उसने इतना तो सलीका रक्खा
बंद कमरे में दरीचा रक्खा
तुमने आँगन में बनाई गुमटी
मैंने छोटा-सा बगीचा रक्खा
गीत आज़ादी के गाये सबने
और पिंजरे में परिंदा रक्खा
उसने हर चीज़ बदल दी अपनी
जिस्म का घाव पुराना रक्खा
घर बनाने के लिए पक्षी ने
चार तिनकों पे भरोसा रक्खा
उसने जाते हुए अश्कों से भरा—
मेरे हाथों पे लिफ़ाफ़ा रक्खा.
मंगलवार, मार्च 09, 2010
उसने इतना तो सलीका रक्खा
अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता
अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता
तो अपनी बर्फ़ उठाकर बता किधर जाता
पकड़ के छोड़ दिया मैंने एक जुगनू को
मैं उससे खेलता रहता तो वो बिखर जाता
मुझे यक़ीन था कि चोर लौट आएगा
फटी क़मीज़ मेरी ले वो किधर जाता
अगर मैं उसको बता कि मैं हूँ शीशे का
मेरा रक़ीब मुझे चूर-चूर कर जाता
तमाम रात भिखारी भटकता फिरता रहा
जो होता उसका कोई घर तो वो भी घर जाता
तमाम उम्र बनाई हैं तूने बन्दूकें
अगर खिलौने बनाता तो कुछ सँवर जाता.
अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता
अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता
तो अपनी बर्फ़ उठाकर बता किधर जाता
पकड़ के छोड़ दिया मैंने एक जुगनू को
मैं उससे खेलता रहता तो वो बिखर जाता
मुझे यक़ीन था कि चोर लौट आएगा
फटी क़मीज़ मेरी ले वो किधर जाता
अगर मैं उसको बता कि मैं हूँ शीशे का
मेरा रक़ीब मुझे चूर-चूर कर जाता
तमाम रात भिखारी भटकता फिरता रहा
जो होता उसका कोई घर तो वो भी घर जाता
तमाम उम्र बनाई हैं तूने बन्दूकें
अगर खिलौने बनाता तो कुछ सँवर जाता.
अँधेरे की पुरानी चिट्ठियाँ
हाथ में लेकर खड़ा है बर्फ़ की वो सिल्लियाँ
धूप की बस्ती में उसकी हैं यही उपलब्धियाँ
आसमा की झोपड़ी में एक बूढ़ा माहताब
पढ़ रहा होगा अँधेरे की पुरानी चिट्ठियाँ
फूल ने तितली से इकदिन बात की थी प्यारकी
मालियों ने नोंच दीं उस फूल की सब पत्तियाँ
मैं अंगूठी भेंट में जिस शख्स को देने गया
उसके हाथों की सभी टूटी हुई थी उँगलियाँ
वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ
वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ
खड़ा हुआ है नमस्कार फिर भी करता हुआ
मैं अपने आपसे आया हूँ इस तरह बाहर
कि जैसे चोर दबे-पाँव हो निकलता हुआ
वो आसमन का टूटा हुआ सितारा था
जो आ पड़ा है मेरी जेब में उछलता हुआ
मैं जा रहा हूँ हमेशा के वास्ते घर से
पता नहीं मुझे लगता है कुछ उजड़ता हुआ
वो कोई और नहीं दोस्तो अँधेरा है
दीयासिलाई जला कर खड़ा है हँसता हुआ..
अमीरे-शहर की हमने कई उपलब्धियाँ देखीं
अमीरे-शहर की हमने कई उपलब्धियाँ देखीं
कि मुर्दा जिस्म देखे और ज़िन्दा वर्दियाँ देखीं
जलाकर रख दिए हमने पुराने लैम्प रस्तों पर
दीयों को धमकियाँ देते हुए जब आँधियाँ देखीं
उन्होंनें कार पर शीशा चढ़ाया, आँख पर चश्मा
उन्होंने इस तरह आकर हमारी बस्तियाँ देखीं
दरख़्तों के पुजारी आए थे जो प्रार्थना करने
यही अफ़सोस कि हाथों में उनके आरियाँ देखीं
बड़े उत्साह से इस बार हमने बीज डाले थे
बहुत सूखी हुईं इस बार हमने क्यारियाँ देखीं
वो बस्ते में किताबें-कापियाँ रखता-हटाता था
कि इक बच्चे की हमने इस क़दर सरगर्मियाँ देखीं.
नहीं जहाज़ तो फिर बादबान किसके लिए
नहीं जहाज़ तो फिर बादबान किसके लिए
मैं ज़िन्दगी की लिखूँ दास्तान किसके लिए
मैम पूछता रहा हर एक बन्द खिड़की से
खड़ा हुआ है ये ख़ाली मकान किसके लिए
ग़रीब लोग इसे ओढ़ते -बिछाते हैं
त ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए
हर एक शख़्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगो
मैम सोचता हूँ कि खोलूँ दुकान किसके लिए
ये राज़ जाके बताऊँगा मैं परिन्दों को
बना रहा है वो तीरो-कमान किसके लिए
ऐ चश्मदीद गवाह, बस यही बता मुझको
बदल रहा है तू अपना बयान किसके लिए
बड़ी सरलता से पूछा है एक बच्चे ने
अगर ये शहर है तो फिर मचान किसके लिए!
इस तरह क़र्ज़ सारा अदा हो गया
इस तरह क़र्ज़ सारा अदा हो गया
घर जो मेरा था वो आपका हो गया
मेरा चेहरा लगा कर कोई अजनबी
सामने मेरे आके खड़ा हो गया
पेश करते हैम दुख को शगल कि तरह
चैनलों को न जाने ये क्या हो गया
इतनि थोड़ी-सी टिप देख कर दोस्तो
एक वेटर भी मुझसे ख़फ़ा हो गया
कार वाले बड़े आदमी हो गए
इस शहर में यही हादसा हो गया
गाँव वालों की मत पूछ तू बन्दगी
एक बूढ़ा शजर देवता हो गया
दे गया आँसुओं के लिफ़ाफ़े मुझे
दर्द भी दोस्तो डाकिया हो गया !
