सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

जीवन साथी से

धूप में बारिश होते देख के
हैरत करने वाले
शायद तूने मेरी हँसी को
छूकर
कभी नहीं देखा

वर्किंग वूमन

सब कहते हैं
कैसे गुरुर की बात हुई है
मैं अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरे अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शिगुफ़े पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर क़र्ज़ नहीं है
मैं जब चाहूँ खिल सकती हूँ
मेरे सारा रूप मिरी अपनी दरयाफ्त है
मैं अब हर मौसम से सर ऊँचा करके मिल सकती हूँ
एक तनवर पेड़ हूँ अब मैं
और अपनी ज़रखेज़ नुमू के सारे इम्कानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी बेल
कभी-कभी जब तेज़ हवा हो
किसी बहुत मज़बूत शजर के तन से लिपटना चाहती हैं

बुलावा

मैंने सारी उम्र
किसी मंदिर में क़दम नहीं रक्खा
लेकिन जब से
तेरी दुआ में
मेरा नाम शरीक हुआ है
तेरे होंठो की जुम्बिश पर
मेरे अन्दर की दासी के उजले तन में
घंटियाँ बजती रहती हैं

गूंज

ऊँचे पहाड़ों में गुल होती पगडंडियों पर
खड़ा हुआ नन्हा चरवाहा
बकरी के बच्चे को फिसलते देख के
कुछ इस तरह हँसा है
वादी की हर दर्ज़ से झरने फूट रहे हैं

इस्म

बहुत प्यार से
बाद मुद्दत के
जब से किसी शख़्स ने चाँद कहकर बुलाया है
तब से
अंधेरों की खूगर निगाहों को
हर रोशनी अच्छी लगने लगी है

नहीं मेरा आँचल मैला है

नहीं मेरा आँचल मैला है
और तेरी दस्तार के सरे पेच अभी तक तीखे हैं
किसी हवा ने उनको अब तक छूने की जुर्रत नहीं की है
तेरी उजली परेशानी पर
गए दिनों की कोई घड़ी
पछतावा बनके नहीं फूटी
और मेरे माथे की स्याही
तुझ से आँख मिलाकर बात नहीं कर सकती
अच्छे लड़के
मुझे न ऐसे देखे
अपने सारे जुगनू सारे फूल
सँभाल के रख ले
फटे हुए आँचल से फूल गिर जाते हैं
और जुगनू
पहला मौका पाते ही उड़ जाते हैं
चाहे ओढ़नी से बाहर की धूप कितनी ही कड़ी हो

नई आँख पुराना ख़्वाब

आतिशदान के पास
गुलाबी हिद्दत के होले में सिमटकर
तुमसे बातें करते हुए
कभी कभी तो ऐसा लगा है
जैसे ओस में भीगी घास पे
उसके बाजू थामे हुए
मैं फिर नींद में चलने लगी हूँ

एक मुश्किल

टाट के परदों के पीछे से
एक तरह बारह-तेरह साला चेहरा झाँका
वो चेहरा
बहार के फूल की तरह शफ़्फ़ाफ़
लेकिन उसके हाथ में
तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं
और उन लकीरों में
बर्तन मांझने वाली राख जमी थी
उसके हाथ
उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे

ऐ रे पेड़ तेरे कितने पात

ऐ रे पेड़ तेरे कितने पात
इतने
जितने गगन में तारे
या जितने वन में फूल
जितनी सागर की लहरें
जितनी मेरी माँग में धूल
तेरी सुंदर हरियाली का और न छोर कोई
जग की धूप तेरी छाया से छोटी है
मैं तेरे साए में जैसे जैसे सिमटती जाऊँ
अपने दुखते माथे जलती आत्मा पर से शबनम चुनती जाऊँ
ऐ रे पेड़ तेरे कितने हात

तू है राधा अपने कृष्ण की

तू है राधा अपने कृष्ण की
तिरा कोई भी होता नाम
मुरली तिरे भीतर बजती
किस वन करती विश्राम
या कोई सिंहासन विराजती
तुझे खोज ही लेते श्याम
जिस संग भी फेरे डालती
संजोग में थे घनश्याम
क्या मोल तू मन का माँगती
बिकना था तुझे बेदाम
बंसी की मधुर तानों से
बसना था ये सूना धाम
तिरा रंग भी कौन सा अपना
मोहन का भी एक ही काम
गिरधर आके भी गए और
मन माला है वही नाम
जोगन का पता भी क्या हो
कब सुबह हुई कब शाम

निकनेम

तुम मुझको गुड़िया कहते हो
ठीक ही कहते हो
खेलने वाले हाथों को मैं गुड़िया ही लगती हूँ
जो पहना दो मुझ पे सजेगा
मेरा कोई रंग नहीं
जिस बच्चे के हाथ थमा दो
मेरे किसी से जंग नहीं
सोचती जागती आँखें मेरी
जब चाहे बीनाई ले लो
कूक भरो और बातें सुन लो
या मेरी गोयाई ले लो
मांग भरो सिन्दूर लगाओ
प्यार करो आँखों में बसाओ
और फिर जब दिल भर जाए तो
दिल से उठा के ताक़ पे रख दो
तुम मुझको गुड़िया कहते हो
ठीक ही कहते हो

चीड़ के मग़रूर पेड़

चीड़ के मग़रूर पेड़
जिनकी आँखें
अपनी क़ामत के नशे में सिर्फ़ ऊपर देखती हैं
अपनी गर्दन के तनाव को कभी तो कम करें
और नीचे देखें
वो घने बादल जो उनके पाँव को छूकर गुज़र जाते हैं
जिनको चूम सकते हैं
वो पौधे
प्यार के इस वालिहाना लम्स से कैसे निखर आए

सुबह

सुबह ए विसाल की पौ फटती है
चारों ओर
मदमाती भोर की नीली हुई ठंडक फैल रही है
शगुन का पहला परिंदा
मुंडेर पर आकर
अभी-अभी बैठा है
सब्ज़ किवाड़ों के पीछे एक सुर्ख़ कली मुस्काई
पाज़ेबों की गूंज फज़ा में लहराई
कच्चे रंगों की साड़ी में
गीले बाल छुपाए गोरी
घर सा सारा बाजरा आँगन में ले आई

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की

हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया

हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उसने भी भूल जाने का वादा नहीं किया

दुःख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम
मलाबूसे-दिल को तन का लाबादा नहीं किया

जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उसका ख़ुद
सर-ज़ेर-बारे-सागरो-बादा नहीं किया

कारे-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उसने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया

आमद पे तेरे इतरो-चरागो-सुबू न हो
इतना भी बूदो-बाश तो सादा नहीं किया

सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ

सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ



भोर समय तक जिसने हमें बाहम उलझाये रखा
वो अलबेली रेशम जैसी बात गुज़र गई जानाँ



सदा की देखी रात हमें इस बार मिली तो चुप के से
ख़ाली हाथ पे रख के क्या सौग़ात गुज़र गई जानाँ



किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सर-सब्ज़ हो तुम
अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गई जानाँ



लोग न जाने किन रातों की मुरादें माँगा करते हैं
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानाँ

सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक

सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक



बाज़ूओं के सख्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिल्वटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ



गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़ छाड़



सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक



शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी एक सदा



काँपते होंठों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ एक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जायें ठहर जायें ज़रा

शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले

शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले



रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले



वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले



इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले



धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले

वो तो ख़ुशबू है

वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा



हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा



वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा



वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा



आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा

वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी

वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
जो तेरे बगैर कट रही थी

उसको जब पहली बार देखा
मैं तो हैरान रह गयी थी

वो चश्म थी सहरकार बेहद
और मुझपे तिलस्म कर रही थी

लौटा है वो पिछले मौसमों को
मुझमें किसी रंग की कमी थी

सहरा की तरह थीं ख़ुश्क आंखें
बारिश कहीं दिल में हो रही थी

आंसू मेरे चूमता था कोई
दुख का हासिल यही घड़ी थी

सुनती हूं कि मेरे तज़किरे पर
हल्की-सी उस आंख में नमी थी

ग़ुरबत के बहुत कड़े दिनों में
उस दिल ने मुझे पनाह दी थी

सब गिर्द थे उसके और हमने
बस दूर से इक निगाह की थी

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था

और चांद तुलूअ हो रहा था

ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी

ख़ुशबू सांसों में घुल रही थी

आई थी मैं अपने पी से मिलने

जैसे कोई गुल हवा में खिलने

इक उम्र के बाद हंसी थी

ख़ुद पर कितनी तवज्ज: दी थी


पहना गहरा बसंती जोड़ा

और इत्रे-सुहाग में बसाया

आइने में ख़ुद को फिर कई बार

उसकी नज़रों से मैंने देखा

संदल से चमक रहा था माथा

चंदन से बदन दमक रहा था

होंठों पर बहुत शरीर लाली

गालों पे गुलाल खेलता था

बालों में पिरोए इतने मोती

तारों का गुमान हो रहा था

अफ़्शां की लकीर मांग में थी

काजल आंखों में हंस रहा था

कानों में मचल रही थी बाली

बाहों में लिपट रहा था गजरा

और सारे बदन से फूटता था

उसके लिए गीत जो लिखा था

हाथों में लिए दिये की थाली

उसके क़दमों में जाके बैठी

आई थी कि आरती उतारूं

सारे जीवन को दान कर दूं


देखा मेरे देवता ने मुझको

बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया

फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ

रखा भी तो इक दिया उठाया

और मेरी तमाम ज़िन्दगी से

मांगी भी तो इक शाम मांगी

रुकने का समय गुज़र गया है

रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है



रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है



मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है



बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है



बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है

आसमान का वह हिस्सा

आसमान का वह हिस्सा

जिसे हम अपने घर की खिड़की से देखते हैं

कितना दिलकश होता है

ज़िन्दगी पर यह खिड़की भर तसर्रूफ़

अपने अंदर कैसी विलायत रखता है

इसका अंदाज़ा

तुझसे बढ़कर किसे होगा

जिसके सर पर सारी ज़िन्दगी छत नहीं पड़ी

जिसने बारिश सदा अपने हाथों पर रोकी

और धूप में कभी दीवार उधार नहीं मांगी

और बर्फ़ों में

बस इक अलाव रौशन रखा

अपने दिल का

और कैसा दिल

जिसने एक बार किसी से मौहब्बत की

और फिर किसी और जानिब भूले से नहीं देखा

मिट्टी से इक अह्द किया

और आतिशो-आबो-बाद का चेहरा भूल गया

एक अकेले ख़्वाब की ख़ातिर

सारी उम्र की नींदें गिरवी रख दी हैं

धरती से इक वादा किया

और हस्ती भूल गया

अर्ज़्रे वतन की खोज में ऎसे निकला

दिल की बस्ती भूल गया

और उस भूल पे

सारे ख़ज़ानों जैसे हाफ़िज़े वारे

ऎसी बेघरी, इस बेचादरी के आगे

सारे जग की मिल्कियत भी थोड़ी है

आसमान की नीलाहट भी मैली है

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से



बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे



इस बार जो इंधन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से



मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से



ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से



बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से



पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से



निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से

मंज़र है वही ठठक रही हूँ

मंज़र है वही ठठक रही हूँ
हैरत से पलक झपक रही हूँ



ये तू है के मेरा वहम है
बंद आँखों से तुझ को तक रही हूँ



जैसे के कभी न था तार्रुफ़
यूँ मिलते हुए झिझक रही हूँ



पहचान मैं तेरी रोशनी हूँ
और तेरी पलक पलक रही हूँ



क्या चैन मिला है सर जो उस के
शानों पे रखे सिसक रही हूँ



इक उम्र हुई है ख़ुद से लड़ते
अंदर से तमाम थक रही हूँ

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !

उसे बुला जिसकी चाहत में

तेरा तन-मन भीगा है

प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !

और जब इस बारिश के बाद

हिज्र की पहली धूप खिलेगी

तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये



बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये



जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये



लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये



सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये



जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये



साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो



खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो



उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो



अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो



दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो



रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना



यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना



किस शबाहत को लिये आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना



आईने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिये
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना

बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर

बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को हैफिर

हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया
सरें-मिज़गां गुलाब आने को है फिर

अचानक रेत सोना बन गयी है
कहीं आगे सुराब आने को है फिर

ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर

बशारत दे कोई तो आसमाँ से
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर

दरीचे मैंने भी वा कर लिये हैं
कहीं वो माहताब आने को है फिर

जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़ हो इज़ाफ़ी
मुहब्बत में वो बाब आने को है फिर

घरों पर जब्रिया होगी सफ़ेदी
कोई इज़्ज़्त-म-आब आने को है फिर

पा-बा-गिल सब हें

पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शह'र में खोले मेरी ज़जीर कौन



मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
कर रहा है मेरे फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन



मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
बे-रिदा'ई को मेरी फिर दे गया तश-हीर कौन



नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन



रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
फिर लब-ए-साहिल घरोंदा कर गया तामीर कौन



सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
शह'र से जाते हु'ए होता है दामन-गीर कौन



दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी अज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझपे पेहला तीर कौन

दुआ

चांदनी

उस दरीचे को छूकर

मेरे नीम रोशन झरोखे में आए, न आए,

मगर

मेरी पलकों की तकदीर से नींद चुनती रहे

और उस आँख के ख़्वाब बुनती रहे।

दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना

दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
मुस्कुराते हुए रुखसत करना



अच्छी आँखें जो मिली हैं उसको
कुछ तो लाजिम हुआ वहशत करना



जुर्म किसका था, सज़ा किसको मिली
अब किसी से ना मोहब्बत करना



घर का दरवाज़ा खुला रखा है
वक़्त मिल जाये तो ज़ह्मत करना

दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना

दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना



वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुरसत
उस से क्या कहिये जो हर रोज़ कहे कल मिलना



इश्क़ की राह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम
दश्त-ए-उम्मीद में अन्देशे का बादल मिलना



दामने-शब को अगर चाक भी कर लें तो कहाँ
नूर में डूबा हुआ सुबह का आँचल मिलना

दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी

दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
सिलवटें रोशनी में उभरेंगी



घर की दीवारें मेरे जाने पर
अपनी तन्हाइयों को सोचेंगी



उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उस का नाम लिखेंगी



रंग-ओ-बू से कहीं पनाह नहीं
ख़्वाहिशें भी कहाँ अमाँ देंगी



एक ख़ुश्बू से बच भी जाऊँ अगर
दूसरी निकहतें जकड़ लेंगी



खिड़कियों पर दबीज़ पर्दे हों
बारिशें फिर भी दस्तकें देंगी

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है



शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है



दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है



ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है



उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का एहवाल कहा करती है



बेनियाज़-ए-काफ़-ए-दरिया अन्गुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है



शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है



मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अन करती है



दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है



अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है



मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है

तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ

तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ

बचपने का साथ, फिर एक से दोनों के दुख
रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ-साथ

वो अज़ब दुनिया कि सब खंज़र-ब-कफ़ फिरते हैं और
काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ

बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूँ, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ

लड़कियों के दुख अज़ब होते हैं, सुख उससे अज़ीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ

बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
ज़िस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ

मैं कहां पर हूं ?

तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहां पर हूं ?


हवाए-सुबह में

या शाम के पहले सितारे में

झिझकती बूंदा-बांदी में

कि बेहद तेज़ बारिश में

रुपहली चांदनी में

या कि फिर तपती दुपहरी में

बहुत गहरे ख़यालों में

कि बेहद सरसरी धुन में


तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहां पर हूं ?


हुजूमे-कार से घबरा के

साहिल के किनारे पर

किसी वीक-येण्ड का वक़्फ़ा

कि सिगरेट के तसलसुल में

तुम्हारी उंगलियों के बीच

आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत

कि जामे-सुर्ख़ में

यकसर तही

और फिर से

भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा

कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने

और दूसरा आग़ाज़ होने के

कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत ?


तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहां पर हूं ?

तुझसे तो कोई गिला नहीं है

तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है

बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है

जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है

जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है

ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है

सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है

इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा




इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश

फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा




यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं

जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा




काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली

तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा




किस तर्ह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर

वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या

टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या

बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या


तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो

कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या


औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ

मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या


अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़

सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या


ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू

तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या


तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए

तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या ।

जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे

जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे



रास्तों का इल्म था हम को न सिम्तों की ख़बर
शहर-ए-नामालूम की चाहत मगर करते रहे



हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की ख़बर दर-ओ-दिवार करते रहे



वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे



आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल
जिन को तेरे ज़ौम में बे-बाल-ओ-पर करते रहे

छोटी नज़्म

मौसम


चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है


फ़ोन


मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी


बारिश


बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।