रविवार, अप्रैल 26, 2009

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो / हरिवंशराय बच्चन

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशताहै ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।



प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।



प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।



भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।



मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।



मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।



चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।



मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।



मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।



सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।



जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।



मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।



हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।



लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।



जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।



बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।



धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।



लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।



बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।



बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।


बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।



सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।



भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।



बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।



हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।



एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।



नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।



बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।



सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।



सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।



तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।



अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।



पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।



प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।



मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।



साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।



उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।



अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।



किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।



साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।


वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।



चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।



घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।



हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।



धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।



दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।



पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।



सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।



बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।



मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।



कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।



और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।



आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।



यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।



सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।



वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।



कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।



श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।



एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।



बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।


कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला,
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।



आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।



आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।



सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।



दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।



छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।



क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।



मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।



क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।



लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।



कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।



ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।



क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।



प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।



अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।



यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।



यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।



याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।



गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।



यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।


ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला,
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।



मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।



मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।



और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।।८४।



नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।



ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।



यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।



पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।



शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।



जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।



देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।



कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।



'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।



हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४।



प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।



मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।



मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।



किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।



उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।



साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।


साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलाषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।



साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, परिश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।



जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।



नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।



मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।



क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।



देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।



एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।



बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँत भाँत का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।



एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।



जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।



कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।



बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।



छोड़ा मैंने पंथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।



यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।



कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।



कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।



दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हँू, घूम रही है मधुशाला।।११८।



मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।



किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।


वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।



मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।



मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।



कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।



अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।



'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।



कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।



जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।



जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।



हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।



मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।



यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।



कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।



विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।



बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।

जो बीत गई सो बात गई! / हरिवंशराय बच्चन

जो बीत गई सो बात गई!


जीवन में एक सितारा था,

माना, वह बेहद प्‍यारा था,

वह डूब गया तो डूब गया;

अंबर के आनन को देखे,

कितने इसके तारे टूटे,

कितने छूट गए कहाँ मिले;

पर बोलो टूटे तारों पर

कब अंबर शोक मनाता है!

जो बीत गई सो बात गई!


जीवन में वह था एक कुसुम,

थे उस पर नित्‍य निछावर तुम,

वह सूख गया तो सुख गया;

मधुवन की छाती को देखो,

सूखी कितनी इसकी कलियाँ,

मुरझाई कितनी वल्‍लरियाँ,

जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं;

पर बोलो सूखे फूलों पर

कब मधुवन शोर मचाता है;

जो बीत गई सो बात गई!


जीवन में मधु का प्‍याला था,

तुमने तन-मन दे डाला था,

वह टूट गया तो टूट गया;

मदिराजय का आँगन देखो,

कितने प्‍याले हिल जाते हैं,

गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,

जो गिरते हैं कब उठते हैं;

पर बोलो टूटे प्‍याले पर

कब मदिरालय पछताता है!

जो बीत गई सो बात गई!


मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,

मधुघट फूटा ही करते हैं,

लघु जीवन लेकर आए हैं,

प्‍याले टूटा ही करते हैं,

फिर भी मदिरालय के अंदर

मधु के घट हैं, मधुप्‍याले हैं,

जो मादकता के मारे हैं,

वे मधु लूटा ही करते हैं;

वह कच्‍चा पीने वाला है

जिसकी ममता घट-प्‍यालों पर,

जो सच्‍चे मधु से जला हुआ

कब रोता है, कब चिल्‍लाता है!

जो बीत गई सो बात गई!

विश्‍वास / हरिवंशराय बच्चन

पंथ जीवन का चुनौती

दे रहा है हर कदम पर,

आखिरी मंजिल नहीं होती

कहीं भी दृष्टिगोचर,

धूलि में लद, स्‍वेद में सिंच

हो गई है देह भारी,

कौन-सा विश्‍वास मुझको

खींचता जाता निरंतर?-

पंथ क्‍या, पंथ की थ्‍ाकान क्‍या,

स्‍वेद कण क्‍या,

दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।


एक भी संदेश आशा

का नहीं देते सितारे,

प्रकृति ने मंगलवार शकुन पथ

में नहीं मेरे सँवारे,

विश्‍व का उत्‍साहवर्धक

शब्‍द भी मैंने सुनाओ कब,

किंतु बढ़ता जा रहा हूँ

लक्ष्‍य पर किसके सहारे?-

विश्‍व की अवहेलना क्‍या,

अपशकुन क्‍या,

दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।


चल रहा है पर पहुँचना

लक्ष्‍य पर इसका अनिश्चित,

कर्म कर भी कर्म फल से

यदि रहा यह पांथ वंचित,

विश्‍व तो उस पर हँसेगा

खूब भूला, खूब भटका!

किंतु गा यह पंक्तियाँ दो

वह करेगा धैर्य संचित-

व्‍यर्थ जीवन, व्‍यर्थ जीवन,

की लगन क्‍या,

दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं!


अब नहीं उस पार का भी

भय मुझे कुछ भी सताता,

उस तरु के लोक से भी

जुड़ चुका है नाता,

मैं उसे भूला नहीं तो

वह नहीं भूली मुझे भी,

मृत्‍यु-पथ भी बढ़ूँगा

मोद से यह गुनगुनाता-

अंत यौवन, अंत जीपन

का मरण क्‍या,

दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं!

कर्तव्‍य / हरिवंशराय बच्चन

देवि, गया है जोड़ा यह जो

मेरा और तुम्‍हारा नाता,

नहीं तुम्‍हारा मेरा केवल,

जग-जीवन से मेल कराता।


दुनिया अपनी, जीवन अपना,

सत्‍य, नहीं केवल मन-सपना;

मन-सपने-सा इसे बनाने

का, आओ, हम तुम प्रण ठानें।


जैसी हमने पाई दुनिया,

आओ, उससे बेहतर दोड़ें,

शुचि-सुंदरतर इसे बनाने

से मुँह अपना कभी न मोड़ें।


क्‍यों कि नहीं बस इससे नाता

जब तक जीवन-काल हमारा,

खेल, कूद, पढ़, बढ़ इसमें ही

रहने को है लाल हमारा।

नव वर्ष / हरिवंशराय बच्चन

वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन का उत्कर्ष नव।



नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।



नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।



गीत नवल,
प्रीत नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल!

तुम गा दो / हरिवंशराय बच्चन

तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!

मेरे वर्ण-वर्ण विश्रृंखल,

चरण्‍र-चरण भरमाए,

गूँज-गूँजकर मिटने वाले

मैंने गीत बनाए;

कूक हो गई हूक गगन की

कोकिल के कंठों पर,

तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!


जब-जब जग जग ने कर फैलाए,

मैंने कोष लुटाया,

रंक हुआ मैं निज निधि खोकर

जगती ने क्‍या पाया!

भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊँ

पर तुम सब कुछ पाओ,

तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!

तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!


सुंदर और असुंदर जग में

मैंने क्‍या सराहा,

इतनी ममतामय दुनिया में

मैं केवल अनचाहा;

देखूँ अब किसकी रुकती है

आ मुझपर अभिलाषा,

तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!

तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!


दुख से जिवन बीता फिर भी

शेष अभी कुछ रहता,

जीवन की अंतिम घड़‍ियों में

भी तुमसे यक कहता,

सुख की एक साँस पर होता

है अमरत्‍प निछावर,

तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!

तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!

कौन तुम हो? / हरिवंशराय बच्चन

ले प्रलय की नींद सोया

जिन दृगों में था अँधेरा,

आज उनमें ज्‍योति बनकर

ला रही हो तुम सवेरा,

सृष्टि की पहली उषा की

यदि नहीं मुसकान तुम हो,

कौन तुम हो?


आज परिचय की मधुर

मुसकान दुनिया दे रही है,

आज सौ-सौ बात के

संकेत मुझसे ले रही है

विश्‍व से मेरी अकेली

यदि नहीं पहचान तुम हो,

कौन तुम हो?


हाय किसकी थी कि मिट्टी

मैं मिला संसार मेरा,

हास किसका है कि फूलों-

सा खिला संसा मेरा,

नाश को देती चुनौती

यदी नहीं निर्माण तुम हो,

कौन तुम हो?


मैं पुरानी यादगारों

से विदा भी ले न पाया

था कि तुमने ला नए ही

लोक में मुझको बसाया,

यदि नहीं तूफ़ान तुम हो,

जो नहीं उठकर ठहरता

कौन तुम हो?


तुम किसी बुझती चिता की

जो लुकाठी खींच लाती

हो, उसी से ब्‍याह-मंडप

के तले दीपक जलाती,

मृत्‍यु पर फिर-फिर विजय की

यदि नहीं दृढ़ आन तुम हो,

कौन तुम हो?


यह इशारे हैं कि जिन पर

काल ने भी चाल छोड़ी,

लौट मैं आया अगर तो

कौन-सी सौगंध तोड़ी,

सुन जिसे रुकना असंभव

यदि नहीं आह्वान तुम हो,

कौन तुम हो?


कर परिश्रम कौन तुमको

आज तक अपना सका है,

खोजकर कोई तुम्‍हारा

कब पता भी पा सका है,

देवताओं का अनिश्चित

यदि नहीं वरदान तुम हो,

कौन तुम हो?

मुझे पुकार लो / हरिवंशराय बच्चन

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!


ज़मीन है न बोलती,

न आसमान बोलता,

जहान देखकर मुझे

नहीं ज़बान खोलता,

नहीं जगह कहीं जहाँ

न अजनबी गिना गया,

कहाँ-कहाँ न फिर चुका

दिमाग-दिल टटोलता;

कहाँ मनुष्‍य है कि जो

उमीद छोड़कर जिया,

इसीलिए अड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो;

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो;


तिमिर-समुद्र कर सकी

न पार नेत्र की तरी,

वि‍नष्‍ट स्‍वप्‍न से लदी,

विषाद याद से भरी,

न कूल भूमि का मिला,

न कोर भेर की मिली,

न कट सकी, न घट सकी

विरह-घिरी विभावरी;

कहाँ मनुष्‍य है जिसे

कभी खाली न प्‍यार की,

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे दुलार लो!

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!


उजाड़ से लगा चुका

उमीद मैं बाहर की,

निदाघ से उमीद की,

वसंत से बयार की,

मरुस्‍थली मरीचिका

सुधामयी मुझे लगी,

अँगार से लगा चुका

उमीद मैं तुषार की;

कहाँ मनुष्‍य है जिसे

न भूल शूल-सी गड़ी,

इसीलिए खड़ा रहा

कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

नई झनकार / हरिवंशराय बच्चन

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!

मौन तम के पार से यह कौन

तेरे पास आया,

मौत में सोए हुए संसार

को किसने जगाया,

कर गया है कौन फिर भिनसार,

वीणा बोलती है;

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!


रश्मियों ने रंग पहन ली आज

किसने लाल सारी,

फूल-कलियों से प्रकृति की माँग

है किसकी सँवारी,

कर रहा है कौन फिर श्रृंगार,

वीणा बोलती है;

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!


लोक के भय ने भले ही रात

का हो भय मिटाया,

किस लगन में रात दिन का भेद

ही मन से हटाया,

कौन करता है खुले अभिसार,

वीणा बोलती है;

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!


तू जिसे लेने चला था भूल-

कर अस्तित्‍व अपना,

तू जिसे लेने चला था बेच-

कर अपनत्‍व अपना,

दे गया है कौन वह उपहार

वीणा बोलती है;

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!


जो करुण विनती मधुर मनुहार

से न कभी पिघलते,

टूटते कर, फूट जाते शीश

तिल भर भी न हिलते,

खुल कभी जाते स्‍वयं वे द्वार,

वीणा बोलती है;

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!


भूल तू जा अ बपूराना गीत

औ' गाथा पुरानी,

भूल तू अब दुखों का राग

दुर्दिन की कहानी,

ले नया जीवन, नई झनकार,

वीणा बोलती है;

छू गया है कौन मन के तार,

वीणा बोलती है!

दो नयन / हरिवंशराय बच्चन

दो नयन जिससे कि फिर मैं

विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।


स्‍वप्‍न की जलती हुई नगरी

धुआँ जिसमें गई भर,

ज्‍योति जिनकी जा चुकी है

आँसुओं के साथ झर-झर,

मैं उन्‍हीं से किस तरह फिर

ज्‍योति का संसार देखूँ,

दो नयन जिससे कि फिर मैं

विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।


देखते युग-युग रहे जो

विश्‍व का वह रुप अल्‍पक,

जो उपेक्षा, छल घृणा में

मग्‍न था नख से शिखा तक,

मैं उन्‍हीं से किस तरह फिर

प्‍यार का संसार देखूँ,

दो नयन जिससे कि फिर मैं

विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।


संकुचित दृग की परिधि‍ थी

बात यह मैं मान लूँगा,

विश्‍व का इससे जुदा जब

रुप भी मैं जान लूँगा,

दो नयन जिससे कि मैं

संसार का विस्‍तार देखूँ;

दो नयन जिससे कि फिर मैं

विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।

नीड़ का निर्माण / हरिवंशराय बच्चन

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्वान फिर-फिर!


वह उठी आँधी कि नभ में,

छा गया सहसा अँधेरा,

धूलि धूसर बादलों नें

भूमि को भाँति घेरा,

रात-सा दिन हो गया, फिर

रात आई और काली,

लग रहा था अब न होगा

इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्‍पात-भय से

भीत जन-जन, भीत कण-कण

किंतु प्राची से उषा की

मोहनी मुसकान फिर-फिर,

नेह का आह्वान फिर-फिर,


वह चले झोंके कि काँपे

भीम कायावान भूधर,

जड़ समेत उखड़-पुखड़कर

गिर पड़े, टूटे विटप वर,

हाय, तिनकों से विनिर्मित

घोंसलों पर क्‍या न बीती,

डगमगाए जबकि कंकड़,

ईंट, पत्‍थर के महल-घर;

बोल आशा के विहंगम,

किस जगह पर तू छिपा था,

जो गगन चढ़ उठाता

गर्व से निज तान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्वान फिर-फिर!


क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों

में उषा है मुसकराती,

घोर गर्जनमय गगन के

कंठ में खग पंक्ति गाती;

एक चिड़‍िया चोंच में तिनका

लिए जो गा रही है,

वह सहज में ही पवन

उंचास को नीचा दिखाती!

नाश के दुख से कभी

दबता नहीं निर्माण का सुख

प्रलय की निस्‍तब्‍धता से

सृष्टि का नव गान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्वान फिर-फिर!

अजेय / हरिवंशराय बच्चन

अजेय तू अभी बना!


न मंजीलें मिलीं कभी,

न मुश्किलें हिली कभीं,

मगर क़दम थमें नहीं,

क़रार-क़ौल जो ठना।

अजेय तू अभी बना।


सफल न एक चाह भी,

सुनी न एक आह भी,

मगर नयन भुला सके

कभी न स्‍वप्‍न देखना।

अजेय तू अभी बना!


अतीत याद है तुझे,

कठिन विषाद है तुझे,

मगर भविष्‍य से रूका

न अँखमुदौल खेलना।

अजेय तू अभी बना!


सुरा समाप्‍त हो चुकी,

सुपात्र-माल खो चुकी,

मगर मिटी, हटी, दबी

कभी न प्‍यास-वासना।

अजेय तू अभी बना!


पहाड़ टूटकर अभी गिरा,

प्रलय पयोद भी घिरा,

मनुष्‍य है कि देव है

कि मेरुदंड है तना!

अजेय तू अभी बना!

अँधेरे का दीपक / हरिवंशराय बच्चन

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था रुचि से संवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगो से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटा कर ईंट, पत्थर, कंकडों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?br>


बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की लालिमा सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा हाथ की मिला कर दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?



क्या घडी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छायी,
आंख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हंसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खायी,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता की समय पर मुस्कुराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?



हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आंखें गान का वरदान मांगा
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबर अवनि को मत्तता के गीत गा गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलाने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


हाय, वे साथी की चुम्बक लौह से जो पास आये,
पास क्या आए, कि ह्र्दय के बीच ही गोया समाये,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोच कर ये लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?



क्या हवांए थी कि उजडा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका?
किंतु ऎ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजडते हैं प्रकृति के जड नियम से
पर किसी उजडे हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

मयूरी / हरिवंशराय बच्चन

मयूरी,

नाच, मगन-मन नाच!


गगन में सावन घन छाए,

न क्‍यों सुधि साजन की आए;

मयूरी, आँगन-आँगन नाच!

मयूरी,

नाच, मगन-मन नाच!


धरणी पर छाई हरियाली,

सजी कलि-कुसुमों से डाली;

मयूरी, मधुवन-मधुवन नाच!

मयूरी,

नाच, मगन-मन नाच!


समीरण सौरभ सासाता,

घुमर घन मधुकण बरसाता;

मयूरी, नाच मदिर-मन नाच!

मयूरी,

नाच, मगन-मन नाच!


निछावर इंद्रधनुष तुझ पर,

निछावर, प्रकृति-पुरुष तुझ पर,

मयूरी, उन्‍मन-उन्‍मन नाच!

मयूरा, छूम-छनाछन नाच!

मयूरी, नाच, मगन-मन नाच!

नागिन / हरिवंशराय बच्चन

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू प्रलय काल के मेघों का

कज्‍जल-सा कालापन लेकर,

तू नवल सृष्‍टि‍ की ऊषा की

नव द्युति अपने अंगों में भर,

बड़वाग्नि-विलोडि़त अंबुधि की

उत्‍तुंग तरंगों से गति ले,

रथ युत रवि-शशि को बंदी कर

दृग-कोयों का रच बंदीघर,

कौंधती तड़‍ित को जिह्वा-सी

विष-मधुमय दाँतों में दाबे,

तू प्रकट हुई सहसा कैसे

मेरी जगती में, जीवन में?

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू मनमोहिनी रंभा-सी,

तू रुपवती रति रानी-सी,

तू मोहमयी उर्वशी सदृश,

तू मनमयी इंद्राणी-सी,

तू दयामयी जगदंबा-सी

तू मृत्‍यु सदृश कटु, क्रुर, निठुर,

तू लयंकारी कलिका सदृश,

तू भयंकारी रूद्राणी-सी,

तू प्रीति, भीति, आसक्ति, घृणा

की एक विषम संज्ञा बनकर,

परिवर्तित होने को आई

मेरे आगे क्षण-प्रतिक्षण में।

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


प्रलयंकर शंकर के सिर पर

जो धूलि-धूसरित जटाजूट,

उसमें कल्‍पों से सोई थी

पी कालकूट का एक घूँट,

सहसा समाधि का भंग शंभु,

जब तांडव में तल्‍लीन हुए,

निद्रालसमय, तंद्रानिमग्‍न

तू धूमकेतु-सी पड़ी छूट;

अब घुम जलस्‍थल-अंबर में,

अब घूम लोक-लोकांतर में

तू किसको खोजा करती है,

तू है किसके अन्‍वीक्षण में?

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू नागयोनि नागिनी नहीं,

तू विश्‍व विमोहक वह माया,

जिसके इंगित पर युग-युग से

यह निखिल विश्‍व नचता आया,

अपने तप के तेजोबल से

दे तुझको व्‍याली की काया,

धूर्जटि ने अपने जटिल जूट-

व्‍यूहों में तुझको भरमाया,

पर मदनकदन कर महायतन

भी तुझे न सब दिन बाँध सके,

तू फिर स्‍वतंत्र बन फिरती है

सबके लोचन में, तन-मन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू फिरती चंचल फिरकी-सी

अपने फन में फुफकार लिए,

दिग्‍गज भी जिससे काँप उठे

ऐसा भीषण हुँकार लिए,

पर पल में तेरा स्‍वर बदला,

पल में तेरी मुद्रा बदली,

तेरा रुठा है कौन कि तू

अधरों पर मृदु मनुहार लिए,

अभिनंदन करती है उसका,

अभिपादन करती है उसका,

लगती है कुछ भी देर नहीं

तेरे मन के परिवर्तन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


प्रेयसि का जग के तापों से

रक्षा करने वाला अंचल,

चंचल यौवन कल पाता है

पाकर जिसकी छाया शीतल,

जीवन का अंतिम वस्‍त्र कफ़न

जिसको नख से शीख तक तनकर

वह सोता ऐसी निद्रा में

है होता जिसके हेतु न कल,

जिसको तन तरसा करता है,

जिससे डरपा करता है,

दोनों की झलक मुझे मिलती

तेरे फन के अवगुंठन में!

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


जाग्रत जीवन का कंपन है

तेरे अंगों के कंपन में,

पागल प्राणें का स्‍पंदन है

तेरे अंगों के स्‍पंदन में,

तेरे द्रुत दोलित काया में

मतवाली घरियों की धड़कन,

उन्‍मद साँसों की सिहरन में,

अल्‍हड़ यौवन करवट लेता

जब तू भू पर लुंठित होती,

अलमस्‍त जवानी अँगराती

तेरे अंगों की ऐंठन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू उच्‍च महत्‍वाकांक्षा-सी

नीचे से उठती ऊपर को,

निज मुकुट बना लेगी जैसे

तारावलि- मंडल अंबर को,

तू विनत प्रार्थना-सी झुककर

ऊपर से नीचे को आती,

जैसे कि किसी की पद-से

ढँकने को है अपने सिर को,

तू आसा-सी आगे बढ़ती,

तू लज्‍जा-सी पीछे हटती,

जब एक जगह टिकती, लगती

दृढ़ निश्‍चय-सी निश्‍चल मन में।

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


मलयाचल में मलयानिल-सी

पल भर खाती, पल इतराती

तू जब आती, युग-युग दहाती

शीतल हो जाती है छाती,

पर जब चलती उद्वेग भरी

उत्‍तप्‍त मरूस्‍थल की लू-सी

चिर संचित, सिंचित अंतर के

नंदन में आग लग जाती;

शत हिमशिखरों की शीतलता,

श्‍त ज्‍वालामुखियों की दहकन,

दोनों आभासित होती है

मुझको तेरे आलिंगन में!

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


इस पुतली के अंदर चित्रित

जग के अतीत की करूण कथा,

गज के यौवन का संघर्षन,

जग के जीवन की दुसह व्‍यथा;

है झुम रही उस पुतली में

एेसे सुख-सपनों की झाँकी,

जो निकली है जब आशा ने

दुर्गम भविष्‍य का गर्भ माथा;

है क्षुब्‍ध-मुग्‍ध पल-पल क्रम से

लंगर-सा हिल-हिल वर्तमान

मुख अपना देखा करता है

तेरे नयनों के दर्पण में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तेरे आनन का एक नयन

दिनमणि-सा दिपता उस पथ पर,

जो स्‍वर्ग लोक को जाता है,

जो चिर संकटमय, चिर दस्‍तूर;

तेरे आनन का एक नेत्र

दीपक-सा उस मग पर जगता,

जो नरक लोक को जाता है,

जो चिर सुखमायमय, चिर सुखकर;

दोनों के अंदर आमंत्रण,

दोनों के अंदर आकर्षण,

खुलते-मुंदते हैं सर्व्‍ग-नरक

के देर तेरी हर चितवन में!


सहसा यह तेरी भृकुटि झुकी,

नभ से करूणा की वृष्टि हुई,

मृत-मूर्च्छित पृथ्‍वी के ऊपर

फिर से जीवन की सृष्टि हुई,

जग के आँगन में लपट उठी,

स्‍वप्‍नों की दुनिया नष्‍ट हुई;

स्‍वेच्‍छाचारिण‍ि, है निष्‍कारण

सब तेरे मन का क्रोध, कृपा,

जग मिटता-बनता रहता है

तेरे भ्रू के संचालन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


अपने प्रतिकूल गुणों की सब

माया तू संग दिखाती है,

भ्रम, भय, संशय, संदेहों से

काया विजडि़त हो जाती है,

फिर एक लहर-सीआती है,

फिर होश अचानक होता है,

विश्‍वासी आशा, निष्‍ठा,

श्रद्धा पलकों पर छाती है;

तू मार अमृत से सकती है,

अमरत्‍व गरल से दे सकती,

मेरी मति सब सुध-बुध भूली

तेरे छलनामय लक्षण में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


पिपरीत क्रियाएँमेरी भी

अब होती हैं तेरे आगे,

पग तेरे पास चले आए

जब वे तेरे भय से भागे,

मायाविनि क्‍या कर देती है

सीधा उलटा हो जाता है,

जब मुक्ति चाहता था अपनी

तुझसे मैंने बंधन माँगे,

अब शा‍ंति दुसह-सी लगती है,

अब मन अशांति में रमता है,

अब जलन सुहाती है उर को,

अब सुख मिलता उत्‍पीड़न में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तूने आँखों में आँख डाल

है बाँध लिया मेरे मन को,

मैं तुझको कीलने चला मगर

कीला तूने तन को,

तेरी परछाई-सा बन मैं

तेरे संग हिलता-डुलता हूँ,

मैं नहीं समझता अलग-अलग

अब तेरे-अपने जीवन को,

मैं तन-मन का दुर्बल प्राणी,

ज्ञानी, ध्‍यानी भी बड़े-बड़े

हो दास चुके तेरे, मुझको

क्‍या लज्‍जा आत्‍म-समर्पण में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तुझ पर न सका चल कोई भी

मेरा प्रयोग मारण-मोहन,

तेरा न फिरा मन और कहीं

फेंका भी मैंने उच्चाटन,

सब मंत्र, तंत्र, अभिचारों पर

तू हुई विजयिनी निष्‍प्रयत्‍न,

उलटा तेरे वश में आया

मेरा परिचालित वशीकरण;

कर यत्‍न थका, तू सध न सकी

मेरे छंदों के बंधन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


सब सास-दाम औ' दंड-भेद

तेरे आगे बेकार हुआ,

जप, तप, व्रत, संयम, साधन का

असफल सारा व्‍यापार हुआ,

तू दूर न मुझसे भाग सकी,

मैं दूर न तुझसे भाग सका,

अनिवारिणि, करने को अंतिम

निश्‍चय, ले मैं तैयार हुआ-

अब शंति, अशांमति, माण,जीवन

या इनसे भी कुछ भिन्‍न अगर,

सब तेरे पिषमय चुंबन में,

सब तेरे मधुमय दंशन में!

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!

कितना अकेला आज मैं / हरिवंशराय बच्चन

कितना अकेला आज मैं!


संघर्ष में टूटा हुआ,

दुर्भग्‍य से लूटा हुआ,

परिवार से छूटा हुआ, कितना अकेला आज मैं!

कितना अकेला आज मैं!


भटका हुआ संसार में,

अकुशल जगत व्‍यवहार में,

असफल सभी व्‍यापार में, कितना अकेला आज मैं!

कितना अकेला आज मैं!


खोया सभी विश्‍वास है,

भूला सभी उल्‍लास है,

कुछ खोजती हर साँस है, कितना अकेला आज मैं!

कितना अकेला आज मैं!

जीवन शाप या वरदान / हरिवंशराय बच्चन

जीवन शाप या वरदान?


सुप्‍त को तुमने जगाया,

मौन को मुखरित बनाया,

करुन क्रंदन को क्‍यों बताया मधुर गान?

जीवन शाप या वरदान?


सजग फिर से सुप्‍त होगा,

गीत फिर से गुप्‍त होगा,

मध्‍य में अवसाद का ही क्‍यों किया सम्‍मान?

जीवन शाप या वरदान?


पूर्ण भी जीवन करोगे,

हर्ष से क्षण क्षण भरोगे,

तो न कर देंगे उसे एक दिन बलिदान?

जीवन शाप या वरदान?

मैं जीवन में कुछ कर न सका / हरिवंशराय बच्चन

मैं जीवन में कुछ न कर सका!


जग में अँधियाला छाया था,

मैं ज्‍वाला लेकर आया था

मैंने जलकर दी आयु बिता, पर जगती का तम हर न सका!

मैं जीवन में कुछ न कर सका!


अपनी ही आग बुझा लेता,

तो जी को धैर्य बँधा देता,

मधु का सागर लहराता था, लघु प्‍याला भी मैं भर न सका!

मैं जीवन में कुछ न कर सका!


बीता अवसर क्‍या आएगा,

मन जीवन पर पछताएगा,

मरना ही होगा मुझको जब मरना था तब मर न सका!

मैं जीवन में कुछ न कर सका!

कोई गाता, मैं सो जाता / हरिवंशराय बच्चन

कोई गाता मैं सो जाता!

संसृति के विस्‍तृत सागर पर

सपनों की नौका के अंदर

सुख-दुख की लहरों पर उठ-गिर बहता जाता मैं सो जाता!

कोई गाता मैं सो जाता!


आँखों में भरकर प्‍यार अमर,

आशीष हथेली में भरकर

कोई मेरा सिर गोदी में रख सहलाता, मैं सो जाता!

कोई गाता मैं सो जाता!


मेरे जिवन का खारा जल,

मेरे जीवन का हालाहल

कोई अपने स्‍वर में मधुमय कर बरसाता, मैं सो जाता!

कोई गाता मैं सो जाता!

मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा / हरिवंशराय बच्चन

मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!


तेरे साथ खिली जो कलियाँ,

रूप-रंगमय कुसुमावलियाँ,

वे कब की धरती में सोईं, होगा उनका फिर न सवेरा!

मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!


नूतन मुकुलित कलिकाओं पर,

उपवन की नव आशाओं पर,

नहीं सोहता, पागल, तेरा दुर्बल-दीन-अंगमल फेरा!

मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!


जहाँ प्‍यार बरसा था तुझ पर,

वहाँ दया की भिक्षा लेकर,

जीने की लज्‍जा को कैसे सहता है, मानी, मन तेरा!

मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!

क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं / हरिवंशराय बच्चन

क्‍या भूलूँ, क्‍या याद करूँ मैं!


अगणित उन्‍मादों के क्षण हैं,

अगणित अवसादों के क्षण हैं,

रजनी की सूनी घड़‍ियों को किन-किन से आबाद करूँ मैं!

क्‍या भूलूँ, क्‍या याद करूँ मैं!


याद सुखों की आँसू लाती,

दुख की, दिल भारी कर जाती,

दोष किसे दूँ जब अपने से अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!

क्‍या भूलूँ, क्‍या याद करूँ मैं!


दोनों करके पछताता हूँ,

सोच नहीं, पर, मैं पाता हूँ,

सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आज़ाद करूँ मैं!

क्‍या भूलूँ, क्‍या याद करूँ मैं!

स्वप्न था मेरा भयंकर / हरिवंशराय बच्चन

स्वप्न था मेरा भयंकर


रात का-सा था अंधेरा,
बादलों का था न डेरा,
किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!



क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी-
शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!



धार से कुछ फासले पर
सिर कफ़न की ओढ चादर
एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!

मैं कल रात नहीं रोया था / हरिवंशराय बच्चन

मैं कल रात नहीं रोया था


दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!



प्यार-भरे उपवन में घूमा,
फल खाए, फूलों को चूमा,
कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैं ने ढोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!



आँसू के दाने बरसाकर
किन आँखो ने तेरे उर पर
ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!

बीते दिन कब आने वाले! / हरिवंशराय बच्चन

बीते दिन कब आने वाले!


मेरी वाणी का मधुमय स्‍वर,

विश्‍व सुनेगा कान लगाकर,

दूर गए मेरे उर की धड़कन को सुन पाने वाले!

बीते दिन कब आने वाले!


विश्‍व करेगा मेरा आदर,

हाथ्‍ बढ़ाकर, शीश नवाकर,

पर न खुलेंगे नेत्र प्रतीक्षा में जो रहते थे मतवाले!

बीते दिन कब आने वाले!


मुझमें है देवत्‍व जहाँ पर,

झुक जाएगा लोक वहाँ पर,

पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को अब दुलरानेवाले!

बीते दिन कब आने वाले!

अब वे मेरे गान कहाँ हैं / हरिवंशराय बच्चन

अब वे मेरे गान कहाँ हैं


टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!



जगती के नीरस मरुथल पर,
हँसता था मैं जिनके बल पर,
चिर वसंत-सेवित सपनों के मेरे वे उद्यान कहा हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!



किस पर अपना प्यार चढाऊँ?
यौवन का उद्गार चढाऊँ?
मेरी पूजा को सह लेने वाले वे पाषाण कहाँ है!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!

था तुम्हें मैंने रुलाया / हरिवंशराय बच्चन

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!



स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!



बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

मैंने खेल किया जीवन से / हरिवंशराय बच्चन

मैंने खेल किया जीवन से!


सत्‍य भवन में मेरे आया,

पर मैं उसको देख न पाया,

दूर न कर पाया मैं, साथी, सपनों का उन्‍माद नयन से!

मैंने खेल किया जीवन से!


मिलता था बेमोल मुझे सुख,

पर मैंने उससे फेरा मुख,

मैं खरीद बैठा पीड़ा को यौवन के चिर संचित धन से!

मैंने खेल किया जीवन से!


थे बैठे भगवान हृदय में,

देर हुई मुझको निर्णय में,

उन्‍हें देवता समझा जो थे कुछ अधिक नहीं पाहन से!

मैंने खेल किया जीवन से!

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? / हरिवंशराय बच्चन

क्षण भर को क्यों प्यार किया था


अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?



‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?



वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

साथी, सो न, कर कुछ बात / हरिवंशराय बच्चन

साथी, सो न, कर कुछ बात!


बोलते उडुगण परस्‍पर,

तरु दलों में मंद 'मरमर',

बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल स्‍नात!

साथी, सो न, कर कुछ बात!


बात करते सो गया तू,

स्‍वप्‍न में फिर खो गया तू,

रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!

साथी, सो न, कर कुछ बात!


पूर्ण कर दे वह कहानी,

जो शुरू की थी सुनानी,

आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!

साथी, सो न, कर कुछ बात!

मुझसे चांद कहा करता है / हरिवंशराय बच्चन

मुझ से चांद कहा करता है--


चोट कडी है काल प्रबल की,
उसकी मुस्कानों से हल्की,
राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है,
मुझसे चांद कहा करता है



तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वी तल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ में नित्य बहा करता है,
मुझसे चांद कहा करता है



तू अपने दुख में चिल्लाता,
आँखो देखी बात बताता,
तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है
मुझसे चांद कहा करता है

स्वप्न भी छल, जागरण भी / हरिवंशराय बच्चन

स्वप्न भी छल, जागरण भी!



भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यित कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की, और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!



मनुज के अधिकार कैसे,
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!



जानता यह भी नहीं मन,
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

तुम तूफ़ान समझ पाओगे? / हरिवंशराय बच्चन

तुम तूफ़ान समझ पाओगे?


गीले बादल, पीछे रजकण,

सूखे पत्‍ते, रूखे तृण घन,

लेकर चलता करता 'हरहर'- इसका गान समझ पाओगे?

तुम तूफ़ान समझ पाओगे?


गंध-भरा यह मंद पवन था,

लहराता इससे मधुवन था,

सहसा इसका टूट गया जो स्‍वप्‍न महान, समझ पाओगे?

तुम तूफ़ान समझ पाओगे?


तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाऍं,

नोच-खसोट कुसुम-कलिकाऍं,

जाता है अज्ञात दिशा को! हटो विहंगम, उड़ जाओगे!

तुम तूफ़ान समझ पाओगे?

मैं जीवन का शंका महान / हरिवंशराय बच्चन

मैं जीवन का शंका महान!


युग-युग संचालित राह छोड़,

युग-युग संचित विश्‍वास ताड़!

मैं चला आज युग-युग सेवित,

पाखंड-रुढ़‍ि के बैर ठान।

मैं जीवन का शंका महान!


होगी न हृदय में शांति व्‍यापक,

कर लेता जब तक नहीं प्राप्‍त,

जग-जीवन का कुछ नया अर्थ,

जग-जीवन का कुछ नया ज्ञान।

मैं जीवन का शंका महान!


गहनांधकार में पाँव धार,

युग नयन फाड़, युग कर पसार,

उठ-उठ, गिर-गिरकर बार-बार

मैं खोज रहा हूँ अपना पथ,

अपनी शंका का समाधान।

मैं जीवन का शंका महान!

काल क्रम से- / हरिवंशराय बच्चन

काल क्रम से-

जिसके आगे झंझा रूते,

जिसके आगे पर्वत झुकते-

प्राणों का प्‍यारा धन-कंचन

सहसा अपहृत हो जाने पर

जीवन में जो कुछ बचता है,

उसका भी कुछ है आकर्षण।


नियति नियम से-

जिसको समझा सुकरात नहीं-

जिसको बुझा बुकरात नहीं-

क़‍िस्‍मत का प्‍यारा धन-कंचन

सहसा अपहृत हो जाने पर

जीवन में जो कुछ बचता है,

उसका भी कुछ है आकर्षण।


आत्‍म भ्रम से-

जिससे योगी ठग जाते हैं,

गुरू ज्ञानी धोखा खाते हैं-

स्‍वप्‍नों का प्‍यारा धन-कंचन

सहसा अपहृत हो जाने पर

जीवन में जो कुछ बचता है,

उसका भी कुछ है आकर्षण।


कालक्रम से, नियति-नियति से,

आत्‍म भ्रम से

रह न गया जो, मिल न सका जो,

सच न हुआ जो,

प्रिय जन अपना, प्रिय धन अपना,

अपना सपना,

इन्‍हें छोड़कर जीवन जितना,

उसमें भी आकर्षक कितना!

क्‍या करूँ संवेदना लेकर तुम्‍हारी / हरिवंशराय बच्चन

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?


मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?



एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?



कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?



क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बंटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

इतने मत उन्‍मत्‍त बनो / हरिवंशराय बच्चन

इतने मत उन्‍मत्‍त बनो!

जीवन मधुशाला से मधु पी

बनकर तन-मन-मतवाला,

गीत सुनाने लगा झुमकर

चुम-चुमकर मैं प्‍याला-

शीश हिलाकर दुनिया बोली,

पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,

इतने मत उन्‍मत्‍त बनो।


इतने मत संतप्‍त बनो।

जीवन मरघट पर अपने सब

आमानों की कर होली,

चला राह में रोदन करता

चिता-राख से भर झोली-

शीश हिलाकर दुनिया बोली,

पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,

इतने मत संतप्‍त बनो।


इतने मत उत्‍तप्‍त बनो।

मेरे प्रति अन्‍याय हुआ है

ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण,

करने लगा अग्नि-आनन हो

गुरू-गर्जन, गुरूतर गर्जन-

शीश हिलाकर दुनिया बोली,

पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,

इतने मत उत्‍तप्‍त बनो।

चाँद-सितारों मिलकर गाओ / हरिवंशराय बच्चन

चाँद-सितारों, मिलकर गाओ!


आज अधर से अधर मिले हैं,

आज बाँह से बाँह मिली,

आज हृदय से हृदय मिले हैं,

मन से मन की चाह मिली;

चाँद-सितारों, मिलकर गाओ!


चाँद-सितारों, मिलकर बोले,

कितनी बार गगन के नीचे

प्रणय-मिलना व्‍यापार हुआ है,

कितनी बार धरा पर प्रेयसि-

प्रियतम का अभिसार हुआ है!

चाँद-सितारों, मिलकर बोले।


चाँद-सितारों, मिलकर राओ!

आज अधर से अधर अलग है,

आज बाँह से बाँह अलग

आज हृदय से हृदय अलग है,

मन से मन की चाह अलग;

चाँद-सितारों, मिलकर रोओ!


चाँद-सितारों, मिलकर बोले,

कितनी बार गगन के नीचे

अटल प्रणय का बंधन टूटे,

कितनी बार धरा के ऊपर

प्रेयसि-प्रियतम के प्राण टूटे?

चाँद-सितारों, मिलकर बोले।

दोनों चित्र सामने मेरे / हरिवंशराय बच्चन

दोनों चित्र सामने मेरे।


सिर पर बाल घने, घंघराले,

काले, कड़े, बड़े, बिखरे-से,

मस्‍ती, आजादी, बेफिकरी,

बेखबरी के हैं संदेसे।


माथा उठा हुआ ऊपर को,

भौंहों में कुछ टेढ़ापन है,

दुनिया को है एक चुतौती,

कभी नहीं झुकने का प्राण है।


नयनों में छाया-प्रकाश की

आँख-मिचौनी छिड़ी परस्‍पर,

बेचैनी में, बेसबरी में

लुके-छिपे हैं अपने सुंदर


सिर पर बाल कढ़े कंघी से

तरतीबी से, चिकने काले,

जग की रुढि़-रीति ने जैसे

मेरे ऊपर फंदें डाले।


भौंहें झुकी हुईं नीचे को,

माथे के ऊपर है रेखा,

अंकित किया जगत ने जैसे

मुझ पर अपनी जय का लेखा।


नयनों के दो द्वार खुले हैं,

समय दे गसा ऐसी दीक्षा,

स्‍वागत सबके लिए यहाँ पर,

नहीं किसी के लिए प्रतीक्षा।

लो दिन बीता, लो रात गयी / हरिवंशराय बच्चन

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।



धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।



चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

वह नभ कंपनकारी समीर / हरिवंशराय बच्चन

वह नभ कंपनकारी समीर,

जिसने बादल की चादर को

दो झटके में तार-तार,

दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,

डाले अनगिन तरूवर उखाड़;

होता समाप्‍त अब वह समीर

कलि की मुसकानों पर मलीन!

वह नभ कंपनकारी समीर।


वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर,

जिसने क्षिति के वक्षस्‍थल को

निज तेतधार से दिया चिर,

कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-

घर बेनिशान कर मग्‍न-नीर,

होता समाप्‍त अब वह प्रबाह

तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!

वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर।


मेरे मानस की महा पीर,

जो चली विधाता के सिर पर

गिरने को बनकर वज्र शाप,

जो चलीभस्‍म कर देने को

यक निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;

होती समाप्‍त अब वही पीर,

लघु-लघु गीतों में शक्तिहीन!

मेरे मानस की महा पीर।

वह नभ कंपनकारी समीर / हरिवंशराय बच्चन

वह नभ कंपनकारी समीर,

जिसने बादल की चादर को

दो झटके में तार-तार,

दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,

डाले अनगिन तरूवर उखाड़;

होता समाप्‍त अब वह समीर

कलि की मुसकानों पर मलीन!

वह नभ कंपनकारी समीर।


वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर,

जिसने क्षिति के वक्षस्‍थल को

निज तेतधार से दिया चिर,

कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-

घर बेनिशान कर मग्‍न-नीर,

होता समाप्‍त अब वह प्रबाह

तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!

वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर।


मेरे मानस की महा पीर,

जो चली विधाता के सिर पर

गिरने को बनकर वज्र शाप,

जो चलीभस्‍म कर देने को

यक निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;

होती समाप्‍त अब वही पीर,

लघु-लघु गीतों में शक्तिहीन!

मेरे मानस की महा पीर।

क्‍या है मेरी बारी में / हरिवंशराय बच्चन

क्या है मेरी बारी में।
जिसे सींचना था मधुजल से
सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी
विधि से जीवन-क्यारी में।
क्या है मेरी बारी में।



आंसू-जल से सींच-सींचकर
बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है
मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।



टूट पडे मधुऋतु मधुवन में
कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा
जीने की तैयारी में।
क्या है मेरी बारी में।

कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ / हरिवंशराय बच्चन

कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?
क्या तुम लाई हो चितवन में,
क्या तुम लाई हो चुंबन में,
अपनी कर में क्या तुम लाई,
क्या तुम लाई अपने मन में,
क्या तुम नूतन लाई जो मैं
फ़िर से बंधन झेलूँ?
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?



अश्रु पुराने, आह पुरानी,
युग बाहों की चाह पुरानी,
उथले मन की थाह पुरानी,
वही प्रणय की राह पुरानी,
अर्ध्य प्रणय का कैसे अपनी
अंतर्ज्वाला में लूँ?
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?



खेल चुका मिट्टी के घर से,
खेल चुका मैं सिंधु लहर से,
नभ के सूनेपन से खेला,
खेला झंझा के झर-झर से;
तुममें आग नहीं तब क्या,
संग तुम्हारे खेलूँ?
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?

जानकर अनजान बन जा / हरिवंशराय बच्चन

जानकर अनजान बन जा।


पूछ मत आराध्‍य कैसा,

जब कि पूजा-भाव उमड़ा;

मृत्तिका के पिंड से कह दे

कि तू भगवान बन जा।

जानकर अनजान बन जा।


आरती बनकर जला तू

पथ मिला, मिट्टी सिधारी,

कल्‍पना की वंचना से

सत्‍य से अज्ञान बन जा।

जानकर अनजान बन जा।


किंतु दिल की आग का

संसार में उपहास कब तक?

किंतु होना, हाय, अपने आप

हतविश्‍वास कब तक?

अग्नि को अंदर छिपाकर,

हे हृदय, पाषाण बन जा।

जानकर अनजान बन जा।

लहर सागर का नहीं श्रृंगार / हरिवंशराय बच्चन

लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।



गन्ध कलिका का नहीं उदगार,
उसकी विकलता है;
फूल मधुवन का नहीं गलहार,
उसकी विकलता है;
कोकिला का कौन सा व्यवहार,
ऋतुपति को न भाया?
कूक कोयल की नहीं मनुहार,
उसकी विकलता है।



गान गायक का नहीं व्यापार,
उसकी विकलता है;
राग वीणा की नहीं झंकार,
उसकी विकलता है;
भावनाओं का मधुर आधार
सांसो से विनिर्मित,
गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
उसकी विकलता है।

मधुबाला / हरिवंशराय बच्चन

1


मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,
मधु के धट मुझ पर बलिहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख देखा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



2


इस नीले अंचल की छाया
में जग-ज्वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



3


मधुघट ले जब करती नर्तन,
मेरे नुपुर की छम-छनन
में लय होता जग का क्रंदन,
झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



4


मैं इस आंगन की आकर्षण,
मधु से सिंचित मेरी चितवन,
मेरी वाणी में मधु के कण,
मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



5


था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीं साकीबाला,
था बैठा ठाला विक्रेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



6


तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था भ्रम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप लिये सर पर,
मैं आ‌ई करती उजियाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



7


सोने सी मधुशाला चमकी,
माणित दॿयॿति से मदिरा दमकी,
मधुगंध दिशा‌ओं में चमकी,
चल पड़ा लिये कर में प्याला
प्रत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



8


थे मदिरा के मृत-मूक घड़े,
थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,
थे जड़वत प्याले भूमि पड़े,
जादू के हाथों से छूकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



9


मझको छूकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मालिक जागा मलकर पलकें,
अंगड़ा‌ई लेकर उठ बैठी
चिर सुप्त विमूर्छित मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



10


प्यासे आि, मैंने आिका,
वातायन से मैंने िािका,
पीनेवालों का दल बहका,
उत्कंठित स्वर से बोल उठा,
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’
मैं मधुशाला की मधुबाला!



11


खॿल द्वार मदिरालय के,
नारे लगते मेरी जय के,
मिटे चिन्ह चिंता भय के,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला मदिरा ला-ला’!,
मैं मधुशाला की मधुबाला!



12


हर एक तृप्ति का दास यहां,
पर एक बात है खास यहां,
पीने से बढ़ती प्यास यहां,
सौभाग्य मगर मेरा देखो,
देने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला!



13


चाहे जितना मैं दूं हाला,
चाहे जितना तू पी प्याला,
चाहे जितना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हूँ अंतिम,
यह शांत नही होगी ज्वाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



14


मधु कौन यहां पीने आता,
है किसका प्यालों से नाता,
जग देख मुझे है मदमाता,
जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर
तनती मैं स्वपनों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!



15


यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला,
यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,
स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,
स्वप्नों की दुनिया में भूला
फिरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

कब तक मलूँ जबीं से / मजरूह सुल्तानपुरी

कब तक मलूँ जबीं से उस संग-ए-दर को मैं
ऎ बेकसी संभाल, उठाता हूँ सर को मैं

किस किस को हाय, तेर तग़ाफ़ुल का दूँ जवाब
अक्सर तो रह गया हूँ झुका कर नज़र को मैं

अल्लाह रे वो आलम-ए-रुख्सत के देर तक
तकता रहा हूँ यूँ ही तेरी रेहगुज़र को मैं

ये शौक़-ए-कामयाब, ये तुम, ये फ़िज़ा, ये रात
कह दो तो आज रोक दूँ बढ़कर सहर को मैं

जला के मशाल-ए-जान हम जुनूं सिफात चले / मजरूह सुल्तानपुरी

जला के मशाल-ए-जान हम जुनूं सिफात चले

जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले


दयार-ए-शाम नहीं, मंजिल-ए-सहर भी नहीं

अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले


हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक

ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले


सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग

जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले


बचा के लाये हम ऐ यार फिर भी नकद-ए-वफ़ा

अगर-चे लुटते हुए रह्ज़नों के हाथ चले


फिर आई फसल की मानिंद बर्ग-ऐ-आवारा

हमारे नाम गुलों के मुरासिलात चले


बुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ मजरूह

बगल मैं हम भी लिए एक सनम का हाथ चले

निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ / मजरूह सुल्तानपुरी

निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने



मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहाँ
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने



हयात लग़्ज़िशे-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने



वो तक रहे थे हमीं हँस के पी गए आँसू
वो सुन रहे थे हमीं कह सके न अफ़साने



ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ
चिराग़ हो के न हो जल बुझेंगे परवाने



फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिये "मजरूह"
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने

ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ाँ / मजरूह सुल्तानपुरी

ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ाँ था दूर थी सियाही भी
दम के दम में अफ़साना थी मेरी तबाही भी



इल्तफ़ात समझूँ या बेरुख़ी कहूँ इस को
रह गैइ ख़लिश बन कर उसकी कमनिगाही भी



याद कर वो दिन जिस दिन तेरी सख़्त्गीरी पर
अश्क भर के उठी थी मेरी बेगुनाही भी



शम भी उजाला भी मैं ही अपनी महफ़िल का
मैं ही अपनी मंज़िल का राहबर भी राही भी



गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा "मजरूह"
मस्जिदों में की जाके मैं ने दादख़्वाही भी

हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो / मजरूह सुल्तानपुरी

हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुमसे ज़ियादा
चाक किये हैं हमने अज़ीज़ों चार गरेबाँ तुमसे ज़ियादा



चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिर्फ़ लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहाराँ तुमसे ज़ियादा



जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शमों की कतर लो
ज़ख़्मों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिराग़ाँ तुमसे ज़ियादा



हम भी हमेशा क़त्ल हुए अन्द तुम ने भी देखा दूर से लेकिन
ये न समझे हमको हुआ है जान का नुकसाँ तुमसे ज़ियादा



ज़ंजीर-ओ-दीवार ही देखी तुमने तो "मजरूह" मगर हम
कूचा-कूचा देख रहे हैं आलम-ए-ज़िंदाँ तुमसे ज़ियादा

हम है मता-ए-कूचा-ओ-बज़ार की तरह / मजरूह सुल्तानपुरी

हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह



इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है के एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह



वो तो हैं कहीं और मगर दिल के आस पास
फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह



सीधी है राह-ए-शौक़ प यूँ ही कभी कभी
ख़म हो गैइ है गेसू-ए-दिलदार की तरह



अब जा के कुच खुला हुनर-ए-नाखून-ए-जुनून
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह



'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह