,,मैं, तू हैं सब तमाशबीन,
लहूलुहान सिसकियां हैं खंजरों के बीच।

शहर के मज़हब से नवाकिफ़ अंजान वो,
बातें प्यार की करे कुछ सरफिरों के बीच।

भरी सभा में द्रौपदी सा चीख़े मेरा देश,
कब आओगे कृष्ण इन कायरों के बीच।

ख़ुद ही अब बताएंगे के हम ख़ुदा नहीं,
आज गुफ़्तगू हुई ये पत्थरों के बीच।

आंसू इसलिये आंख से छलकाता नहीं मैं,
कुछ मछलियां भी रहतीं हैं सागरों की बीच।