पहले मन फिर वचन बिक गया
व्यक्ति का मूलधन बिक गया
देह के गर्म बाज़ार में
हर कली, हर सुमन बिक गया
रक्षकों को खबर ही नहीं
और चुपके से वन बिक गया
'द्रौपदी' नग्न होने को है
इस सदी का किशन बिक गया
उसका बस एक ही स्वपन था
अंतत: वो स्वपन बिक गया
डगमगाने लगी है तुला
न्याय का संतुलन बिक गया
'सैटेलाइट' के आदेश पर—
इस धरा का गगन बिक गया
गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010
पहले मन फिर वचन बिक गया
अनावश्यक से मुझको प्यार कम है
अनावश्यक से मुझको प्यार कम है
मेरे खेतों में 'खरपतवार' कम है
अभी तुम कल्पना में उड़ रहे हो
तुम्हारा सत्य से व्यवहार कम है
मैं यूँ तो सारी धरती नाप आया
मगर, मेरे लिए संसार कम है
जो ये जोखिम उठाना चाहता है
वो जोखिम के लिए तैयार कम है
सुखी हो तुम इसी कारण सुखी हो
तुम्हारे मन में हाहाकार कम है
वो प्रतिभावान है, ये तो सही है
मगर, ये भी सही है— धार कम है
बहुत ऊँची इमारत मत उठाओ
अभी उसके लिए आधार कम है
कभी जो आया था पल भर को
कभी जो आया था पल भर को 'उड़न—छू' बनकर
आजतक मन में चमकता है वो जुगनू बनकर
कंठ रुँधते ही, बदल जाता है भाषा का स्वरूप
शब्द तब फूटते देखे गए आँसू बनकर
ये प्रजातन्त्र की कुर्सी है उतारो उसको
वो जो आ बैठा है कुर्सी पे स्वयं—भू बनकर
जो भी आता है, भँवर में ही फँसा जाता है
ज़िन्दगी में कोई आता नहीं चप्पू बनकर
ये तो सच है कि किया पिंजरे से आज़ाद मुझे
किंतु 'पर' काट लिए उसने ही ,चाकू बनकर
मैं कोई बैल नहीं हूँ कि जो जोता जाऊँ
मेरी गर्दन पे न लद पाओगे कोल्हू बनकर
आज तक जिअने भी आशीष दिए हैं माँ ने
तन गए सिर पे सुरक्षाओं के तंबू बनकर
अपनी फुलवारी की सीमा
अपनी फुलवारी की सीमा पार करने के लिए
लोग हैं बेताब खुशबू—से बिखरने के लिए
जो हुआ निर्भय , उसे फिर डर भला किस बात का
वरना साया ही बहुत होता है डरने के लिए
आप 'हरसिंगार' की शाखें हिलाना छोड़िए,
आपकी बातें बहुत हैं फूल झरने के लिए
आजकल महसूस करती है अमन की 'उर्वशी'
एक भी दर्पन नहीं बनने संवरने के लिए
कैमरे में ही ठहर पाता है पल—दो—पल समय
वक्त को फुरसत कहाँ वर्ना ठहरने के लिए
अथक प्रयास के उजले विचार से निकली
अथक प्रयास के उजले विचार से निकली
हमारी जीत, निरंतर जुझार से निकली
हरेक युद्ध किसी संधि पर समाप्त हुआ
अमन की राह हमेशा प्यार से निकली
जो मन का मैल है, उसको तो व्यक्त होना है
हमारी कुण्ठा हजारों प्रकार से निकली
ये अर्थ—शास्त्र भी कहता है, अपनी भाषा में—
नकद की राह हमेशा उधार से निकली
नजर में आने की उद्दंड युक्ति अपनाकर ,
वो चलते—चलते अचानक कतार से निकली
हमारी चादरें छोटी, शरीर लंबे है
हमारे खर्च की सीमा पगार से निकली
ये सोच कर ही तुम्हें रात से गुजरना है
सुहानी भोर सदा अंधकार से निकली
मीठी—मीठी आग से परिचित हुए
मीठी—मीठी आग से परिचित हुए
हम दहन की राग से परिचित हुए
तन से कुछ ज्यादा ही भीगा मन का छोर
तन से मन तक फाग से परिचित हुए
उम्र भर, यायावरी के बाद भी
कितने कम भू—भाग से परिचित हुए
लोग डँस लेते हैं अवसर देखकर
जो स्वयं के नाग से परिचित हए !
भोर होते ही किया चिड़ियों ने शोर
दिन की भागम—भाग से परिचित हुए
हमने गाँधी की तरह पढ़ा जीवन—चरित्र
इस तरह भी त्याग से परिचित हुए
घर के अंदर बैठकर वन में रहे
मानसिक बैराग से परिचित हुए
लिंग निर्धारण समस्या हो गई
‘लिंग निर्धारण’ समस्या हो गई
कोख में ही कत्ल कन्या हो गई
लोग कर पाए नहीं खुल कर विरोध
सिर्फ अखबारों में निन्दा हो गई
चल रहा है माफिया —गुंडों का राज
इस कदर कमजोर सत्ता हो गई !
क्या पता किस वक्त अणुबम फट पड़े
ये हमारे युग की चिन्ता हो गई
साधु—संतों ने मचाया इतना शोर
भंग भक्तों की तपस्या हो गई
राज करने के लिए नेता हुए
वोट देने भर को जनता हो गई
मन में मिसरी की तरह घुलती नही
सिर्फ भाषा—जाल कविता हो गई
हम भी उड़ने लगे हवाओं में
डूबते ही परी— कथाओं में
हम भी उड़ने लगे हवाओं में
अपने तन— मन को बेच देने की
होड़ है, इन दिनों, कलाओं में
आज भी द्रौपदी का चीर —हरण
हो रहा है भरी सभाओं में
जो गुफा में भटक गए थे कहीं
फिर न झाँके कभी गुफाओं में
ढाई आखर के अर्थ मत ढूँढो
चार आखर की कामनाओं में
सिर्फ रोमांच के मजे के लिए
लोग फँसते हैं वर्जनाओं में
मंत्र जैसा प्रभाव होता है
दिल से निकली हुई दुआओं में
वो जब लुट—पिट गया तो ज्ञान आया
वो जब लुट—पिट गया तो ज्ञान आया
निकट संबंधियों का ध्यान आया
उसे मरने से पहले थी ज़रूरत
मरण के बाद लाखों दान आया
पुलिस के सामने मुँह कैसे खोलूँ
मैं अपने ‘दोस्त’ को पहचान आया
वो सबके सामने नंगी खड़ी थी
हुआ ‘शो’ खत्म तो परिधान आया
मेरे भीतर उठा है ज्वार —भाटा
कभी मन में अगर तूफान आया
पचहत्तर फीसदी वे खा गए, तब—
हमारे हाथ में अनुदान आया
तो दोनों को ही इसका लाभ होगा
कला के घर अगर विज्ञान आया
नदी के मस्त धारे जानते हैं
नदी के मस्त धारे जानते हैं
समंदर के इशारे जानते हैं
सहारा कौन दे सकता है उनको
ये अक्सर बेसहारे जानते हैं
धरा से उनकी बेहद दूरियाँ हैं
गगन के चाँद—तारे जानते हैं
किसी बिरहन ने कितनी बार खोले
ये उसके घर के द्वारे जानते हैं
हमारी ख़ूबियों और ख़ामियों को
हमारे दोस्त सारे जानते हैं
चला समवेत स्वर में उनका जादू
ये हर दल—बल के नारे जानते हैं
धरम का अर्थ ‘गुरू’ के बाद केवल
निकटतम ‘पंच—प्यारे’ जानते हैं
अपने कद की लड़ाई लड़ी
अपने कद की लड़ाई लड़ी
एक पर्वत से राई लड़ी
ताड़ बौना बनाया गया
इसलिए बौनसाई लड़ी
डिग्रियों से लड़ी योग्यता
अनुभवों से पढ़ाई लड़ी
स्वस्थ करने के आवेश में
रोग से खुद दवाई लड़ी
जब्त करने की सीमा तलक
आँसुओं से रुलाई लड़ी
चोट जब भी पड़ी स्वार्थ पर
एक ही माँ की जाई लड़ी
सबसे पहले तो दुश्मन से खुद
दुर्ग की एक खाई लड़ी
तुम पर अगर सितारों जड़ा आसमान है
तुम पर अगर सितारों जड़ा आसमान है
अपनी धरा के पास भी हीरों की खान है
ये देखना है— कैसे चलाते हो तीर तुम
हाथों में इस समय तो हमारे कमान है
कड़वा रहा अतीत, अनिश्चित मिला भविष्य
अपना तो मूलधन भी यही वर्तमान है
वे कैसे दौड़ पाएँगे आकाश—मार्ग पर
जिनके ‘परों’ में आज ही कल की थकान है
मेरे ‘बयान’ तुम नहीं जारी करोगे अब
मेरा ‘बयान’ आज से मेरा बयान है
संघर्ष खत्म करने का दो दुश्मनों के पास
क्या संधि के अलावा भी कोई निदान है ?
