मेरे दिल की ख़ौफ़-हिकायत में
यह बात कहीं पर दर्ज करो
मुझे अपनी सदा सुनने की सज़ा
लम्बी चुप की सूरत में
मेरे बोलने में जो लुकनत है
इस लम्बी चुप का नतीजा है।
शब्दार्थ :
लुकनत=तुतलाहट
शुक्रवार, मई 29, 2009
लम्बी चुप का नतीजा
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं
बर्फ़ की उजली पोशाक पहने हुए
इन पहाड़ों में वह ढूंढ़ना है मुझे
जिसका मैं मुन्तज़िर एक मुद्दत से हूँ
ऎसा लगता है, ऎसा हुआ तो नहीं
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं।
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
धूल में लिपटे चेहरे वाला
मेरा साया
किस मंज़िल, किस मोड़ पर बिछड़ा
ओस में भीगी यह पगडंडी
आगे जाकर मुड़ जाती है
कतबों की ख़ुशबू आती है
घर वापस जाने की ख़्वाहिश
दिल में पहले कब आती है
इस लम्हे की रंग-बिरंगी सब तस्वीरें
पहली बारिश में धुल जाएँ
मेरी आँखों में लम्बी रातें घुल जाएँ।
नींद से आगे की मंज़िल
ख़्वाब कब टूटते हैं
आँखें किसी ख़ौफ़ की तारीकी से
क्यों चमक उठती हैं
दिल की धड़कन में तसलसुल बाक़ी नहीं रहता
ऎसी बातों को समझना नहीं आसान कोई
नींद से आगे की मंज़िल नहीं देखी तुमने।
बदन के आस-पास
लबों पे रेत हाथों में गुलाब
और कानों में किसी नदी की काँपती सदा
ये सारी अजनबी फ़िज़ा
मेरे बदन के आस-पास आज कौन है।
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है क्या होना था, क्या हो गया मैं।
दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे
याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं।
कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का
दूर से आती हुई ऎसी सदा हो गया मैं।
क्या सबब इसका था, ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं
रात ख़ुश आ गई, और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं।
भूले-बिसरे हुए लोगों में कशिश अब भी है
उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं।
शब्दार्थ :
वा=खुला
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
इस सच का एतराफ़ ज़माने को कब से है।
फिर लोग क्यों हमारा कहा मानते नहीं
सूरज को ख़ौफ़-सायए-दीवारे-शब से है।
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
कि फिर बंजर ज़मीं में बीज कोई बोने वाला है।
बहादुर लोग नादिम हो रहे हैं हैरती में हूँ
अजब दहशत-ख़बर है शहर खाली होने वाला है।
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
ज़मीं पर पैरहन पहने बिना महताब आया है।
बना सकता है तुममें कोई काग़ज़-नाव बतलाओ
सुना है शहर में, ऎ शहरियो सैलाब आया है।
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ
फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया,
हमने कोई भी काम दोबारा नहीं किया।
अच्छा है कोई पूछने वाला नहीं है यह
दुनिया ने क्यों ख़याल हमारा नहीं किया।
जीने की लत पड़ी नहीं शायद इसीलिए
झूठी तसल्लियों पे गुज़ारा नहीं किया।
यह सच अगर नहीं तो बहुत झूठ भी नहीं
तुझको भुला के कोई ख़सारा नहीं किया।
शब्दार्थ :
ख़सारा= नुक़सान
इसे गुनाह कहें या सवाब का काम
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम
हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम
हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम
वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम
फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम
सराब = मरीचिका
जाविए = कोण
नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान
हिजाब = पर्दा
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
सुना उन से कोई प्यासा नहीं है।
दिया लेकर वहाँ हम जा रहे हैं
जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है।
न जाने क्यों हमें लगता है ऎसा
ज़मीं पर आसमाँ साया नहीं है।
थकन महसूस हो रुक जाना चाहें
सफ़र में मोड़ वह आया नहीं है।
चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ
कि मुद्दत से उसे देखा नहीं है।
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
सभी की राय है, वह शख़्स मेरे जैसा है।
बुलावे आते हैं कितने दिनों से सहरा के
मैं कल ये लोगों से पूछूंगा किस को जाना है।
कभी ख़याल ये आता है खेल ख़त्म हुआ
कभी गुमान गुज़रता है एक वक़्फ़ा है।
सुना है तर्के-जुनूँ तक पहुँच गए हैं लोग
ये काम अच्छा नहीं पर मआल अच्छा है।
ये चल-चलावे के लम्हे हैं, अब तो सच बोलो
जहाँ ने तुम को कि तुम ने जहाँ को बदला है।
पलट के पीछे नहीं देखता हूँ ख़ौफ़ से मैं
कि संग होते हुए दोस्तों को देखा है।
शब्दार्थ :
मआल=नतीजा या परिणाम; संग=पत्थर
बुरा अब हो गया अच्छा कैसे
जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे
वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।
जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें
बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।
कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता
प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।
हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है
मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।
बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई
दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।
ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो
ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।
कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार
फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।
चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी
ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है।
दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें
इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है।
कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना
शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है।
शब्दार्थ :
क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी; सैरे-मकानी=दुनिया की सैर;
ख़ाइफ़=डरा हुआ;अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम; मआनी=अर्थ
दिल में तूफ़ान है
दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है
ज़िन्दगी हमने मगर हार नहीं मानी है।
ग़मज़दा वो भी हैं दुश्वार है मरना जिन को
वो भी शाकी हैं जिन्हें जीने की आसानी है।
दूर तक रेत का तपता हुआ सहरा था जहाँ
प्यास का किसकी करश्मा है वहाँ पानी है।
जुस्तजू तेरे अलावा भी किसी की है हमें
जैसे दुनिया में कहीं कोई तेरा सानी है।
इस नतीजे पर पहुँचते हैं सभी आख़िर में
हासिले-सैरे-जहाँ कुछ नहीं हैरानी है।
शब्दार्थ :
शाकी= शिकायत करने वाला; सानी=बराबर
मुग़्नी तबस्सुम के लिए
ऎ अज़ीज़ अज़ जान मुग़्नी
तेरी परछाई हूँ लेकिन कितना इतराता हूँ मैं
आज़मी का मरना
नज्मा का बिछड़ना
तेरे बल-बूते पर यह सब सह गया
भूल कर भी यह ख़याल आया नहीं मुझको
कि तन्हा रह गया
तेरी उल्फ़त में अजब जादू-असर है
तेरी परछाईं रहूँ जब तक जियूँ
यह चाहता हूँ
ऎ ख़ुदा!
छोटी-सी कितनी बेज़रर यह आरज़ू है
आरज़ू यह मैंने की है
इस भरोसे पर कि तू है।
आज़मी= ख़लीलुर्रहमान आज़मी (कवि के दोस्त);
नज्मा= कवि की पत्नी; बेज़रर= हानि न पहुँचाने वाली
ख़्वाब का दर बंद है.
मेरे लिए रात ने
आज फ़राहम किया
एक नया मर्हला
नींदों ने ख़ाली किया
अश्कों से फ़िर भर दिया
कासा मेरी आँख का
और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से
तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए
तुमको रिहा कर दिया
जाओ जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख़्वाब का दर बंद है
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
केहती है तुझको खल्क़-ए-खुदा ग़ाएबाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या
ज़ेरे ज़मीं से आता है गुल हर सू ज़र-ए-बकफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया खज़ाना क्या
चारों तरफ़ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना खाना क्या
तिब्ल-ओ-अलम न पास है अपने न मुल्क-ओ-माल
हम से खिलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह मेरी क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़ेगा उड़ेगा निशाना क्या?
बेताब है कमाल हमारा दिल-ए-अज़ीम
महमाँ साराय-ए-जिस्म का होगा रवना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तू न दे
आतिश ग़ज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या?