दोस्तो ! अब मुझे इस बात का डर लगता है
दोस्तो ! अब मुझे इस बात का डर लगता है
किसी दुकान की तरह मेरा घर लगता है
वो अगर जुगनू छुपाता तो तो न होता बेचैन
मुझको उस शख़्स कि मुठ्ठी में शरर लगता है
जान-पहचान नहीं मेरी यहाँ पर फिर भी
आपका शहर मुझे अपना शहर लगता है
इस तरफ़ आप चले आए न जाने कैसे-
अब तो मेला भी बहुत दूर, उधर लगता है
सबके अन्दर हैं कई वक़्त की मारी चीज़ें
म्यूज़ियम की तरह हर एक बशर लगता है
रेलगाड़ी भी नहीं जाती है इसके आगे
दोस्तो! अब तो मेरा ख़त्म सफ़र लगता है !
जो गुम हुआ है वो छाता बहुर पुराना था
जो गुम हुआ है वो छाता बहुर पुराना था
किसे बताऊँ कि उसमेम मेरा ज़माना था
खड़ा था तान के बन्दूक वो मेरे आगे
तसल्ली ये थी कि उसका ग़लत निशाना था
मेरी सज़ा भी तो देखो कि वो जो कातिल था
उसी के वास्ते मुझको मुकुट बनाना था
जो मोतबर थे वो दावत उड़ा के लौट गए
जो बच गया था उसे वेटरों ने खाना था
हवा क्या किया तुमने चुरा लिए तिनके
इन्हीं को जोड़ के पंछी ने घर बनाना था.
तेज़ चाकू कर लिए चमका के रख लीं लाठियाँ
तेज़ चाकू कर लिए चमका के रख लीं लाठियाँ
धार्मिक उत्सव की सारी हो चुकी तैयारियाँ
लोग आएँगे तमाशा देखने ये सोच कर
उसने तपती रेत पे रख दी हैं ज़िन्दा मछलियाँ
तंगदस्ती के वो दिन भी क्या ग़ज़ब थे दोस्तो
भूख लगती जब मुझे तो माँ सुनाती लोरियाँ
मैंने तो उसके महज़ हालात पूछॆ दोस्तो,
उसने मेरे पास रख दीं आँसुओं की अर्ज़ियाँ
बाप की उँगली पकड़ कर गाँव जाता था कभी
याद आती हैं मुझे वो गर्मियों की छुट्टियाँ
ऐ गुज़िश्ता वक़्त तूने क्या नहीं बख़्शा मुझे
मुफ़लिसी, चश्मे का नम्बर, और कुछ तन्हाइयाँ
देख कर अँगूठियाँ वो रो पड़ा दूकान पर
हाथ उसके थे सलामत पर नहीं थीं उँगलियाँ
कर्ज़ की उम्मीद लेकर मैं गया था जिसके पास
फ़ीस-माफ़ी के लिए वो लिख रहा था अर्ज़ियाँ.
शहर के बीच जो दरिया दिखाई देता है
शहर के बीच जो दरिया दिखाई देता है
वो सूख जए तो तन्हा दिखाई देता है
तुम्हारी पार्टी यूँ तो शानदार मगर
हरेक शख़्स अकेला दिखाई देता है
दिए थे ज़ख़्म जो लोगों ने भर गए शायद
मरीज़ आजकल अच्छा दिखाई देता है
बड़ी अदा से छुपाता है दुर्दशा घर की
तुम्हें जो टाट का पर्दा दिखाई देता है
कभी जो चाँद में बुढ़िया दिखाई देती थी
वहाँ पे आजकल धब्बा दिखाई देता है
मैं उसके सामने रखता हूँ भीड़ शब्दों की
वो बेज़ुबान तड़पता दिखाई देता है.
ज़िन्दा रहने का हुनर उसने सिखाया होगा
ज़िन्दा रहने का हुनर उसने सिखाया होगा
जिसने आँधी में चराग़ों को जलाया होगा
तू ज़रा देख जमूरे की फटी ऐड़ी को
उसको रोटी के लिए कितना नचाया होगा
एक जर्जर-सी चटाई के सिवा कुछ भी न था
जाने क्या उसने मेरे घर से चुराया होगा
एक चट्टान ने पत्थर को समझकर बालक
अपनी छाती से कई बार लगाया होगा
थाप ढोलक की,डली गुड़ की दिया मिट्टी का
ख़ूब त्यौहार ग़रीबों ने मनाया होगा.
उदास मौसमों को चुटकले सुनाते हो
उदास मौसमों को चुटकले सुनाते हो
बड़े अजीब हो काँटों को गुदगुदाते हो
वो जिस परिन्द के पंखों को तुमने नोंच दिया
उसी को उँची उड़ानों में आज़माते हो
सहन में रखते हो लपटों की खोल कर गठरी
फिर उसके बाद हवाओं को घर बुलाते हो !
हमारे जश्न में काफ़ी है एक गुड़ की डली
तुम ऐसी बात पे हैरानियाँ जताते हो
बवण्डरो, बड़ी ताक़त है आप में लेकिन
हमारॊ रेत की दीवार को गिराते हो
मख़ौल आपका माली उड़ाएँगे साहब !
कि आप तितलियों को व्याकरण सिखाते हो.
जुलूस आपने जब भी कभी आपने निकाले हैं
जुलूस आपने जब भी कभी आपने निकाले हैं
डरी हैं मस्जिदें, घबरा गए शिवालें हैं
पड़े हुए ह्हैं जो ख़ामोश नी के पत्थर
इन्होंने शीश महल आपके सँभाले हैं
रहें नक़ाब में जुगनू चराग़ और तारे
ये बादशाहों के फ़रमान भी निराले हैं
हमारी ज़िन्दादिली का न पूछीए आलम
कि हमने दर्द परिन्दों की तरह पाले हैं
तवील रास्तों को तय करेंगे हम इक दिन
हमारे पाँवों में बेशक हज़ार छाले हैं.
आकाश भी अब उसको पराया-सा लगे है
आकाश भी अब उसको पराया-सा लगे है
इक परकटा पक्षी है कि सहमा-सा लगे है
बनवाई है जिस शख़्स ने ये उँची इमारत
अब इसकी बुलन्दी में वो अदना-सा लगे है
जिसमें न हो शब्दों का कोई भीड़-भड़ाका
सादा-सा नमस्कार वो अच्छा-सा लगे है
पर खोल के बैठा है जो आँगन में परिन्दा
वीरान-से घर में मुझे अपना-सा लगे है
वो कृष्ण है शायद कि जो बैठा है महल में
जो द्वार के बाहर है सुदामा-सा लगे है.
मेरे क़द से वो इतना डर रहा था
मेरे क़द से वो इतना डर रहा था
मुझे अपने बराबर कर रहा था
वसीयत पढ़ के बेटे हँस रहे थे
पिता लाचार तिल-तिल मर रहा था
मछेरा जा रहा था पनियों में
किनारे पर खड़ा मैं डर रहा था
भिखारी डर रहे थे रोटियों पर
कि सारा शहर भोजन कर रहा था
अँधेरे ने पहन रक्खी थी अचकन
वो उसमें जुगनुओं को भर रहा था.
हवा को रोकना होता रहा बेकार पहले भी
हवा को रोकना होता रहा बेकार पहले भी
लगाए हुक़्मरानों ने कँटीले तार पहले भी
ज़मीं तपती हुई थी और अपने पाँव नंगे थे
हुई है जेठ की दोपहर से तकरार पहले भी
उदासी से कहो वो बेझिझक घर में चली आए
कि मैं तो पढ़ रहा हूँ दर्द का अख़बार पहले भी
यही अफ़सोस कि मंदिर भी अब दूकान लगते हैं
घरों को तोड़ कर यूँ तो बने बाज़ार पहले भी
कोई चेहरा लगा कर हादिसे का आ खड़ी होगी
हमें धमका चुकी है मौत कितनी बार पहले भी.
घर बाहर निकलती आवाज़ें
घर बाहर निकलती आवाज़ें
वक़्त के साथ चलती आवाज़ें
सुबह से शाम तक वही मंज़र
सिर्फ़ कपड़े बदलती आवाज़ें
एक बूढ़ा -सा रेडियो घर में
खरखराती निकलती आवाज़ें
एक बच्चे की तरह बिस्तर पे
अल-सुबह आँख मलती आवाज़ें
धूप के डालकर कर नए जूते-
दिन की सड़कों पे चलती आवाज़ें
क्या पता चाँद कोई उतरा हो
मेरी छत पर टहलती आवाज़ें
आरती के दीये में बैठी हैं
प्रार्थनाओं की जलती आवाज़ें.
मैंने सोचा न था
गाँव इतना ज़ियादा बदल जाएगा मैंने सोचा न था
वो शहर से भी आगे निकल जाएगा मैंने सोचा न था
मरकरी बल्ब की रोशनी देखकर तेरे पण्डाल की
मेरे घर का अँधेरा मचल जाएगा मैंने सोचा न था
खोटे सिक्के तो कम रोशनी में दुकानों पे देता रहा
पर फटा नोट भी मेरा चल जाएगा मैंने सोचा न था
ये तो मालूम था कि मेरे तन की दीवार झुक जाएगी
उम्र के साथ सब कुछ बदल जाएगा मैंने सोचा न था
इक खिलौना जो मिट्टी का लाया था मैं जाके बाज़ार से
वो भी बारिश के पानी में गल जाएगा मैंने सोचा न था.
क्या पता किसकी निगहबानी में था
क्या पता किसकी निगहबानी में था
घ था कच्चा और वो पानी में था
मैंने लपटों को उठाया जिस क़दर-
सच कहूँ, मैं ख़ुद भी हैरानी में था
खोलता कोई नहीं था साँकलें
वक़्त का मारा पशेमानी में था
आँख का तालाब छलका था ज़रा
शोर-सा कुछ मन की वीरानी में था
मेमने की ज़िन्दगी का सोचिए,
एक चीता उसकी अगवानी में था.
काग़ज़ की कश्तियों में रखते हैं चाँदनी को
काग़ज़ की कश्तियों में रखते हैं चाँदनी को
बहला रहे हैं बच्चे सूखी हुई नदी को
छतरी किताब ,ऐनक़ सब छोड़ आया अक्सर
पर आज भूल आया हूँ मैं तो ज़िन्दगी को
हाथों पे रख के रोटी खाना है उसकी आदत
वो क्या करेगा तेरी चाँदी की तश्तरी को
गुम हो चुके पिता-सा वो लग रहा था मुझको
मैं देखता रहा था, उस बूढ़े आदमी को
माना नहीं है अच्छा यूँ फूळ तोड़ लाना
लेकिन तू बालकों की महसूश कर ख़ुशी को
ख़ाली सुराहियों को रखता है मेरे आगे
कुछ तो समझ रहा है वो मेरी तिश्नगी को.
ऐ मेरे जहान के देवता,ये तेरा वितान अजीब है
ऐ मेरे जहान के देवता, ये तेरा वितान अजीब है
तेरी वेदना में है रौशनी, तेरी आनबान अजीब है
तेरे अश्क जलते हुए दीए,तेरी मुस्कुराहटें चाँदनी
मैं तुझे कभी न समझ सका, तेरी दास्तान अजीब है
नहीं मौसमों से गिला इसे, नहीं तितलियों से शिकायतें
तेरे बन्द कमरे का जानेमन, तेरा फूलदान अजीब है
यहाँ मुद्दतों से खड़ा हूँ मैं, यही सोचता कि कहाँ रहुँ
यहाँ सबके घर में दुकान है,यहाँ हर मकान अजीब है
मुझे इल्म है मेरे दोस्तो,मेरा तुम मज़ाक़ उड़ाओगे
मैं बिना परों का परिन्द हूँ, कि मेरी उड़ान अजीब है.
