शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009

सुमित्रानंदन पंत की रचनाएं



 

सुमित्रानंदन पंत
१९००१९७७

सुमित्रानंदन पंत ने अपने जीवन काल में अठ्ठाइस प्रकाशित पुस्तकों की रचना की जिनमें कविताएँ, पद्य-नाटक और निबंध सम्मिलित हैं। हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण (१९६१), ज्ञानपीठ(१९६८), साहित्य अकादमी तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से प्रतिष्ठित किया गया।

उनका रचा हुआ संपूर्ण साहित्य सत्यम शिवम सुंदरम के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। आपकी प्रारंभिक कविताओं मे प्रकृति एवं सौन्दर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं, फिर छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं एवं कोमल भावनाओं के और इसके बाद प्रगतिवाद की विचारशीलता के। अंत में अरविंद दर्शन से प्रभावित मानव कल्याण संबंधी विचार धारा को आपके काव्य में स्थान मिला।

अल्मोड़ा जिले के कौसानी ग्राम की मनोरम घाटियों में जन्म लेने वाले सौंदर्यवादी श्री सुमित्रानंदन पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किन्तु उनकी सबसे कलात्मक कविताएँ पल्लव में संकलित हैं जो १९१८ से १९२५ तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है।

आधी शताब्दी से भी लम्बे आपके रचना-कर्म में आधुनिक हिन्दी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है।



 

गंगा

अब आधा जल निश्चल, पीला, -
आधा जल चंचल औ', नीला -
गीले तन पर मृदु संध्यातप
सिमटा रेशम पट-सा ढीला!

ऐसे सोने के साँझ प्रात,
ऐसे चाँदी के दिवस रात,
ले जाती बहा कहाँ गंगा
जीवन के युग-क्षण - किसे ज्ञात!

विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
किरणोज्ज्वल चल कल उर्मि निरत,
यमुना गोमती आदी से मिल
होती यह सागर में परिणत।

यह भौगोलिक गंगा परिचित,
जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
इस जड़ गंगा से मिली हुई

जन गंगा एक और जीवित!

वह विष्णुपदी, शिवमौलि स्रुता,
वह भीष्म प्रसू औ' जह्न सुता,
वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।

वह गंगा, यह केवल छाया,
वह लोक चेतना, यह माया,
वह आत्मवाहिनी ज्योति सरी,
यह भू पतिता, कंचुक काया।

वह गंगा जन मन से नि:सृत,
जिसमें बहु बुदबुद युग निर्तित,
वह आज तरंगित संसृति के
मृत सैकत को करने प्लावित।

दिशि दिशि का जन मन वाहित कर,
वह बनी अकूल अतल सागर,
भर देगी दिशि पल पुलिनों में
वह नव नव जीवन की मृदु उर्वर!

अब नभ पर रेखा शशि शोभित
गंगा का जल श्यामल कंपित,
लहरों पर चाँदी की किरणें
करती प्रकाशमय कुछ अंकित!


 
तप रे मधुर-मधुर मन!
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन!
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर मन!
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!
आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल?
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!
खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की!
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन!
आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!
क्या यह जीवन? सागर में
जल भार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!
सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय

 

 
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
हे स्त्रस्त ध्वस्त! हे शुष्क शीर्ण!
हिम ताप पीत, मधुमात भीत,
तुम वीतराग, जड़, पुराचीन!!
निष्प्राण विगत युग! मृत विहंग!
जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन,
च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों से तुम
झर-झर अनन्त में हो विलीन!
कंकाल जाल जग में फैले
फिर नवल रुधिर,-पल्लव लाली!
प्राणों की मर्मर से मुखरित
जीव की मांसल हरियाली!
मंजरित विश्व में यौवन के
जगकर जग का पिक, मतवाली
निज अमर प्रणय स्वर मदिरा से
भर दे फिर नव-युग की प्याली!

 

 
 

मैं नहीं चाहता चिर सुख

मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख!

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण,
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन!

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ' सुख दुख से!

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का!

 
 
 
 
मोह
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को
इन्द्रधनुष के रंगों को
तेरे भ्रूभंगों से कैसे
बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल
मधुकर की वीणा अनमोल
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से
कैसे भर लूँ सजनि श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
उषा सस्मित किसलय दल
सुधा रश्मि से उतरा जल
ना अधरामृत ही के मद में
कैसे बहाला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!
 
 
 

 
बाँध दिए क्यों प्राण
बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से
गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से
 
 

 
पाषाण खंड
वह अनगढ़ पाषाण खंड था-
मैंने तपकर, खंटकर,
भीतर कहीं सिमटकर
उसका रूप निखारा
तदवत भाव उतारा
श्री मुख का
सौंदर्य सँवारा!
लोग उसे
निज मुख बतलाते
देख-देख कर नहीं अघाते
वह तो प्रेम
तुम्हारा प्रिय मुख
तन्मय अंतर को
देता सुख
 
 
 
 

जीना अपने ही में
जीना अपने ही में
एक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोग
यह मनुज धर्म है
अपने ही में रहना
एक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने में
सबका सहज भला है
जग का प्यार मिले
जन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन को
प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए
ज्ञानी बनकर
मत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्य
प्रथम सत्कर्म कीजिए

 
 

 
 
वसंती हवा
चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह मग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।
पल्लव पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला
आया नीली पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला।
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब से गाल लजा
आया पंखड़ियों को काले -
पीले धब्बों से सहज सजा।
कलि के पलकों में मिलन स्वप्न
अलि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया प्रेमी वसंत-
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण।
 
 
 

पर्वत प्रदेश में पावस
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति देश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर!
उच्चाकांक्षाओं-से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर,
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर!
उड़ गया, अचानक, लो भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद यान में विचर, विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल!
(वह सरला उस गिरि को कहती थी बादलघर)
इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी,
सरल शैशव की सुखद सुधि-सी वही
बालिका मेरी मनोरम मित्र थी!

 

बाल प्रश्न

माँ! अल्मोड़े में आए थे
जब राजर्षि विवेकानंदं,
तब मग में मखमल बिछवाया,
दीपावलि की विपुल अमंद,
बिना पाँवड़े पथ में क्या वे
जननि! नहीं चल सकते हैं?
दीपावली क्यों की? क्या वे माँ!
मंद दृष्टि कुछ रखते हैं?"

"कृष्ण! स्वामी जी तो दुर्गम
मग में चलते हैं निर्भय,
दिव्य दृष्टि हैं, कितने ही पथ
पार कर चुके कंटकमय,
वह मखमल तो भक्तिभाव थे
फैले जनता के मन के,
स्वामी जी तो प्रभावान हैं
वे प्रदीप थे पूजन के।"



15 अगस्त 1947
 
 

चिर प्रणम्य यह पुण्य अह्न जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!
नवभारत, फिर चीर युगों का तिमिर आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन!
शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!
आम्र मौर जाओ हे, कदली स्तंभ बनाओ,
पावन गंगा जल भर मंगल-कलश सजाओ!
नव अशोक पल्लव के बंदनवार बँधाओ,
जय भारत गाओ, स्वतंत्र जय भारत गाओ!
उन्नत लगता चंद्रकला-स्मित आज हिमाचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शंभु तपोज्ज्वल!
लहर-लहर पर इंद्रधनुष-ध्वज फहरा चंचल
जय-निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल!
धन्य आज का मुक्ति-दिवस, गाओ जन-मंगल,
भारत-लक्ष्मी से शोभित फिर भारत-शतदल!
तुमुल जयध्वनि करो, महात्मा गांधी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय!
राष्ट्रनायकों का हे पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन!
स्वर्ण शस्य बाँधों भू-वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवकगण!
लोह संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित संपन्न क्षुधातुर नग्न भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म-वचन-मन-प्राण-समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!
नव स्वतंत्र भारत हो जगहित ज्योति-जागरण,
नवप्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण!
नव-जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव-मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न-समापन,
शांति-प्रीति-सुख का भू स्वर्ण उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जन-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण-दिवस, नव लोक जागरण,
नव संस्कृति आलोक करे जन भारत वितरण!
नव जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन

माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाएं

माखनलाल चतुर्वेदी (१८८९-१९६८)

मध्य प्रदेश के ख्यातिप्राप्त कवि लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ पूरे भारत में लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे।

प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ ज़ोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिए उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा। वे सच्चे देशप्रमी थे और १९२१-२२ के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए।

हिमकिरीटिनी, हिमतरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूँजे धरा आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं। कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पाँव, अमीर इरादे :गरीब इरादे आदि आपकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं। आपकी कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी सुंदर चित्रण हुआ है।

भोपाल का पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया है। उनके काव्य संग्रह 'हिमतरंगिणी' के लिए उन्हें १९५५ में हिन्दी के 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।

 
 
'पहचान तुम्हारी'

कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

पथरा चलीं पुतलियाँ मैंने विविध धुनों में कितना गाया
दायें बायें ऊपर नीचे दूर पास तुमको कब पाया
धन्य कुसुम पाषाणों पर ही तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों से प्रगट हुए सूरज के सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अतड़ियों में गरीब की कुम्हलाए स्वर बोल उठे से
काँच कलेजे में भी करूणा के डोरे से ही खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

प्रणय और पुरुषार्थ तुम्हारा मनमोहिनी धरा के बल है
दिवस रात्रि बीहड़ बस्ती सब तेरी ही छाया के छल हैं
प्राण कौन से स्वप्न दिख गए जो बलि के फूलों खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

 

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं सम्राटों के
शव पर हे हरि डाला जाऊँ
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इतराऊँ

मुझे तोड़ लेना बनमाली
उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक

 

वर्षा ने आज विदाई ली

वर्षा ने आज विदाई ली जाड़े ने कुछ अंगड़ाई ली
प्रकृति ने पावस बूँदो से रक्षण की नव भरपाई ली।

सूरज की किरणों के पथ से काले काले आवरण हटे
डूबे टीले महकन उठ्ठी दिन की रातों के चरण हटे।

पहले उदार थी गगन वृष्टि अब तो उदार हो उठे खेत
यह ऊग ऊग आई बहार वह लहराने लग गई रेत।

ऊपर से नीचे गिरने के दिन रात गए छवियाँ छायीं
नीचे से ऊपर उठने की हरियाली पुन: लौट आई।

अब पुन: बाँसुरी बजा उठे ब्रज के यमुना वाले कछार
धुल गए किनारे नदियों के धुल गए गगन में घन अपार।

अब सहज हो गए गति के वृत जाना नदियों के आर पार
अब खेतों के घर अन्नों की बंदनवारें हैं द्वार द्वार।

नालों नदियों सागरो सरों ने नभ से नीलांबर पाए
खेतों की मिटी कालिमा उठ वे हरे हरे सब हो आए।

मलयानिल खेल रही छवि से पंखिनियों ने कल गान किए
कलियाँ उठ आईं वृन्तों पर फूलों को नव मेहमान किए।

घिरने गिरने के तरल रहस्यों का सहसा अवसान हुआ
दाएँ बाएँ से उठी पवन उठते पौधों का मान हुआ।

आने लग गई धरा पर भी मौसमी हवा छवि प्यारी की
यादों में लौट रही निधियाँ मनमोहन कुंज विहारी की।

 

कैसा छंद   

कैसा छंद बना देती हैं
बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन
नभ की छवियाँ तारों वाली!

गोल-गोल रचती जाती हैं
बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,
हरी हरी-सी कर देता है
भूमि, श्याम को घना-घना कर।

मैं उसको पृथिवी से देखूँ
वह मुझको देखे अंबर से,
खंभे बना-बना डाले हैं
खड़े हुए हैं आठ पहर से।

सूरज अनदेखा लगता है
छवियाँ नव नभ में लग आतीं,
कितना स्वाद ढकेल रही हैं
ये बरसातें आतीं जातीं?

इनमें श्याम सलोना ढूँढ़ो
छुपा लिया है अपने उर में,
गरज, घुमड़, बरसन, बिजली-सी
फल उठी सारे अंबर में!

 

दीप से दीप जले

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

दुश्यन्त कुमार की रचनाएं...


कहाँ तो तय था
 
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए


 

कैसे मंज़र

 

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं

मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं

अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं

 

 

खंडहर बचे हुए हैं

 

खंडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हमपर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही

हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही

कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे
कुछ दुशमनों से वैसी अदावत नहीं रही

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही

सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी
गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही

 

 

 

जो शहतीर है

 

जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

 

 

 

ज़िंदगानी का कोई मक़सद

 

ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है

पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं है

इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है

 

 

 

आज सड़कों पर

 

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।

 

 

 

 

मत कहो

 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है

 

मुक्तक



संभल संभल के बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं
कदम कदम पे' मुझे टोकता है दिल ऐसे
गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं।



तरस रहा है मन फूलों की नयी गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुसकाने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किये हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।



गीत गाकर चेतना को वर दिया मैने
आँसुओं के दर्द को आदर दिया मैने
प्रीत मेरी आस्था की भूख थी, सहकर
ज़िन्दगी़ का चित्र पूरा कर दिया मैने।



जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे
नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने
अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे।

'प्रतीक्षित मन' - सौरभ कुणाल




आज न सही बेशक हो कल
जन्म दिवस का या हो शुभ पल
घड़ी सुबह की आ जाएगी
इत्मिनान का आगे बसेरा होगा
जन्मदिवस कल तेरा होगा।

तकलीफों से हटा हुआ मन
इम्तिहान से निखरा है तन
अंधकार की रात है बेशक
इसके बाद सवेरा होगा
जन्मदिवस कल तेरा होगा।

हल हो जाएगी हर मुश्किल
और कहेगा तेरा दिल
तूफानों को टक्कर देता
वो जलता दीपक मेरा होगा
जन्मदिवस कल मेरा होगा।

भूल जाना तुम हर बाधा
पूरा हो या हो आधा
इंतज़ार की घड़ी ख़त्म कर
ख़ुद के जन्म दिवस का पल
उस समय तुम शान से कहना
ये नया सवेरा मेरा है
जन्मदिवस आज मेरा है।।

'मैने कई बार जन्म लिया'- सौरभ कुणाल

'मैने कई बार जन्म लिया'
कभी मानव के रूप में
मिली अपूर्ण आकांक्षाएं।
ईर्ष्या, द्वेष, असत्य,
और अधूरी कामनाएं।
कभी धरती के रूप में
हल से विदीर्ण किया गया।
समय के कालचक्र से
जीर्ण किया गया।
दूसरों की इच्छा से
सपनों को ढालकर तोड़ा।
मौलिकता और लगाव को
अजनवी बनने के डर से छोड़ा।
क्षितिज तक ना पहुंचने की
कई बार निराशा सहा।
मौन रहा, पर
किसी से कुछ ना कहा।

कभी भ्रष्टाचार की
बेड़ियों में जकड़ा गया ।
भौतिकता की आग में
हृदय का सत्य झुलस गया।
पूंजीपतियों के शासन से
जब परिचित हुआ,
मजदूरों की आंखों में
रोटी के लिए तरसना देखा।
आंखों पर अनभिज्ञता की पट्टी बांध
न्याय की मूर्ति ने आज फिर,
अन्याय की विजय का बिगुल बजाया।
हिटलर-मुसोलिनी ने बंदूकें तान
निहत्थों पर झूठा शौर्य दिखाया।
कई बार गांधी का मरना देखा
सुखदेव, भगत सिंह, राजगुरू का
बलि चढ़ना देखा।
ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई के बीच भी
हर रोज सूरज का चमकना देखा।
एक विश्वास से कि
क्षणभंगुर आंधी-तूफान भी,
आशा का इंद्रधनुष लाएगी।
खुद की खुशी को नहीं
हाशिए के लोगों को
न्याय दिलाने के लिए
मैने कई बार जन्म लिया'।।
बारिश की बूंदों को
सीपियों में डाल
शांति का मोती बना सकूं।
पैरों तले रौंदे जाने वाले को
कंटीले गुलाब की
पंखुरियां दिखा सकूं।
उनसे कह सकूं कि
जीवन के भंवर में करना होगा
असंख्य संघर्षों का सामना।
इसलिए, आत्मीयता की दूरी में
खुद को तुम थामना।
उन्हीं आदर्शों के साथ
मैने हर बार जीवन जिया
और बार-बार जन्म लिया।।

'अक्सर मौन रहता हूं'- सौरभ कुणाल

दुनिया की भीड़
उसमें घुली रगीनियां
इसकी विविधता को
देखता हूं, परखता हूं
पर अक्सर मौन रहता हूं।

शांत से चेहरे को
बड़े गौर से देखता हूं
अंदर की भावनाओं को
सोचता हूं, समझता हूं
पर अक्सर मौन रहता हूं।

दबे हुए जज्बातों को
मृतप्राय धड़कनों को,
कुरेदता हूं, पर
मन की खामोशी का
इलाज नहीं देखता हूं,
इसीलिए मौन रहता हूं।।

'मनोविकार'- सौरभ कुणाल



'लोहा लोहे को काटता है'
किताब के पन्ने पर
छपा देखा था
वो भी मोटे अक्षरों में,
पर इंसान भी तो
आज ही काटे जा रहे हैं।
बेसक काटने का काम
आज भी लोहा ही कर रहा है
पर क्या ! लोहा ही
कर रहा है यह काम ?
काटता तो इंसान है
कटता भी इंसान ही है
लोहा तो बस एक ज़रिया है,
ये भेदभाव नहीं करता
एक तरह से है सबको काटता
निर्जीव को, सजीव को
या फिर इंसानों को भी,
भेदभाव तो इंसान करते हैं।
लोहे पर चढ़ी धार
काटने को ही बना
लोहा तो बस
अपना काम है कर रहा।
किसी की कैद में है वो
फिर उसे वो सब कुछ
करना ही पड़ेगा
जो चाहता है उसका मालिक
क्योंकि, वो गुलाम है ।
वो तो इंसान पर है
दे उसे कोई भी आकार
और कैसा भी काम ले
उस पर दिखाकर
अपना मनोविकार।।