सुमित्रानंदन पंत
१९००–१९७७
सुमित्रानंदन पंत ने अपने जीवन काल में अठ्ठाइस प्रकाशित पुस्तकों की रचना की जिनमें कविताएँ, पद्य-नाटक और निबंध सम्मिलित हैं। हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण (१९६१), ज्ञानपीठ(१९६८), साहित्य अकादमी तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से प्रतिष्ठित किया गया। उनका रचा हुआ संपूर्ण साहित्य सत्यम शिवम सुंदरम के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। आपकी प्रारंभिक कविताओं मे प्रकृति एवं सौन्दर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं, फिर छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं एवं कोमल भावनाओं के और इसके बाद प्रगतिवाद की विचारशीलता के। अंत में अरविंद दर्शन से प्रभावित मानव कल्याण संबंधी विचार धारा को आपके काव्य में स्थान मिला। अल्मोड़ा जिले के कौसानी ग्राम की मनोरम घाटियों में जन्म लेने वाले सौंदर्यवादी श्री सुमित्रानंदन पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किन्तु उनकी सबसे कलात्मक कविताएँ पल्लव में संकलित हैं जो १९१८ से १९२५ तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है। आधी शताब्दी से भी लम्बे आपके रचना-कर्म में आधुनिक हिन्दी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है। |
गंगा
अब आधा जल निश्चल, पीला, -
आधा जल चंचल औ', नीला -
गीले तन पर मृदु संध्यातप
सिमटा रेशम पट-सा ढीला!
ऐसे सोने के साँझ प्रात,
ऐसे चाँदी के दिवस रात,
ले जाती बहा कहाँ गंगा
जीवन के युग-क्षण - किसे ज्ञात!
विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
किरणोज्ज्वल चल कल उर्मि निरत,
यमुना गोमती आदी से मिल
होती यह सागर में परिणत।
यह भौगोलिक गंगा परिचित,
जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
इस जड़ गंगा से मिली हुई
जन गंगा एक और जीवित!
वह विष्णुपदी, शिवमौलि स्रुता,
वह भीष्म प्रसू औ' जह्न सुता,
वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।
वह गंगा, यह केवल छाया,
वह लोक चेतना, यह माया,
वह आत्मवाहिनी ज्योति सरी,
यह भू पतिता, कंचुक काया।
वह गंगा जन मन से नि:सृत,
जिसमें बहु बुदबुद युग निर्तित,
वह आज तरंगित संसृति के
मृत सैकत को करने प्लावित।
दिशि दिशि का जन मन वाहित कर,
वह बनी अकूल अतल सागर,
भर देगी दिशि पल पुलिनों में
वह नव नव जीवन की मृदु उर्वर!
अब नभ पर रेखा शशि शोभित
गंगा का जल श्यामल कंपित,
लहरों पर चाँदी की किरणें
करती प्रकाशमय कुछ अंकित!
तप रे मधुर-मधुर मन! विश्व वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल तप रे विधुर-विधुर मन! अपने सजल-स्वर्ण से पावन रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम, स्थापित कर जग में अपनापन, ढल रे ढल आतुर मन! तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन गंध-हीन तू गंध-युक्त बन निज अरूप में भर-स्वरूप, मन, मूर्तिमान बन, निर्धन! गल रे गल निष्ठुर मन! आते कैसे सूने पल जीवन में ये सूने पल? जब लगता सब विशृंखल, तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल! खो देती उर की वीणा झंकार मधुर जीवन की, बस साँसों के तारों में सोती स्मृति सूनेपन की! बह जाता बहने का सुख, लहरों का कलरव, नर्तन, बढ़ने की अति-इच्छा में जाता जीवन से जीवन! आत्मा है सरिता के भी जिससे सरिता है सरिता; जल-जल है, लहर-लहर रे, गति-गति सृति-सृति चिर भरिता! क्या यह जीवन? सागर में जल भार मुखर भर देना! कुसुमित पुलिनों की कीड़ा- ब्रीड़ा से तनिक ने लेना! सागर संगम में है सुख, जीवन की गति में भी लय, मेरे क्षण-क्षण के लघु कण जीवन लय से हों मधुमय |
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! हे स्त्रस्त ध्वस्त! हे शुष्क शीर्ण! हिम ताप पीत, मधुमात भीत, तुम वीतराग, जड़, पुराचीन!! निष्प्राण विगत युग! मृत विहंग! जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल जाल जग में फैले फिर नवल रुधिर,-पल्लव लाली! प्राणों की मर्मर से मुखरित जीव की मांसल हरियाली! मंजरित विश्व में यौवन के जगकर जग का पिक, मतवाली निज अमर प्रणय स्वर मदिरा से भर दे फिर नव-युग की प्याली! |
मैं नहीं चाहता चिर सुख मैं नहीं चाहता चिर दुख, सुख-दुख के मधुर मिलन से जग पीड़ित है अति दुख से अविरत दुख है उत्पीड़न, यह साँझ-उषा का आँगन, |
| मोह छोड़ द्रुमों की मृदु छाया तोड़ प्रकृति से भी माया बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस जग को! तज कर तरल तरंगों को इन्द्रधनुष के रंगों को तेरे भ्रूभंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन? भूल अभी से इस जग को! कोयल का वह कोमल बोल मधुकर की वीणा अनमोल कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ सजनि श्रवण? भूल अभी से इस जग को! उषा सस्मित किसलय दल सुधा रश्मि से उतरा जल ना अधरामृत ही के मद में कैसे बहाला दूँ जीवन? भूल अभी से इस जग को!
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बाल प्रश्न माँ! अल्मोड़े में आए थे "कृष्ण! स्वामी जी तो दुर्गम |
15 अगस्त 1947
चिर प्रणम्य यह पुण्य अह्न जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!
नवभारत, फिर चीर युगों का तिमिर आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन!
शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!
आम्र मौर जाओ हे, कदली स्तंभ बनाओ,
पावन गंगा जल भर मंगल-कलश सजाओ!
नव अशोक पल्लव के बंदनवार बँधाओ,
जय भारत गाओ, स्वतंत्र जय भारत गाओ!
उन्नत लगता चंद्रकला-स्मित आज हिमाचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शंभु तपोज्ज्वल!
लहर-लहर पर इंद्रधनुष-ध्वज फहरा चंचल
जय-निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल!
धन्य आज का मुक्ति-दिवस, गाओ जन-मंगल,
भारत-लक्ष्मी से शोभित फिर भारत-शतदल!
तुमुल जयध्वनि करो, महात्मा गांधी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय!
राष्ट्रनायकों का हे पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन!
स्वर्ण शस्य बाँधों भू-वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवकगण!
लोह संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित संपन्न क्षुधातुर नग्न भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म-वचन-मन-प्राण-समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!
नव स्वतंत्र भारत हो जगहित ज्योति-जागरण,
नवप्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण!
नव-जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव-मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न-समापन,
शांति-प्रीति-सुख का भू स्वर्ण उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जन-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण-दिवस, नव लोक जागरण,
नव संस्कृति आलोक करे जन भारत वितरण!
नव जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन