दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा
विपिन बीच विहंगम वृंद का
कल निनाद विवर्धित था हुआ
ध्वनिमयी विविधा विहगावली
उड़ रही नभ मंडल मध्य थी
अधिक और हुई नभ लालिमा
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
सकल पादप पुंज हरीतिमा
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई
झलकते पुलिनो पर भी लगी
गगन के तल की वह लालिमा
सरित और सर के जल में पड़ी
अरुणता अति ही रमणीय थी।।
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
किरण पादप शीश विहारिणी
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।
ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
कलित कानन केलि निकुंज को
मुरलि एक बजी इस काल ही
तरणिजा तट राजित कुंज में।।
सोमवार, अप्रैल 20, 2009
संध्या - अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
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