छटपटाता हुआ धरती पे पड़ा हूँ लोगो
छटपटाता हुआ धरती पे पड़ा हूँ लोगो
अपनी औक़ात से कुछ ऊँचा उड़ा हूँ लोगो
कोई ग़फ़लत से मुझे ऊँचा समझ ले शायद
अजनबी शहर में दो दिन से खड़ा हूँ लोगो
मुझको ये ज़ीस्त भी लगती है अँगूठी जैसी
दर्द के नग की तरह इसमें जड़ा हूँ लोगो
आश्वासन का कभी इसमें भरा था पानी
अब तो मैं ख़ाली बहानों का घड़ा हूँ लोगो
कल जहाँ लाश जलाई गई नैतिकता की
उस समाधि पे दीया ले के खड़ा हूँ लोगो.
जो उसके हाथ मैं टूट जाता
जो उसके हाथ मैं टूट जाता
वो पलकों से मेरी किरचें उठाता
अगर मुझमें कोई होता समन्दर
तो फिर मैं कश्तियों के घर बनाता
अदावत से तो क्या होना था हासिल
मुझे तू दोस्त बन के आज़माता
खड़ा हूँ साइकिल लेके पुरानी -
नए बाज़ार में डरता-डराता
मुझे तू देखके हँसता न बेशक
मिला तो था ज़रा-सा मुस्कुराता
जो होती ज़िन्दगी ख़ामोश कमरा
तो मैं आवाज़ के बूटे उगाता.
दुख के सितम हज़ार मगर मुस्कुरा के देख
दुख के सितम हज़ार मगर मुस्कुरा के देख
तू अपनी अज़मतों को ज़रा आज़मा के देख
शायद तुझे उड़ान की दे जाए दावतें-
इक दिन किसी उक़ाब को छत पर बुला के देख
तूने हथेलियों पे उठाए कई पहाड़
पानी पे जो हुबाब हैं इनको उठा के देख !
जब मैं हुआ उदास तो बच्चों ने यह कहा-
‘काग़ज़ की कश्तियाँ या घरोंदे बना के देख’
मैंने ये सब चराग़ हवा से जलाए हैं-
तूफ़ान ! तेरी ज़िद है तो इनको बुझा के देख !
मेरा तो है यक़ीन कि निकलेगी रोशनी-
आँसू को तू चराग की तरह जला के देख.
सब लोग साथ -साथ हैं तन्हा खड़ा हूँ मैं
सब लोग साथ -साथ हैं तन्हा खड़ा हूँ मैं
जैसे कि आदमी नहीं इक हादसा हूँ मैं
कल रात मैंने तेरी चुराई थी कहकशाँ
आकाश,आज तुझसे बहुत डर रहा हूँ मैं
ये इन्तहा-ए-शौक़ है या फिर मेरा जुनून
कमरे में अपने आपसे छुपकर खड़ा हूँ मैं
पहने हैं आज कपड़े नए मुद्दतों के बाद
बच्चों की सिम्त आज मचलने लगा हूँ मैं
हैरान हो के देख रही है मुझे हयात
मक़्तल पे आज कितना अधिक हँस रहा हूँ मैं
मेरा जुनून और ये पानी की जुस्तजू-
मिट्टी को अपने नाखुनों से खोदता हूँ मैं
लगता है जैसे कोई तपस्वी हो तप में लीन
उम्रे-दराज़ पेड़ को जब देखता हूँ मैं.
फ़्यूज़ बल्बों का मेला लगा है
फ़्यूज़ बल्बों का मेला लगा है
इस शहर का यही तज़किरा है
पैसे वालों के उत्सव में यारो
एक वेटर खड़ा डर रहा है
गिरना उठना फिसलना सँभलना
खेल बच्चे का कितना बड़ा है
तेज़ आँधी चली है शहर में
और चिन्ता में नन्हा दीया है
आँख वालों की सहता है ठोकर
ये जो नाबीना पत्थर खड़ा है
रात के ज़ख़्म पे अश्क रखके
दर्द का चाँद बुझने लगा है
चिठ्ठियाँ हैं अधूरे पते की
डाकिया कुछ परेशान-सा है
ये अँधेरा भी अच्छा है लेकिन
प्रश्न मुझसे बहुत पूछता है.
लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं
लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं
हुक़्मरानों की अठखेलियाँ ख़ूब थीं
तूने पिंजरे में दीं मुझको आज़ादियाँ
ज़ीस्त ! तेरी मेहरबानियाँ खूब थीं
धूप के साथ करती रहीं दोस्ती
नासमझ बर्फ़ की सिल्लियाँ खूब थीं
मेरी आँखों के सपने चुराते रहे-
दोस्तों की हुनरमन्दियाँ ख़ूब थीं
बेतकल्लुफ़ कोई भी नहीं था वहाँ
हर किसी में शहरदारियाँ खूब थीं
जून में हमको शीशे के तम्बू मिले
बारिशों में फटी छतरियाँ ख़ूब थीं
तुम छुपाते रहे जिस्म के घाव को
इसलिए आपकी वर्दियाँ ख़ूब थीं .
हवा से छोड़ अदावत कि दोस्ती का सोच
हवा से छोड़ अदावत कि दोस्ती का सोच
ऐ चारागर तू चराग़ों की रोशनी का सोच
जो काफ़िले में है शामिल न ज़िक्र कर उनका
जो हो गया है अकेला उस आदमी का सोच
हमें तो मौत भी लगती है हमसफ़र अपनी
हमारी फ़िक्र न कर अपनी ज़िन्दगी का सोच
निज़ाम छोड़ के जिसने फ़क़ीरी धारण की
अमीरे-शहर! उस गौतम की सादगी का सोच
समन्दरों के लिए व्यर्थ है तेरी चिन्ता
जो सोचना है तो सूखी हुई नदी का सोच.
सब पुरानी निशानियाँ गुमसुम
सब पुरानी निशानियाँ गुमसुम
ज़िन्दगी की कहानियाँ गुमसुम
घर के बाहर पिता है फ़िक्रज़दा
घर में रहती हैं बेटियाँ गुमसुम
एक कम्बल था गुम हुआ यारो
अबके गुज़रेंगी सर्दियाँ गुमसुम
झोंपड़ी की तो ख़ैर फ़ितरत थी
हमने देखीं अटारियाँ गुमसुम
दश्ते-तन्हाई भी अजब शय है
पेड़ ख़ामोश , झाड़ियाँ गुमसुम
क़त्ल कर आई हैं चरागों का
देख, बैठी हैं आँधियाँ गुमसुम
मेरे सन्दूकचे में चुप एलबम
तेरे बस्ते में चिठ्ठियाँ गुमसुम
फिर उड़ीं हैं फ़साद की ख़बरें
दर हैं ख़ामोश, खिड़्कियाँ गुमसुम.
गुज़िश्ता वक़्त ने मेरे परों को तोड़ दिया
गुज़िश्ता वक़्त ने मेरे परों को तोड़ दिया
कि मैंने इस लिए उड़ने का शौक़ छोड़ दिया
अमीर लोग तो करते थे तौल कर बातें
कि इक फ़क़ीर ने महफ़िल का रंग मोड़ दिया
तमाम शहर को दावत दी उस महाजन ने
मैं कर्ज़दार पुराना था मुझको छोड़ दिया
मेरे मकान को तोड़ा दुकानदारों ने
उसे भी शहर की मंडी के साथ जोड़ दिया
संवेदनाओं का बादल था मेरी आँखों में
महानगर के गणित ने उसे निचोड़ दिया
जो तेज़ रौ थे वो आगे निकल गए यारो
मैं चल न पाया मुझे कारवाँ ने छोड़ दिया.
वक़्त के सामने ज़िन्दगी प्रार्थना
पेड़ पर्वत परिन्दे सभी प्रार्थना
वक़्त के सामने ज़िन्दगी प्रार्थना
फ़लसफ़ा आपका मुझको अच्छा लगा
आदमी के लिए आदमी प्रार्थना
इस जटिल, झूठे,चालाक संसार में
आपकी सादगी , अनकही प्रार्थना
वो जो मुफ़लिस के हक़ में लिखी जाएगी
शायरी होगी वो दर्द की प्रार्थना
रेज़गारों में झुलसे हुए शख़्स को
एक कीकर की छाँव लगी प्रार्थना
जो मछेरों को देती रही हौसले
वो नदी भी हक़ीक़त में थी प्रार्थना
युद्ध की धमकियों वाले संसार में
नन्हे बच्चों की मासूम-सी प्रार्थना.
भाई से भाई रूठा है
भाई से भाई रूठा है
घर कितना सूना लगता है
एक पुराने वक़्त का चेहरा
मेरी एलबम में रक्खा है
उसने पूछा आँख का आँसू
मैंने कहा कि सरमाया है
आज हवा सरशार हुई है
आज चराग़ों का जलसा है
कंगालों की इस बस्ती में
फेरी वाला कब आया है?
बकरे को मालूम है उसका
इन्सानों से क्या रिश्ता है
अब मैं इस माया को समझा
सुख के अन्दर दुख रहता है
रिश्ते छीन लिए टी.वी. ने,
मैं तन्हा, तू भी तन्हा है.
तुम्हें ज़मीन मिली और आसमान मिला
तुम्हें ज़मीन मिली और आसमान मिला
हमें मिला भी तो विरसे में ख़ाकदान मिला
ज़रूर है किसी पत्थर के देवता का असर
कि जो मिला मुझे बस्ती में बेज़ुबान मिला
वो मेरे वास्ते पत्थर उबाल लाया है-
तू आके देख मुझे कैसा मेज़बान मिला
तू मुझसे पूछ कि बेघर को क्या हुआ हासिल
मिला मकान तो हिलता हुआ मकान मिला
सुना है जेब में बारूद भर के रखता था
जो शख़्स आज धमाकों के दरमियान मिला
तू उससे पूछ दरख़्तों की अहमियत क्या है
कि तेज़ धूप में जिसको न सायबान मिला.
बात करता है इतने अहंकार की
बात करता है इतने अहंकार की
जैसे बस्ती का हो वो कोई चौधरी
मौत के सायबाँ से गुज़रते हुए
वो पुकारा बहुत— ज़िंदगी-ज़िंदगी !!
कैनवस पे वो दरिया बनाता रहा
उसको बेचैन करती रही तिश्नगी
उसकी आँखों में ख़ुशियों के त्यौहार थे
उसके हाथों में थी एक गुड़ की डली
क़र्ज़ के वास्ते हाथ रक्खे रहन
इक जुलाहे की देखो तो बेचारगी
मेरे अश्कों की वो भाप थी दोस्तो
एक ‘ एंटीक ’ की तरह बिकती रही
नए मिज़ाज के माली ने तल्ख़ियाँ रख दीं
नए मिज़ाज के माली ने तल्ख़ियाँ रख दीं
गुलों के सामने पत्थर की तितलियाँ रख दीं
तुम्हारी मसलेहत का शुक्रिया अदा साहब!
कि तुमने प्यार के रिश्तों में गिनतियाँ रख दीं
वो शख़्स हँसता रहा जितनी देर मुझसे मिला
बस एक अश्क ने सारी कहानियाँ रख दीं
हमें बुलन्दियों के ख़्वाब देने वालों ने-
हमारे सामने पानी की सीढ़ियाँ रख दीं
सहानुभूतियों का जश्न यूँ मनाया गया
यतीमख़ाने में लोगों ने टाफ़ियाँ रख दीं.
बे-मेहर हुक़्काम था सब कुछ उठा कर ले गया
बे-मेहर हुक़्काम था सब कुछ उठा कर ले गया
जिस तरह दरियाओं का पनी समन्दर ले गया
लोग शक करते रहे उस अजनबी पे दोस्तो
एक बच्चा उसको अपने घर के अन्दर ले गया
सारी बस्ती ने दिए सुल्तान को रेशम के थान
और बस्ती का जुलाहा बुनके खद्दर ले गया
मेज़, कुर्सी और सारी फ़ाएलें रक्खी रहीं
मेरी उम्मीदों का वो दफ़्तर उठा कर ले गया
इस क़दर तक़रीर की फ़िरक़ापरस्तों कि बस !
हर कोई जलती हुई बस्ती के मंज़र ले गया.
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा
मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा
महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा
युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा
किसी ज़ईफ़ शहर की उदास छाया है
किसी ज़ईफ़ शहर की उदास छाया है
वो अपने गाँव से जिसको उठाके लाया है
हरेक मोड़ पे लगता है टोल-टैक्स यहाँ
कि इस शहर को किसी सेठ ने बसाया है
मुझे ये इल्म नहीं था कि रो पड़ेगा वो
जिसे हँसाने की कोशिश में गदगुदाया है
भटकता फिरता रहा राम भी तो जंगल में
कि ज़िदगी में यहाँ किसने चैन पाया है
वो एक अब्र जो रोता रहा मेरी छत पे
लगा कि कि दर्द का उत्सव मनाने आया है
ये बात मेरे पिता को ज़रा ख़राब लगी
कि मैंने घर से अलग-अलग घर बनाया है
मुझको जीने अंदाज़ सिखाता क्यों है
कच्ची मिट्टी से लगन इतनी लगाता क्यों है
टूट जाएगा, घरोंदे को बनाता क्यों है
तुझमें हिम्मत है तो ख़ुर्शीद कोई पैदा कर
फ़्यूज़ बल्बों से अँधेरे को डराता क्यों है
जेब ख़ाली हो तो बाज़ार में ले जाता है
ऐ मेरे दोस्त, मुझे इतना सताता क्यों है
वो दीया है तो हवाओं से उसे लड़ने दे
बन्द कमरे में उसे रखता-रखाता क्यों है
अपने हाथों पे समन्दर को उठाने वाले !
मेरे काग़ज़ के सफ़ीने को गिराता क्यों है
तू मुझे मौत की देता है सज़ा दे लेकिन-
मुझको जीने का अंदाज़ सिखाता क्यों है !
बड़ा कठिन है सफ़र साथ चल सको तो चलो
बड़ा कठिन है सफ़र साथ चल सको तो चलो
तुम अपने आपको थोड़ा बदल सको तो चलो
शजर कहीं भी नहीं रास्ते हैं वीराने-
कड़ी है धूप मेरी तरह जल सको तो चलो
जो इश्तेहार बदलते हैं उनसे क्या उम्मीद
कि मेर सथ तुम मंज़र बदल सको तो चलो
पुरानी बन्दिशें रस्ता तुम्हारा रोकेंगी-
कि उनको तोड़ के घर से निकल सको तो चलो
उँचाइयों से फिसल कर बचा नहीं कोई-
मदद करो न करो, ख़ुद सँभल सको तो चलो.
निभाई हैं फटे कम्बल से रिश्तेदारियाँ हमने
निभाई हैं फटे कम्बल से रिश्तेदारियाँ हमने
गुज़ारी हैं बड़ी दिक़्क़त से यारों सर्दियाँ हमने
हमारी भूमिका ऐ ज़िन्दगी, तू ख़ाक समझेगी-
छुपाईं क़हक़हों में आँसुओं की अर्ज़ियाँ हमने
पहाड़ों पर चढ़े तो हाँफना था लाज़िमी लेकिन-
उतरते वक्त भी देखीं कई दुश्वारियाँ हमने
किसी खाने में दुख रक्खा, किसी में याद की गठरी
अकेले घर में बनवाईं कई अलमारियाँ हमने
दरख़्तों का वही तो ख़ैरख़्वाह अब बन गया यारो,
कि जिसके हाथ में देखी हैं अक्सर आरियाँ हमने
सजाया मेमना चाकू तराशा, ढोल बजवाए,
बलि के वास्ते निपटा लीं सब तैयारियाँ हमने.
करिश्मे ख़ूब मेरा जाँनिसार करता था
करिश्मे ख़ूब मेरा जाँनिसार करता था
मिला के हाथ वो पीछे से वार करता था
वो जब भी ठोंकता था कील मेरे सीने में
बड़ी अदा से उसे आर-पार करता था
सितारे तोड़ के लाया नहीं कोई अब तक
कि इस फ़रेब पे वो ऐतबार करता था
उसे पता था कि जीवन सफ़ेद चादर है
न जाने क्यूँ वो उसे दाग़दार करता था
कुछ इसलिए भी मुझे उसकी बात चुभती थी
कि वो ज़बान का ज़्यादा सिंगार करता था
पलट के आती नहीं है कभी नदी यारो
मैं जानता था मगर इन्तज़ार करता था.
पता नहीं कि वो किस ओर मोड़ देगा मुझे
पता नहीं कि वो किस ओर मोड़ देगा मुझे
कहाँ घटाएगा और किसमें जोड़ देगा मुझे
मैं राजपथ पे चलूँगा तो और क्या होगा
कोई सिपाही पकड़ के झिंझोड़ देगा मुझे
पतंग की तरह पहले उड़ाएगा ऊँचा
फिर उसके बाद वो धागे से तोड़ देगा मुझे
अमीरे-शहर के बरअक़्स तन गया था मैं
वो अब कमान की मानिंद मोड़ देगा मुझे
वो इत्र बेचने वाला बड़ा ही ज़ालिम है
मैं फूल हूँ तो यक़ीनन निचोड़ देगा मुझे.
तेज़ बारिश हो या हल्की भीग जाएँगे ज़रूर
तेज़ बारिश हो या हल्की भीग जाएँगे ज़रूर
हम मगर अपनी फटी छतरी उठाएँगे ज़रूर
अपने घर में कुछ नहीं उम्मीद का ईंधन तो है
हम किसी तरक़ीब से चूल्हाजलाएँगे ज़रूर
दर्द की शिद्दत से जब बेहाल होंगे दोस्तो
तब भी अपने-आपको हम गुदगुदाएँगे ज़रूर
इस सदी ने ज़ब्त कर ली हैं जो नज़्में दर की
देखना उनको हमारे ज़ख़्म गाएँगे ज़रूर
बुलबुलों की ज़िन्दगी का है यही बस फ़लसफ़ा
टूटने से पेशतर वो मुस्कु्राएँगे ज़रूर
आसमानों की बुलन्दी का जिन्हें कुछ इल्म है
एक दिन उन पक्षियों को घर बुलाएँगे ज़रूर.
मस्तकलन्दर सच्चा था
रस्ता इतना अच्छा था
पाँव का छाला हँसता था
कमरे में तारीकी थी
छत पे चाँद टहलता था
पत्थर का था फूल अजब
तितली को धमकाता था
दुनिया के हर मेले में
सच बेचारा तन्हा था
गए वक़्त का सरमाया
ख़ाकदान में रक्खा था
बचपन की फोटो देखी
तब मैं कितना अच्छा था
बुझे हुए सन्नाटे में
दुख का दीपक जलता था
ज्ञानी-ध्यानी सब झूठे
मस्तकलन्दर सच्चा था.
जो गया डूब भला कैसे बताऊँ उसको
जो गया डूब भला कैसे बताऊँ उसको
मैंने चाहा तो बहुत था कि बचाऊँ उसको
बोझ कितना भी हो रख लूँ उसे काँधे पे मगर
ओस की बूँद है किस तरह ऊठाऊँ उसको
मैं उठा लाय हूँ टूटा हुआ तारा यारो,
शब की नज़रों से मगर कैसे छुपाऊँ उसको
दोस्त के दर पे खड़ा सोच रहा हूँ कबसे
दस्तकें दूँ याकि आवाज़ लगाऊँ उसको
बन गया जो बड़ा अफ़सर वो मेरा भाई है
मुझसे कहता है कि इज़्ज़त से बुलाऊँ उसको.
ता-हद्दे-नज़र रेत की बेचैन नदी है
ता-हद्दे-नज़र रेत की बेचैन नदी है
वो किसको बताए कि उसे प्यास लगी है
हर रोज़ कलैंडर की न तस्वीरें गिनाकर
जीना है तो जीने के लिए उम्र पड़ी है
मैं ख़ौफ़ज़दा हो के उसे ढूँढ रहा हूँ
कालीन पे जलती हुई इक सींक गिरी है
ऐ चोर चुरा ले तू कोई दूसरा हैंगर
इस पर मेरे माज़ी की फटी शर्ट टँगी है
क्या जाने उसे भी कोई बनवास मिला हो
घर लौट के जाने में जिसे उम्र लगी है
आई जो पलट कर तो उठा लाएगी तारे
इक लहर जो मिट्टी का दिया ले के गई है
रावण मेरे अन्दर का मरा है न मरेगा
ऐ रामचन्द्र ! तुझसे मेरी शर्त लगी है.
मैं अपने हौसले को यक़ीनन बचाऊँगा
मैं अपने हौसले को यक़ीनन बचाऊँगा
घर से निकल पड़ा हूँ तो फिर दूर जाऊँगा
तूफ़ान आज तुझसे है , मेरा मुकाबला
तू तो बुझाएगा दीये, पर मैं जलाऊँगा
इस अजनबी नगर में करूँगा मैं और क्या
रूठूँगा अपने आपसे ख़ुद को मनाऊँगा
ये चुटकुला उधार लिए जा रहा हूँ मैं
घर में हैं भूखी बेटियाँ उनको हँसाऊँगा
गुल्लक में एक दर्द का सिक्का है दोस्तो,
बाज़ार जा रहा कि उसको भुनाऊँगा
बादल को दे के दावतें इस फ़िक्र में हूँ मैं
कागज़ के घर में उसको कहाँ पर बिठाऊँगा.
सुर्ख़रू हो कर अदब के साथ मर जाएँगे लोग
सुर्ख़रू हो कर अदब के साथ मर जाएँगे लोग
बे-मेहर के सामने क्यूँ हाथ फैलाएँगे लोग
ये शहर भी बे मुरव्वत है मगर इतना नहीं
आपकी इमदाद में दो-चार तो आएँगे लोग
पोस्टर सारे पुराने हो गए माहौल के
जाने कब बदली हुई आबो-हवा लाएँगे लोग
इस शहर की ज़हनियत का क्या करूँ मैं दोस्तो
तुम अगर सेहरा पढ़ोगे मर्सिया गाएँगे लोग
ले गया बचपन उटहा कर भीग जाने का हुनर
आएगी बरसात तो सब छतरियाँ लाएँगे लोग
जब चराग़ों की तरह जलने की सीखेंगे कला
ज़िन्दगी का अर्थ क्या है, ख़ुद समझ जाएँगे लोग.
ज़िन्दगी की जंग में जाँबाज़ होना आ गया
ज़िन्दगी की जंग में जाँबाज़ होना आ गया
मौत को तकिए के नीचे रख के सोना आ गया
ज़िन्दगी तेरे मदरसे में यही सीखा हुनर
मोम के धागे में अंगारे पिरोना आ गया
इस क़दर खुश था मेरी काग़ज़ की कश्ती देखकर
हाथ में जैसे समन्दर के खिलौना आ गया
और तो होना था क्या इन मुश्किलों में दोस्तो!
पीठ पर चट्टान जैसा बोझ ढोना आ गया
बाद मुद्दत के गया था आज मैं भाई के घर
उसकी आँखें नम हुईं मुझको भी रोना आ गया.
समय के साथ अब लड़ना-लड़ाना छॊड़ दिया
समय के साथ अब लड़ना-लड़ाना छॊड़ दिया
कि मैंने आग को पानी बनाना छोड़ दिया
न वो संदूक, न छतरी ,न जेब वाली घड़ी
मेरी हयात ने सब कुछ पुराना छोड़ दिया
न जाने कौन-सी जल्दी थी उन परिन्दों को
ज़मीं पे फैला हुआ आबो-दाना छोड़ दिया
बस और कुछ न किया मैं ने एक उम्र के बाद
पिता की जेब से पैसे चुराना छोड़ दिया
हवाएँ पूछती फिरती हैं नन्हे बच्चों से
ये क्या हुआ कि पतंगें उड़ाना छोड़ दिया
किसी ने आँसुओं की सल्तनत मुझे दे दी
किसी के वास्ते मैंने ज़माना छोड़ दिया
बहुत घमंड था अपनी बुलन्दियों का उसे
कि आसमान का हमने घरानाछोड़ दिया
अगर बड़े हों मसाइल तो रंजिशें अच्छी
ज़रा-सी बात पे मिलना-मिलाना छोड़ दिया.