अब तुम पहँच गए हो शिखर पर, ये सत्य है,
लेकिन शिखर के आगे तो केवल ढलान है
कीट—पतंगे, पशु—पक्षी, आदम
कीट—पतंगे,पशु—पक्षी, आदम भी शामिल रहते हैं
अपनी इस दुनिया में जड़—जंगम भी शामिल रहते हैं
सिर्फ उजालों से धरती का काम नहीं चलने वाला
इसीलिए जगमग जीवन में तम भी शामिल रहते हैं
पहले जिसको कभी नहीं देखा , उसके ही बारे में
चिंतन करते समय अनेकों भ्रम भी शामिल रहते हैं
कई बार, गिरते—गिरते हम गिरने से बच जाते हैं
उस बचाव में, बरसों के संयम भी शामिल रहते हैं
पहले केवल याददाश्त का संबल था, लेकिन, अब तो,
यादें ताजा करने में अलबम भी शामिल रहते हैं
पहले उनके डर समझ में आ गए
पहले उनके डर समझ में आ गए
और फिर कायर समझ में आ गए
लोग जितने भी समझ आए न थे
रोज़ मिल—मिलकर समझ में आ गए
‘ढाई आखर’ तीन होते ही हमें
वासना के स्वर समझ में आ गए
फूल के घर जा रही हैं तितलियाँ
तितलियों के ‘ पर ’ समझ में आ गए
पीठ पीछे से चले थे इसलिए
दोस्तों के शर समझ में आ गए
कैसे नागिन हाथ आएगी नहीं
रूप के मन्तर समझ में आ गए
असली हीरा तो न मिल पाया, मगर
काँच के पत्थर समझ में आ गए
अंतस में दुबकाकर रखना
अंतस में दुबकाकर रखना
लेकिन, आग बचाकर रखना
बीती बातों का क्या रोना
आँसू को भी गाकर रखना
खुद से अनबन मत कर लेना
खुद को दोस्त बनाकर रखना
बस्ती के पागल कुत्तों को
पहले ही हड़का कर रखना
लाख अहसमतियाँ हों, लेकिन
उनसे भी चर्चा कर रखना
मीठी मुस्कानों की खातिर
मन में फूल खिलाकर रखना
जीवन के व्यवहार —मार्ग पर
कुछ सिद्धांत बनाकर रखना
हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं
हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं
मैं सोचता हूँ कि मन में गुबार ठीक नहीं
शिकार करने को जंगल भी कम नहीं होते
खुद अपने घर में ही छिप कर शिकार ठीक नहीं
कभी कुठार को खुद पे चला के देख जरा
हमेशा वृक्षों के तन पर कुठार ठीक नहीं
वे रोज़ रात को सो कर भी सो नहीं पाते
ये स्वप्न नींद के अंदर जगार ठीक नहीं
मैं जूझता हूँ सदा एकमुश्त आँधी से
अनेक किश्तों में आँधी पे वार ठीक नहीं
तुम्हारे बारे में, हम भी तो सोचते होंगे
स्वयं के मुँह से स्वयं का प्रचार ठीक नहीं
लोग अपनी बात के पक्के नहीं रहे
आपस में इसलिए ही भरोसे नहीं रहे
अब लोग अपनी बात के पक्के नहीं रहे
जबसे जुड़ा है शहर से गाँवों का आदमी
गाँवों में रहने वाले भी भोले नहीं रहे
कुछ इस तरह से घास के जंगल हुए सपाट
अब घोंसले बनाने को तिनके नहीं रहे
जिस दिन से राजनीति ने अपना लिया उन्हें
उस दिन से वे भी चोर—उचक्के नहीं रहे
हम एक माँ के जाए थे, लेकिन, ये सत्य है—
जो स्वप्न थे हमारे, वो उनके नहीं रहे
जो लोग आमजन से निकल कर बने थे ‘खास’
अब वे भी आम लोगों के अपने नहीं रहे
कैसे समझ सकोगे समंदर का तुम सुभाव
तुम से किसी समुद्र के रिश्ते नहीं रहे
कुछ इरादे सफल न हो पाए
कुछ इरादे सफल न हो पाए
झोंपड़ी से महल न हो पाए
पाप के पंक में धँसे ऐसे—
चाहकर भी कमल न हो पाए
ऐसे— ऐसे कठिन सवाल मिले
हल किए किन्तु हल न हो पाए
बंद मुठ्ठी में कैद है जुगनू
कैद मुठ्ठी मे पल न हो पाए
मुस्कुराने में फँस गए इतने—
फूल के बाद फल न हो पाए
हमको पत्थर बना के छोड़ दिया
और पत्थर, तरल न हो पाए
जितने चाहे थे अपने जीवन में
उतने रद्दो—बदल न हो पाए
हमारी आपकी यारी से निकले
हमारी आपकी यारी से निकले
कई रस्ते समझदारी से निकले
बहुत कम थे, जो यूँ ही चल पड़े थे,
सफर पर लोग तैयारी से निकले
उन्हीं फूलों को मिल पाती है इज्जत
जो हिम्मत करके फुलवारी से निकले
अजब थे खेल आतिश—बाजियों के
अगन के पेड़ चिंगारी से निकले
जो स्पर्धाओं में पीछे रह गए थे
वो आगे ही ‘कलाकारी’ से निकले
तुम्हारे इस महल के सामने से
बहुत कम लोग खुद्दारी से निकले
जो सच्चे रंग हैं ‘सद्भावना’ के
सदा होली की पिचकारी से निकले
जो अपने डर की सीमा जानते हैं
जो अपने डर की सीमा जानते हैं
वो अपने ‘स्वर’ की सीमा जानते हैं
तुम्हारे पास अवसर है, ये सच है
हम हर अवसर की सीमा जानते हैं
हथौड़े—छैनियों से लैस शिल्पी
अघढ़ पत्थर की सीमा जानते हैं
जिन्हें मालूम है जादू जगाना,
वो हर मन्तर की सीमा जानते हैं
नई पीढ़ी के धीरज के मुताबिक
पिता आदर की सीमा जानते हैं
वो लाँघेंगे नहीं देहरी पराई
जो अपने घर की सीमा जानते हैं
हमें प्रश्नों की हद में सोचना है
हम हर उत्तर की सीमा जानते हैं
खोट सद्भावनाओं में है
खोट सद्भावनाओं में है
कितनी नफरत हवाओं में है
पेड़ से जा लिपटने का दम
प्रेम—पागल लताओं में है
बच रहे हैं जो औलाद से
वो भी ऐसे पिताओं में है
गंध सीमित नहीं फूल तक
गंध चारों दिशाओं में है
व्यक्त होने के पश्चात भी
क्रोध अब तक शिराओं में है
आज तक, मंत्र जैसा असर
मेरी माँ की दुआओं में है
आदमी का तिरस्कार भी
सोची—समझी सजाओं में है
पुण्य करते हुए भी थकते हैं
पुण्य करते हुए भी थकते हैं
जलते—जलते दिये भी थकते हैं
बोलते— बोलते जुबान थकी
गाते—गाते गले भी थकते हैं
हर कदम पर अगर पराजय हो
तो बुलँद हौसले भी थकते हैं
महफिलों, चुटकलों, ठहाकों से
एक दिन, मसखरे भी थकते हैं
चलते—चलते तो थक ही जाते हैं
सोचते—सोचते भी थकते हैं
मंजिलों तक जो ले गए हमको
वे सभी रास्ते भी थकते हैं
अंत में लोग अपने जीवन से
जूझते— जूझते भी थकते हैं.
अनुभवी होने का मतलब नहीं ज्ञानी होना
ज़िन्दगी है तो ज़रूरी है कहानी होना
वो कहानी भी हमें याद जुबानी होना
वे जो सागर से चुराते हैं, उसे भी देखो
सिर्फ तुम देख सके मेघों का दानी होना !
रात भी होगी सुहानी, ये जरूरी तो नहीं
तुमने देखा है अभी शाम सुहानी होना
वो नदी है, उसे बहने में मज़ा आता है
उसको भाता नहीं, ठहरा हुआ पानी होना
तुमने फसलों से लगाया है रकम का अंदाज,
तुमने देखा ही नहीं फस्लों का धानी होना
जिसने तकलीफें सहीं, उसको मिले हैं अनुभव,
अनुभवी होने का मतलब नहीं ज्ञानी होना
वो हम नहीं जो हवाओं में घर बनाते
वो हम नहीं जो हवाओं में घर बनाते हैं
मकान, ठोस जगह देखकर बनाते हैं
वे लोग आग लगाने से पूर्व चुपके से
शहर के लोगों में दंगों का डर बनाते हैं
शिखर—पुरुष तो जनम से कोई नहीं होता
शिखर—पुरुष के लिए, हम शिखर बनाते हैं
शहर मिटा के बनाए हों गाँव, याद नहीं
ये लोग गाँव मिटा के शहर बनाते हैं
नज़र के चश्में परस्पर ये बात करते हैं—
तमाम लोगों की हम भी नज़र बनाते हैं !
मैंने चाहा— बात करे वो फुलवारी की भाषा में
मैंने चाहा— बात करे वो फुलवारी की भाषा में
वो बातें करती है, लेकिन, चिंगारी की भाषा में
यह कहना भी सत्य नहीं दो सच्चे दोस्त नहीं लड़ते
हम भी लड़ते—भिड़ते रहते हैं यारी की भाषा में
दरबारी लोगों ने अपने स्वाभिमान को बेच दिया
वे क्या बात करेंगे तन कर खुद्दारी की भाषा में
आँखों पर पट्टी बाँधे जो सच को देखा करते है
वे उत्तर देते हैं अक्सर ‘गाँधारी’ की भाषा में
चाहे नन्हा बच्चा मुँह से बोल नहीं पाए, लेकिन,
घर भर से बातें करता है किलकारी की भाषा में
एक विनय के साथ प्रशंसा का भी भाव उभरता है
शब्दों से लेकर आँखों तक आभारी की भाषा में
लोग सामने से आकर अब खुल कर बात नहीं करते
चुपके—चुपके काटा करते हैं आरी की भाषा में
तमाम जुल्मों को सहने के बाद होता है
तमाम जुल्मों को सहने के बाद होता है
निबल का जब भी सबल से विवाद होता है
तो सबसे पहले हुआ औरतों का चीर—हरण
शहर या गाँव में जब भी फसाद होता है
ये पूछना ही गलत है कि किसने याद किया
अमर वही है जो मर कर भी याद होता है
मैं कैसे जीत के लाऊँगा कोई ‘खेल—पदक’
मैं खेलता हूँ तो घर में विषाद होता है
इसीलिए ही चखा होगा बाबा आदम ने
निषिद्ध फल का अलग अपना स्वाद होता है
दु:ख का मनोविज्ञान छुपाना मुश्किल है
दु:ख का मनोविज्ञान छुपाना मुश्किल है
सागर में तूफान छुपाना मुश्किल है
आप छिपा भी लें मन के कौतुहल को
होंठों की मुस्कान छुपाना मुश्किल है
शब्दों का संयम धोखा दे सकता है
मुश्किल है अज्ञान छुपाना मुश्किल है
जादूगर से कह दो जान गए दुश्मन
अब तोते में जान छुपाना मुश्किल है
परिधानों से काया तो छुप सकती है
काया से परिधान छुपाना मुश्किल है
बगिया की सीमा के अंदर खुश्बू का
उड़ता हुआ विमान छुपाना मुश्किल है
अभिमानी कब तक गूँगा रह सकता है,
आजीवन अभिमान छुपाना मुश्किल है
डबडबाए नयन का पता चल गया
डबडबाए नयन का पता चल गया
बदलियों से गगन का पता चल गया
लाख कोई छिपाने की कोशिश करे
हाव—भावों से मन का पता चल गया
एक मीठी नदी ज्यों ही खारी हुई
उसको अपने ‘चयन’ का पता चल गया
अवसरों के निकष से गुज़रते हुए
खुद—ब—खुद मन—वचन का पता चल गया
वो ही रस्सी पे दौड़ेगा नट की तरह
जिसको निज संतुलन का पता चल गया
उम्र के मोड़ पर साठ के बाद में
सबको अपनी थकन का पता चल गया
अपने शे’रों से दुनिया बदलते हुए
शायरी के मिशन का पता चल गया !
पिता के घर से पीहर की दिशा में
पिता के घर से पीहर की दिशा में
चली नदिया समंदर की दिशा में
पतंगे कट के गिरती हैं धरा पर
मगर, उड़ती हैं अंबर की दिशा में
अँधेरे खुद कभी आते नहीं हैं
हमारे रौशनी —घर की दिशा में
हुए वृक्षों के वे ही पात पीले
जो थे तैयार पतझर की दिशा में
तुम्हारे द्वंद्व बढ़ते जा रहे हैं
किसी पागल बवंडर की दिशा में
हुई बरसात तो झुग्गी ने सोचा
अचानक अपने छप्पर की दिशा में
जो ‘सत्यम’ है, ‘शिवम’ है जिन्दगी में
वो जाएगा ही सुंदर की दिशा में
आँखों से सिर्फ सच नहीं, सपना भी देखिए
आँखों से सिर्फ सच नहीं, सपना भी देखिए
कलियों का रूप—रंग महकना भी देखिए
सब लोग ही पराए हैं, ये बात सच नहीं
दुनिया की भीड़ में कोई अपना भी देखिए
नदियों को सिर्फ पानी ही पानी न मानिए
नदियों का गीत गाना थिरकना भी देखिए
बरखा की स्याह रात में उम्मीद की तरह
निर्भीक जुगनुओं का चमकना भी देखिए
पत्थर का दिल पसीजते देखा न हो अगर
तो बर्फ की शिलाओं का गलना भी देखिए
जो चुभ रहे हैं —शूल हैं,ये अर्द्ध—सत्य है
इन नर्म—नर्म फूलों का चुभना भी देखिए
सत्य ही जब कहानी लगे
सत्य ही जब कहानी लगे
तब तो गूँगा भी ज्ञानी लगे
आज के लोक—व्यवहार में
कुछ अधिक सावधानी लगे
काले पैसे को दिल खोल कर
देने वाला ही ‘दानी’ लगे
उस जगह नाग भी आएँगे
जिस जगह रातरानी लगे
कुछ तो संयम से उपयोग कर
तन की चादर पुरानी लगे
प्यास बुझती नही ओस से
प्यास को सिर्फ पानी लगे
राजनैतिक हुई इसलिए
व्यर्थ संतों की बानी लगे
पीठ पीछे से हुए वार से डर लगता है
पीठ पीछे से हुए वार से डर लगता है
मुझको हर दोस्त से,हर यार से डर लगता है
चाहे पत्नी करे या प्रेमिका अथवा गणिका,
प्यार की शैली में, व्यापार से डर लगता है
संविधानों की भी रक्षा नहीं कर पाई जो
मूक दर्शक बनी सरकार से डर लगता है
इस महानगरी में करना पड़े कब और कहाँ
व्यस्तताओं भरे अभिसार से डर लगता है
कोई तलवार कभी काट न पाई जिसको
वक्त की नदिया की उस धार से डर लगता है
एक झटके में चुका दे जो समूची कीमत
रूप को ऐसे खरीदार से डर लगता है
हम चमत्कारों में विश्वास तो करते हैं, मगर
हम गरीबों को चमत्कार से डर लगता है
घर में रहकर ही नहीं संवाद हम दोनों के बीच
घर में रहकर भी नहीं संवाद हम दोनों के बीच
मौन पसरा है कई हफ्तों से, संबंधों के बीच
फँस गई है बीच में बत्तीस दाँतों के जुबान
फिर भी, चुप रहती नहीं है, जान के खतरों के बीच
सोचता हूँ कोई गुस्सा क्यों जनम लेता नहीं
मुख्य—धारा से अलग होते हुए लोगों के बीच
दिल पे रख कर हाथ , अपनी धड़कनें सुनते रहें
ये जरूरी है बहुत, जीते हुए यंत्रों के बीच
हम इसी कारण, विगत के गाँव तक जाते नहीं
गाँव में घुसते ही ,फँस जाते हैं हम यादों के बीच
बिजलियाँ भी दर्ज करती ही रहीं अपना विरोध,
छेड़खानी पर तुले मेघों के हुड़दंगों के बीच
शेर समकालीन कविता—से न बातूने सही
फिर भी, कह जाते हैं गहरी बात, संकेतों के बीच
आँसुओं की धार को बन्दी बना लेते हैं लोग
आँसुओं की धार को बन्दी बना लेते हैं लोग
ये करिश्मा है कि फिर भी मुस्कुरा लेते हैं लोग !
स्वप्न को साकार करने की कला सीखे बिना
आने वाले कल को सपनों में सजा लेते हैं लोग
एक भी अन्याय का करते नहीं तन कर विरोध
खुद को कालीनों की शैली में बिछा लेते हैं लोग
चाल चलने से अगर हो ‘मात’ की संभावना
राजनैतिक दुश्मनों से भी निभा लेते हैं लोग
आज ये फल चख लिया, कल दूसरा फल चख लिया,
अपनी इस आवारगी का भी मजा लेते हैं लोग
इस तरह अपराध करते हैं कि गायब हो गवाह
न्याय घर में शक का पूरा फायदा लेते हैं लोग
जो पेड़ मेरे पिता ने कभी लगाया था
जो पेड़, मेरे पिता ने कभी लगाया था
पिता के बाद पिता— सा ही उसका साया था
ये दर्पणों के अलावा न कोई देख सका
स्वयं सँवरते हुए रूप कब लजाया था
गगन है मन में मेरे, ये गगन को क्या मालूम
ये प्रश्न, झील की आँखों में झिलमिलाया था
तुम्हारा गीत, तुम्हारा नहीं रहा अब तो
तुम्हारा गीत, करोड़ों स्वरों ने गाया था
मुझे वो लगने लगा अंगरक्षकों की तरह
जो हर समय मेरी परछाईं में समाया था
इसीलिए मैं गुलाबों की कद्र करता हूँ
गुलाब, काँटों में घिर कर भी मुस्कुराया था
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
होती है तेरे नाम से वहशत कभी-कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी
ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-ए-आफ़रीन
दिल बन गया है दोस्त की ख़िल्वत कभी-कभी
दिल को कहाँ नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़यानियों के साथ
अश्कों में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी
तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमईन न था
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी-कभी
कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी-कभी
ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मुहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी
हुस्न को दिल में छुपा कर देखो
हुस्न को दिल में छुपा कर देखो
ध्यान की शमा जला कर देखो
क्या खबर कोई दफीना मिल जाये
कोई दीवार गिरा कर देखो
फाख्ता चुप है बड़ी देर से क्यूँ
सरो की शाख हिला कर देखो
नहर क्यूँ सो गई चलते-चलते
कोई पत्थर ही गिरा कर देखो
दिल में बेताब हैं क्या-क्या मंज़र
कभी इस शहर में आ कर देखो
इन अंधेरों में किरन है कोई
शबज़दों आंख उठाकर देखो
सफ़र-ए-मन्ज़िल-ए-शब याद नहीं
सफ़र-ए-मन्ज़िल-ए-शब याद नहीं
लोग रुख़्सत हुये कब याद नहीं
दिल में हर वक़्त चुभन रहती थी
थी मुझे किस की तलब याद नहीं
वो सितारा थी के शबनम थी के फूल
इक सूरत थी अजब याद नहीं
ऐसा उलझा हूँ ग़म-ए-दुनिया में
एक भी ख़्वाब-ए-तरब याद नहीं
भूलते जाते हैं माज़ी के दयार
याद आयें भी तो सब याद नहीं
ये हक़ीक़त है के अहबाब को हम
याद ही कब थे के अब याद नहीं
याद है सैर-ए-चराग़ाँ "नासिर"
दी के बुझने का सबब याद नहीं
वो साहिलों पे गाने वाले क्या हुए
वो साहिलों पे गाने वाले क्या हुए
वो कश्तियाँ जलाने वाले क्या हुए
वो सुबह आते-आते रह गई कहाँ
जो क़ाफ़िले थे आने वाले क्या हुए
मैं जिन की राह देखता हूँ रात भर
वो रौशनी दिखाने वाले क्या हुए
ये कौन लोग हैं मेरे इधर-उधर
वो दोस्ती निभाने वाले क्या हुए
इमारतें तो जल के राख हो गईं
इमारतें बनाने वाले क्या हुए
ये आप-हम तो बोझ हैं ज़मीन के
ज़मीं का बोझ उठाने वाले क्या हुए
वो दिल नवाज़ है नज़र शनास नहीं
वो दिल नवाज़ है लेकिन नज़र-शनास नहीं
मेरा इलाज मेरे चारागर के पास नहीं
तड़प रहे हैं ज़बाँ पर कई सवाल मगर
मेरे लिये कोई शयान-ए-इल्तमास नहीं
तेरे उजालों में भी दिल काँप-काँप उठता है
मेरे मिज़ाज को आसूदगी भी रास नहीं
कभी-कभी जो तेरे क़ुर्ब में गुज़ारे थे
अब उन दिनों का तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
गुज़र रहे हैं अजब मर्हलों से दीदा-ओ-दिल
सहर की आस तो है ज़िन्दगी की आस नहीं
मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाये
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं
ये भी क्या शाम-ए-मुलाक़ात आई
ये भी क्या शाम-ए-मुलाक़ात आई
लब पे मुश्किल से तेरी बात आई
सुबह से चुप हैं तेरे हिज्र नसीब
हाय क्या होगा अगर रात आई
बस्तियाँ छोड़ के बरसे बादल
किस क़यामत की ये बरसात आई
कोई जब मिल के हुआ था रुख़सत
दिल-ए-बेताब वही रात आई
साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ में 'नासिर'
एक से एक नई रात आई
मुसलसल बेकली दिल को रही है
मुसलसल बेकली दिल को रही है
मगर जीने की सूरत तो रही है
मैं क्यूँ फिरता हूँ तन्हा मारा-मारा
ये बस्ती चैन से क्यों सो रही है
चल दिल से उम्मीदों के मुसाफ़िर
ये नगरी आज ख़ाली हो रही है
न समझो तुम इसे शोर-ए-बहाराँ
ख़िज़ाँ पत्तों में छुप के रो रही है
हमारे घर की दीवारों पे "नासिर"
उदासी बाल खोले सो रही है
मुमकिन नहीं मता-ए-सुख़न
मुमकिन नहीं मता-ए-सुख़न मुझ से छीन ले
गो बाग़बाँ ये कंज-ए-चमन मुझ से छीन ले
गर एहतराम-ए-रस्म-ए-वफ़ा है तो ऐ ख़ुदा
ये एहतराम-ए-रस्म-ए-कोहन मुझ से छीन ले
मंज़र दिल-ओ-निगाह के जब हो गये उदास
ये बे-फ़ज़ा इलाक़ा-ओ-तन मुझ से छीन ले
गुलरेज़ मेरी नालाकशी से है शाख़-शाख़
गुलचीँ का बस चले तो ये फ़न मुझ से छीन ले
सींची हैं दिल के ख़ून से मैं ने ये क्यारियाँ
किस की मजाल मेरा चमन मुझ से छीन
फिर सावन रुत की पवन चली
फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आये
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी तुम याद आये
फिर कुँजें बोलीं घास के हरे समन्दर में
रुत आई पीले फूलों की तुम याद आये
फिर कागा बोला घर के सूने आँगन में
फिर अम्रत रस की बूँद पड़ी तुम याद आये
पहले तो मैं चीख़ के रोया फिर हँसने लगा
बादल गरजा बिजली चमकी तुम याद आये
दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आये
फिक्र-ए-तामीर-ए-आशियाँ भी है
फिक्र-ए-तामीर-ए-आशियाँ भी है
खौफ-ए-बे माहरी-ए-खिजाँ भी है
खाक भी उड़ रही है रास्तों में
आमद-ए-सुबह-ए-समाँ भी है
रंग भी उड़ रहा है फूलों का
गुंचा-गुंचा सर्द-फसाँ भी है
ओस भी है कहीं-कहीं लरज़ाँ
बज़्म-ए-अंजुमन धुआँ-धुआँ भी है
कुछ तो मौसम भी है ख़याल अंगेज़
कुछ तबियत मेरी रवाँ भी है
कुछ तेरा हुस्न भी है होश-रुबा
कुछ मेरी शौकी-ए-बुताँ भी है
हर नफ्स शौक भी है मंजिल का
हर कदम याद-ए-रफ्तुगाँ भी है
वजह-ए-तस्कीं भी है ख़याल उसका
हद से बढ़ जाये तो गिराँ भी है
ज़िन्दगी जिस के दम से है नासिर
याद उसकी अज़ाब-ए-जाँ भी है
नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कहीं
नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कहीं
तू भी दिल से उतर न जाये कहीं
आज देखा है तुझे देर के बाद
आज का दिन गुज़र न जाये कहीं
न मिला कर उदास लोगों से
हुस्न तेरा बिखर न जाये कहीं
आरज़ू है के तू यहाँ आये
और फिर उम्र भर न जाये कहीं
जी जलाता हूँ और ये सोचता हूँ
रायेगाँ ये हुनर न जाये कहीं
आओ कुछ देर रो ही लें "नासिर"
फिर ये दरिया उतर न जाये कहीं
कुछ न सुनो तो बेहतर है
"नासिर" क्या कहता फिरता है कुछ न सुनो तो बेहतर है
दीवाना है दीवाने के मुँह न लगो तो बेहतर है
कल जो था वो आज नहीं जो आज है कल मिट जायेगा
रूखी-सूखी जो मिल जाये शुक्र करो तो बेहतर है
कल ये ताब-ओ-तवाँ न रहेगी ठंडा हो जायेगा लहू
नाम-ए-ख़ुदा हो जवाँ अभी कुछ कर गुज़रो तो बेहतर है
क्या जाने क्या रुत बदले हालात का कोई ठीक नहीं
अब के सफ़र में तुम भी हमारे साथ चलो तो बेहतर है
कपड़े बदल कर बाल बना कर कहाँ चले हो किस के लिये
रात बहुत काली है "नासिर" घर में रहो तो बेहतर है
नये कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ
नये कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिये
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया अब ख़ाक उड़ाऊँ किस के लिये
जिस धूप की दिल को ठंडक थी वो धूप उसी के साथ गई
इन जलती बुझती गलियों में अब ख़ाक उड़ाऊँ किस के लिये
वो शहर में था तो उस के लिये औरों से मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिये
अब शहर में इस का बादल ही नहीं कोई वैसा जान-ए-ग़ज़ल ही नहीं
ऐवान-ए-ग़ज़ल में लफ़्ज़ों के गुलदान सजाऊँ किस के लिये
मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में "नासिर" अब शम्मा जलाऊँ किस के लिये
दुख की लहर ने छेड़ा होगा
दुख की लहर ने छेड़ा होगा
याद ने कंकड़ फेंका होगा
आज तो मेरा दिल कहता है
तू इस वक़्त अकेला होगा
मेरे चूमे हुए हाथों से
औरों को ख़त लिखता होगा
भीग चलीं अब रात की पलकें
तू अब थक कर सोया होगा
रेल की गहरी सीटी सुन कर
रात का जंगल गूँजा होगा
शहर के ख़ाली स्टेशन पर
कोई मुसाफ़िर उतरा होगा
आँगन में फिर चिड़ियाँ बोलें
तू अब सो कर उठा होगा
यादों की जलती शबनम से
फूल सा मुखड़ा धोया होगा
मोती जैसी शक़्ल बनाकर
आईने को तकता होगा
शाम हुई अब तू भी शायद
आपने घर को लौटा होगा
नीली धुंधली ख़ामोशी में
तारों की धुन सुनता होगा
मेरा साथी शाम का तारा
तुझ से आँख मिलाता होगा
शाम के चलते हाथ ने तुझ को
मेरा सलाम तो भेजा होगा
प्यासी कुर्लाती कून्जूँ ने
मेरा दुख तो सुनाया होगा
मैं तो आज बहुत रोया हूँ
तू भी शायद रोया होगा
"नासिर" तेरा मीत पुराना
तुझ को याद तो आता होगा
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी
शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी
याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी
शहर की बेचिराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझ को ढूँढती है अभी
सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी
दिल धड़कने का सबब याद आया
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया
आज मुश्किल था सम्भलना ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया
तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में "नासिर"
हम बहुत रोये वो जब याद आया
दयार-ए-दिल की रात में
दयार-ए-दिल की रात में चिराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक़्ल तो दिखा गया
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिये
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
ये सुबह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देख़ता हूँ मैं कहाँ चला गया
पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गई वो सोहबतें
ज़मीं निगल गई उन्हें या आसमान खा गया
वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी-छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया
ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ समा गया
गये दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
उठो अमलकशो उठो कि आफ़ताब सर पे आ गया
तेरे मिलने को बेकल हो गये हैं
तेरे मिलने को बेकल हो गये हैं
मगर ये लोग पागल हो गये हैं
बहारें लेके आये थे जहाँ तुम
वो घर सुनसान जंगल हो गये हैं
यहाँ तक बढ़ गये आलाम-ए-हस्ती
कि दिल के हौसले शल हो गये हैं
कहाँ तक ताब लाये नातवाँ दिल
कि सदमे अब मुसलसल हो गये हैं
निगाह-ए-यास को नींद आ रही है
मुसर्दा पुरअश्क बोझल हो गये हैं
उन्हें सदियों न भूलेगा ज़माना
यहाँ जो हादसे कल हो गये हैं
जिन्हें हम देख कर जीते थे "नासिर"
वो लोग आँखों से ओझल हो गये हैं
तेरे ख़याल से लौ दे उठी है तनहाई
तेरे ख़याल से लौ दे उठी है तनहाई
शब-ए-फ़िराक़ है या तेरी जल्वाआराई
तू किस ख़याल में है ऐ मंज़िलों के शादाई
उन्हें भी देख जिन्हें रास्ते में नींद आई
पुकार ऐ जरस-ए-कारवाँ-ए-सुबह-ए-तरब
भटक रहे हैं अँधेरों में तेरे सौदाई
राह-ए-हयात में कुछ मर्हले तो देख लिये
ये और बात तेरी आरज़ू न रास आई
ये सानिहा भी मुहब्बत में बारहा गुज़रा
कि उस ने हाल भी पूछा तो आँख भर आई
फिर उस की याद में दिल बेक़रार है "नासिर"
बिछड़ के जिस से हुई शहर-शहर रुसवाई
तू है या तेरा साया है
तू है या तेरा साया है
भेस जुदाई ने बदला है
दिल की हवेली पर मुद्दत से
ख़ामोशी का क़ुफ़्ल पड़ा है
चीख़ रहे हैं ख़ाली कमरे
शाम से कितनी तेज़ हवा है
दरवाज़े सर फोड़ रहे हैं
कौन इस घर को छोड़ गया है
हिचकी थमती ही नहीं 'नासिर'
आज किसी ने याद किया है
थोड़ा ग़म भी उठा प्यारे
तन्हा इश्क के ख़्वाब न बुन
कभी हमारी बात भी सुन
थोड़ा ग़म भी उठा प्यारे
फूल चुने हैं ख़ार भी चुन
सुख़ की नींदें सोने वाले
मरहूमी के राग भी सुन
तन्हाई में तेरी याद
जैसे एक सुरीली धुन
जैसे चाँद की ठंडी लौ
जैसे किरणों कि कन मन
जैसे जल-परियों का ताज
जैसे पायल की छन छन
ज़िन्दगी को न बना दें वो सज़ा मेरे बाद
ज़िन्दगी को न बना दें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद
कौन घूंघट उठाएगा सितमगर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद
हाथ उठते हुए उनके न देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद
फिर ज़माना-ए-मुहब्बत की न पुरसिश होगी
रोएगी सिसकियाँ ले-ले के वफ़ा मेरे बाद
वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूं
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद
ज़बाँ सुख़न को, सुख़न बाँकपन को तरसेगा
ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा
सुख़नकदा मेरी तर्ज़-ए-सुख़न को तरसेगा
नये प्याले सही तेरे दौर में साक़ी
ये दौर मेरी शराब-ए-कोहन को तरसेगा
मुझे तो ख़ैर वतन छोड़ के अमन न मिली
वतन भी मुझ से ग़रीब-उल-वतन को तरसेगा
उन्हीं के दम से फ़रोज़ाँ हैं मिल्लतों के चराग़
ज़माना सोहबत-ए-अरबाब-ए-फ़न को तरसेगा
बदल सको तो बदल दो ये बाग़बाँ वरना
ये बाग़ साया-ए-सर्द-ओ-समन को तरसेगा
हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना एक दिन
ज़मीं पानी को सूरज किरन को तरसेगा
गिरिफ़्ता-दिल हैं बहुत
गिरिफ़्ता-दिल हैं बहुत आज तेरे दीवाने
ख़ुदा करे कोई तेरे सिवा न पहचाने
मिटी-मिटी सी उम्मीदें थके-थके से ख़याल
बुझे-बुझे से निगाहों में ग़म के अफ़साने
हज़ार शुक्र के हम ने ज़ुबाँ से कुछ न कहा
ये और बात के पूछा न अहल-ए-दुनिया ने
बक़द्र-ए-तश्नालबी पुर्सिश-ए-वफ़ा न हुई
छलक के रह गये तेरी नज़र के पैमाने
ख़याल आ गया मायूस रहगुज़ारों का
पलट के आ गये मंज़िल से तेरे दीवाने
कहाँ है तू के तेरे इंतज़ार में ऐ दोस्त
तमाम रात सुलगते रहे दिल के वीराने
उम्मीद-ए-पुर्सिश-ए-ग़म किस से कीजिये "नासिर"
जो मेरे दिल पे गुज़रती है कोई क्या जाने
गये दिनों का सुराग़ लेकर
गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
ख़ुशी की रुत हो के ग़म का मौसम नज़र उसे ढूँढती है हर दम
वो बू-ए-गुल था के नग़्मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो
वो मयकदे को जगानेवाला वो रात की नींद उड़ानेवाला
न जाने क्या उस के जी में आई कि शाम होते ही घर गया वो
कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी बदल चला रंग-ए-आस्माँ भी
जो रात भारी थी टल गई है जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो
शिकस्त पा राह में खड़ा हूँ गये दिनों को बुला रहा हूँ
जो क़ाफ़िला मेरा हमसफ़र था मिस्ल-ए-गर्द-ए-सफ़र गया वो
बस एक मंज़िल है बुलहवस की हज़ार रास्ते हैं अहल-ए-दिल के
ये ही तो है फ़र्क़ मुझ में उस में गुज़र गया मैं ठहर गया वो
वो जिस के शाने पे हाथ रख कर सफ़र किया तूने मंज़िलों का
तेरी गली से न जाने क्यूँ आज सर झुकाये गुज़र गया वो
वो हिज्र कि रात का सितारा वो हमनफ़स हमसुख़न हमारा
सदा रहे उस का नाम प्यारा सुना है कल रात मर गया वो
बस एक मोती सी छब दिखाकर बस एक मीठी सी धुन सुना कर
सितारा-ए-शाम बन के आया बरंग-ए-ख़याल-ए-सहर गया वो
न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो
वो रात का बेनवा मुसाफ़िर वो तेरा शायर वो तेरा "नासिर"
तेरी गली तक तो हम ने देखा फिर न जाने किधर गया वो
कौन इस राह से गुज़रता है
कौन इस राह से गुज़रता है
दिल यूँ ही इंतज़ार करता है
देख कर भी न देखने वाले
दिल तुझे देख-देख डरता है
शहर-ए-गुल में कटी है सारी रात
देखिये दिन कहाँ गुज़रता है
ध्यान की सीढ़ियों पे पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है
दिल तो मेरा उदास है "नासिर"
शहर क्यों सायँ-सायँ करता है
कुछ यादगार-ए-शहर-ए-सितमगर ही ले चलें
कुछ यादगार-ए-शहर-ए-सितमगर ही ले चलें
आये हैं इस गली में तो पत्थर ही ले चलें
यूँ किस तरह कटेगा कड़ी धूप का सफ़र
सर पर ख़याल-ए-यार की चादर ही ले चलें
रंज-ए-सफ़र की कोई निशानी तो पास हो
थोड़ी सी ख़ाक-ए-कूचा-ए-दिलबर ही ले चलें
ये कह के छेड़ती है हमें दिलगिरफ़्तगी
घबरा गये हैं आप तो बाहर ही ले चलें
इस शहर-ए-बेचराग़ में जायेगी तू कहाँ
आ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें
कुछ तो एहसास-ए-ज़ियाँ था पहले
कुछ तो एहसास-ए-ज़ियाँ था पहले
दिल का ये हाल कहाँ था पहले
अब तो मन्ज़िल भी है ख़ुद गर्म-ए-सफ़र
हर क़दम संग-ए-निशाँ था पहले
सफ़र-ए-शौक़ के फ़रसंग न पूछ
वक़्त बेक़ैद-ए-मकाँ था पहले
ये अलग बात कि ग़म रास है अब
इस में अंदेशा-ए-जाँ था पहले
यूँ न घबराये हुये फिरते थे
दिल अजब कुंज-ए-अमाँ था पहले
अब भी तू पास नहीं है लेकिन
इस क़दर दूर कहाँ था पहले
डेरे डाले हैं बगुलों ने जहाँ
उस तरफ़ चश्म-ए-रवाँ था पहले
अब वो दरिया न बस्ती न वो लोग
क्या ख़बर कौन कहाँ था पहले
हर ख़राबा ये सदा देता है
मैं भी आबाद मकाँ था पहले
क्या से क्या हो गई दुनिया प्यारे
तू वहीं पर है जहाँ था पहले
हम ने आबाद किया मुल्क-ए-सुख़न
कैसा सुनसान समाँ था पहले
हम ने बख़्शी है ख़मोशी को ज़ुबाँ
दर्द मजबूर-ए-फ़ुग़ाँ था पहले
हम ने रोशन किया मामूर-ए-ग़म
वरना हर सिम्त धुआँ था पहले
ग़म ने फिर दिल को जगाया "नासिर"
ख़ानाबरबाद कहाँ था पहले
किसे देखें कहाँ देखा न जाये
किसे देखें कहाँ देखा न जाये
वो देखा है जहाँ देखा न जाये
मेरी बरबादियों पर रोने वाले
तुझे महव-ए-फुगाँ देखा न जाये
सफ़र है और गुरबत का सफ़र है
गम-ए-सद-कारवाँ देखा न जाये
कहीं आग और कहीं लाशों के अंबार
बस ऐ दौर-ए-ज़मीँ देखा न जाये
दर-ओ-दीवार वीराँ, शमा मद्धम
शब-ओ-गम का सामाँ देखा न जाये
पुरानी सुहब्बतें याद आती है
चरागों का धुआँ देखा न जाये
भरी बरसात खाली जा रही है
सराबर-ए-रवाँ देखा न जाये
कहीं तुम और कहीं हम, क्या गज़ब है
फिराक-ए-जिस्म-ओ-जाँ देखा न जाये
वही जो हासिल-ए-हस्ती है नासिर
उसी को मेहरबाँ देखा न जाये
किसी कली ने भी देखा न
किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
गुज़र गई जरस-ए-गुल उदास कर के मुझे
मैं सो रहा था किसी याद के शबिस्ताँ में
जगा के छोड़ गये क़ाफ़िले सहर के मुझे
मैं रो रहा था मुक़द्दर की सख़्त राहों में
उड़ा के ले गया जादू तेरी नज़र का मुझे
मैं तेरी दर्द की तुग़ियानियों में डूब गया
पुकारते रहे तारे उभर-उभर के मुझे
तेरे फ़िराक़ की रातें कभी न भूलेंगी
मज़े मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे
ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ ग़म-ए-दुनिया
बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे
फिर आज आई थी इक मौज-ए-हवा-ए-तरब
सुना गई है फ़साने इधर-उधर के मुझे
कितना काम करेंगे
कितना काम करेंगे
अब आराम करेंगे
तेरे दिये हुए दुख
तेरे नाम करेंगे
अहल-ए-दर्द ही आख़िर
ख़ुशियाँ आम करेंगे
कौन बचा है जिसे वो
ज़ेर-ए-दाम करेंगे
नौकरी छोड़ के "नासिर"
अपना काम करेंगे
करता उसे बेकरार कुछ देर
करता उसे बेकरार कुछ देर
होता अगर इख्तियार कुछ देर
क्या रोयें फ़रेब-ए-आसमाँ को
अपना नहीं ऐतबार कुछ देर
आँखों में कटी पहाड़ सी रात
सो जा दिल-ए-बेक़रार कुछ देर
ऐ शहर-ए-तरब को जाने वालों
करना मेरा इंतजार कुछ देर
बेकैफी-ए-रोज़-ओ-शब मुसलसल
सरमस्ती-ए-इंतज़ार कुछ देर
तकलीफ-ए-गम-ए-फिराक दायम
तकरीब-ए-विसाल-ए-यार कुछ देर
ये गुंचा-ओ-गुल हैं सब मुसाफिर
है काफिला-ए-बहार कुछ देर
दुनिया तो सदा रहेगी नासिर
हम लोग हैं यादगार कुछ देर
आराइश-ए-ख़याल भी हो
आराइश-ए-ख़याल भी हो दिलकुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो
ये क्या के रोज़ एक सा ग़म एक सी उम्मीद
इस रंज-ए-बेख़ुमार की अब इंतहा भी हो
ये क्या के एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र
जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो
टूटे कभी तो ख़्वाब-ए-शब-ओ-रोज़ का तिलिस्म
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो
दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों
घर भी हो और बे-दर-ओ-दीवार सा भी हो
जुज़ दिल कोई मकान नहीं दहर में जहाँ
रहज़न का ख़ौफ़ भी न रहे दर खुला भी हो
हर ज़र्रा एक महमील-ए-इब्रत है दश्त का
लेकिन किसे दिखाऊँ कोई देखता भी हो
हर शय पुकारती है पस-ए-पर्दा-ए-सुकूत
लेकिन किसे सुनाऊँ कोई हमनवा भी हो
फ़ुर्सत में सुन शगुफ़्तगी-ए-ग़ुंचा की सदा
ये वो सुख़न नहीं जो किसी ने कहा भी हो
बैठा है एक शख़्स मेरे पास देर से
कोई भला-सा हो तो हमें देखता भी हो
बज़्म-ए-सुख़न भी हो सुख़न-ए-गर्म के लिये
ताऊस बोलता हो तो जंगल हरा भी हो
आज तो बेसबब उदास है जी
आज तो बेसबब उदास है जी
इश्क़ होता तो कोई बात भी थी
जलता फिरता हूँ क्यूँ दो-पहरों में
जाने क्या चीज़ खो गई मेरी
वहीं फिरता हूँ मैं भी ख़ाक बसर
इस भरे शहर में है एक गली
छुपता फिरता है इश्क़ दुनिया से
फैलती जा रही है रुसवाई
हमनशीं क्या कहूँ के वो क्या है
छोड़ ये बात नींद उड़ने लगी
आज तो वो भी कुछ ख़ामोश सा था
मैं ने भी उस से कोई बात न की
एक दम उस के हाथ चूम लिये
ये मुझे बैठे-बैठे क्या सूझी
तू जो इतना उदास है "नासिर"
तुझे क्या हो गया बता तो सही
अपनी धुन में रहता हूँ
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ
तेरी गली में सारा दिन
दुख के कंकर चुनता हूँ
मुझ से आँख मिलाये कौन
मैं तेरा आईना हूँ
मेरा दिया जलाये कौन
मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ
तू जीवन की भरी गली
मैं जंगल का रस्ता हूँ
अपनी लहर है अपना रोग
दरिया हूँ और प्यासा हूँ
आती रुत मुझे रोयेगी
जाती रुत का झोंका हूँ
रौनकें थीं जहाँ में क्या-क्या कुछ
रौनकें थीं जहाँ में क्या-क्या कुछ
लोग थे रफ़्तगाँ में क्या-क्या कुछ
अबकी फ़स्ल-ए-बहार से पहले
रंग थे गुलसिताँ में क्या-क्या कुछ
क्या कहूँ अब तुम्हें खिज़ाँ वालो
जल गया आशियाँ में क्या-क्या कुछ
दिल तिरे बाद सो गया वरना
शोर था इस मकाँ में क्या-क्या कुछ
क़हर से देख न हर आन मुझे
क़हर से देख न हर आन मुझे
आँख रखता है तो पहचान मुझे
यकबयक आके दिखा दो झमकी
क्यों फिराते हो परेशान मुझे
एक से एक नयी मंजिल में
लिए फिरता है तिरा ध्यान मुझे
सुन के आवाज-ए-गुल कुछ न सुना
बस उसी दिन से हुए कान मुझे
जी ठिकाने नहीं जब से ‘नासिर’
शहर लगता है बयाबान मुझे
ख़त्म हुआ तारों का राग
ख़त्म हुआ तारों का राग
जाग मुसाफ़िर अब तो जाग
धूप की जलती तानों से
दश्त-ए-फ़लक1 में लग गई आग
दिन का सुनहरा नग्मा सुनकर
अबलक़-ए-शब2 ने मोड़ी बाग
कलियाँ झुलसी जाती हैं
सूरज फेंक रहा है आग
ये नगरी अँधियारी है
इस नगरी से जल्दी भाग
रंग बरसात ने भरे कुछ तो
रंग बरसात ने भरे कुछ तो
ज़ख़्म दिल के हुए हरे कुछ तो
फुर्सत-ए-बेखुदी1 ग़नीमत है
गर्दिशें हो गयीं परे कुछ तो
कितने शोरीदा-सर2 थे परवाने
शाम होते ही जल मरे कुछ तो
ऐसा मुश्किल नहीं तिरा मिलना
दिल मगर जुस्तजू करे कुछ तो
आओ ‘नासिर’ कोई ग़ज़ल छेड़ें
जी बहल जाएगा अरे कुछ तो
पहुँचे गोर किनारे हम
पहुँचे गोर किनारे हम
बस ग़म-ए-दौराँ हारे हम
सब कुछ हार के रस्ते में
बैठ गए दुखियारे हम
हर मंजिल से गुज़रे हैं
तेरे ग़म के सहारे हम
देख ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-दोस्त
बाज़ी जीत के हारे हम
आँख का तारा आँख में है
अब न गिनेंगे तारे हम
आँखों में हैं दुख भरे फ़साने
आँखों में हैं दुख भरे फ़साने
रोने के फिर आ गये ज़माने
फिर दर्द ने आज राग छेड़ा
लौट आये वही समय पुराने
फिर चाँद को ले गयीं हवाएँ
फिर बाँसुरी छेड़ दी सबा ने
रस्तों में उदास खुशबुओं के
फूलों ने लुटा दिये ख़जाने
कौन इस राह से गुज़रता है
कौन इस राह से गुज़रता है
दिल यूँ ही इंतज़ार करता है
देख कर भी न देखने वाले
दिल तुझे देख-देख डरता है
शहर-ए-गुल में कटी है सारी रात
देखिये दिन कहाँ गुज़रता है
ध्यान की सीढ़ियों पे पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है
दिल तो मेरा उदास है "नासिर"
शहर क्यों सायँ-सायँ करता है
जब से देखा है तिरे हाथ का चांद
जब से देखा है तिरे हाथ का चांद
मैंने देखा ही नहीं रात का चांद
जुल्फ़-ए-शबरंग के सद राहों में
मैंने देखा है तिलिस्मात का चांद
रस कहीं, रूप कहीं, रंग कहीं
एक जादू है ख़यालात का चांद
इश्क़ में जीत हुई या मात
इश्क़ में जीत हुई या मात
आज की रात न छेड़ ये बात
यूँ आया वो जान-ए-बहार
जैसे जग में फैले बात
रंग, खुले सहरा2 की धूप
ज़ुल्फ़ घने जंगल की रात
कुछ न सुना और कुछ न कहा
दिल में रह गयी दिल की बात
यार की नगरी कोसों दूर
कैसे कटेगी भारी रात
बस्ती वालों से छुपकर
रो लेते हैं पिछली रात
सन्नाटों में सुनते हैं
सुनी-सुनाई कोई बात
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
होती है तेरे नाम से वहशत कभी-कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी
ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-ए-आफ़रीन
दिल बन गया है दोस्त की ख़िल्वत कभी-कभी
दिल को कहाँ नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़यानियों के साथ
अश्कों में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी
तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमईन न था
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी-कभी
कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी-कभी
ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मुहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी