बुधवार, मार्च 25, 2009

वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा

फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई / जिगर मुरादाबादी

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वोह ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!

कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!

तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई

सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना गए
हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी की
हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई

ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई

गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई

साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया / जिगर मुरादाबादी


साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया

लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया


बेकैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया

तौबा को तोड़-तोड़ के थर्रा के पी गया


ज़ाहिद ये मेरी शोखी-ए-रिनदाना देखना

रेहमत को बातों-बातों में बहला के पी गया


सरमस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई

दुनिया-ए-ऎतबार को ठुकरा के पी गया


आज़ुर्दगी ए खा‍तिर-ए-साक़ी को देख कर

मुझको वो शर्म आई कि शरमा के पी गया


ऎ रेहमते तमाम मेरी हर ख़ता मुआफ़

मैं इंतेहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया


पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मजाल

दरपरदा चश्म-ए-यार की शेह पा के पी गया


इस जाने मयकदा की क़सम बारहा जिगर

कुल आलम-ए-बसीत पर मैं छा के पी गया

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजिए- जिगर मुरादाबादी

इक लफ़्ज़े-मोहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है

ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है

वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है

वो हुस्न-ओ-जमाल उन का ये इश्क़-ओ-शबाब
अपना जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है

या वो थे ख़फ़ा हम से या हम थे ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है

अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है

आँखों में नमी सी है चुप-चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है

है इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर को हँस हँस के रुलाना है

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजिए
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है

आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले उम्र भर के लिए

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

दोहे

१.
छोटा कर के देखिये, जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाँहो भर संसार ।
२.
वो सूफ़ी का कौ़ल हो, या गीता का ज्ञान
जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान
३.
सात समुन्दर पार से कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फ़िर भेजे हथियार
४.
बच्चा बोला देख कर,मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान

जब किसी से कोई गिला रखना

जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना

मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना

ज़रा सा क़तरा कहीं - वसीम बरेलवी

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते

कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं

किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलती

जब आसमान से कोई फ़ैसला उतरता है

तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों

ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

उसूलों पे जहाँ आँच आये - वसीम बरेलवी

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है...
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाए
कहां से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है...
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है...
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है...
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है...
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है...