दिन का था कभी डर तो कभी रात का डर था
दिन का था कभी डर तो कभी रात का डर था
इस बात का डर था कभी उस बात का डर था
जो भीग चुका वो भला किस बात से डरता
जो घर में खड़ा था उसे बरसात का डर था
धनवानों की महफ़िल में सभी बोल रहे थे
वो चुप था कि उस शख़्स को औक़ात का डर था
ऐ दोस्त मैं हैरान नहीं तेरे अमल पर
जो तूने दिया है उसी आघात का डर था
जिन्सों को तो बाज़ार में बिकना था ज़रूरी
बाज़ार में बिकते हुए जज़्बात का डर था
उस शख़्स ने कालीन मुझे दे तो दिया था
रक्खूँगा कहाँ, मुझको इसी बात का डर था.
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
मैं वक़्त का अन्दाज़े-बयाँ बेच रहा हूँ
मैं वक़्त का अन्दाज़े-बयाँ बेच रहा हूँ
मिटते हुए लम्हों के निशाँ बेच रहा हूँ
तक़लीफ़ तो होगी मेरे बच्चों को यक़ीनन
मैं आज खिलौनों की दुकाँ बेच रहा हूँ
इस मुश्किले-दौराँ का सितम पूछ न मुझसे
जो मैंने बनाया था मकाँ बेच रहा हूँ
रहज़न हैं, लुटेरे हैं,कई डान खड़े हैं
तू देख कि मैं ख़ुद को कहाँ बेच रहा हूँ
हैरानी तो ये है कि ख़रीदार कई हैं
बाज़ार मेम ज़ख़्मों के निशाँ बेच रहा हूँ
क्या और कोई मुझ-सा बुरा होगा जहाँ में
मंडी में चिताओं का धुआँ बेच रहा हूँ.
ऐसे कर्फ़्यू में भला कौन है आने वाला
ऐसे कर्फ़्यू में भला कौन है आने वाला
गश्त पे एक सिपाही है पुराने वाला
सामने जलते हुए शहर का मंज़र रखके
कितना बेक़ैफ़ है तस्वीर बनाने वाला
वक़्त , मैं तेरी तरह तेज़ नहीं चल सकता
दूसरा ढूँढ कोई साथ निभाने वाला
मोम के तार में अंगारे पिरो दूँ यारो
मैं भी कर गुज़रूँ कोई काम दिखाने वाला
एक क़ाग़ज़ के सफ़ीने से मुहब्बत कैसी
डूब जाएगा अभी तैर के जाने वाला.
उस परिन्दे ने लुटाया था ख़ज़ाना मुझको
उस परिन्दे ने लुटाया था ख़ज़ाना मुझको
दे गया जाते हुए अपना ठिकाना मुझको
मैं तो मामूली -सा इन्सान हूँ इस बस्ती का
जो भी उठता है, बनाता है निशाना मुझको
ज़िन्दगी ! तू मुझे मरने नहीं देगी लेकिन
मार डालेगा ये कमबख़्त ज़माना मुझको
इल्तिजा है मेरी महफ़िल के सदर से इतनी-
कुर्सियाँ कम हों तो आदर से उठाना मुझको
ज़िन्दा रखने की कोई चाल थी उसकी यारो
वो जो देता रहा दो वक़्त का खाना मुझको
आसमाँ देखना चाहूँ तो मेरा सर न उठे
मेरे ख़ालिक, कभी इतना न झुकाना मुझको.
मालूम नहीं क्यूँ वो ज़माने से ख़फ़ा है
मालूम नहीं क्यूँ वो ज़माने से ख़फ़ा है
बारात में शामिल है मगर सबसे जुदा है
ऐ दोस्त तेरा बीज गणित अच्छा है लेकिन-
क्यों प्यार के रिश्ते में इसे लेके खड़ा है
तू मार के आया है जिसे दूसरा होगा
इच्छाओं का रावण न मरा था, न मरा है
इस बात का अहसास तुझे कैसे कराऊँ-
काग़ज़ का वो पुल है, तू जहाँ तन के खड़ा है
मैं अपने जन्मदिन पे हूँ कमरे में अकेला,
टेबल पे बहुत देर से इक केक पड़ा है
नाकर्दा गुनाहों की सज़ा झेलने वाले !
इस शहर का हाकिम तेरे ईमाँ से ख़फ़ा है.
मेरी चिन्ता न करो मैं तो सँभल जाऊँगा
मेरी चिन्ता न करो मैं तो सँभल जाऊँगा
गीली मिट्टी हूँ कि हर रूप में ढल जाऊँगा
मैम कोई चाँद नहीं हूँ कि अमर हो जाऊँ
मैं तो जुगनू हूँ सुबह धूप में जल जाऊँगा
इसलिए ले नहीं जाता मुझे मेले में पिता
देख लूँगा मैं खिलौने तो मचल जाऊँगा
बर्फ़ की सिल हूँ मुझे धूप में रखते क्यूँ हो
मुझको जलना है तो मैं छाँव में गल जाऊँगा
काँच का फ़र्श बना के तू मुझे घर न बुला
मैं अगर इस पे चलूँगा तो फिसल जाऊँगा
छावनी डाल के रुकते हैं शहर में लश्कर
मैं तो जोगी हूँ, इसी शाम निकल जाऊँगा
मुझको शोहरत के हसीं ख़्वाब दिखाने वाले!
मैं कोई गेंद नहीं हूँ कि उछल जाऊँगा.
मौसम मेरे शहर का चालाक हो गया था
मौसम मेरे शहर का चालाक हो गया था
बादल ख़रीदकर वो बरसात बेचता था
जलते रहे जो शब भर फ़ानूस थे तुम्हारे
जो बुझ गया था मेरी दहलीज़ का दिया था
वो डायरी भी अब तो गुम हो गई है मुझसे
ऐ दोस्त,जिसमे तेरे घर का पता लिखा था
आकाश की थी हसरत उस गेंद को वो छू ले
नन्हा-सा एक बालक जिसको उछालता था
बारिश के वक़्त सारी बस्ती के लोग ख़ुश थे
काग़ज़ का शामियाना सहमा हुआ खड़ा था
जब लौट कर मैं आया तो हो चुका था गूँगा
पत्थर के देवता से हासिल भी क्या हुआ था.