शुक्रवार, मई 01, 2009

फूल थे बादल भी था, और वो हसीं सूरत भी थी / मुनीर नियाज़ी

फूल थे बादल भी था, और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी

जो हवा में घर बनाया काश कोई देखता
दस्त में रहते थे पर तामीर की हसरत भी थी

कह गया मैं सामने उसके जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था, कुछ मेरी हिम्मत भी थी

अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फासले पर घर की हर राहत भी थी

क्या क़यामत है 'मुनीर' अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना जिनसे हमें उल्फत भी थी

गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं

गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं
तूने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं

नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब् को देर तक सोया नहीं

हर तरफ़ दीवारों-दर और उनमें आंखों का हुजूम
कह सके जो दिल की हालत वो लबे-गोया नहीं

जुर्म आदम ने किया और नस्ले-आदम को सजा
काटता हूँ जिंदगी भर मैंने जो बोया नहीं

जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी 'मुनीर'
गम से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं

डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप खज़ाने में / मुनीर नियाज़ी

डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप खज़ाने में
ज़र के ज़ोर से जिंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में

जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में
सुब्ह को घर से दूर निकलकर शाम को वापस आने में

नीले रंग में डूबी आँखें खुली पडी थीं सब्ज़े पर
अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में

दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शामे-शह्र की रौनक में
कितनी जिया बेसूद गई शीशे के लफ्ज़ जलाने में

मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले एक ज़माने में

साँस लेना भी सज़ा लगता है

साँस लेना भी सज़ा लगता है

अब तो मरना भी रवा लगता है


कोहे-ग़म पर से जो देखूँ,तो मुझे

दश्त, आगोशे-फ़ना लगता है


सरे-बाज़ार है यारों की तलाश

जो गुज़रता है ख़फ़ा लगता है


मौसमे-गुल में सरे-शाखे़-गुलाब

शोला भड़के तो वजा लगता है


मुस्कराता है जो उस आलम में

ब-ख़ुदा मुझ को ख़ुदा लगता है


इतना मानूस हूँ सन्नाटे से

कोई बोले तो बुरा लगता है


उनसे मिलकर भी न काफूर हुआ

दर्द ये सबसे जुदा लगता है


इस क़दर तुंद है रफ़्तारे-हयात

वक़्त भी रिश्ता बपा लगता है


रवा=ठीक; कोहे-ग़म=ग़म के पहाड़; दश्त=जंगल;
आगोशे-फ़ना=मौत का आगोश; मौसमे-गुल=बहार का मौसम;
सरे-शाख़े-गुलाब= गुलाब की डाली पर; ब-ख़ुदा= ख़ुदा के लिए;
काफूर=गायब होना; तुंद=प्रचण्ड; रफ़्तारे-हयात=जीवन की गति;
बपा= पर बंधा पंछी जो उड़ न पाए ।

मुझे कल मेरा एक साथी मिला

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने ये राज़ खोला
कि "अब जज्बा-ओ-शौक़ की वहशतों के ज़माने गए"



फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता चारों तरफ़ देखता
मुझ से कहने लगा



"अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहां से भी मिल जाएं दौलत - समटो
ग़र्ज कुछ तो तहज़ीब सीखो"

हैरतों के सिल-सिले

हैरतों के सिल-सिले सोज़-ए-निहां तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए



ज़ुल्फ़ में ख़ुश्बू न थी या रंग आरिज़ में न था
आप किस की जुस्तजू में गुलिस्तां तक आ गए



ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए



उन की पलकों पे सितारे अपने होंठों पे हंसी
कि़स्सा-ए-ग़म कहते कहते हम यहां तक आ गए

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई,
किसकी ख़ुश्बू-ए-बदन याद आई|



जब ख़यालों में कोई मोड़ आया,
तेरे गेसू की शिकन याद आई|



याद आए तेरे पैकर के ख़ुतूत,
अपनी कोताही-ए-फ़न याद आई|



चांद जब दूर उफ़क़ पर डूबा,
तेरे लहजे की थकन याद आई|



दिन शुआओं से उलझते गुज़रा,
रात आई तो किरन याद आई|

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई,
किसकी ख़ुश्बू-ए-बदन याद आई|



जब ख़यालों में कोई मोड़ आया,
तेरे गेसू की शिकन याद आई|



याद आए तेरे पैकर के ख़ुतूत,
अपनी कोताही-ए-फ़न याद आई|



चांद जब दूर उफ़क़ पर डूबा,
तेरे लहजे की थकन याद आई|



दिन शुआओं से उलझते गुज़रा,
रात आई तो किरन याद आई|

वो कोई और न था

वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे,
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे|



अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया,
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे|



तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली,
कली कली में ख़िज़ां के चिराग़ जलते थे|



तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे,
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे|



शब-ए-ख़ामोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी,
पहाड़ गूँजते थे दश्त सन-सनाते थे|



वो एक बार मरे जिनको था हयात से प्यार,
जो जि़न्दगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे|



नए ख़याल अब आते है ढल के ज़ेहन में,
हमारे दिल में कभी खेत लह-लहाते थे|



ये इरतीक़ा का चलन है कि हर ज़माने में,
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे|



'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी,
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे |

लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा

लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा
राज़ हर रंग में रुस्वा होगा



दिल के सहरा में चली सर्द हवा
अबर् गुलज़ार पर बरसा होगा



तुम नहीं थे तो सर-ए-बाम-ए-ख़याल
याद का कोई सितारा होगा



किस तवक्क़ो पे किसी को देखें
कोई तुम से भी हसीं क्या होगा



ज़ीनत-ए-हल्क़ा-ए-आग़ोश बनो
दूर बैठोगे तो चर्चा होगा



ज़ुल्मत-ए-शब में भी शर्माते हो
दर्द चमकेगा तो फिर क्या होगा



जिस भी फ़नकार का शाहकार हो तुम
उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा



किस क़दर कबर् से चटकी है कली
शाख़ से गुल कोई टूटा होगा



उमर् भर रोए फ़क़त इस धुन में
रात भीगी तो उजाला होगा



सारी दुनिया हमें पहचानती है
कोई हम-स भी न तन्हा होगा

लबों पे नर्म तबस्सुम

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएँ
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ



जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ



तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएँ



बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएँ



न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त
हम आस्माँ का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएँ



तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएँ

रेत से बुत न बना

रेत से बुत न बना मेरे अच्छे फ़नकार
एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूँ
मैं तेरे सामने अम्बार लगा दूँ लेकिन
कौन से रंग का पत्थर तेरे काम आएगा
सुर्ख़ पत्थर जिसे दिल कहती है बेदिल दुनिया
या वो पत्थराई हुई आँख का नीला पत्थर
जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हों डोरे
क्या तुझे रूह के पत्थर की जरूरत होगी
जिस पे हक़ बात भी पत्थर की तरह गिरती है
इक वो पत्थर है जिसे कहते हैं तहज़ीब-ए-सफ़ेद
उस के मर-मर में सियाह ख़ून झलक जाता है
इक इन्साफ़ का पत्थर भी होता है मगर
हाथ में तेशा-ए-ज़र हो, तो वो हाथ आता है
जितने मयार हैं इस दौर के सब पत्थर हैं
शेर भी रक्स भी तस्वीर-ओ-गिना भी पत्थर
मेरे इलहाम तेरा ज़हन-ए-रसा भी पत्थर
इस ज़माने में हर फ़न का निशां पत्थर है
हाथ पत्थर हैं तेरे मेरी ज़ुबां पत्थर है
रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नकार

मैं कब से गोश बर-आवाज़ हूँ पुकारो भी

मैं कब से गोश बर-आवाज़ हूँ पुकारो भी
ज़मीं पर यह सितारे कभी उतारो भी



मेरी गय्यूर उमंगो, शबाब फानी है
गुरूर-ए-इश्क़ का देरीना खेल हारो भी



भटक रहा है धुन्धल्कों में कारवान-ए-ख़याल
बस अब खुदा के लिए काकुलें संवारो भी



मेरी तलाश की मेराज हो तुम्हीं लेकिन
नकाब उठाओ, निशान-ए-सफ़र उभारो भी



यह काएनात, अजल से सुपुर्द-ए-इन्सां है
मगर नदीम तुम इस बोझ को सहारो भी

मरूं तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊं

मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ|
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ|



ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास,
जो इज़ाँ हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ|



मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है,
तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊँ|



तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूंढूँ किधर किधर जाऊँ|



मैं ज़िन्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो,
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ|



ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ,
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ|



किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ,
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ|



ये जी में आती है, तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में,
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ|

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ

आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ


हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार

जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ


हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से

हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ


आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर

जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ


चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें

बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ


सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े

यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ


मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब

हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ


हक़= सच; जुर्रते-इज़हार=स्वीकार करने का साहस; पैकर=चेहरे;
लौहें=कब्र पर लगा पत्थर; शहरे-ख़मोशाँ=कब्रिस्तान;
दश्ते-मुसीबत=मुसीबतों का जंगल; इज़्न=इजाज़त

न वो सिन है फ़ुर्सत ए इश्क़ का...

न वो सिन है फ़ुर्सत-ए-इश्क़ का, न वो दिन हैं कशफ़-ए-जमाल के
मगर अब भी दिल को जवाँ रखे, के मुद्दे ख़त-ओ-ख़ाल के

ये तो गर्दाब-ए-हयात है, कोई इसकी जब्त से बचा नही
मगर आज तक तेरी याद को मैं रखूं सम्हाल-सम्हाल के

मैं अमीन-ओ-कद्र शनाज़ था, मुझे साँस-साँस का पाज़ था
ये जबीं पे हैं जो लिखे हुए ये हिसाब हैं माहो साल के

शब-ए-तार न डरा मुझे ए ख़ुदा जमाल दिखा मुझे
कि तेरे सबूत है बेशतर्, तेरी शान है ज़ाह-ओ-ज़लाल के

कोई "कोहकन" हो,कि "कैस" हो, कोई "मीर" हो, कि "नदीम" हो
सभी नाम एक ही शख़्स के, सभी फूल एक ही डाल के

इज़हार-ए-मुहब्बत से अगर नफ़रत है

तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत से अगर नफ़रत है
तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता



बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ
तूने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता



तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता



यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता



यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता

जेहनों में ख़याल जल रहे हैं

जेहनों में ख़याल जल रहे हैं|
सोचों के अलाव-से लगे हैं|



दुनिया की गिरिफ्त में हैं साये,
हम अपना वुजूद ढूंढते हैं|



अब भूख से कोई क्या मरेगा,
मंडी में ज़मीर बिक रहे हैं|



माज़ी में तो सिर्फ़ दिल दुखते थे,
इस दौर में ज़ेहन भी दुखे हैं|



सिर काटते थे कभी शहनशाह,
अब लोग ज़ुबान काटते हैं|



हम कैसे छुड़ाएं शब से दामन,
दिन निकला तो साए चल पड़े हैं|



लाशों के हुजूम में भी हंस दें,
अब ऐसे भी हौसले किसे हैं|

ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है

ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है ।
साँस तलवार हुई जाती है |



जिस्म बेकार हुआ जाता है,
रूह बेदार हुई जाती है |



कान से दिल में उतरती नहीं बात,
और गुफ़्तार हुई जाती है |



ढल के निकली है हक़ीक़त जब से,
कुछ पुर-असरार हुई जाती है |



अब तो हर ज़ख़्म की मुँहबन्द कली,
लब-ए-इज़हार हुई जाती है |



फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम',
राह दुश्वार हुई जाती है |

जब तेरा हुक्म मिला

जब तेरा हुक्म मिला, तर्क मुहब्बत कर दी,
दिल मगर उस पे वो धडका, कि क़यामत कर दी|



तुझसे किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता,
लफ़्ज़ सूझा तो मआनी ने बग़ावत कर दी|



मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले,
तूने जाकर तो जुदाई मेरी कि़स्मत कर दी|



मुझको दुश्मन के वादों पे भी प्यार आता है,
तेरी उल्फ़त ने मुहब्बत मेरी आदत कर दी|



पूछ बैठा हूँ, मैं तुझसे तेरे कूचे का पता,
तेरी हालत ने कैसी तेरी सूरत कर दी|

गो मेरे दिल के ज़ख़्म जाती हैं

गो मेरे दिल के ज़ख़्म ज़ाती हैं

उनकी टीसें तो कायनाती हैं


आदमी शशजिहात का दूल्हा

वक़्त की गर्दिशें बराती हैं


फ़ैसले कर रहे हैं अर्शनशीं

आफ़तें आदमी पर आती हैं


कलियाँ किस दौर के तसव्वुर में

ख़ून होते ही मुस्कुराती हैं


तेरे वादे हों जिनके शामिल-ए=हाल

वो उमंगें कहाँ समाती हैं


ज़ाती= निजी; कायनाती= सांसारिक; शशजिहात=छह दिशाओं का; अर्शनशीं= कुरसी पर बैठे हुए व्यक्ति

गुल तेरा रंग चुरा लाए हैं

गुल तेरा रंग चुरा लाए हैं गुलज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में



मुझसे कतरा के निकल जा, मगर ऐ जान-ए-हया
दिल की लौ देख रहा हूं तेरे रुख़सारों में



हुस्न-ए-बेगाना-ए-एहसास-जमाल अच्छा है
ग़ुन्चे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में



जि़क्र करते हैं तेरा मुझसे बाउनवान-ए-जफ़ा
चारागर फूल पिरो लाए हैं तलवारों में



ज़ख्म छुप सकते हैं लकिन मुझे फ़न ही सौगंध
ग़म की दौलत भी है शामिल मेरे शहकारों में



मुझको नफ़रत से नहीं प्यार से मसलूब करो
मैं तो शामिल हूं मोहब्बत के गुनाहवरों

ख़ुदा नहीं, न सही, ना-ख़ुदा नहीं, न सही

ख़ुदा नहीं, न सही, ना-ख़ुदा नहीं, न सही

तेरे बगै़र कोई आसरा नहीं, न सही


तेरी तलब का तक़ाज़ा है ज़िन्दगी मेरी

तेरे मुक़ाम का कोई पता नहीं, न सही


तुझे सुनाई तो दी, ये गुरूर क्या कम है

अगर क़बूल मेरी इल्तिजा नहीं, न सही


तेरी निगाह में हूँ, तेरी बारगाह में हूँ

अगर मुझे कोई पहचानता नहीं, न सही


नहीं हैं सर्द अभी हौसले उड़ानों के

वो मेरी जात से भी मावरा नहीं, न सही


ना-ख़ुदा= नाविक अथवा कर्णधार; तलब का तक़ाज़ा=चाह की ज़रूरत; इल्तिजा=प्रार्थना; बारगाह=कचहरी; मावरा=परे

क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला

क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

(तिश्नगी: प्यास)

क्या भरोसा हो किसी हमदम का

क्या भरोसा हो किसी हमदम का

चांद उभरा तो अंधेरा चमका


सुबह को राह दिखाने के लिए

दस्ते-गुल में है दीया शबनम का


मुझ को अबरू, तुझे मेहराब पसन्द

सारा झगड़ा इसी नाजुक ख़म का


हुस्न की जुस्तजू-ए-पैहम में

एक लम्हा भी नहीं मातम का


मुझ से मर कर भी न तोड़ा जाए

हाय ये नशा ज़मीं के नम का


दस्ते-गुल= फूल के हाथ; अबरू= भौंह; ख़म= टेढ़ापन; जुस्तजू-ए-पैहम=ख़ूबसूरती की लगातार चलने वाली चर्चा

कौन कहता है

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा



तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा



तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा



अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा



तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा



चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा



अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा



ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा

किस को क़ातिल मैं कहूं

किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं



वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं



दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं



ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं

इंक़लाब अपना काम करके रहा

इंक़लाब अपना काम करके रहा
बादलों में भी चांद उभर के रहा

है तिरी जुस्तजू गवाह, कि तू
उम्र-भर सामने नज़र के रहा

रात भारी सही कटेगी जरूर
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा

गुल खिले आहनी हिसारों के
ये त' आत्तर मगर बिखर के रहा

अर्श की ख़िलवतों से घबरा कर
आदमी फ़र्श पर उतर के रहा

हम छुपाते फिरे दिलों में चमन
वक़्त फूलों में पाँव धर के रहा

मोतियों से कि रेगे-साहिल से
अपना दामन 'नदीम' भर के रहा


जुस्तजू=तलाश; आहनी हिसारों के=लौह दुर्गों के; आत्तर=इत्र,ख़ुश्बू; अर्श की खिल्वतों= सबसे ऊँची कुरसी द्वारा दी गई
नियामत; रेगे-साहिल=तट की रेत

अब तक तो

अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ,
मैं तुझको छू सकूँ तो ख़ुदा जाने क्या कहूँ

लफ़्ज़ों से उन को प्यार है मफ़हूम् से मुझे,
वो गुल कहें जिसे मैं तेरा नक्श-ए-पा कहूँ

अब जुस्तजू है तेरी जफ़ा के जवाज़ की,
जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ

सिर्फ़ इस के लिये कि इश्क़ इसी का ज़हूर है,
मैं तेरे हुस्न को भी सबूत-ए-वफ़ा कहूँ

तू चल दिया तो कितने हक़ाइक़ बदल गये,
नज़्म-ए-सहर को मरक़द-ए-शब का दिया कहूँ

क्या जब्र है कि बुत को भी कहना पड़े ख़ुदा,
वो है ख़ुदा तो मेरे ख़ुदा तुझको क्या कहूँ

जब मेरे मुँह में मेरी ज़ुबाँ है तो क्यूँ न मैं
जो कुछ कहूँ यक़ीं से कहूँ बर्मला कहूँ

क्या जाने किस सफ़र पे रवाँ हूँ अज़ल से मैं,
हर इंतिहा को एक नयी इब्तिदा कहूँ

हो क्यूँ न मुझ को अपने मज़ाक़-ए-सुख़न पे नाज़,
ग़ालिब को कायनात-ए-सुख़न का ख़ुदा कहूँ