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते
मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते
जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-"आतिश"
बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते
यार को मैंने मुझे यार ने सोने न दिया
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि'-ए-बेदार ने सोने न दिया
एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया
रात भर की दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
मुझ को इस इश्क़ के बीमार ने सोने न दिया
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ तो क्या मालूम हो
आदमी को किस तरह अपनी कज़ा मालूम हो
आशिक़ों से पूछिये खूबी लबे-जाँबख्श की
जौहरी को क़द्रे-लाले-बेबहा मालूम हो
दाम में लाया है "आतिश" सब्जये-ख़ते-बुतां
सच है क्या इंसा को किस्मत का लिखा मालूम हो
तड़पते हैं न रोते हैं
तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं
सनम की याद में हर-दम ख़ुदा को याद करते हैं
उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या क्या साँप लहराते हैं सीने पर
तुम्हारी काकुल-ए-पेचाँ को जब हम याद करते हैं
हमारे दरमियाँ
हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की
हमने ही लौटने का
हमने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उसने भी भूल जाने का वादा नहीं किया
दुःख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम
मलाबूसे-दिल को तन का लाबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उसका ख़ुद
सर-ज़ेर-बारे-सागरो-बादा नहीं किया
कारे-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उसने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरे इतरो-चरागो-सुबू न हो
इतना भी बूदो-बाश तो सादा नहीं किया
सुंदर कोमल सपनों की बारात
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ
भोर समय तक जिसने हमें बाहम उलझाये रखा
वो अलबेली रेशम जैसी बात गुज़र गई जानाँ
सदा की देखी रात हमें इस बार मिली तो चुप के से
ख़ाली हाथ पे रख के क्या सौग़ात गुज़र गई जानाँ
किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सर-सब्ज़ हो तुम
अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गई जानाँ
लोग न जाने किन रातों की मुरादें माँगा करते हैं
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानाँ
सब्ज़ मद्धम रोशनी में
सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक
बाज़ूओं के सख्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिल्वटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ
गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़ छाड़
सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक
शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी एक सदा
काँपते होंठों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ एक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जायें ठहर जायें ज़रा
शाम आयी तेरी यादों के
शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले
इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
सुबक-नाम = जिसका नाम न लिया जाये; तिहेदस्त= खाली हाथ
वो तो ख़ुशबू है
वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा
हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा
वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा
वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा
आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
जो तेरे बगैर कट रही थी
उसको जब पहली बार देखा
मैं तो हैरान रह गयी थी
वो चश्म थी सहरकार बेहद
और मुझपे तिलस्म कर रही थी
लौटा है वो पिछले मौसमों को
मुझमें किसी रंग की कमी थी
सहरा की तरह थीं ख़ुश्क आंखें
बारिश कहीं दिल में हो रही थी
आंसू मेरे चूमता था कोई
दुख का हासिल यही घड़ी थी
सुनती हूं कि मेरे तज़किरे पर
हल्की-सी उस आंख में नमी थी
ग़ुरबत के बहुत कड़े दिनों में
उस दिल ने मुझे पनाह दी थी
सब गिर्द थे उसके और हमने
बस दूर से इक निगाह की थी
गु़रबत=प्रवास
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
और चांद तुलूअ हो रहा था
ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी
ख़ुशबू सांसों में घुल रही थी
आई थी मैं अपने पी से मिलने
जैसे कोई गुल हवा में खिलने
इक उम्र के बाद हंसी थी
ख़ुद पर कितनी तवज्ज: दी थी
पहना गहरा बसंती जोड़ा
और इत्रे-सुहाग में बसाया
आइने में ख़ुद को फिर कई बार
उसकी नज़रों से मैंने देखा
संदल से चमक रहा था माथा
चंदन से बदन दमक रहा था
होंठों पर बहुत शरीर लाली
गालों पे गुलाल खेलता था
बालों में पिरोए इतने मोती
तारों का गुमान हो रहा था
अफ़्शां की लकीर मांग में थी
काजल आंखों में हंस रहा था
कानों में मचल रही थी बाली
बाहों में लिपट रहा था गजरा
और सारे बदन से फूटता था
उसके लिए गीत जो लिखा था
हाथों में लिए दिये की थाली
उसके क़दमों में जाके बैठी
आई थी कि आरती उतारूं
सारे जीवन को दान कर दूं
देखा मेरे देवता ने मुझको
बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया
फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ
रखा भी तो इक दिया उठाया
और मेरी तमाम ज़िन्दगी से
मांगी भी तो इक शाम मांगी
तुलूअ=उदय; शरीर= शरारती
रुकने का समय गुज़र गया है
रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है
रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है
मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है
बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है
बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है
यासिर अराफ़ात के लिए
आसमान का वह हिस्सा
जिसे हम अपने घर की खिड़की से देखते हैं
कितना दिलकश होता है
ज़िन्दगी पर यह खिड़की भर तसर्रूफ़
अपने अंदर कैसी विलायत रखता है
इसका अंदाज़ा
तुझसे बढ़कर किसे होगा
जिसके सर पर सारी ज़िन्दगी छत नहीं पड़ी
जिसने बारिश सदा अपने हाथों पर रोकी
और धूप में कभी दीवार उधार नहीं मांगी
और बर्फ़ों में
बस इक अलाव रौशन रखा
अपने दिल का
और कैसा दिल
जिसने एक बार किसी से मौहब्बत की
और फिर किसी और जानिब भूले से नहीं देखा
मिट्टी से इक अह्द किया
और आतिशो-आबो-बाद का चेहरा भूल गया
एक अकेले ख़्वाब की ख़ातिर
सारी उम्र की नींदें गिरवी रख दी हैं
धरती से इक वादा किया
और हस्ती भूल गया
अर्ज़्रे वतन की खोज में ऎसे निकला
दिल की बस्ती भूल गया
और उस भूल पे
सारे ख़ज़ानों जैसे हाफ़िज़े वारे
ऎसी बेघरी, इस बेचादरी के आगे
सारे जग की मिल्कियत भी थोड़ी है
आसमान की नीलाहट भी मैली है
तसर्रुफ़=रद्दोबदल या परिवर्तन; विलायत= विदेशीपन;
अह्द=वादा; आतिशो-आबो-बाद=आग,पानी और हवा;
अर्ज़्रे-वतन= देश का नक्शा; हाफ़िज़े= स्मृतियां
मुश्किल है अब शहर में
मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से
बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे
इस बार जो इंधन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से
मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से
बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से
पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से
निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
हैरत से पलक झपक रही हूँ
ये तू है के मेरा वहम है
बंद आँखों से तुझ को तक रही हूँ
जैसे के कभी न था तार्रुफ़
यूँ मिलते हुए झिझक रही हूँ
पहचान मैं तेरी रोशनी हूँ
और तेरी पलक पलक रही हूँ
क्या चैन मिला है सर जो उस के
शानों पे रखे सिसक रही हूँ
इक उम्र हुई है ख़ुद से लड़ते
अंदर से तमाम थक रही हूँ
बारिश
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
बारिश हुई तो
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये
बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये
सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये
जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये
साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये
बाद मुद्दत उसे देखा
बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो
बादबाँ खुलने से पहले का
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना
किस शबाहत को लिये आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना
आईने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिये
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को हैफिर
हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया
सरें-मिज़गां गुलाब आने को है फिर
अचानक रेत सोना बन गयी है
कहीं आगे सुराब आने को है फिर
ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर
बशारत दे कोई तो आसमाँ से
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर
दरीचे मैंने भी वा कर लिये हैं
कहीं वो माहताब आने को है फिर
जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़ हो इज़ाफ़ी
मुहब्बत में वो बाब आने को है फिर
घरों पर जब्रिया होगी सफ़ेदी
कोई इज़्ज़्त-म-आब आने को है फिर
मौजे-ख़्वाब=सपने की लहर; ज़ेरे-आब=पानी के नीचे; शाख़े-गिरिया=विलाप की डाली; सरें-मिज़गा=पलकों के ऊपर;
सुराब=मृग-म्ररीचिका; वा=खोलना; माहताब=चांद; हर्फ़े-तअल्लुक='सम्बन्ध'शब्द; इज़ाफ़ी=सम्बन्ध बढ़ाने वाला;
बाब=अध्याय; जब्रिया=जबरदस्ती; इज़्ज़त-म-आब= सम्मानित व्यक्ति
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
यही क्या कम है के निस्बतत मुझे इस खाक से है
ख़्वाब में भी तुझे भुलूँ तो रवा रख मुझसे
वो रवैया जो हवा का खस-ओ-खशाक से है
बज़्म-ए-अंजुम में कबा खाक की पहनी मैने
और मेरी सारी फजीलत इसी पोशाक से है
इतनी रौशन है तेरी सुबह के दिल कहता है
ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाम से है
हाथ तो काट दिये कूज़गरों के हमने
मौके की वही उम्मीद मगर चाक से है
प्यार
अब्र-ए-बहार ने
फूल का चेहरा
अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर
ऐसे चूमा
फूल के सारे दुख
ख़ुश्बू बन कर बह निकले हैं
पूरा दुख और आधा चांद
पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद
इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद
मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद
सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद
रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चांद
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाख़ों में
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाखों में
भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में
सबा तो क्या कि मुझे धूप तक जगा न सकी
कहां की नींद उतर आयी है इन आंखों में
कुछ इतनी तेज़ है सुर्ख़ी कि दिल धड़कता है
कुछ और रंग पसे-रंग है गुलाबों में
सुपुर्दगी का नशा टूटने नहीं पाता
अना समाई हुई है वफ़ा की बांहों में
बदन पर गिरती चली जा रही है ख़्वाब-सी बर्फ़
खुनक सपेदी घुली जा रही है सांसों में
सबा=सुबह की हवा; पसे-रंग=रंग के पीछे;
अना=अहम; सपेदी=सफ़ेदी
पा-बा-गिल सब हें
पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शह'र में खोले मेरी ज़जीर कौन
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
कर रहा है मेरे फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन
मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
बे-रिदा'ई को मेरी फिर दे गया तश-हीर कौन
नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन
रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
फिर लब-ए-साहिल घरोंदा कर गया तामीर कौन
सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
शह'र से जाते हु'ए होता है दामन-गीर कौन
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी अज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझपे पेहला तीर कौन
दुआ
चांदनी
उस दरीचे को छूकर
मेरे नीम रोशन झरोखे में आए, न आए,
मगर
मेरी पलकों की तकदीर से नींद चुनती रहे
और उस आँख के ख़्वाब बुनती रहे।
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
मुस्कुराते हुए रुखसत करना
अच्छी आँखें जो मिली हैं उसको
कुछ तो लाजिम हुआ वहशत करना
जुर्म किसका था, सज़ा किसको मिली
अब किसी से ना मोहब्बत करना
घर का दरवाज़ा खुला रखा है
वक़्त मिल जाये तो ज़ह्मत करना
दिल का क्या है वो तो चाहेगा
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना
वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुरसत
उस से क्या कहिये जो हर रोज़ कहे कल मिलना
इश्क़ की राह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम
दश्त-ए-उम्मीद में अन्देशे का बादल मिलना
दामने-शब को अगर चाक भी कर लें तो कहाँ
नूर में डूबा हुआ सुबह का आँचल मिलना
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
सिलवटें रोशनी में उभरेंगी
घर की दीवारें मेरे जाने पर
अपनी तन्हाइयों को सोचेंगी
उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उस का नाम लिखेंगी
रंग-ओ-बू से कहीं पनाह नहीं
ख़्वाहिशें भी कहाँ अमाँ देंगी
एक ख़ुश्बू से बच भी जाऊँ अगर
दूसरी निकहतें जकड़ लेंगी
खिड़कियों पर दबीज़ पर्दे हों
बारिशें फिर भी दस्तकें देंगी
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है
दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है
ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का एहवाल कहा करती है
बेनियाज़-ए-काफ़-ए-दरिया अन्गुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है
मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अन करती है
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है
अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
तुम्हारी ज़िन्दगी में
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
हवाए-सुबह में
या शाम के पहले सितारे में
झिझकती बूंदा-बांदी में
कि बेहद तेज़ बारिश में
रुपहली चांदनी में
या कि फिर तपती दुपहरी में
बहुत गहरे ख़यालों में
कि बेहद सरसरी धुन में
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
हुजूमे-कार से घबरा के
साहिल के किनारे पर
किसी वीक-येण्ड का वक़्फ़ा
कि सिगरेट के तसलसुल में
तुम्हारी उंगलियों के बीच
आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत
कि जामे-सुर्ख़ में
यकसर तही
और फिर से
भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा
कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने
और दूसरा आग़ाज़ होने के
कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत ?
तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहां पर हूं ?
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है
ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है
सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है
इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
गिला=शिकायत; सिला=सफलता; ज़ीस्त=जीवन;
मोतबर=विश्वसनीय; आबला=छाला
सरशारिए-रहबरी=नेतृत्व के पूर्ण हो जाने पर
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तर्ह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
टूटी है मेरी नींद
टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या
औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या
ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू
तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या ।
अब्र-ए-ग़ुरेज़-पा=भागते हुए बादल; उदू=दुश्मन; सिपर=ढाल; दश्त=जंगल
जुस्तजू खोये हुओं की
जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे
रास्तों का इल्म था हम को न सिम्तों की ख़बर
शहर-ए-नामालूम की चाहत मगर करते रहे
हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की ख़बर दर-ओ-दिवार करते रहे
वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल
जिन को तेरे ज़ौम में बे-बाल-ओ-पर करते रहे
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश
दाने तक जब पहुँची चिड़िया
जाल में थी
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया ।
छोटी नज़्म
मौसम
चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है
फ़ोन
मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी
बारिश
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामुशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की
ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की
फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की
नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की
दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की
चिड़िया
सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया !
तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में
पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है
तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ
सोच रही हूँ
सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं ?
गोदें फूलों वाली
आँखें फिर भी ख़ाली ।
चारासाजों की अज़ीयत
चारासाजों की अज़ीयत नहीं देखी जाती
तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती
देने वाले की मशीय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
मांगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
दिल बहल जाता है लेकिन तेरे दीवानों की
शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती
तमकनत से तुझे रुख़सत तो किया है लेकिन
हमसे उन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती
कौन उतरा है आफ़ाक़ की पिनाहाई में
आईनेख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती
गुमान
मैं कच्ची नींद में हूँ
और अपने नीमख़्वाबिदा तनफ़्फ़ुस में उतरती
चाँदनी की चाप सुनती हूँ
गुमाँ है
आज भी शायद
मेरे माथे पे तेरे लब
सितारे सबात करते हैं
खुलेगी इस नज़र पे
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
कोई ज़ंज़ीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता
बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि ठकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ है सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ, देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
मेरी शोलामिज़ाजी को वो जन्गल कैसे रास आये
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता
खुली आँखों में
खुली आँखों में सपना जागता है
वो सोया है के कुछ कुछ जागता है
तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा
के मेरे घर का कच्चा रास्ता है
ख़ुश्बू है वो तो
ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वजूद के अंदर उतर न जाये
ख़ुद फूल ने भी होंठ किये अपने नीम-वा
चोरी तमाम रंग की तितली के सर न जाये
इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाये
पलकों को उसकी अपने दुपट्टे से पोंछ दूँ
कल के सफ़र में आज की गर्द-ए-सफ़र न जाये
मैं किस के हाथ भेजूँ उसे आज की दुआ
क़ासिद हवा सितारा कोई उस के घर न जाये
कू-ब-कू फैल गई बात
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
कुछ फ़ैसला तो हो
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये
हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये
क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिये
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिये
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये
ब-तर्ज़-ए-दिगर= दूसरे आदमी की तरह;
रख़्त-ए-सफ़र= सफ़र का सामान;
अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम=घर की मुसीबत
कुछ तो हवा भी सर्द थी
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी
उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
कुछ ख़बर लायी तो है
कुछ ख़बर लायी तो है बादे-बहारी उसकी
शायद इस राह से गुज़रेगी सवारी उसकी
मेरा चेहरा है फ़क़त उसकी नज़र से रौशन
और बाक़ी जो है मज़मून-निगारी उसकी
आंख उठा कर जो रवादार न था देखने का
वही दिल करता है अब मिन्नतो-ज़ारी उसकी
रात में आंख में हैं हल्के गुलाबी डोरे
नींद से पलकें हुई जाती हैं भारी उसकी
उसके दरबार में हाज़िर हुआ यह दिल और फिर
देखने वाली थी कुछ कारगुज़ारी उसकी
आज तो उस पे ठहरती ही न थी आंख ज़रा
उसके जाते ही नज़र मैंने उतारी उसकी
अर्सा-ए-ख़्वाब में रहना है कि लौट आना है
फ़ैसला करने की इस बार है बारी उसकी
कायनात के ख़ालिक
कायनात के ख़ालिक़ !
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है !
ख़ालिक़=दुनिया का बनाने वाला; अज़मत=महिमा
कायनात के ख़ालिक
कायनात के ख़ालिक़ !
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है !
ख़ालिक़=दुनिया का बनाने वाला; अज़मत=महिमा
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
वो मेरे दिल पे नया ज़ख़्म लगाने आये
मेरे वीरान दरीचों में भी ख़ुश्बू जागे
वो मेरे घर के दर-ओ-बाम सजाने आये
उससे इक बार तो रूठूँ मैं उसी की मानिन्द
और मेरी तरह से वो मुझ को मनाने आये
इसी कूचे में कई उस के शनासा भी तो हैं
वो किसी और से मिलने के बहाने आये
अब न पूछूँगी मैं खोये हुए ख़्वाबों का पता
वो अगर आये तो कुछ भी न बताने आये
ज़ब्त की शहर-पनाहों की मेरे मालिक ख़ैर
ग़म का सैलाब अगर मुझ को बहाने आये
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी
अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी
[मनसूब= जुडा हुआ]
जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी
[जवज़=कारण]
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी
एक मंज़र
कच्चा-सा इक मकां, कहीं आबादियों से दूर
छोटा-सा इक हुजरा, फ़राज़े-मकान पर
सब्ज़े से झांकती हुई खपरैल वाली छत
दीवारे-चोब पर कोई मौसम की सब्ज़ बेल
उतरी हुई पहाड़ पर बरसात की वह रात
कमरे में लालटेन की हल्की-सी रौशनी
वादी में घूमता हुआ इक चश्मे-शरीर[१]
खिड़की को चूमता हुआ बारिश का जलतरंग
सांसों में गूंजता हुआ इक अनकही का भेद !
शब्दार्थ:
↑ शरारती झरना
एक पैग़ाम
वही मौसम है
बारिश की हंसी
पेड़ों में छन छन गूंजती है
हरी शाख़ें
सुनहरे फूल के ज़ेवर पहन कर
तसव्वुर में किसी के मुस्कराती हैं
हवा की ओढ़नी का रंग फिर हल्का गुलाबी है
शनासा बाग़ को जाता हुआ ख़ुश्बू भरा रस्ता
हमारी राह तकता है
तुलूए-माह की साअत
हमारी मुंतज़िर है
शनासा=परिचित, तुलूए-माह=सूर्योदय, साअत=समय या घड़ी
एक दफ़नाई हुई आवाज़
फूलों और किताबों से आरास्ता घर है
तन की हर आसाइश देने वाला साथी
आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला बच्चा
लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंगमहल में
जहां कहीं जाती हूं
बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई
एक आवाज़ बराबर गिरय: करती है
मुझे निकालो !
मुझे निकालो !
आरास्ता=सुसज्जित, गिरय:=विलाप
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे
मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
रिफ़ाकते-शब=रातों से दोस्ती; सुकूत=चुप्पी;
दश्त=जंगल; रफ़ाकत=दोस्ती; अज़ीज़=प्रिय
उस वक़्त
जब आंख में शाम उतरे
पलकों पे शफ़क फूले
काजल की तरह मेरी
आंखों को धनक छू ले
उस वक़्त कोई उसको
आंखों से मेरी देखे
पलकों से मेरी चूमे
उसने फूल भेजे हैं
रचनाकार: परवीन शाकिर
उसने फूल भेजे हैं
फिर मेरी अयादत को
एक-एक पत्ती में
उन लबों की नरमी है
उन जमील हाथों की
ख़ुशगवार हिद्दत है
उन लतीफ़ सांसों की
दिलनवाज़ ख़ुशबू है
दिल में फूल खिलते हैं
रुह में चिराग़ां है
ज़िन्दगी मुअत्तर है
फिर भी दिल यह कहता है
बात कुछ बना लेना
वक़्त के खज़ाने से
एक पल चुरा लेना
काश! वो खुद आ जाता
अयादत=शोकमिलन, ज़मील=सुंदर, हिद्दत=उग्रता, मुअत्तर=सुगंधित
उसके मसीहा के लिए
अजनबी!
कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो
और दर्द हद से गुज़र जाए
आंखें तेरी
बात-बेबात रो रो पड़ें
तब कोई अजनबी
तेरी तन्हाई के चांद का नर्म हाला बने
तेरी क़ामत का साया बने
तेरे ज़्ख़्मों पे मरहम रखे
तेरी पलकों से शबनम चुने
तेरे दुख का मसीहा बने
हाला=वॄत्त; क़ामत= देह की गठन
उलझन
रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
इसी में ख़ुश हूँ
इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है
चली चलूँ कि जहाँ तक ये साथ रहता है
ज़मीन-ए-दिल यूँ ही शादाब तो नहीं ऐ दोस्त
क़रीब में कोई दरिया ज़रूर बहता है
न जाने कौन सा फ़िक़्रा कहाँ रक़्म हो जाये
दिलों का हाल भी अब कौन किस से कहता है
मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है
अब कौन से मौसम से
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए
मिटटी की महक साँस की खुशबू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए
दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए
बूंदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए
शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है की दरख्तों को चढ़ जाए
हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए
अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए
अपनी रुसवाई तेरे नाम
अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ
एक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
नींद आ जाये तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ
आँख खुल जाये तो तन्हाई की सहर देखूँ
शाम भी हो गई धुंधला गई आँखें भी मेरी
भूलनेवाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ
सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ
एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ
मुझ पे छा जाये वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह
अंग-अंग अपना उसी रुत में महकता देखूँ
तू मेरी तरह से यक्ता है मगर मेरे हबीब
जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ
मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस एक बार
ख़्वाब बन कर तेरी आँखों में उतरता देखूँ
तू मेरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात
जाने क्यों तेरे लिये दिल को धड़कता देखूँ
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर 1एहतराम से मौसम का जिक्र छेड़ दिया
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने ना हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की 2अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक के किस्से 3निशात-ए-वस्ल का जिक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....
1आदर
2अत्याचार
3मिलन की खुशी
अक़्स-ए-खुशबू हूँ
अक़्स-ए-खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को ना समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तनहाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम ना पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता भी नहीं
अब किस उम्मीद पर दरवाजे से झांके कोई
कोई आहट, कोई आवाज, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई